राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 6 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शनिवार, 10 जुलाई 2021

राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 6

 हिन्द व मनोज  Vs. विजय पाकेट बुक्स


आप सौ परसेन्ट एक ईमानदार और सच्चे इन्सान हैं। वफ़ादार और अच्छे इन्सान हैं, लेकिन कभी कभी वक़्त आपके खिलाफ हो जाता है और जब वक़्त आपके खिलाफ हो, आपकी ईमानदारी में दूसरे को बेईमानी नज़र आती है। सच्चाई में झूठ नज़र आता है। ऐसे समय कोई सफाई देना या अपने अज़ीज़ को यह समझाना कि आप ईमानदार हैं, सच्चे हैं, शुभचिन्तक हैं, दोस्त हैं, सब बेकार होता है। ऐसे समय खामोश रह जाना ही सबसे उत्तम कदम होता है। 


यह सब मैं इसलिये बता रहा हूँ, क्योंकि जो-जो लोग, मेरी पीठ पीछे भी हमेशा मेरी तारीफ करते थे, सराहना करते थे - राजहंस और हिन्द - मनोज के विजय पाकेट बुक्स से विवाद में एकदम अकारण मुझे शक की निगाहों से देखने लगे थे। हालांकि बाद में, मैं उन सबके लिए भी वही पहले वाला प्यारा-दुलारा योगेश मित्तल बन गया था, लेकिन कुछ समय तक मुझे कड़वाहटें, जिल्लतें और उपेक्षा भी सहनी पड़ी थी। 


विजय पाकेट बुक्स में वासुदेव और हरविन्दर से भारती साहब ने उन्हीं दिनों मेरा प्रथम परिचय कराया था। बाद में तो हम कई बार मिले, पर उस रोज भी वासुदेव और हरविन्दर बहुत मुहब्बत से मिले। हाथ पकड़ कर वासुदेव ने कई बार हाथ हिलाया। उसने यह भी कहा -"आपका नाम तो कई बार सुना था। मिलने का अवसर पहली बार मिला है।"


हरविन्दर ने भी हाथ मिलाया, पर सहज अन्दाज़ में मुस्कुराते हुए हाथ मिलाकर छोड़ दिया। 


विजय कुमार मलहोत्रा उस समय एक साइड में खड़े, इन्देश्वर जोशी से पहले से, विजय पाकेट बुक्स में काम कर रहे पैकर को, वासुदेव, हरविन्दर, सावन और मीनू वालिया की पुरानी सभी किताबों के दो-दो बण्डल निकाल कर कार की डिकी में रखने का आदेश दे रहे थे। उस समय मुझे विजय कुमार मलहोत्रा के उस आदेश का मतलब समझ में नहीं आया था, पर बाद में सब पता चल गया था।  


वे सारी किताबें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए निकलवाई जा रही थीं। दरअसल विजय कुमार मलहोत्रा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हमेशा राजहंस की किताबों की बिक्री पर ही ज्यादा जोर देते रहे थे, लेकिन अब उन्हें समझ आ गया था कि उन्हें अपने सभी लेखकों पर बराबर का जोर लगाना चाहिए था। 


उस समय विजय कुमार मलहोत्रा की पीठ मेरी तरफ थी। अपने वर्कर को सब कुछ समझाने के बाद जैसे ही वह पलटे, उनकी नज़र मुझपर पड़ी और छूटते ही वह बोले - "ये मनोज का जासूस कब आया?"


मुझे काटो तो खून नहीं। 


भारती साहब भी एकदम सकपका गये। मुझे वह अपने साथ लेकर आये थे और उनकी नज़र में मेरी बेइज्जती उनकी ही बेइज्जती थी। 


सिर्फ एक क्षण की खामोशी के बाद राज भारती जी हल्की सी मुस्कुराहट के साथ एकदम बोले -"नहीं-नहीं, योगेश के बारे में आप ऐसा नहीं कह सकते।"


"अच्छा...।" विजय कुमार मलहोत्रा भारती साहब से बोले - "तू योगेश से ही पूछ ले। जिस दिन पिछली बार यहाँ आया था, उसके अगले ही दिन हमारी सारी बातें बताने के लिए राज और गौरी के साथ-साथ घूम रहा था। शक्तिनगर से दरीबे तक भी साथ-साथ गया था। बोल योगेश गया था कि नहीं...?"


मेरे मुंह से बोल न फूटा। झूठ बोलने की आदत नहीं थी। सिर झुक गया। भारती साहब मुझे ही देख रहे थे। उन्होंने मेरा सिर झुका देख, समझ लिया कि मैं मनोज में गया था, पर बात सम्भालने के लिए वह बोले - "वहाँ नावल देने गया होगा। है ना योगेश...?"


मैंने सिर उठाया और इन्कार में सिर हिला दिया, पर अपमान की अनुभूति से मेरी आँखों में आँसू आ गये थे।


"देख ले, यह खुद कह रहा है कि नॉवेल देने नहीं गया था, फिर किसलिये गया था - यहाँ की बातें बताने ही गया होगा।" विजय कुमार मलहोत्रा बोले।


"आप मुझ पर गलत शक कर रहे हैं।" बड़ी मुश्किल से मेरे होंठों से लरज़ता-थरथराता स्वर निकला। न केवल अपमान से, बल्कि गुस्से के कारण भी मेरी सांसें फूलने-पिचकने लगीं थीं। वैसे भी मैं बचपन से... आठ साल की उम्र से दमे का रेगुलर मरीज़ था।


"ठीक है, तू ही बता दे, सही क्या है? क्यों गया था 'मनोज'? किस काम से गया था?" विजय कुमार मलहोत्रा ने गम्भीर स्वर में पूछा। 


"किसी काम से नहीं, यूँ ही गया था। मैं अक्सर बिना काम के भी 'मनोज' में जाता रहता हूँ।" मैं कुछ अनमने और कुछ चिढ़े भाव से बोला। 


विजय पाकेट बुक्स में मैं बहुत बार आया गया था, विजय जी का व्यवहार सदैव मेरे साथ प्रेमपूर्ण - सम्मानजनक रहा था। आज अचानक उनके मन में उत्पन्न शक ने मुझे बुरी तरह आहत कर दिया था। 


"सुन ले करतार...।" मेरा जवाब सुनने के बाद विजय कुमार मलहोत्रा भारती साहब से बोले- "योगेश बिना किसी काम के मनोज पाकेट बुक्स में गया था। आजकल जब हमारा मनोज, हिन्द और राजहंस से तनाव चल रहा है। बिना कारण मनोज में जाने का मतलब...?"


"ठीक है, अब यह मनोज में नहीं जायेगा।" भारती साहब बोले -"क्यों योगेश...?"


"मैं ऐसा कोई वादा नहीं करूँगा।" मैंने कहा। अब तक मैं अपने आपको सम्भाल चुका था। मेरे मन में यह भाव आया कि जब मैंने कुछ गलत किया नहीं और सब आज से पहले भी मेरे बारे में बखूबी जानते रहे हैं। सबको मालूम है - मैं अपने काम और व्यवहार में सौ प्रतिशत ईमानदार और सच्चा इन्सान हूँ तो इन सब बातों का मतलब? विजय कुमार मलहोत्रा जी भी मुझसे आज पहली बार नहीं मिल रहे थे। कितनी ही बार मैं भारती साहब और वालिया साहब की गैरमौजूदगी में अकेला भी विजय जी से मिला था। विजय कुमार मलहोत्रा तब अक्सर मुझसे अपनी बेहद पर्सनल बातें भी कर लेते थे और बातें करते हुए अक्सर यह भी कहते थे कि तुझसे बात करके दिल हल्का हो जाता है। और वही विजय कुमार मलहोत्रा आज मुझ पर शक कर रहे थे। शक करने का कारण भी मुझे समझ में आ गया था कि किसी शख्स से उन्हें मेरे मनोज में जाने और राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता के साथ दरीबा कलां जाने की बात मालूम हो गई थी तथा संकट और तनाव के इस काल में उन्हें मनोज पाकेट बुक्स के स्वामियों के साथ मेरी नजदीकियों ने सन्देहाकुल कर दिया था। 


मेरे दो टूक जवाब से कुछ क्षण के लिए वहाँ सन्नाटा-सा छा गया था। सन्नाटा बोझिल होने लगा तो मैंने ही मुंह खोला और भारती साहब से बोला - "मैं जरा पान खाकर आता हूँ।"


"रुक...। पान यहीं इन्देश से मंगा लेते हैं।" भारती साहब बोले। 


"नहीं यार, बड़ी देर से तलब मच रही है।" मैंने कहा। 


"ठीक है जा।" भारती साहब बोले। मैं तुरन्त वहाँ से उठा और बाहर निकल गया। वैसे मेरी आदत थी, मैं पान खाने जब भी बाहर जाता था, महफ़िल में मौजूद सभी लोगों से पूछ लेता था, ताकि और कोई पान खाने वाला हो तो उसके लिए भी पान ले आऊँ। वालिया साहब उस समय तक विजय पाकेट बुक्स में नहीं आये थे। आये होते तो वह तो खुद भी कह देते - 'योगेश जी, एक पान मेरा भी।'


दरअसल मैं बचपन से बड़ा ही आदर्शवादी हुआ करता था और कोई भी तामसी आदत मुझ में नहीं थी, किन्तु कुछ मित्रों की कृपा से एक-एक करके सभी तामसी आदतों को स्वेच्छा से ग्रहण किया था। पर वो किस्सा फिर कभी....। अभी तो यह बताऊँगा कि तम्बाकू का पान खाने की शुरुआत मैंने यशपाल वालिया जी के संसर्ग में ही की थी और शुरुआत कैसे लत बन गई, फिर एक किस्से में बताऊँगा। 


विजय कुमार मलहोत्रा और भारती साहब मेरे तम्बाकू का पान खाने के बारे में जानते थे, किसी ने मुझे पान खाने जाने के लिए नहीं रोका। 


बाहर पहुँच, मैं शीघ्र ही विजय पाकेट बुक्स से दूर पहुँच गया। विजय पाकेट बुक्स के सामने उन दिनों एक चौड़ाई में छोटा, किन्तु लम्बाई में बड़ा पार्क था। मैंने पार्क के दूसरी ओर पहुँच मलकागंज के लिए एक रिक्शा पकड़ा, जिससे किसी की नजर मुझ पर न पड़े। 


रिक्शा शक्तिनगर के लिए न करके, मलकागंज के लिए पकड़ने का कारण यह था कि मलकागंज से तिलकनगर, उत्तमनगर जाने वाली 816 नम्बर की बस बनकर चलती थी । शक्तिनगर के बस स्टाप पर मैं खड़ा नहीं होना चाहता था, इसीलिए मलकागंज का रुख किया था। मलकागंज में बस शीघ्र ही मिल गई। 


रमेशनगर पहुँच पहले मैंने लंच किया, फिर मैं पीछे वाले कमरे में जाकर, बिछी हुई चारपाई पर लेट गया और मन से सारी बातें निकाल कर सो गया। 


दोपहर को सोने की आदत मुझे कभी नहीं रही, लेकिन जब भी दमे का अटैक होता था, दिन भर बिस्तर पर रहना पड़ता था और सोते-जागते ही दिन बीतता था। उस दिन अनमना-सा अन्यमनस्क था और लेटते ही सो गया। 


शाम को मम्मी ने मुझे जगाया।


"वालिया साहब आये हैं...। घर के बाहर ही खड़े तेरा इन्तजार कर रहे हैं।" मम्मी ने कहा। 


"अन्दर नहीं आये...?" मैंने पूछा। 


"नहीं...। मैंने कहा भी तो कहने लगे, जल्दी में हूँ। योगेश जी को बाहर ही भेज दीजिये।" मम्मी बोलीं। 


मैं उठा। बाथरूम जाकर मुंह पर पानी के छींटे मारे। फिर बाल ठीक किये और मकान के सड़क की ओर पड़ने वाले दूसरे रास्ते से बाहर निकला। 


वालिया साहब स्कूटर का रुख वापसी की दिशा में किये, साथ ही खड़े थे। 


मुझे देखते ही बोले - "गुस्सा है अभी... या ठण्डा हो गया?"


"कैसा गुस्सा...?" मैंने पूछा।


"बताता हूँ....। चलो बैठो...।" यशपाल वालिया स्कूटर का स्टेयरिंग सम्भालते हुए बोले - "और योगेश जी, मेरे सामने ज्यादा नाटक करने की जरूरत नहीं है। मुझे पता है - सुबह विजय पाकेट बुक्स से आप बिना किसी को कुछ बताये, भगोड़े की तरह क्यों भाग आये।"


मैं स्कूटर पर बैठते-बैठते रुक गया। 


"बैठो अब....।" वालिया साहब बोले - "या गोद में उठाकर  बैठाऊँ....।"


ऐसे ही थे वालिया साहब। जब वो रौब और गुस्सा दिखाते थे, उनकी बात टाली नहीं जा सकती थी। उनके गुस्से में भी प्यार छिपा होता था। 


"पर चलना कहाँ है?" मैंने पूछा। 


"घर...। आपकी भाभी ने छोले- भठूरे बनाये हैं और स्पेशली मुझे भेजा है कि योगेश जी को बुला कर लाओ।" वालिया साहब बोले। 


अब इन्कार की गुंजाइश नहीं थी। ऐसा पहले भी बहुत बार हो चुका था, जब मीना भाभी घर में कुछ अच्छा बनाती थीं, वालिया साहब को मुझे भी बुलाने के लिए भेज देती थीं। ऐसे में मुझे घर पर खाने के लिए मना करना पड़ता था। मै वालिया साहब से बोला - ठीक है, मम्मी को खाने के लिए मना कर दूं।"


"कर दो...।" वालिया साहब बोले। 


मम्मी को खाने के लिए मना करके मैं वापस आया। स्कूटर पर बैठ वालिया साहब के साथ उनके घर पहुँचा। 


उन दिनों यशपाल वालिया बालीनगर के मकान नम्बर D - 28 के फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। सीढ़ियाँ चढ़कर हम ऊपर पहुँचे। वालिया साहब के बड़े कमरे में पहुँच मैं चौंक गया। वहाँ भारती साहब, एस. सी. बेदी और वालिया साहब के स्कूली टाइम के दोस्त जीवनज्योत बस्सी मौजूद थे, मगर भाभी जी कहीं नहीं थीं। 


मैंने सभी दोस्तों से हाथ मिलाया। फिर वालिया साहब से पूछा - "भाभी जी कहाँ हैं?"


"ओ भाभी जी के देवर, कोई छोले भठूरे नहीं मिलने वाले। आपको यहाँ भी भूखा रहना पड़ेगा और आज अपने घर भी आपको खाना नहीं मिलने वाला।" वालिया साहब कड़के। 


"इसकी यही सजा है।" भारती साहब बोले। फिर मुझे गुस्सा दिखाते हुए पूछा - "सुबह राणा प्रताप बाग से भाग क्यों गया था तू...? और जाना ही था तो कम से कम मुझे तो बता कर जाता।"


"बताता तो आप जाने देते?" मैंने सवाल किया। 


"बिल्कुल नहीं, पर जाने की जरूरत ही क्या थी?" भारती साहब की नाराजगी अब भी कायम थी। 


"इतनी बेइज्जती सहने के बाद भी वहाँ ठहरना मेरे बस की तो बात नहीं थी।" मैं तल्खी से बोला। 


"क्या बेइज्जती, कैसी बेइज्जती? विजय को तू आज से जानता है। पहले कितनी बार मिला है। कितनी बार अकेले भी मिला है। ढेरों बातें हुई हैं उसके और तेरे बीच। अपनी प्राइवेट से प्राइवेट बातें तुझसे की हैं। विजय खुद कह रहा था कि जो बातें मुझसे और वालिये से भी उसने कभी नहीं की, तुझसे वो सब बातें भी कर रखी हैं और उसने मजाक में तुझे मनोज का जासूस कह दिया तो बुरा लग गया।" भारती साहब मुझे फटकारते रहे। मैं चुप रहा। 


जब भारती साहब चुप हुए तो बेहद गम्भीर स्वर में मैं बोला -"कुछ भी हो, मैं अब विजय पाकेट बुक्स कभी नहीं जाऊँगा और आप में से कोई भी मुझे कभी साथ चलने को नहीं कहेगा।"


"क्या योगेश जी, क्या बेकार की बात मन से लगाकर बैठ गये?" वालिया साहब बोले - "आप विजय से मेरे पहुँचने से पहले निकल लिए। थोड़ा और रुक जाते तो फिर कोई शिकायत नहीं रहती। आप गये, तभी मैं विजय पाकेट बुक्स पहुँच गया, मैंने विजय जी को समझा दिया कि योगेश आदमी नहीं, इन्सान है और उस पर कोई भी आँख मूंदकर भरोसा कर सकता है। वह अपने दोस्तों का ही नहीं दुश्मनों का भी दोस्त है। वो किसी को भी धोखा नहीं दे सकता।"


"कुछ भी हो, विजय पाकेट बुक्स में, मैं अब फिर कभी नहीं जाऊँगा।" मैंने फिर से दो टूक स्वर में कहा।


"चल ठीक है, मत जाइयो, पर अब मूड खराब मत रख। तेरा मूड सही रखने के लिए ही हमने प्रोग्राम बनाया है।" भारती साहब बोले। 


"कैसा प्रोग्राम...?" मैंने पूछा। 


"प्रोग्राम कैसा होता है। तुझे मालूम नहीं है।" भारती साहब बोले। 


"समझ गया, पर मैं ड्रिंक बिल्कुल नहीं करूँगा।" मैंने कहा। 


"ठीक है फिर डेढ़ सौ रुपये दे दे...।" भारती साहब बोले। 


"डेढ़ सौ रुपये...।"


"और क्या...? सारा इन्तजाम तेरे लिए किया है। वालिये ने अपनी बीवी को भी कर्मपुरे भेज दिया। और तेरे नखरे ही नहीं खत्म हो रहे।" 


"नखरे नहीं, घर में मम्मी हैं, पिताजी हैं, उन्हें पता चलेगा तो... "

 

"पहले कभी पता लगा है? और फिर अभी तो छ: बज रहे हैं। रात जब तू घर पहुँचेगा, नशा भी छूमन्तर हो चुकेगा।" 


और फिर बेदी साहब और जीवनज्योत बस्सी भी मुझे समझाने लगे - "योगेश जी, पांच जनों में दो-तीन पैग से ज्यादा नहीं बनेंगे। आप ज्यादा मत लेना। बस, साथ निभाना।"


बाद में पता चला कि वालिया साहब तीन-साढ़े तीन बजे तक घर आ गये थे। भारती साहब ने पहले से ही उनके यहाँ शाम को आने का प्रोग्राम बना लिया था। बाद में बेदी साहब  भी उनके यहाँ आ गये। मीना भाभी का पहले से ही कर्मपुरे जाने का प्रोग्राम था, वह चली गईं। उनके जाने के कुछ देर बाद ही संयोगवश जीवनज्योत बस्सी भी आ गया और फिर भारती साहब भी। भारती साहब ने आते ही वालिया साहब को मुझे लाने के लिए भेज दिया। 


खैर, खरामा-खरामा चीयर्स का दौर चला। मैं जानबूझकर सिर्फ साथ निभा रहा था। जब सबका तीसरा पैग चल रहा था, मैं पहले में ही पानी बढ़ा-बढ़ाकर साथ निभाता रहा। 


इस बीच विजय पाकेट बुक्स और राजहंस की बातें होती रहीं। वालिया साहब से बेदी साहब बार-बार सवाल कर रहे थे, कभी वालिया साहब और कभी भारती साहब जवाब दे रहे थे। उन्हीं के बीच की बातों से मुझे समझ में आया कि राजहंस से की गई सभी वार्ताएं विफल हो गई थीं। 


विजय जी ने अपने दोनों भाइयों से भी इस परेशानी के हल के लिए डिस्कस किया। विजय जी का उनसे छोटा भाई कोई फैक्टरी चलाता था और अलग रहता था, जबकि विजय जी और सबसे छोटा भाई सुभाष साथ-साथ रहते थे और मिल जुल कर काम करते थे। विजय जी ने अनेक दोस्तों से भी सलाह मशवरा किया, किसी से उन्हें सन्तोषप्रद सलाह नहीं मिली। 


दरअसल विजय कुमार मलहोत्रा खुद मुकदमा नहीं करना चाहते थे, उन्होंने जिन लोगों से बातें की थीं, उसका एक ही नतीजा उन्हें दिखाई दे रहा था कि शायद उन्हें हिन्द पाकेट बुक्स, मनोज पाकेट बुक्स और राजहंस के विरुद्ध अलग अलग मुकदमा करना पड़ेगा। 


विजय कुमार मलहोत्रा का एक एडवोकेट दोस्त था अशोक मरवाहा, जो अपने पिता सोमनाथ मरवाहा के असिस्टेंट के रूप में काम कर रहा था। सोमनाथ मरवाहा सुप्रीम कोर्ट में सीनियर एडवोकेट थे और उनका बड़ा नाम था। उस जमाने में उनकी गिनती सबसे मंहगे गिने-चुने वकीलों में होती थी। विजय कुमार मलहोत्रा ने अशोक मरवाहा को भी एक दिन पार्टी में बुला लिया। उस पार्टी में डिस्कशन के दौरान राजभारती जी के खुराफाती दिमाग में एक आइडिया आया। 


उन्होंने विजय जी को सलाह दी कि हिन्द और मनोज उनके राजहंस को छाप रहे हैं। वह एक सर्कुलर छपवायें, जिससे लगे कि विजय कुमार मलहोत्रा हिन्द और मनोज के ट्रेडमार्क छाप रहे हैं, फिर देखें कि हिन्द और मनोज की प्रतिक्रिया क्या है और तब राजहंस के लिए "तलाश" नाम तय किया गया। बाकी चार नाम मनोज, सूरज, कर्नल रंजीत और शेखर तय किये गये। बाकी चारों नामों के लिए भी उपन्यासों के सूटेबल नाम सेलेक्ट किये गये और आनन-फानन में सर्कुलर बनवा कर डिस्पैच कर दिये गये।


और वह सर्कुलर, वही था, जो मैंने सुबह विजय पाकेट बुक्स में देखा था। (बाकी नामों के उपन्यासों के नाम याद नहीं आ रहे)


अशोक मरवाहा ने भी इस विचार को हरी झण्डी दे दी और कहा - "अगर कोई समस्या आई तो वह देख लेंगे।"


उस दिन यशपाल वालिया के यहाँ हुई पार्टी में वालिया साहब, भारती साहब के साथ-साथ एस. सी. बेदी ने भी मुझे बहुत समझाया कि विजय जी एक पब्लिशर हैं और लेखक को पब्लिशर से कभी भी नहीं बिगाड़नी चाहिए। पता नहीं कब जरूरत पड़ जाये, लेकिन मैं अपनी बात पर अडिग रहा कि अब मैं विजय पाकेट बुक्स कभी नहीं जाऊँगा। 


नौ बजे के लगभग पीना - खाना सब निपट गया। जीवनज्योत बस्सी राजौरी गार्डन रहता था। वह स्कूटर से आया था और स्कूटर से ही चला गया। भारती साहब और एस. सी. बेदी ने बालीनगर बस स्टाप से बस पकड़ ली और मुझे यशपाल वालिया ने अपने स्कूटर से मेरे घर रमेशनगर तक छोड़ दिया। 


अगला दिन सोमवार था। मैं मनोज पाकेट बुक्स के लिए अपने बाल उपन्यास को कम्पलीट करने में मस्त रहा। हालांकि सोमवार को उपन्यास पूरा न हो सका। अन्त के कुछ पृष्ठ लिखने से रह गये। 


मंगलवार को सुबह सुबह ही वालिया साहब रमेशनगर आ गये। मुझसे बोले - "चलो, आपकी भाभी आपको बुला रही हैं।"


"जैसे इतवार को छोले-भठूरे के लिए बुलाया था?" मैंने पूछा। 


"नहीं, आज सचमुच बुलाया है। घर चलकर पूछ लेना। और मम्मी जी को बोल दो - आज नाश्ता - खाना कुछ नहीं बनायें।"


"ऐसा लम्बा क्या प्रोग्राम है?" मैंने पूछा। फिर बोला - "मुझे नावल भी कम्पलीट करना है।"


"पेपर ले चलो। वहीं बैठकर पूरा कर लेना।" वालिया साहब ने हुक्म देने वाले अन्दाज़ में कहा तो मैं बोला - "नहीं, पांच-छ: पेज ही लिखने हैं। रात को लिख लूंगा।"


फिर मम्मी को नाश्ता और खाना नहीं बनाने के लिए कहकर मैं वालिया साहब के साथ निकल गया। वालिया साहब के घर पहुँच कर मैंने मीना भाभी जी से पूछ ही लिया - "भाभी जी, आपने मुझे बुलाया था क्या?"


"हाँ, इन्होंने कहा नहीं क्या?" भाभी जी ने वालिया साहब की ओर इशारा करते हुए पूछा। 


"कहा तो था...।" मैं धीरे से बोला। 


"फिर...?"


"फिर यह कि आपको मुझसे ऐसा क्या काम आ पड़ा?" मैंने पूछा। 


"कोई काम नहीं आ पड़ा, आज हलुवा बनाया है और आलू के परांठे बना रही हूँ, जो आपको बहुत पसन्द हैं, इसलिए इन्हें भेज दिया कि योगेश जी को बुला लाओ। दोपहर को कढ़ी बना रही हूँ। आप घर में खाने के लिए मना तो कर आये हो ना?"


"जी...।" मैंने कहा। 


यह प्रसंग बताने का मकसद सिर्फ यह है कि आप सब समझ जायें - वालिया साहब के घर मेरी क्या स्थिति थी और वालिया साहब को मुझसे कितना लगाव था। 


सुबह के नाश्ते के बाद मैं और वालिया साहब शतरंज खेलते रहे। फिर दोपहर एक बजे खाना भी तैयार हो गया। खाना- पीना होने के बाद वालिया साहब बोले - "चलो, पान खाकर आते हैं।"


स्कूटर पर हम दोनों घर से चले अवश्य, किन्तु वालिया साहब ने स्कूटर का रुख पनवाड़ीे की ओर नहीं किया तो मैंने पूछा - "किधर चल रहे हैं। पनवाड़ीे तो पीछे छूट गया।"


"पनवाड़ीे क्या सिर्फ बालीनगर में है। पटेलनगर में भी तो है।" वालिया साहब बोले। 


"यानि हम पटेलनगर जा रहे हैं?"


"आपको कोई शक है। रास्ता उधर का ही है ना।" वालिया साहब बोले। 


मैं खामोश रह गया। 


उन दिनों हैलमेट लगाने पर आज जैसी सख्ती नहीं थी। 


पटेलनगर पहुँच, हम भारती साहब के फ्लैट के बाहर पहुँचे। उन दिनों भारती साहब के फ्लैट में बाहर का एक कमरा बड़ा था। उसके बाद किचेन और बड़े कमरे के बीच एक छोटा कमरा था, जिसमें बमुश्किल एक छोटा तख्त बिछा हुआ था। तख्त बिछा होने के बाद लगभग उतनी ही जगह फालतू थी, जिसमें दोनों ओर आने जाने का रास्ता था, जो आगे बड़े कमरे और पीछे रसोई में जाता था। 


बड़े बाहरी कमरे में पीछे की दीवार से सटा एक बड़ा बेड था और उसके आगे एक ओर सोफा व दूसरी ओर सोफाचेयर थीं। बीच में एक सुन्दर सेन्टर टेबल थी। 


छुट्टी के दिन बच्चे इसी बड़े कमरे के बेड और सोफे पर पड़े रहते थे। अन्य दिनों में भी स्कूल से आने के बाद यही दृश्य होता था। 


भारती साहब से या खेल खिलाड़ी के स्वामी सरदार मनोहर सिंह से जो भी मिलने आता, उसे ऊपर बने खेल खिलाड़ी के आफिस में ही बैठाया जाता था। खेल खिलाड़ी का आफिस भारती साहब के फ्लैट के ठीक ऊपर, उन्हीं की छत पर था। (बरसों बाद बच्चे बड़े होने पर, भारती साहब ने नीचे के फ्लैट में पीछे की ओर जगह बढ़ाकर एक अतिरिक्त कमरा डाल लिया था तथा ऊपर बिल्कुल नीचे जैसा एक फ्लैट तैयार कर लिया था। अब उनके बेटे ने वह फ्लैट बेचकर दूसरी जगह निवास स्थान कर लिया है।) 


उस समय भी भारती साहब अपने फ्लैट में नहीं थे। भाभी जी ने बताया कि भारती साहब ऊपर हैं। ग्राउण्ड फ्लोर और फर्स्ट फ्लोर में चार-चार फ्लैट थे और ऊपर जाने की सीढ़ियाँ दो फ्लैटों के बीच से थीं। 


खेल खिलाड़ी के आफिस के बायें कोने में देवदार की लकड़ी से बना एक काउन्टर था, जिसके पीछे प्लास्टिक के मोटे तारों की बनी एक कुर्सी थी। काउन्टर के आगे पीछे की दीवार से सटी चार फोल्डिंग कुर्सियां रखी रहती थीं। उसके बाद दायीं दीवार से सटा एक तख्त परमानेंट बिछा रहता था। 


हम ऊपर गये। आगे-आगे मैं था। यशपाल वालिया पीछे थे। खेल खिलाड़ी के आफिस के द्वार पर जैसे ही मैं पहुँचा, मुझे झटका-सा लगा और कदम ठिठक गये। 


आफिस के तख्त पर भारती साहब दीवार से टेक लगाये बैठे थे। निकट ही एक तकिया और उस पर एक क्लिप बोर्ड रखा था, जिस पर भारती साहब द्वारा लिखे जा रहे नये उपन्यास के पेज फंसे थे। 


दरवाजे के साथ ही तीन फोल्डिंग कुर्सियां बिछी हुईं थीं और बीच वाली कुर्सी पर विजय कुमार मलहोत्रा बैठे थे। उनकी गोद में एक ब्रीफकेस था और ब्रीफकेस के ऊपर किसी उपन्यास के कुछ पिन लगे फार्म थे। विजय जी प्रूफ पढ़ रहे थे। 


द्वार के बाहर मेरे ठिठके कदम देख विजय कुमार मलहोत्रा मुझ पर निगाह डालकर बोले- "आ जा... आ जा... पीछे भागने का कोई रास्ता नहीं है।"


मेरे पीछे यशपाल वालिया थे। मेरी मजबूरी थी - मैं किसी भी कुर्सी पर बैठता, विजय जी के समीप ही रहता। मैं पीछे वाली कुर्सी पर जा बैठा। वहाँ से तख्त पर बैठे भारती साहब भी करीब थे। 


वालिया साहब दूसरी कुर्सी पर बैठ गये। 


विजय कुमार मलहोत्रा को वहाँ देख, असामान्य हुआ मैं, अभी नारमल हुआ भी नहीं था कि विजय जी ने हल्के से मेरा कान पकड़ लिया और बोले - "क्यों, विजय पाकेट बुक्स में खाया-पिया सब भूल गया?" 


मेरा हाथ कान पर चला गया, किन्तु आधे क्षण की पकड़ के बाद ही विजय जी ने स्वयं कान छोड़ दिया और भारती साहब से पंजाबी में पूछा - "क्या कह रहा था योगेश...?"


"यही कि विजय पाकेट बुक्स में तो अब भूल कर भी कदम नहीं रखूँगा।" भारती साहब हंसते हुए बोले। 


"तुझे तो हम जब चाहेंगे, उठाकर ले जायेंगे। वजन क्या है तेरा? पांच किलो, दस किलो।" विजय जी बोले। 


"नहीं-नहीं। इतना छोटा बच्चा भी मत समझो। घट तौं घट तीस- पैंतीस किलो तो होगा।" वालिया साहब ठेठ पंजाबी में चुटकी लेते हुए बोले। 


मैं चुप। समझ में ही नहीं आ रहा था - कहाँ फंस गया। मन ही मन यह सोचकर, वालिया साहब पर गुस्सा आ रहा था कि वह जानबूझकर मुझे यहाँ लाये हैं। उन्हें विजय जी के यहाँ होने का पक्का पता होगा।" 


पर उस समय कुछ बोलने की स्थिति में, मैं नहीं था। 


कुछ क्षणों की निस्तब्धता के बाद विजय कुमार मलहोत्रा सीधे मुझसे सम्बोधित हुए -"योगेश, एक बात बता, बेटा। तू कब से विजय पाकेट बुक्स आ रहा है। कभी भी तूने मुझसे एक भी किताब माँगी...? नहीं न...?"


मैं कुछ नहीं बोला। विजय कुमार मलहोत्रा ही फिर बोले - "फिर भी विजय पाकेट बुक्स की एक-एक किताब तेरे पास होगी। तुझे बिना माँगे ही मैंने हमेशा नया सैट दिया है। क्यों....? मेरे पास फालतू हैं किताबें? रखने के लिए जगह की कमी है?"


मैं अब भी चुप ही रहा। सचमुच मेरे पास विजय पाकेट बुक्स में छपी एक एक किताब थी और यह भी सच था कि हमेशा मुझे बिना माँगे ही नया सैट मिला था। 


मुझे चुप देख, विजय जी मुझसे आगे कुछ भी नहीं बोले। वह वालिया साहब की ओर घूम कर बोले - "तूने राजहंस का नावल शुरू किया?"


"हाँ, पर आप ने जो पेज दिये थे, वो मैंने नहीं पढ़े। अंग्रेजी का एक फाड़ू उपन्यास मिल गया था। बड़ा जबरदस्त उपन्यास है। राजहंस के प्लाट में सुपरहिट रहेगा।"


और तब मुझे पता चला कि राजहंस का नया उपन्यास वालिया साहब लिख रहे थे। 


"ये हमारा नया राजहंस है।" वालिया साहब की बात खत्म होते ही विजय जी मुझसे बोले - "बैक कवर पर इसकी फोटो डाल दें।"


मुझे हंसी आ गई। बोला कुछ नहीं। 

"हंस्या ऐ कंजर...।" लगभग ऐसा ही कुछ उस समय बोले थे विजय कुमार मलहोत्रा। सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास के रमाकान्त या सुनील की स्टाइल में। 


फिर.... 


"तू स्कूटर से आया है?" विजय जी ने यशपाल वालिया से पूछा। 


"हाँ....।"


"स्कूटर यहीं छोड़ दे। चल, चलते हैं।" विजय जी बोले। फिर भारती साहब से कहा - "खड़ा हो जा...।"


भारती साहब तत्काल खड़े हो गये। फिर नीचे जाकर तैयार होने लगे। तैयार होकर आने में उन्हें मुश्किल से पांच-सात मिनट ही लगे। 


नीचे एक साइड में विजय जी की कार खड़ी थी, जिस पर आते समय मेरी नज़र नहीं पड़ी थी। ड्राइविंग सीट पर विजय जी बैठे। उनके निकट वालिया साहब। पीछे की सीट पर मैं और भारती साहब बैठे। 


"योगेश की कसम तो टूट गई।" कार स्टार्ट करते हुए विजय जी ने पीछे मुड़कर एक बार भारती साहब को देखा। फिर तत्काल मुंह घुमा लिया। 


(शेष फिर) 


उसके बाद क्या हुआ? मेरे उपन्यास के पांच-छ: पेज लिखने बाकी थे। उपन्यास पूरा करके मैं मनोज पाकेट बुक्स पहुँचा तो क्या हुआ...? 


योगेश मित्तल


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