सर जी, अब भी ऐसा होता है क्या कि किसी से नाम पर कोई और उपन्यास लिखे? अब तो ऐसा नहीं होता होगा ?
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मयूर सावला जी को मेरा विस्तृत जवाब
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मनोज पाकेट बुक्स के प्रकाशन जगत में आने से पहले सिर्फ हिन्द पाकेट बुक्स का दबदबा था और उनके यहाँ भी अधिक से अधिक बीस हज़ार से अधिक कोई लेखक नहीं छपा था।
अधिकांशतः पहला प्रिन्ट आर्डर कभी भी पांच हज़ार से अधिक नहीं होता था।
मनोज पाकेट बुक्स के आगमन के बाद प्रिन्ट आर्डर चालीस-पचास हज़ार और फिर गुलशन नन्दा और वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों द्वारा लाख की संख्या के पार पहुँचा।
सबसे पहला उपन्यास - जिसने लाख की संख्या पार की, वह हिन्द पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित गुलशन नन्दा का उपन्यास "झील के उस पार" था, जिसकी पांच लाख प्रतियाँ छापी गईं।
मनोज व राजा पाकेट बुक्स में लाख की प्रतियां तो बहुत उपन्यासों की छपीं। पर वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास " कानून का बेटा" के शुरुआती दौर में ही कई एडीशन हुए और आठ लाख कापियाँ छपीं।
लेकिन तब लेखक एक बात के लिए बदनाम थे, वह यह कि बिकने वाले लेखक को जिस प्रकाशक से सब कुछ मिलता था, थोड़े से अधिक पारिश्रमिक के लालच में लेखक अपने रेगुलर पब्लिशर को छोड़ दूसरे का दामन थाम लेता था।
प्रकाशकों द्वारा ट्रेडमार्क स्थापित करने के पीछे एक मुख्य कारण तो यह था। दूसरा कारण था - पश्चिम का अन्धानुकरण।
कई प्रकाशक - जो विदेश हो आये थे, जानते थे कि विदेशों में कई प्रकाशकों ने लेखकों के रूप में ट्रेडमार्क स्थापित कर रखे हैं, जिनमें अनेक लेखकों के उपन्यास छपते हैं।
इंग्लिश में तब एनिड ब्लायटन के उपन्यास बहुतायत में छपते थे। उनकी अनेक सीरीज़ भी रही हैं।
आरम्भ में एनिड ब्लायटन में बैक कवर पर किसी की तस्वीर नहीं छपती थी, आज एनिड ब्लायटन की तस्वीर उपलब्ध है तो भी यह संदिग्ध है कि एनिड ब्लायटन के सभी उपन्यास एक ही शख्स के लिखे हुए थे। अंग्रेजी के विद्वान भाषाई अन्तर को बखूबी पकड़ सकते हैं।
खैर, कहने का मतलब यह है कि तब पुस्तकें बहुत बिकती थीं और प्रकाशन का धन्धा ढंग से किये जाने पर प्राफिटेबल था। तब लेखकों को पैसा देना पड़ता था और कई बार मुंहमाँगा पैसा देना पड़ता था, इसलिए ट्रेडमार्क छापना या घोस्ट लेखक छापना, फ्रकाशक की व्यापारिक आवश्यकता व कुशलता का परिणाम थे।
लेकिन आज स्थिति भिन्न है, आज ऐसा एक भी लेखक तलाशना मुश्किल है, जिसकी रोजी रोटी ही उसकी कलम हो। आज लेखकों के लिए नाम से छपना ज्यादा आसान है। छापने वाले आज लेखक को एडवांस या पारिश्रमिक नहीं देते। कई बार लेखक से ही छापने के लिए एक मुश्त कोई निश्चित रकम ले लेते हैं।
आज यह सम्भव नहीं है कि लिखे कोई और, तथा छपे किसी और के नाम से।
- योगेश मित्तल
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