हाँ, मैं अनपढ़ सदृश हूँ - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

सोमवार, 3 मई 2021

हाँ, मैं अनपढ़ सदृश हूँ

मेरे पास कोई डिग्री नहीं है। मैं बचपन में पढ़ने में बहुत-बहुत तेज था। 


विनोद बियानी, किशोर गुप्ता, रमाशंकर जायसवाल, शंकर लाल हर्ष, दिलीप कुमार मेहरा, पुरुषोत्तम तोदी, विजय कुमार गुप्ता, प्रमोद सरावगी और भी बहुत सारे दोस्त थे, जो अक्सर, बल्कि हर दिन कभी न कभी मेरे इर्दगिर्द जरूर आते थे। 


सबमें - मैं बहुत ही प्रिय था। लेकिन इसे ही किस्मत कहते हैं। 


पढ़ने में बहुत तेज़ होने पर भी मैं अनपढ़ सदृश हूँ। कोई डिग्री नहीं है मेरे पास। 


मैंने कुछ उपन्यास अंग्रेजी से हिन्दी में ट्रांसलेट किये हैं। लेकिन अनपढ़ सदृश हूँ। 


जब मैं खेल खिलाड़ी का सम्पादक था, तब पत्रिका के लिए अधिकांश मैटर अंग्रेजी कमेन्टेटर डाक्टर नरोत्तम पुरी के पिताजी आदरणीय देवराज पुरी लिखा करते थे। 


ट्रैक एंड फील्ड के गेम व क्रिकेट टेस्ट मैचों की डिटेल देवराज पुरी लिखते थे। बाकी खेलों के बारे में पत्रिका के स्वामी सरदार मनोहर सिंह ने हिन्दी के खेल लेखक योगराज थानी को लिखने के लिए तय किया था, किन्तु योगराज थानी मस्तमौला थे। मूड आया, लिखा। मूड न हुआ, नहीं लिखा। फिर सफदरजंग के पास किदवई नगर में रहने वाले और जनपथ स्थित आकाशवाणी भवन में नौकरी करने वाले,  हिन्दी कमेन्टेटर सरदार जसदेव सिंह और मुनीरका में टाप फ्लोर के एक फ्लैट में रहने वाले रवि चतुर्वेदी से सम्पर्क किया गया, किन्तु सरदार जसदेव सिंह और रवि चतुर्वेदी भी मुख्यतः क्रिकेट पर ही लिखने में इन्ट्रेस्टेड थे। हालांकि सरदार जसदेव सिंह ने कभी कभी हाकी पर भी लिखने की बात स्वीकार कर ली। 


फुटबॉल के लिये सरदार मनोहर सिंह ने कहा कि योगेश फुटबॉल पर तू ही लिख दे। 

मेरे लिये यह समस्या थी। उन दिनों दिल्ली में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी बहुत से घरों की रौनक बन चुके थे, जिनमें कनाट प्लेस के बंगला साहब गुरूद्वारा के सामने 96 नम्बर का टाप फ्लोर भी था, जिस में मेरा परिवार, हमारा परिवार रहता था। 

तब प्रोग्राम और न्यूज़ सिर्फ शाम को आते थे। हमारे यहाँ हिन्दी अंग्रेजी अखबार भी आते थे, लेकिन जब फुटबॉल पर आर्टिकल लिखने का काम मिला, अखबार रद्दी में बेचे जा चुके थे और न्यूज़ देखने का तो टाइम मिलता ही नहीं था। 

मेरे लिये फुटबॉल पर आर्टिकल लिखना आसान नहीं था, तब अचानक ही सरदार मनोहर सिंह के दिमाग में एक बात आई और वह बोले - "योगेश, तू तो कलकत्ता रहा है, तुझे बंगाली आती होगी।"

"हाँ, आती तो है। पर बहुत दिन से बंगाली में कुछ नहीं पढ़ा।"

"कोई नहीं, तू बैठ..।" सरदार मनोहर सिंह ने अपनी मोटर साइकिल पर मुझे बैठाया और कनाट प्लेस गोल मार्केट स्थित बंगाली पत्रिकाओं और पुस्तकों की दुकान पर ले गये। 


वहाँ बंगाली पत्रिकाओं की दो दुकानें थीं। सरस्वती बुक डिपो और किताबघर। तब सरदार मनोहर सिंह ने सरस्वती बुक डिपो से बंगाली की दो पत्रिकाएँ खरीदीं। 


बाद में कई बार मैंने किताब घर से भी बंगाली पत्रिकाएँ खरीदीं। एक समय वो था कि दोनों दुकानदार मुझे पहचानने लगे थे। किताबघर वाले तो अक्सर चाय भी पिलाया करते थे। कई बार साथ में कुछ खाने का भी मंगवा लेते थे। 


उस दिन सरस्वती बुक डिपो से खेलार आसार और खेलार कोथा खरीद कर सरदार मनोहर सिंह ने वो किताबें मुझे पकड़ा दीं कि इनमें जरूर फुटबॉल आर्टिकल होंगे, उन्हीं को ट्रांसलेट कर दे। 

और तब मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रह गया, क्योंकि बंगाली पढ़े जमाना हो गया था। ट्रांसलेट कर पाऊँगा या नहीं, पता भी नहीं था। 

पर आसान बंगाली थी। अनुवाद करने में कोई मुश्किल नहीं आई। 

फिर भी मैं अनपढ़ सदृश हूँ। 


हाँ, मेरी हिन्दी बहुत अच्छी है  ।


यह मुम्बई, भिवंडी के आदरणीय मयूर सावला जी ने फेसबुक पर एक कमेन्ट्स में लिखा है। 


उनकी बात सही है। 


ऐसा एक बेहद बुजुर्ग विद्वान शख्स ने भी एक बार मुझसे कहा था। वह एम ए पीएचडी थे। बात तब की है - जब कम्प्यूटर पर किताबें छपनी आरम्भ ही हुई थीं। तब कम्प्यूटर सिर्फ ब्लैक एंड व्हाइट ही होते थे और दिल्ली के पालम क्षेत्र में कम्प्यूटर टाइपिंग और सिखाने का  काम "अमेरिकन कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट" नाम से कृष्ण मुरारी गर्ग नाम के नौजवान ने खोला था। तब नये ब्लैक एंड व्हाइट कम्प्यूटर की कीमत भी साठ हज़ार के आसपास थी। कृष्ण मुरारी गर्ग ने तीन कम्प्यूटर लगाये थे। दो लड़कियाँ टाइपिंग के लिये रखी थीं। 

तब आदरणीय राज भारती जी ने अपराध कथाएँ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया था, जोकि बाद में पुस्तकों का आर्डर बुक करने वाले एजेन्ट ओम प्रकाश शर्मा के नाम कर दी थी। 

भारती साहब ने अपराध कथाएँ टाइपिंग का काम कृष्ण मुरारी गर्ग को दिया। और देख रेख का सारा काम मुझे सौंपा। 

वहीं दूसरे कम्प्यूटर पर एक "एम ए" की हिन्दी पुस्तक टाइप हो रही थी। संयोग ऐसा रहा कि पुस्तक की प्रूफरीडिंग करने वाले साठ वर्ष से अधिक के विद्वान बुजुर्गवार अचानक बीमार पड़ गये। 


कृष्ण मुरारी गर्ग से तब मेरे दोस्ताना सम्बन्ध हो गये थे तो उसने मुझसे कहा - "योगेश जी, ये लड़कियाँ  टाइपिंग में बहुत ज्यादा गलती करती हैं। आप एक बार इस किताब के भी प्रूफ पढ़ दीजिये। फिर गलती मैं लगाकर फाइनल रीडिंग के लिए अंकल के घर जाकर प्रूफ पढ़वा लाऊँगा। यार कोर्स बुक है। अंकल तीन-तीन बार प्रूफ पढ़वाते हैं। एक बार आप पढ़ दोगे तो शायद मेरा दो बार में काम हो जायेगा। 

मगर मजेदार बात यह हुई कि चार दिन बाद जब वह बुजुर्ग विद्वान साइबर कैफे में आये तो उन्होंने मुझे बाहों में बांध लिया और बोले - "आपने तो हमसे भी बहुत अच्छी प्रूफ रीडिंग की है। हम बार-बार पढ़कर भी इक्का-दुक्का गलती ही निकाल पाये।" 

मैं बहुत बहुत पापुलर भी रहा हूँ। मेरे बारे में बहुत से लेखकों ने भी बहुत कुछ कहा है और प्रकाशकों ने भी। 


बिमल चटर्जी, सुरेन्द्र मोहन पाठक, कुमारप्रिय, फारुख अर्गली , गोविन्द सिंह, यशपाल वालिया, एस. सी. बेदी, राजभारती, चन्द्रमोहन, अंजुम अर्शी (सैमी), आदरणीय आबिद रिजवी, धर्मपाल शर्मा तथा अन्य कई लेखकों ने मेरे बारे में कभी न कभी जीनियस या इससे मिलते जुलते शब्द कहें हैं। 


प्रकाशकों में तो संख्या बहुत ही ज्यादा है और उनके द्वारा दिये गये विशिष्ट नाम भी अलग अलग हैं। 


भारती पाकेट बुक्स के लालाराम गुप्ता मुझे "कहानियों का राजा" कहते थे। देवदार प्रकाशन के मालिक और साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका के सह सम्पादकों में से एक देवेन्द्र रस्तोगी मुझे "छोटा जादूगर" कहते थे। 

राजा पाकेट बुक्स के स्वामी स्वर्गीय राजकुमार गुप्ता जी ने किसी समय स्वर्गीय गुलशन नन्दा जी से मेरा परिचय कराते हुए मुझे "शब्दों का जादूगर" बताया था। जबकि उनके उनसे छोटे मंझले भाई गौरीशंकर गुप्ता जी ने मुझे "आलराउंडर" का खिताब दिया था और  "मनोज नाम से छपे उपन्यास "माँग सजा दो सौतन की" एडिट करने के बाद सबसे छोटे भाई विनय कुमार गुप्ता जी ने मुझे "परफेक्शनिस्ट" कहा था।


जबकि मेरठ में "मामा" नाम से मशहूर ओरियंटल पाकेट बुक्स और बाद में लक्ष्मी पाकेट बुक्स चलाने वाले सतीश जैन मुझे "कलाकार" कहते थे। 


गर्ग एंड कंपनी के ज्ञानेंद्र प्रताप गर्ग कहते तो "छोटू" थे, लेकिन अक्सर सुपरमैन छोटू कहते थे।


हाँ, रतन एंड कंपनी के सुरेन्द्र उर्फ बब्बू बाबू बडे़ प्यार से सिर्फ और सिर्फ "आ भई गुटके" और "गुटके" ही कहा करते थे। 


शायर साजन पेशावरी बहुत कम नाम लेते थे। हमेशा "छोटे भाई" कहते थे। 


बहरहाल यह सब इसलिए बता रहा हूँ, क्योंकि मुझे पता है, मुझ पर बचपन से ही माता सरस्वती की असीम कृपा रही है। 


कलकत्ते के सन्मार्ग अखबार में जब मेरी कविता कहानी छपनी आरम्भ हुई थी, मैं केवल नौ साल का था। 

खैर, मुझे बाहों में बांधने वाले

उन एम. ए. पी.एच.डी. विद्वान शख्स का नाम आज याद नहीं आ रहा, लेकिन अगर कृष्ण मुरारी गर्ग को याद हुआ तो उससे पूछूँगा, पर वो भी कई साल से मिलने नहीं आया है। भगवान करे - स्वस्थ और आनंद से हो।


© योगेश मित्तल

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