पुरानी किताबी दुनिया से परिचय- 14 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

रविवार, 2 मई 2021

पुरानी किताबी दुनिया से परिचय- 14

अक्सर हम अपनी खूबियों के लिए खुद को शहंशाह मानते हैं, लेकिन बुराइयों के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहरा देते हैं । सच्चाई यह नहीं है - अगर हमारे आचरण में कुछ बुराइयाँ पनपती हैं तो उनका कारण हम स्वयं ही होते हैं । यदि हम यह कहते हैं कि फलाने की वजह से मुझे यह लत लग गई तो वो सरासर झूठ है ।


हाँ, बुराइयों द्वारा आपको जकड़ने की भी एक उम्र होती है । आज यह उम्र दस से पच्चीस साल है, लेकिन सत्तर के दशक तक यह उम्र चौदह से बीस साल थी और मैं सोलह-सतरह के दौर में था ।


एक दिन हमेशा की तरह सुबह जल्दी उठ, नहा-धोकर तैयार हो मैं कुमारप्रिय के कमरे की ओर निकल पड़ा ।


घर पहुँचा । दरवाजा खटखटाया । कुमारप्रिय ने दरवाजा खोला । बिना बाजू की एक मैली-सी सफेद बनियान और तहमद में थे वह । मुझे देखते ही चहके -"अरे वाह । आज तो सूरज पश्चिम से निकल आया । सुबह-सुबह कैसे दर्शन देने की कृपा की योगेश जी ।"


कुमारप्रिय शब्दों के बहुत धनी थे । 


बात करते हुए सदैव उनके शब्द बेहद मिठास से भरपूर रहते थे ।


मैंने कहा -"बस यूँ ही, दिल में आया, पता करूँ बदनसीब की बदनसीबी कहाँ तक पहुँची ।"


"बस, चल रही है । लगभग आधा नाॅवल हो गया है । आइये न, अन्दर आइये ।"


मैंने कुमारप्रिय के कमरे में प्रवेश किया । दरवाजे के पीछे डार्क कलर का एक पर्दा पड़ा था । कुमारप्रिय ने दरवाजा खुला रहने दिया और पर्दा खींच दिया ।


कुमारप्रिय के कमरे में ढेर सारे सिगरेट के टोटे बिखरे हुए थे और ऐशट्रे के शीर्ष पर एक जलती हुई सिगरेट रखी थी । सेन्टर टेबल पर एक्जाम देनेवाले क्लिपबोर्ड पर बहुत सारे पेज फँसे हुए थे । सबसे ऊपर का पेज आधा लिखा आधा खाली था ।


कुमारप्रिय ने जलती सिगरेट उठा एक सुट्टा लगाया, फिर नाक से धुँआ बाहर निकाला ।


"कुमार साहब । आप सिगरेट पीनी छोड़ दीजिये ।" मैंने कहा ।


"चाहते तो हम भी हैं कि छोड़ दें, पर छुटती नहीं है काफिर मुँह से लगी हुई । ये आदत अब नहीं छूटेगी ।" कुमारप्रिय ने कहा ।


"तो फिर कम कर दीजिये । सिगरेट कोई अच्छी चीज नहीं है ।" मैंने कहा ।


"ये आप कैसे कह सकते हैं ।" कुमारप्रिय बोले -"कभी पी है सिगरेट ?"


"नहीं, पी तो नहीं, पर पता है कि अच्छी चीज नहीं है और यह आप भी जानते हैं ।"


"नहीं, हम नहीं जानते । हम तो यह जानते हैं कि जब हमारा दिमाग काम नहीं कर रहा होता है, दो चार सुट्टे लगाते ही घोड़े की तरह दौड़ने लगता है ।"


"फिर भी मैं यही कहूँगा कि सिगरेट छोड़ दीजिये ।" मैंने कहा । 


सिगरेट से कैंसर होता है, जैसी बातें उन दिनों चर्चित नहीं थीं ।


"नहीं छुट सकती । इस भुतहा कमरे में हम अकेले रहते हैं । ऐसे में सिगरेट एक दोस्त की तरह साथ देती है और दोस्त को कभी छोड़ा जाता है क्या? आप कभी सिगरेट पिये होते तो हमसे कभी न कहते छोड़ने के लिए । हम तो कहते हैं कि आप भी एक सुट्टा लगाकर देखिये - आनन्द न आये तो बोलियेगा ।"


और दोस्तों । बातों ही बातों में मुझ पर कुमारप्रिय का सम्मोहन चढ़ा या मुझे खुद ही बेवकूफी सूझी कि मैं भी एक सुट्टा लगाने के लिए तैयार हो गया ।


कुमारप्रिय ने मुझे चारमीनार प्लेन की एक सिगरेट और माचिस थमा दी । मैंने सिगरेट होठों में दबा माचिस की कई तीलियाँ सुलगाईं, पर सिगरेट न सुलगा सका ।


"रुकिये । माचिस हमें दीजिये । हम जलाते हैं । आप साँस ऊपर को खींचियेगा ।" कुमारप्रिय ने कहा और अपनी जली हुई सिगरेट ऐशट्रे पर टिका दी ।


मैं तैयार हो गया । मेरी आँखों के सामने कुमारप्रिय का नाक से धुआँ निकालना घूम रहा था । मन में था कि मैं भी नाक से धुँआ निकालूँ ।


कुमारप्रिय ने तीली जलाई । मुँह में दबी मेरी सिगरेट के शीर्ष से तीली छुआई ही थी कि मैंने फूँक मारी ।


तीली बुझ गई ।


"अरे योगेश जी, फूँक नहीं मारनी है । साँस अन्दर खींचनी है…ऐसे ।" कुमारप्रिय ने ऐशट्रे से अपनी जली हुई सिगरेट उठा, सिगरेट में एक कश मार, धुंआ मुंह से उड़ाया, फिर सिगरेट ऐशट्रे पर टिका दी । उसके बाद फिर तीली जलाई ।


इस बार कुमारप्रिय ने जैसे ही तीली मेरे होठों से लगी सिगरेट से छुआई, मैंने साँस अन्दर खींची ।


सिगरेट तो सुलग गई, मगर साथ ही मुझे खाँसी का जबरदस्त झटका लगा और सिगरेट मेरे होठों से निकल फर्श पर कहीं जा गिरी ।


मुझे खाँसी जो उठी तो ऐसी उठी कि रुकने का नाम ही नहीं लिया ।


कुमारप्रिय मेरी पीठ सहलाने लगे । कुछ देर बाद जब खाँसी रुकी, तब भी मैं नार्मल नहीं था । मेरी साँसें धौंकनी की तरह चल रही थीं ।


"साॅरी योगेश जी ।" कुमारप्रिय अपराधी भाव से बोले - "हम भूल गये थे, आपको दमा है । आपके लिए सिगरेट सचमुच अच्छी चीज नहीं है । कसम खा लीजिये, फिर कभी सिगरेट को हाथ नहीं लगायेंगे ।"


कुमारप्रिय कह रहे थे, मैं सुन रहा था, मगर मेरी आँखों के आगे कुमारप्रिय का नाक से धुँआ निकालना घूम रहा था ।


"योगेश ।" तभी बाहर से आवाज आई । यह तो अरुण की आवाज थी । अरुण कुमार शर्मा की ।


आवाज कुमारप्रिय ने भी पहचान ली, बोले - "अरुण जी यहाँ कैसे आ गये ? आपने हमारा घर दिखाया था क्या ?"


"नहीं ।" मैंने इन्कार में सिर हिलाया ।


कुमारप्रिय ने पर्दा हटाया । बाहर अरुण ही था । 


"आइये-आइये ।" कहते हुए कुमारप्रिय ने कोई शानदार डाॅयलाग मारा, फिर बोले -"आपने हमारा घर कैसे ढूँढ लिया अरुण जी । हम तो आपको कभी दिखाये नहीं ।"


"योगेश ने बताया था कि उसके घर के सामने की गली में सीधे जाकर, बिमल चटर्जी वाली गली क्राॅस करके, सीधे जाकर पाँचवें -छठवें मकान में बाहर की साइड में कमरे का दरवाजा खुलता है तो ढूँढ लिया ।" अरुण बोला -"योगेश के घर गया था तो मम्मी बोलीं - कुमार साहब के यहाँ जाने को कह रहा था तो मैंने सोचा - ट्राई करते हैं, शायद कुमार साहब का घर मिल जाये ।"


मेरी मम्मी को बिमल चटर्जी, अरुण, कुमारप्रिय सभी दोस्त मम्मी या मम्मी जी कह कर पुकारते थे ।


"हमें बहुत अच्छा लगा । आप आये । चाहें - जैसे भी आये । पर क्या है - घर में तो हम आपको चाय भी नहीं पिला सकते । हम खुद भी चाय-नाश्ता-खाना सब बाहर ही करते हैं ।" कुमारप्रिय अरुण से बोले । फिर एक क्षण रुक कर कहा -"आइये न, पास में कहीं चलकर चाय पीते हैं ।"


"नहीं । आप अपना नाॅवल लिखिये । मैं और योगेश जा रहे हैं ।" कहते-कहते अरुण ने मेरा चेहरा देखा -"तुझे क्या हुआ ?"


"कुछ नहीं ।" मैंने हाँफते हुए कहा -"जरा साँस फूल रही है । अभी ठीक हो जायेगी ।"


"तूने सिगरेट पी है ?"अरुण ने पूछा । उसकी नजर फर्श के एक कोने में पड़ी जलती सिगरेट पर थी ।


"नहीं, वो एक कश मारकर देख रहा था...। नाॅवल में तो हमलोग लिखते ही हैं ।" मैं हाँफते हुए बोला ।


"तेरा दिमाग खराब है । तुझे दमा है और तू सिगरेट पी रहा था ।" अरुण चिल्लाया । फिर कुमारप्रिय पर बिगड़कर बोला - "आपने इसे सिगरेट दी कैसे ?"


"नहीं, अब नहीं पियेंगे । योगेश जी ने प्राॅमिस किया है । वो बस, एक कश लगाकर देख रहे थे । अब नहीं देखेंगे ।" कुमारप्रिय ने बड़े मीठे अन्दाज़ में अरुण को शांत किया ।


साँस की बीमारी ने मुझे आठ साल की उम्र से ही जकड़ रखा था । कभी भी, कहीं भी...अचानक ही दमे का अटैक हो जाता और हालत खराब हो जाती थी ।


आरम्भ में दमे से राहत के लिए काफी समय तक एमिड्रिन (Amidrin) टेबलेट लेता था, पर उन दिनों टेड्रल(Tedral) और टेड्रल एस.ए. (Tedral S.A.) लिया करता था, जो कि हमेशा जेब में भी रखता था ।


मैंने टेड्रल जेब से निकाली तो कुमारप्रिय ने झट से गिलास में पानी मुझे दिया । गोली खाने के बाद दस पन्द्रह मिनट में मैं नार्मल हो गया । तब तक कुमारप्रिय अपने नये नाॅवल "बदनसीब" के बारे में अरुण को बताते रहे ।


काफी देर बाद मुझे सामान्य देख, अरुण ने पूछा -"अब ठीक है ?"


"हाँ ।" मैंने कहा ।


"चलें ?" 


मैंने स्वीकारोक्ति में सिर हिला दिया, पर मेरी आँखों के सामने अब भी कुमारप्रिय का नाक से धुंआ निकालना घूम रहा था ।


अरुण ने मेरा हाथ थामा । फिर हम कुमारप्रिय के कमरे से बाहर निकले ।


अरुण पास के ही एक चाय की दुकान पर ले गया । उसने दो चाय का आर्डर दिया । दूकान के बाहर लकड़ी की एक बेंच पडी थी, उस पर हम बैठे । बात शुरू करते हुए उसने कहा -"कल 'मनोज' (मनोज पॉकेट बुक्स) में गया था, तेरे से जो कहानियां सही कराई थीं, सब रीराइट करके दे आया । पेमेन्ट के लिए अगले हफ्ते बुलाया है ।"


"और आगे कुछ लिखा ?" मैंने पूछा ।


"अपना दिमाग तेरे जैसा थोड़े ही है, पेन उठाया और जो कूड़ा-करकट दिमाग में आया, लिखना शुरू कर दिया । सोचना भी पड़ता है । करेंगे शुरू लिखना- ये पेमेन्ट आ जाये ।" अरुण ने कहा ।


तभी चायवाले ने चाय के गिलास थमाए एयर हम दोनों ही चाय की चुस्कियां भरने लगे ।


कुछ देर बाद अरुण बोला - "गौरी भाई साहब (गौरीशंकर गुप्ता) तेरे बारे में पूछ रहे थे ।"


"क्या ?" मैंने पूछा ।


"पूछ रहे थे – ‘किसी योगेश मित्तल को जानते हो ।’ 


मैंने कहा – ‘अच्छी तरह ।’ 


‘उसे हमारे यहां लेकर आओ ।’ गौरी शंकर बोले । 


‘वो नहीं आएगा, वो बिलकुल बेवकूफ और गधा है ।’ मैंने कहा- ‘उसे बिमल चटर्जी से बहुत प्यार है । बड़ा भाई मानता है वह बिमल को ।’


"हाँ, मनोज में तो मैं हरगिज नहीं जाऊंगा और जाऊंगा तो बिमल चटर्जी के साथ ही जाऊंगा ।" मैं निर्णायक स्वर में बोला ।


"मुझे मालूम था, तू यही बोलेगा । इसलिए पहले ही मैंने गौरी भाई साहब (गौरीशंकर गुप्ता) से कह दिया था ।" अरुण ने कहा । फिर मुझसे पूछा -"अब तू कहाँ जाएगा ?"


"पहले घर । फिर विशाल लाइब्रेरी ।" मैंने कहा ।


उस दिन हम अलग हुए तो फिर कई दिनों तक मिलना नहीं हुआ । हाँ, कुमारप्रिय और बिमल चटर्जी से लगभग रोज ही मिलना होता था ।


फिर एक दिन अरुण आया और उसने मुझसे कहा -- 'योगेश, आज फिल्म देखने चलते हैं ।"


अरुण दिखा रहा था मुझ मस्त-मलंग-फक्कड़ को । मैंने तो तैयार होना ही था - हो गया । मैंने यह भी नहीं पूछा कि कौन सी फिल्म ? 


पर उस दिन मेरे कपडे अजीब थे । मैं हरे रंग की एक शर्ट और नीली-सफ़ेद धारियों का पाजामा पहने था, उस तरह के पाजामे आजकल नाईट सूट अथवा स्पोर्ट्स सूट में ही चलते हैं । खास बात यह थी कि शर्ट और पाजामा, दोनों मेरी मम्मी के द्वारा घर की सिलाई मशीन पर सिले हुए थे । उन दिनों मैं कपडे के जो जूते पहनता था, वे जवाब दे चुके थे और उस दिन मैं रबर की हवाई चप्पल पहने था, जैसी कि आजकल लोग सिर्फ घर के अंदर टॉयलेट-बाथरूम जाने के लिए पहनते हैं ।


"पर मैं ऐसे ही चलूँगा ।" मैंने कहा -"बदलने के लिए आज कपडे नहीं हैं ।"


"तो क्या हुआ ? इन में क्या खराबी है ?" अरुण ने कहा ।


"खराबी नहीं है तो चलते हैं ।" मैंने कहा ।


पहले हम गांधीनगर से तांगे से चांदनी चौक पहुंचे । 


अरुण बोला – “दो मिनट दरीबे में काम है मनोज पॉकेट बुक्स में । पेमेंट लेनी है । फिर फिल्म देखेंगे । वहीं छोले-भठूरे भी खाएंगे ।” 


मैंने कहा – “ठीक है । तू हो आ - मनोज में । मैं नहीं जाऊंगा ।”


अरुण बोला – “पागल है । वो कौन सा तुझे पहचानते है । दो मिनट की बात है - जाते ही पेमेंट मिल जाएगी । वैसे शायद बैठा भी लें, तू होगा तो मैं भी जल्दी छूट जाऊंगा - कहूंगा दोस्त है । फिल्म देखने जाना है ।”


बात मुझे जम गयी । मैं साथ हो लिया । उन दिनों काउंटर नहीं होते थे । गद्दी होती थी । फर्श पर मोटे-मोटे गद्दे बिछे होते थे । पीछे गोल तकिये रखे होते थे । अरुण मुझे नीचे खड़ा छोड़ ऊपर जा गद्दी पर बैठ गया । गौरीशंकर सामने ही बैठे थे । अरुण ने उनसे कुछ नहीं कहा । फिर भी वह मुझसे बोले - ऊपर आ जाओ ।


दबंग आवाज़ । मैंने अरुण की ओर देखा । अरुण बोला – “आ जा ।”


मेरी स्थिति ख़राब । मैंने हवाई स्लीपर पहन रखी थी । 


स्लीपर सड़क पर ही उतार मनोज पॉकेट बुक्स की गद्दी पर चढ़ने की चेष्टा करने लगा । पर कद छोटा होने और दुकान ऊंचाई पर होने की वजह से चढ़ नहीं पाया । 


अरुण उम्र में भी मुझसे बड़ा था और छह फ़ीट लंबा था, उसने मुझे ऊपर चढ़ाया ।


"घबराओ मत बिमल चटर्जी तुमसे नाराज नहीं होगा । हमने उससे बात कर ली है । तभी अरुण से कहकर तुम्हें बुलाया है । तुम्हारी राइटिंग बिमल से बहुत साफ़ है । फिर हर कहानी के अंत में तुम्हारा नाम लिखा होता है तो हमें तो पता चलना ही था कि कौन लिख रहा है ।" गौरीशंकर गुप्ता जी ने कहा। 


"भाई साहब का ही आईडिया था कि योगेश को फिल्म देखने के बहाने लेकर आओ, इसलिए आज फिल्म का प्रोग्राम बनाया था... ।" अरुण हँसते हुए बोला ।


'इसका मतलब है फिल्म का कोई प्रोग्राम है ही नहीं ।' मैंने मन ही मन सोचा ।


मन ही मन मुझे अरुण पर जबरदस्त क्रोध आ रहा था, जो फिल्म के बहाने मुझे यहां तक ले आया था । गुस्सा अपने आप पर भी आ रहा था कि यह मालूम होते हुए भी कि मैं ठीक-ठाक कपड़ों में नहीं हूँ, मैंने अरुण की बात क्यों मान ली । कपड़ों और सजने, संवरने, खूबसूरत लगने के प्रति तो मैं शुरू से ही लापरवाह रहा था, पर फिर भी एक बड़े प्रकाशक के यहां ऐसे कपड़ों में, जिनमें लोग रिश्तेदारों तो दूर, पड़ोसियों के घर भी नहीं जाते, मुझे बेपनाह शर्मिंदगी महसूस हो रही थी ।


"कद्दू वाला बौना तूने ही लिखा था ?" गौरीशंकर गुप्ता ने मुझसे पूछा ।


मैंने स्वीकृति में ऊपर से नीचे सिर हिलाया ।


"और वो अण्डों की खेती और बोतल में हाथी....?"


मैंने फिर से हामी भरी और सिर हिलाया ।


"क्यों ? मुँह से बोलते हुए डर लग रहा है क्या ?" गौरीशंकर हँसे ।


"नहीं-नहीं ।" मैं हड़बड़ाया । आगे क्या बोलूँ - समझ ही न आया ।


“क्या-क्या लिख सकते हो ?" अचानक गौरीशंकर गुप्ता ने मुझसे पूछा ।


मैं चुप । बोलना मुश्किल हो रहा था ।


किसी प्रकाशक से मैं दूसरी बार ही मिल रहा था, पर मनोज पॉकेट बुक्स पहली बार आया था । मेरे पहले प्रकाशक भारती पॉकेट बुक्स के श्री (अब स्वर्गीय) लाला राम गुप्ता थे । जिन्हें मैं ओम प्रकाश शर्मा के नाम से प्रकाशित किया जाने वाला उपन्यास - जगत की अरब यात्रा देकर आया था।


"योगेश सब कुछ लिख सकता है ।" मुझसे पूछे गए सवाल का जवाब अरुण ने दिया ।


"अच्छा तो पहले तो आप तीन पार्ट की बाल पॉकेट बुक्स की सीरीज लिखो । एक टाइटल हमने बनवा रखा है –सोने का हिरन । बाकी दो पार्ट के नाम आप तय करके बता देना । तीनो पार्ट में एक ही कहानी चलेगी । अट्ठाईस लाइन से एक सौ बारह पेज की किताब होगी । शुरू के चार पेज छोड़, आपने एक सौ आठ पेज लिखने हैं । एक पार्ट का आपको पिचहत्तर रूपये पारिश्रमिक मिलेगा । यानी तीन पार्ट के दो सौ पच्चीस रुपये देंगे । पर टाइटल पर आपका नाम नहीं जाएगा । हम मनोज या प्रेम बाजपेयी के नाम से छापेंगे । ठीक है ।"


"ठीक है ।* मैंने कहा । दो सौ पच्चीस रुपये मेरे लिए बहुत बड़ी रकम थे ।


उसके बाद गौरीशंकर गुप्ता ने मेरे सामने ही अरुण को चार किताबों की पेमेंट पूरे तीन सौ रुपये कैश दिए । अरुण ने रुपये संभालकर पेंट की अंदरूनी पॉकेट में रखे ।


उस दिन जब मैं अरुण के साथ मनोज पॉकेट बुक्स की गद्दी से उतरने के बाद, दरीबे से बाहर पहुंचा तो अरुण पर फट पड़ा । उसे खूब खरी-खोटी सुनाई । 


अरुण हँसता रहा । जब मेरी भड़ास निकल गयी तो उसने मुस्कुराते हुए पूछा -"तो अब क्या सोचा है ? तीन पार्ट का नॉवल लिखना है या नहीं ?"


मैंने कोई जवाब नहीं दिया । 


दरीबे से हम लालकिले की दिशा में निकले । अरुण वहीं खड़े एक थ्रीव्हीलर की ओर बढ़ा और मुझसे बोला -"गुस्सा बाहर थूक और अंदर बैठ ।"


मैं बैठ गया तो अरुण भी थ्रीव्हीलर में बैठा और बोला -"डिलाइट ।" 


"डिलाइट क्यों ?" मैं चौंक कर बोला ।


"फिल्म नहीं देखनी ?" अरुण बोला -"टिकट मैंने पहले ही बुक करा रखे थे । फिल्म तो तुझे दिखानी ही है । नाराज़ थोड़े ही करना है ।"


"पर डिलाइट पर तो 'जवानी दीवानी' लगी है ।"


"हाँ तो....?"


"यह तो मेरी देखी हुई है । बिमल के साथ पहले ही दिन देखी थी ।"


"पर मैंने तो नहीं देखी । एक बार बिमल के साथ देखी । एक बार मेरे साथ देख ले ।" अरुण ने कहा । और एक बार फिर मुझे डिलाइट के पीछे छोले-भठूरे खाने का अवसर मिला । फिर हमने फिल्म "जवानी दीवानी" देखी ।


कोई एक ही फिल्म दो बार देखने का वह मेरा पहला अवसर था, लेकिन सच कहूँ - रणधीर कपूर और जया भादुड़ी दूसरी बार देखने पर ज्यादा अच्छे लगे थे ।


( शेष फिर )

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