हिन्द व मनोज Vs. विजय पाकेट बुक्स
यूँ तो कोई भी लेखक प्रकाशकों द्वारा लेखक के नाम के ट्रेडमार्क रजिस्ट्रेशन और ट्रेडमार्क नाम में किसी भी लेखक की कृति के प्रकाशन की परिपाटी का समर्थन शायद ही करे, पर उन दिनों पाकेट बुक्स ट्रेड में दो लेखक ऐसे थे - जो ट्रेडमार्क लेखकों के सिस्टम के सख्त खिलाफ थे।
एक वेद प्रकाश शर्मा और दूसरा मैं। मौका मिलने पर दोनों ही ट्रेडमार्क प्रचलन के विरुद्ध जी भरकर ज़हर उगल देते थे।
जब हम दोनों आपस में बातचीत करते तो ऐसे प्रकाशकों के खिलाफ मन की भड़ास भी खूब निकालते थे।
हमारी नज़र में एक ट्रेडमार्क नाम टाइटिल कवर पर देकर, अन्दर किसी भी उपन्यासकार का उपन्यास छापना, पाठकों से सरासर चीटिंग था। धोखा था।
हमें इससे बेहतर पैटर्न तो वह लगता था, जब प्रकाशक कोई भी नाम एक पत्रिका के रूप में रजिस्टर्ड करवा लेते थे और उसमें किसी भी लेखक का उपन्यास छाप देते देते थे, किन्तु तब वह अन्दर के पहले या तीसरे पृष्ठ पर असली लेखक का नाम भी अवश्य छापते थे।
विजय पाकेट बुक्स बनाम राजहंस, हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के मुकदमे के समय ट्रेडमार्क पर अपने विचारों के मामले में, मैं कन्फ्यूज-सा हो गया था, लेकिन वेद प्रकाश शर्मा तब तक अपने स्टैण्ड पर कायम रहे, जब तक कि उन्होंने और सुरेश चन्द जैन ने पार्टनरशिप में तुलसी पाकेट बुक्स की शुरुआत नहीं की।
मुझ में और वेद प्रकाश शर्मा में सबसे बड़ा फर्क यह था कि मैं प्रकाशकों के सामने ट्रेडमार्क विषय पर अपने व्यक्तिगत विचार कभी नहीं रखता था, सिर्फ नजदीकी दोस्तों के सामने ही अपने विचार प्रकट करता था, जबकि वेद प्रकाश शर्मा प्रकाशकों के सामने भी बेहिचक अपने उद्गार प्रकट कर देते और ट्रेडमार्क सिस्टम और नकली उपन्यासों के लिए प्रकाशकों को ही सौ परसेन्ट दोषी करार देते थे।
विजय पाकेट बुक्स में राज भारती जी और विजय कुमार मलहोत्रा परस्पर राजहंस के मनोज और हिन्द में छपने पर देर तक विचार विमर्श करते रहे, उस दौरान मैं एक मूक दर्शक की तरह खामोश बैठा रहा, वैसे भी मेरी सम्पूर्ण सहानुभूति केवलकृष्ण उर्फ राजहंस के साथ थी, क्योंकि कई बार जब हमारी अकेले में बातचीत होती थी तो केवलकृष्ण के मुँह से यही निकलता था कि यार, अपने लिए, नाम के लिए, प्रकाशकों के लिए बहुत लिख लिया, अब बच्चों के लिए, फैमिली के लिए, फैमिली की सिक्युरिटी के लिए भी कुछ करना है। इन्सान के जीवन का क्या भरोसा, आज है - कल नहीं। जो इन्सान शादी करता है, उसे अपने जीवन काल में कुछ तो ऐसा भी करना चाहिए, जिससे अचानक उसे कुछ हो जाये तो परिवार एकदम ही बेसहारा न हो जाये।
और जैसे मैं राजहंस की लेखनी की भिन्नता और खूबियों का कायल था, वैसे ही उसकी बातें मेरे दिल को गहराई तक छूती थीं। इसलिए राजहंस ने हिन्द और मनोज में उपन्यास दिये तो मुझे इस में भी कुछ गलत नज़र नहीं आया।
तब मन ही मन मैं यही सोचता था कि केवलकृष्ण ने यह बहुत अच्छा किया है। अब वह दो-चार सालों में इतना पैसा तो इकट्ठा कर ही लेंगे कि अपने बीवी बच्चों के लिए दो चार प्रापर्टी खरीद सकें।
उस समय केवलकृष्ण की फाइनेन्शियल पोजीशन के बारे में मुझे कोई सटीक जानकारी नहीं थी, पर वह एक लेखक थे, इसलिए मेरी सारी सहानुभूति केवलकृष्ण के साथ थी, इसलिए विजय कुमार मलहोत्रा और राज भारती जी की बातें निर्विकार भाव से सुनता रहा, मगर जब अचानक ही विजय जी ने मुझसे पूछ लिया -"योगेश, तेरा क्या विचार है?" तो मैं तुरन्त ही कुछ बोल नहीं पाया। कुछ सूझा ही नहीं मुझे।
विजय कुमार मलहोत्रा ने फिर पूछा - "तू भी बहुत बार केवल से मिला है। यही बता कि केवल को किस तरह समझाया जाये कि वह फिर से विजय पाकेट बुक्स के साथ जुड़ जाये, हिन्द और मनोज को छोड़ दे।"
"दो तीन मीटिंग तो करनी ही चाहिए।" मैंने वही वाक्य कह दिया, जो भारती साहब और विजय जी की बातों में सुना था।
चाहें मैंने बिना सोचे समझे अपना विचार प्रकट किया था, पर विजय जी ने उसे गम्भीरता से लिया और राज भारती जी से बोले - "योगेश का भी यही विचार है तो ठीक है, करते हैं एक दो और मीटिंग।"
फिर एक क्षण रुककर पुनः भारती साहब से बोले - "तू कल फिर ग्यारह बजे तक आ जाना, कल वालिये को भी साथ ले आना।"
उस दिन हम जितनी देर वहाँ बैठे, चाय के दो दौर चल चुके थे, मगर नतीजा एक ही था कि केवलकृष्ण उर्फ राजहंस के साथ एक-दो बैठकें और की जायें और उसे बार-बार प्यार से समझाने की कोशिश की जाये।
उस दिन जब हम विजय पाकेट बुक्स से वापसी के लिए चले, रास्ते में रिक्शा न मिलने के कारण शक्तिनगर तक पैदल ही पहुँच गये।
रास्ते भर हम राजहंस, हिन्द पाकेट बुक्स, मनोज पाकेट बुक्स और राजहंस तथा विजय कुमार मलहोत्रा व विजय पाकेट बुक्स की बातें करते रहे।
शक्तिनगर बस स्टैण्ड पर हमें मलकागंज से उत्तमनगर तक जाने वाली 816 नम्बर की बस मिल गई। बस में बैठने की सीट नहीं मिली तो हम ड्राइवर के ठीक पीछे एकदम आगे, साथ-साथ खड़े होकर बातें करते रहे, लेकिन हमारी बातें निर्रथक थीं, क्योंकि हम दोनों ही ऐसा कोई फैसला नहीं कर सकते थे कि विजय कुमार मलहोत्रा जी को क्या कदम उठाना चाहिए और क्या उनके प्रकाशन के लिए बेहतर है।
कर्मपुरा बस स्टाप से पहले ही भारती साहब ने एक टिकट मुझे थमा दिया और बाद में स्वयं मोतीनगर उतर गये व उतरते हुए मुझसे बोले - "तू तो रमेशनगर उतर जाइयो।"
उस समय मैं अपने समूचे परिवार के साथ रमेशनगर रहता था।
अगले दिन मैं सुबह बहुत जल्दी तैयार हो गया। मुझे उम्मीद थी - भारती साहब मेरे यहाँ आयेंगे, क्योंकि उन्होंने मुझसे पटेलनगर आने को नहीं कहा था।
मैं इन्तजार करता रहा, लेकिन भारती साहब नहीं आये तो मैंने सोचा - 'हो सकता है, वह वालिया साहब के साथ विजय पाकेट बुक्स चले गये हों।'
दिल में यह उत्सुकता जग गई थी कि विजय जी राजहंस से बात करते हैं या नहीं और अगर बात करते हैं, बातें हुईं तो क्या बातें हुई होंगी।
दिल में ख्याल आया कि मुझे भी विजय पाकेट बुक्स में होना चाहिए, पर अकेले जाने का मूड नहीं बन रहा था। सोचा - वालिया साहब के यहाँ जाऊँ, पर फिर सोचा कि पटेलनगर ही चलता हूँ, वहाँ खेल खिलाड़ी की डाक भी देख लूँगा।
और मैं पटेलनगर पहुँचा।
वहाँ पहले भारती साहब के फ्लैट में पहुँचा।
भाभी जी से पता चला कि साढ़े नौ-दस बजे के करीब वालिया साहब आये थे, भारती साहब उन्हीं के साथ उनके स्कूटर पर चले गये। जाते हुए वह आपस में राणा प्रताप बाग जाने का जिक्र कर रहे थे, पर भारती साहब भाभी जी से सीधे कुछ कहकर नहीं गये थे।
मैं कुछ देर ऊपरी फ्लोर पर खेल खिलाड़ी के आफिस में बैठा रहा। वहाँ नई डाक कोई खास नहीं थी, इसलिए थोड़ी देर बाद सरदार मनोहर सिंह से इजाजत लेकर निकल पड़ा।
मेन रोड पर पहुँचते-पहुँचते मेरे दिमाग में ख्याल आया, मनोज पाकेट बुक्स चलता हूँ।
शादीपुर डिपो तक मैं पैदल ही गया।
वहाँ से उन दिनों मलकागंज की बस बनकर चलती थी। उसका एक स्टाप शक्तिनगर भी होता था।
शक्तिनगर में अग्रवाल मार्ग पर मनोज पाकेट बुक्स की शानदार कोठी थी, जिसके बेसमेंट में मनोज पाकेट बुक्स का आफिस था और ग्राउण्ड फ्लोर पर भाइयों और माता-पिता के रहने का अलग-अलग पोर्शन था।
मैं बेसमेंट स्थित मनोज पाकेट बुक्स के आफिस में लकड़ी और पारदर्शी शीशे के संयोजन से बने खूबसूरत आफिस में पहुँचा।
वहाँ काफी बड़ी टेबल के पीछे दो रिवाल्विंग चेयर थीं। और इन्ट्री द्वार के पीछे तीन गद्देदार खूबसूरत कुर्सियां थीं।
पीछे की रिवाल्विंग चेयर पर बायीं ओर सबसे बड़े भाई राजकुमार गुप्ता और दायीं ओर की चेयर पर गौरीशंकर गुप्ता विराजमान थे।
मुझे देखते ही गौरीशंकर गुप्ता खूबसूरत हँसी बिखेरते हुए बोले - "आ भई योगेश, तेरे लिए खुशखबरी है।"
"क्या...?" बिल्कुल अन्जान बन, कुर्सी पर बैठते हुए मैंने पूछा।
"अब से राजहंस भी हमारे यहाँ छपेगा।" जवाब राजकुमार गुप्ता जी ने दिया।
"यह तो सचमुच बहुत अच्छी खबर है।" मैंने कृत्रिम मुस्कुराहट और खुशी बिखेरते हुए कहा।
आज मैं सब कुछ सच कह सकता हूँ, पर तब सच का सामना करने की स्थिति में भी नहीं था।
"इसी खुशी में, तेरा मुँह मीठा कराते हैं।" गौरीशंकर गुप्ता बोले। खिलाने-पिलाने में वह हमेशा से बहुत दिलदार थे, जब मैंने उनके यहाँ बाल पाकेट बुक्स लिखने से शुरुआत की थी, तब भी वह चाय के साथ कभी बिस्कुट, कभी मट्ठी, कभी ब्रेड पकौड़ा, समोसा या कचौड़ी मँगवा लेते थे।
गौरीशंकर गुप्ता ने एक वर्कर को बुला कर ऊपर भेजा। ऊपर घर में पहले से मँगाई मिठाई रखी थी। वर्कर एक ट्रे में - बर्फी, बिस्कुट और नमकीन की प्लेटें लेकर आया।
ट्रे उसने टेबल पर बीच में रख दी।
"ले योगेश, शुरू कर, अभी चाय भी मँगाते हैं।" राजकुमार गुप्ता मुस्कराते हुए बोले।
"कितने में बात हुई..?" मैंने बर्फी के पूरे पीस से एक छोटा टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डालने के बाद पूछा।
"मत पूछ... बड़ा मोटा माल दिया है।" राजकुमार गुप्ता बोले।
"मोटा कितना...?" मैंने पूछा।
"क्या करेगा जानकर, तू दस जगह उठता-बैठता है, कहीं मुँह से निकल गया तो अच्छा नहीं होगा।" राजकुमार गुप्ता बोले।
"आप मुझे जुबान का इतना कच्चा समझते हैं...?" मैं कुछ नाराजगी भरे अन्दाज़ में बोला तो गौरीशंकर गुप्ता झट से बोले - "अरे यार, तू तो बुरा मान रहा है। अरे तुझसे क्या छिपाना, तू तो घर का आदमी है, लेकिन अभी थोड़ा सब्र कर ले। तुझसे कुछ छिपना थोड़े ही है, पर अभी विजय जी का रुख भी देखना है। फिर आयेगा तो आराम से बात करेंगे। अभी तो हमें भी जरा काम से दरीबे जाना है। या तूने भी चलना हो तो चल।"
"मै क्या करूँगा चलकर...।" मैंने कहा।
"क्यों, घंटे-दो घंटे हमारे साथ बिताने में कोई टोटा है क्या? बहुत ज्यादा बिज़ी चल रहा है?" राजकुमार गुप्ता बोले।
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।" मैंने कहा।
"तो....चल फिर....।" गौरीशंकर गुप्ता बोले।
इन्कार की कोई गुंजाइश नहीं थी। मैं साथ चलने के लिए तैयार हो गया।
मैं आगे ड्राइवर के साथ की सीट पर बैठा। पीछे की सीट पर राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता बैठे।
ड्राइवर ने कार पत्थरवालान से दरीबा कलां के पीछे के रास्ते की ओर ले जाकर वहीं एक खाली जगह रोक दी।
हम मनोज पाकेट बुक्स की दुकान पर पहुँचे। नारंग पुस्तक भण्डार की दुकान मनोज पाकेट बुक्स की दुकान के साथ एकदम सटी हुई थी। अत: नारंग पुस्तक भण्डार के स्वामी चन्दर ने मुझे राज और गौरी भाई साहब के साथ देख लिया। उसने तुरन्त आवाज दी - "योगेश, जरा इधर तो आ...।"
"जा, सुन ले, चन्दर की बात।" गौरीशंकर गुप्ता ने मुस्कुराते हुए मुझे इशारा किया तो मैं चन्दर की दुकान पर चढ़ गया।
चन्दर काउन्टर के पास से मेरा हाथ थाम अपनी संकरी सी दुकान में कुछ पीछे ले गया, जहाँ किताबों के तीन-तीन, चार-चार बण्डलों का लाइन से अम्बार लगा था, जो कि और पीछे नीचे से ऊपर आठ- नौ बण्डलों की पंक्तियों में बदल गया था।
किताबों के एक बण्डल पर खुद बैठ, दूसरे पर मुझे बैठाकर, चन्दर इस तरह मुझसे बोला, जैसे कोई बहुत ही रहस्य की बात कर रहा हो -"अबे यार, सुना है विजय पाकेट बुक्स और राजहंस के बीच मुकदमा शुरू हो गया।"
मैं हक्का-बक्का रह गया।
अभी मुकदमा आरम्भ होने जैसी कोई बात शुरू भी नहीं हुई थी और बुक्स मार्केट के सबसे चर्चित खलीफा के पास मुकदमे की खबर भी पहुँच गई।
जवाब में मैंने कहा -"यह तो मैं आपके ही मुँह से, पहली बार सुन रहा हूँ।"
"रहने दे यार, मुझे सब मालूम है। 'विजय' में भी तेरा खूब आना-जाना है और मनोज में तो तू घर का ही आदमी है। फिर राजहंस के साथ भी तेरा उठना-बैठना रहा है।"
"नहीं सच, अभी मुकदमे जैसी कोई बात नहीं है। और है तो मुझे पता नहीं।" मैंने कहा।
"रहने दे यार, मुझे ही गोलियाँ दे रहा है। मुझे मालूम है - तुझे सब पता है।"
"नहीं यार, पता होता तो मैं झूठ क्यों बोलूँगा। इसमें छिपाने वाली कौन सी बात है।" मैंने कहा, लेकिन चन्दर नाराज़ हो गया-"जा यार, हम तो हमेशा से तुझे अपना भाई समझते हैं। मेरठ के हर पब्लिशर से मैं तेरी तारीफ करता रहा हूँ और तू मुझसे ही बात छिपा रहा है। जा, मनोज में जा, राज और गौरी तेरा इन्तजार कर रहे होंगे।"
चन्दर की दुकान से मैं नीचे उतरा ही था कि गर्ग एंड कंपनी में काम करने वाला रमेश निकट आया और बोला - "योगेश जी, ज्ञान भाई साहब, आपको बुला रहे हैं।"
मैं रमेश के साथ ही गर्ग एंड कंपनी पहुँचा। ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग मुझे बैठाते हुए बड़े प्यार से बोला-"आ भई, अब तो बड़े-बड़े पब्लिशरों का लेखक हो गया है तू - मगर एहसानफरामोश साले, भूल गया, जब मैंने गोलगप्पा में तेरी कहानियाँ छापी थीं, तब तुझे कोई जानता भी नहीं था।"
"नहीं भाई साहब, ऐसी कोई बात नहीं है। काफी दिनों से आपने खुद ही कोई काम नहीं बताया।" मैंने कहा।
"अबे, काम तो तब बताऊँगा, जब तू आयेगा। तू साले, पीछे से पीछे, मनोज में आकर गायब हो जाता है या वहीं शक्तिनगर में... मराता रहता है।" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने स्वभावानुसार गन्दी सी गाली देते हुए कहा।
मुझे गालियों से हमेशा चिढ़ रही है। मैं स्वयं कभी किसी को गालियाँ नहीं देता, ना ही गालियाँ सुनना मुझे अच्छा लगता है, पर गर्ग एंड कंपनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग की आदत थी, प्यार में भी गालियाँ देने की।
मगर मैं भी गालियाँ सुन, हमेशा नाराजगी प्रकट करते हुए जरा भी नहीं हिचकिचाता था।
उस समय ज्ञान का डायलॉग सुन, मैं एकदम खड़ा हो गया और गुस्सा दिखाते हुए बोला- "भाई साहब, हजार बार कहा आपसे, मेरे सामने गालियाँ मत दिया कीजिये। गन्दे शब्द मत निकाला कीजिये।"
ज्ञान ने फौरन मुझे पकड़ कर बैठा दिया और बोला -"अबे यार, तुझे पता है, मेरी आदत है। अच्छा अब ध्यान रखूँगा, बता क्या पियेगा?"
"अपना खून पिला दो।" मैं तब भी गुस्से में था।
"ले..।" ज्ञान ने पास रखा चाकू मेरी ओर बढ़ा दिया -"जितना चाहिए, निकाल ले।"
बरबस ही मुझे हँसी आ गई। ज्ञान भी हँसा - "साले, हँसता हुआ तू बहुत अच्छा लगता है। गुस्से में तो राक्षस लगता है राक्षस। गुस्सा मत किया कर।"
"ठीक है, यह बताओ, मुझे बुलाया किसलिये...?" मैंने बोरियत जताने का उपक्रम करते हुए पूछा।
"वैसे ही, किसी काम से नहीं। सुना है - राजहंस मनोज पाकेट बुक्स में छप रहा है और विजय ने उस पर मुकदमा कर दिया है।" ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने कहा।
और मेरे लिए यह एक और धमाका था।
दरीबा कलां में चन्दर और ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग किसी भोंपू से कम नहीं थे। इन दोनों की जुबान से तो झूठ भी निकल जाये तो सच की तरह मशहूर हो जाता था।
मुकदमे की शुरुआत नहीं हुई थी, मगर पूरी बुक्स मार्केट में मुकदमे की बात फैल गई थी।
(शेष फिर)
‼️योगेश मित्तल‼️
आगे क्या हुआ? अभी तो कई 'पंच' सामने आने हैं। आप बताइये - विजय कुमार मलहोत्रा और केवलकृष्ण के बीच अगली मुलाकातें कैसी हुई होंगी?
आगे की कड़ियाँ भी लिखिए मित्तल जी।
जवाब देंहटाएंजी कड़ियाँ प्रकाशित की जा चुकी हैं....
हटाएं