हिन्द व मनोज Vs. विजय पाकेट बुक्स
आप में से कितने लोग शराब पीते हैं और कितनी..? जो नहीं पीते, सवाल उनसे नहीं है। जो शराब को बुरी चीज़ समझते हैं, सवाल उनसे भी नहीं है। सवाल सिर्फ उनसे है, जो शराब पीते हैं। सवाल उनसे भी है, जो शराब पीते तो नहीं, पर शराब को बुरी चीज़ नहीं समझते। सवाल उनसे भी है,जो कभी-कभार मित्रों को कम्पनी देने के लिए घूँट, दो घूँट कहें या पैग-दो पैग हलक से नीचे उतार लेते हैं। सवाल उनसे भी है, जो दिन भर की थकान उतारने के लिए रात को सोने से पहले शराब का एक-आध पैग लेने में कभी कोई हर्ज नहीं समझते।
और आपका जवाब जो भी हो, एक बात निश्चित जान लीजिये, शराब आखिर शराब है। आज आप उसे थकान दूर करने के लिए लेते हों, दवा के तौर पर लेते हों, अगर आपने खुद पर अंकुश नहीं रखा तो 'दवा' का 'दर्द' बनना तय है।
केवलकृष्ण शराब तब भी पीते थे, जब वह एक साधारण सी दवा कम्पनी के मामूली एजेन्ट थे, पर तब उन्हें दिन भर घूमना पड़ता था। पैदल हों, चाहें स्कूटर पर गली-गली खाक छाननी पड़ती थी। किसी डाक्टर के पास तो किसी केमिस्ट के पास। दवाओं के बारे में बताते-बताते जुबान भी थक जाती थी। घुटनों और कूल्हों में भी दर्द होने लगता था, ऐसे में रात को खाने से पहले एक छोटा पैग ले लेने से, सोने के बाद तसल्ली की नींद आ जाती थी। उन दिनों एक ही अद्धा चार या पाँच दिन भी चल जाता था।
पीते तो थे ही, इसलिए पीना कभी पाप नज़र नहीं आया, लेखक बने तो लेखकों और प्रकाशक महोदय के साथ पीने का अवसर मिला, जब गाँठ से अपना एक पैसा खर्च नहीं हो रहा था तो भी केवलकृष्ण को अपने पीने की सीमा पता थी। आरम्भ में वह एक पैग से ज्यादा नहीं पीता था, विजय कुमार मलहोत्रा की आदत थी - वह किसी पर भी, कभी भी, अधिक पीने के लिए दबाव नहीं डालते थे, मगर जहाँ चार यार जमा हो जायें, ना-नुकुर बेकार हो जाती है। मैं यह नहीं कहूँगा कि किन लोगों की सोहबत में केवलकृष्ण उर्फ़ राजहंस अधिक पीने लगे, मगर यह हकीकत है कि एक से दो, दो से तीन, तीन से चार, फिर पाँच-छ: पैग भी डकार लेना, राजहंस के लिए आम बात हो गई।
और जब एक उपन्यास का पारिश्रमिक तीस चालीस हज़ार की सीमा तक आ गया तो अपने लिए मंहगी शराब खरीदना और घर में भी 'कोटा' रखना भी आम बात हो गई।
हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स में राजहंस की इन्ट्री के बाद जब भी विजय कुमार मलहोत्रा ने केवलकृष्ण उर्फ़ राजहंस से मिलना चाहा, वह या तो घर में नहीं मिला या पता चला अभी आराम कर रहे हैं और फिलहाल बातचीत करने की स्थिति में नहीं हैं।
कोई भी फैसला करने से पहले विजय कुमार मलहोत्रा एक बार केवलकृष्ण से बात करना चाहते थे और बात नहीं हो पा रही थी। समय नष्ट हो रहा था।
विजय कुमार मलहोत्रा बहुत शान्तिप्रिय व्यक्ति थे। जो लोग उन्हें जानते हैं, यह भी जानते रहे हैं कि वह बहुत शान्त रहते थे। उन्हें क्रोध में बहुत कम लोगों ने देखा होगा।
मैंने अन्य बहुत से प्रकाशकों को अपने वर्कर्स पर बहुत बार क्रोधित होते हुए देखा है। लेकिन विजय कुमार मलहोत्रा वर्कर्स पर काम धीरे करने या किसी अन्य बात के लिए गुस्सा करते भी थे तो उनकी आवाज नाराजगी प्रकट करने की होती थी। शिकायती अन्दाज़ होता था। तेज आवाज में चिल्लाते हुए क्रोधित होते हुए विजय कुमार मलहोत्रा को उनके घर के लोगों ने कभी देखा हो तो देखा हो, बाहरी व्यक्तियों ने शायद ही देखा हो।
जब कई दिनों तक केवलकृष्ण से मुलाकात और बात नहीं हुई तो विजय कुमार मलहोत्रा ने अपने छोटे भाई सुभाष से कहा कि 'यार, केवल से बात नहीं हो पा रही है, तू सारे काम छोड़ उससे बात कर, किसी तरह एक बार उसे लेकर आ...। चाहें तुझे दिन भर केवल के घर के बाहर ड्यूटी देनी पड़े, लेकिन देख, बात आराम से करनी है। अपना टेम्पर बिल्कुल कन्ट्रोल में रखना है। समझ ले - केवल हमारा भाई है और तू भाई से बात करने जा रहा है।'
विजय जी का छोटा भाई सुभाष बचपन से ही दबंग और गुस्सैल था, पर वह अपने बड़े भाई की बहुत इज्जत करता था। विजय कुमार मलहोत्रा की कही बात उसके लिए ब्रह्म वाक्य थी, पत्थर की लकीर थी, किन्तु सुभाष का गुस्सा भी मशहूर था और यह भी कि उसे गुस्सा आ जाये तो वह हाथ-पैर चलाने में भी नहीं हिचकता।
विजय कुमार मलहोत्रा आम तौर पर स्कूटर ही चलाते थे, किन्तु उनके पास एक पुराने जमाने की एक शानदार कार भी थी और एक फिएट भी।
सुभाष के पास एक मोटर साइकिल और एक वैन सरीखी काले रंग की कार थी। सुभाष ने अपनी कार 'राजहंस' के घर से कुछ दूर खड़ी कर दी और कार में बैठकर राजहंस का इन्तजार करता रहा और दोपहर बाद जब किसी काम से केवलकृष्ण घर से बाहर निकले तो सुभाष अपने गुस्सैल स्वभाव के विपरीत अनुनय-विनय करके उन्हें विजय पाकेट बुक्स के आफिस में ले आया। केवलकृष्ण के मुँह से उस समय भी 'व्हिस्की की स्मेल' आ रही थी, पर वह नशे में टुल्ल नहीं थे।
विजय कुमार मलहोत्रा ने केवलकृष्ण से मनोज और हिन्द में जाने की वजह पूछी तो केवलकृष्ण का कहना था कि उनकी आफर ही ऐसी थी कि इन्कार किया ही नहीं जा सकता था।
विजय जी ने कहा कि एक बार मुझसे बात तो करनी थी। मुझे उनकी आफर के बारे में बताना तो था। हो सकता है - हम आपस में बात करते तो कोई अच्छा रास्ता निकल जाता।
फिर विजय कुमार मलहोत्रा और केवलकृष्ण में दोस्ताना लहजे में भी काफी देर तक बात हुई। केवलकृष्ण का कहना था कि अब तो हिन्द और मनोज से पक्की बातचीत हो चुकी है। उन्हें उपन्यास भी दे दिये हैं। अब कुछ नहीं हो सकता, लेकिन वह विजय पाकेट बुक्स में भी उपन्यास देते रहने की कोशिश करेंगे।
परन्तु सबसे बड़ी बात विजय पाकेट बुक्स की प्रतिष्ठा की थी। पुस्तक विक्रेताओं में जैसी धूम उपन्यासकार राजहंस की थी, वैसी ही प्रतिष्ठा विजय पाकेट बुक्स की भी थी, बल्कि उन दिनों नये लेखकों "वासुदेव, हरविन्दर, मीनू वालिया और सावन को उनके नाम और तस्वीर के साथ छापने के कारण पुस्तक विक्रेताओं में विजय पाकेट बुक्स का नाम अधिक प्रतिष्ठित था। हिन्द, स्टार और मनोज में इतने ज्यादा फोटो वाले लेखक नहीं थे, जो कि अच्छे बिकाऊ भी थे।
राजहंस का विजय छोड़ कहीं और छपने का मतलब आम लोगों में यही सन्देश जाना था कि जरूर विजय पाकेट बुक्स ने राजहंस के साथ कुछ अन्याय किया होगा और विजय कुमार मलहोत्रा का मानना था कि अगर वह कोई एक्शन नहीं लेते, राजहंस से अपने रिश्तों का ख्याल करके खामोश बैठ जाते तो आर्थिक नुक्सान तो जो होना था, वह तो होता ही, प्रतिष्ठा भी धूल धूसरित होती। विजय कुमार मलहोत्रा को ऐसे समय क्या किया जाये, तत्काल ही कुछ समझ में ही नहीं आया।
उन दिनों पटेलनगर, राज भारती जी के यहाँ फोन नहीं था, पर पटेलनगर की उस बिल्डिंग में एक फोन था - खेल खिलाड़ी के आफिस में, जो कि दूसरी मंजिल पर था। भारती साहब और उनके दूसरे-तीसरे नम्बर के भाई पहली मंजिल पर रहते थे। सबसे छोटा भाई किशन ग्राउंड फ्लोर में माताजी-पिताजी के साथ रहता था।
चूंकि खेल खिलाड़ी में छपने वाले आर्टिकल का फैसला मैं ही करता था और प्रूफरीडिंग भी मैं ही करता था, इसलिए मैं हर दूसरे तीसरे दिन आकर खेल खिलाड़ी की डाक पर नज़र डाल लेता था, लेखकों के तथा अन्य आवश्यक पत्रों का उत्तर दे देता था।
पुस्तक विक्रेताओं के पत्रों का उत्तर देने के लिए सरदार मनोहर सिंह से जवाब पूछना पड़ता था तो वे जवाब पूछकर दे दिया करता था।
मेरा रोज आफिस आना जरूरी न था। सरदार मनोहर सिंह की ओर से मेरे आने-जाने के टाइम की भी कोई बन्दिश नहीं थी। मैं खेल खिलाड़ी का सम्पादक था, किन्तु सम्पादक और प्रकाशक के रूप में मेरे द्वारा खेल खिलाड़ी का काम सम्भालने से पहले ही सरदार मनोहर सिंह का नाम छपता था। तब किसी का नाम सह-सम्पादक के रूप में नहीं छपता था। मेरे द्वारा काम सम्भालने के बाद सह-सम्पादक के रूप में मेरा नाम "योगेश मित्तल" छपने लगा था।
मैं खेल खिलाड़ी के आफिस में था, जब ग्यारह बजे के करीब घंटी बजी। फोन मैंने उठाया ।
"करतार है क्या?" दूसरी ओर से विजय कुमार मलहोत्रा जी की आवाज आई।
"हाँ, हैं।" मैंने कहा -"नीचे हैं, अभी बुलाता हूँ।"
"योगेश बोल रहा है...?" आवाज पहचान विजय जी ने पूछा।
"हाँ...।" मैंने कहा।
"मैं विजय बोल रहा हूँ। करतार को बोल, फौरन राणा प्रताप बाग पहुँचे। मैं इन्तजार कर रहा हूँ।" दूसरी ओर से यह कहकर विजय कुमार मलहोत्रा ने फोन रख दिया।
मैं नीचे गया। भारती साहब के फ्लैट में पहुँच, उन्हें विजय कुमार मलहोत्रा का सन्देश दिया। भारती साहब सोच में पड़ गये - ऐसा क्या जरूरी काम आ पड़ा, कहीं उनके या वालिया के उपन्यास में मैटर कम-ज्यादा तो नहीं पड़ गया।
"चल, तू भी साथ चल।" भारती साहब मुझसे बोले-"मैटर कम-ज्यादा हुआ तो तू देख लेना।"
भारती साहब ऐसे कामों में मुझे सबसे ज्यादा एक्सपर्ट मानते थे। बाद में मेरठ के प्रकाशकों ने भी मेरी इस खूबी का खूब फायदा उठाया। गौरी पाकेट बुक्स के अरविन्द जैन ने तो, जब वह पूजा पाकेट बुक्स चलाते थे, तब मुझसे वेद प्रकाश वर्मा, कुमार कश्यप और कई अन्य लेखकों के उपन्यासों में दो-दो, तीन-तीन फार्म का मैटर बढ़वाया था। लेखक की शैली से शैली मिलाकर उपन्यास का मैटर बढ़ाने में मुझे महारत हासिल थी।
हमने पटेलनगर से मोतीनगर की बस पकड़ी और फिर उन दिनों कर्मपुरा से बनकर मलकागंज जाने वाली 81 नम्बर की बस पकड़ी, जिससे शक्तिनगर के स्टाप पर उतर गये, वहाँ से राणा प्रताप बाग अन्दर तक जाने के लिए रिक्शा पकड़ा और एक-सवा घंटे के बाद विजय पाकेट बुक्स के आफिस पहुँच गये।
आफिस में अपनी कुर्सी पर विजय कुमार मलहोत्रा बहुत परेशान बैठे थे। बस, उन्होंने अपना माथा नहीं पकड़ रखा था यही गनीमत थी।
हम बैठे तो हमारे सामने उन्होंने हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के सर्कुलर रख दिये।
इन्देश ने तत्काल एक ट्रे में पानी के तीन गिलास टेबल पर रख दिये, किन्तु हम में से किसी ने भी पानी का गिलास नहीं उठाया। मैं और भारती साहब उन दोनों सर्कुलर्स को हक्के-बक्के से देख रहे थे।
मेरे और भारती साहब के लिए वे सर्कुलर अचम्भा ही थे, क्योंकि हम दोनों यही जानते थे कि विजय कुमार मलहोत्रा और केवलकृष्ण कालिया के आपसी सम्बन्ध अत्यन्त प्रगाढ़ हैं। उनके बीच घरेलू सम्बन्धों जैसा रिश्ता है।
"ये क्या हो गया...?" भारती साहब ने अफसोस जताने वाले अन्दाज़ में पूछा तो अनायास ही विजय कुमार मलहोत्रा की आँखों में आँसू आ गये। एकदम वह कुछ नहीं बोल सके।
मेरे जीवन में वह पहला और आखिरी मौका था, जब मैंने विजय कुमार मलहोत्रा जैसे मजबूत इन्सान की आँखों में आँसू देखे।
भारती साहब ने कुछ देर विजय कुमार मलहोत्रा को सिसकने दिया। जब उनके मन का गुब्बार कुछ हल्का हुआ और आँसू पोंछ वह सामान्य हुए तो भारती साहब पंजाबी में बोले -"हुण दस्सो, कि गल्ल है, ये सब क्या है..? कैसे हो गया यह सब...?"
विजय कुमार मलहोत्रा ने धीरे धीरे हमें वह सब कह सुनाया, जो पिछले कुछ दिनों में गुजरा था। बाहरी पुस्तक विक्रेताओं से हिन्द और मनोज के सर्कुलर मिलने और फिर मुश्किलातों के बाद केवलकृष्ण से मिलने का सारा वाकया विजय जी ने विस्तार से कह सुनाया। अन्त में बोले - "समझ नहीं आ रहा, हुण की करिये...।"
"करना क्या है।" भारती साहब बोले -"अगर आपसी सहमति से बात नहीं बन रही तो किसी न किसी अच्छे वकील से तो बात करनी ही पड़ेगी।"
"यार, अच्छा नहीं लगता। रोज साथ उठना-बैठना, खाना-पीना चलता रहा है। हर तरह का हँसी-मज़ाक होता रहा है। मेरे साथ सुभाष से भी ज्यादा अच्छा रिश्ता था केवल का। बरसों का रिश्ता एकदम ऐसे खत्म तो नहीं किया जा सकता।"
"आप कहो तो हम केवल के घर जाकर कुछ बात करें?" भारती साहब ने कहा।
"उसका कोई फायदा नहीं मिलेगा। मैंने दसियों बार कोशिश की, हर समय वह टुल्ल मिला। बाद में सुभाष उसे साथ लेकर आया तो भी शराब की महक उसके मुँह से आ रही थी। मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं इस तरह केवल खत्म ही न हो जाये। पीना कोई बुरा नहीं है। हम भी पीते हैं, पर पिछले दिनों केवल का जो हाल देखा है, डर है कि उसका प्रभाव कहीं उसके लिखने पर भी न पड़े। मैंने यह सारी बातें भी उसे समझाने की कोशिश कीं, पर पता नहीं उस पर मेरी बातों का कुछ असर हुआ भी या नहीं।"
मामला गम्भीर था।
सलाह देने के तौर पर भारती साहब बोले - "आप ही देख लो, क्या करना है। एक-दो मीटिंग और करके देखो, शायद कुछ हल निकल आये, मामला कोर्ट तक न जाये तो अच्छा है।"
दोस्तों, आरम्भ में मैंने शराब की बात यूँ ही नहीं की थी। पहले आदमी शराब पीता है। फिर शराब उसे पीने लगती है। आपने विजय पाकेट बुक्स में केवलकृष्ण के उपन्यास पढ़े हैं और बाद में बाहरी फर्मों में प्रकाशित हुए उपन्यास भी। ज्यादा न सही कुछ थोड़ा सा फर्क तो आपने जरूर महसूस किया होगा। विजय पाकेट बुक्स से सम्बन्ध विच्छेद के बाद केवलकृष्ण उर्फ़ राजहंस शराब भी ज्यादा ही पीने लगे थे। यह खबर मुकदमे की शुरुआत के बाद विजय जी को भी केवलकृष्ण के करीबी मित्रों से मालूम हो गई थी, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि तब डाँटने और नाराज़ होने का अधिकार भी उनके पास नहीं रहा था।
केवलकृष्ण बहुत ही इमोशनल शख्स थे। आर्थिक आवश्यकताएँ बढ़ने पर अपने बाल-बच्चों की फिक्र के कारण, काफी कुछ सोचने के बाद ही उन्होंने हिन्द और मनोज में उपन्यास देने का मन बनाया था, किन्तु विजय पाकेट बुक्स को भी छोड़ने की उनकी कतई इच्छा नहीं थी, पर वह विजय जी से जब भी मिले, नशे में मिले। शायद इसीलिए खुलकर अपनी बात समझा नहीं सके। ना ही वह विजय कुमार मलहोत्रा की बात समझ सके।
नतीजा - वही हुआ, जो होता दिखाई दे रहा था।
(शेष फिर)
‼️योगेश मित्तल‼️
और फिर कैसे शुरू हुआ कोर्ट का चक्कर....?`
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