लेखक जो बम्बई गये और उनकी कहानी पर फिल्म बनी? - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 7 मई 2021

लेखक जो बम्बई गये और उनकी कहानी पर फिल्म बनी?

प्रिय मित्र सत्य व्यास जी ने मेरी एक पोस्ट के कमेन्ट बाक्स में एक सवाल किया! सवाल निम्नांकित है -

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सत्य व्यास जी का सवाल

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योगेश जी,एक सवाल यह भी काफी दिनों से मन मे रहा। कृपया इस पर भी कभी बात हो कि वो कौन कौन से  पल्प/लोकप्रिय लेखक थे जो सफलता या यूं कहें फिल्मो की तलाश में मुम्बई गए। उनकी किन किताबों पर उनके नाम से  फिल्में बनी, या कौन सी कहानी वह बेनामी ही बेच आये और बाद में निर्माता निर्देशक ने अपने नाम से वो फिल्में बना लीं।


पूछने का कारण यह भी है कि पुरानी साधना प्रतापी, प्रेम वाजपेयी, प्यारेलाल आवारा इत्यादि की किताबों में इस बात की घोषणा तो मिलती है। मगर हम इन फिल्मों को ढूंढ नहीं पाते।


आपने राज भारती जी की मुम्बई भ्रमण की बात की तो यह सवाल जेहन में आ गया। 

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मेरा जवाब

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जहाँ तक मेरी जानकारी है - फिल्मों में सबसे पहले हिट होने वाले  पाकेट बुक्स लेखक गुलशन नन्दा थे - जिनके उपन्यास माधवी पर फिल्म काजल बनी। नीलकमल पर नीलकमल बनी। कटी पतंग पर कटी पतंग बनी। नया जमाना उनकी कहानी पर बनी। उसका स्क्रीन प्ले पाकेट बुक्स में बाद में आया। 


गुलशन नन्दा के बाद आरिफ मारहर्वीं साहब की कहानियों पर मिठुन चक्रवर्ती की रफ्तार, सुरक्षा, गनमास्टर जी - 9 आदि फिल्में आईं। 


इसके बाद हम वेद प्रकाश शर्मा का नाम ले सकते हैं, जिनके उपन्यास बहू माँगे इन्साफ पर फिल्म बहू की आवाज बनी, इसके अलावा विधवा का पति पर अनाम तथा लल्लू पर सबसे बड़ा खिलाड़ी। इनमें सिर्फ सबसे बड़ा खिलाड़ी ही हिट रही। 


इसके अलावा भी बहुत से पाकेट बुक्स लेखकों की कहानी पर फिल्में बनी होंगी, पर मेरे लिए विवरण देना सम्भव नहीं। 


फिल्मों में यदि किसी पाकेट बुक्स लेखक को आलवेज़ हिट माना जाये तो वह केवल गुलशन नन्दा ही रहे हैं। 


लेकिन नन्दा जी के फिल्मों में प्रवेश से पहले भी उनकी एक उपन्यास डरपोक पर फिल्म बनी थी, किन्तु उसका श्रेय कभी गुलशन नन्दा को नहीं मिल सका। 


एक सच्ची और कड़वी बात यह भी है कि फिल्म वाले लुगदी साहित्य से अक्सर प्लाट चुराते भी थे। 


पर तब लुगदी साहित्य में उपन्यास लिखने वाले भी फिल्मों से आइडिया लेते थे। पुराने फिल्मी लेखक पण्डित मुख राम शर्मा ऐसे लेखक थे, जिनकी लिखी फिल्मों की कहानियों से अनेक सामाजिक उपन्यासकारों ने आइडिया लिया और कामयाब उपन्यास लिखा। 


पर आइडिया लेने मात्र से कोई नकलची नहीं हो जाता, यह साबित किया - फिल्म "बम्बई का बाबू ने। 


लुगदी साहित्य के उपन्यासों पर फिल्म बनाने के बहुत किस्से होंगे और हो सकते हैं। सब के बारे में बताना सम्भव नहीं है। हालांकि अखबार पढ़ने की नियमित आदत होने और फिल्मी पत्रिकाओं के नजरों से गुजरते रहने के कारण मैं यह कहूँ कि मैंने कभी कुछ नहीं पढ़ा, मुझे कुछ नहीं मालूम, तो निस्संदेह गलत होगा। हाँ, इस विषय में याद्दाश्त का साथ बहुत ज्यादा नहीं मिल रहा, पर मैं एक बात दावे से कह सकता हूँ कि साहित्यिक क्षेत्र के लेखकों प्रेम चंद, शरत चन्द्र, बंकिमचन्द्र, रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे ख्याति प्राप्त लेखकों की रचनाओं पर फिल्म बनाते हुए किसी भी फिल्मकार ने कभी चोरी नहीं की। 


लेकिन लुगदी साहित्य कहें या  पल्प साहित्य कहें या पाकेट बुक्स साहित्य की कृतियों का ही फिल्मी लेखक आइडिया चुरा लेते थे, जिसके बारे में कई बार फिल्म के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर को पता ही नहीं होता। 


मुझे उपन्यासों के नाम तो नहीं याद, पर मनोज पाकेट बुक्स के संस्थापक और राज व राजा पाकेट बुक्स के स्वामी स्वर्गीय राज कुमार गुप्ता जी ने एक बार मुझसे कहा था कि सोमनाथ अकेला के सामाजिक उपन्यासों के आइडियाज कई फिल्म वालों ने चुराये हैं, लेकिन सोमनाथ अकेला ने कभी मुकदमे का विचार नहीं किया। कारण था - एक तो आर्थिक स्थिति और दूसरे वह मुकदमे की टेन्शन का शिकार नहीं होना चाहते थे। 


अपने जमाने में सोमनाथ अकेला, प्रेम बाजपेयी से भी ज्यादा लोकप्रिय थे। 


उनका एक उपन्यास "एक लड़की चौराहे की" मार्केट में आते ही दो दिन में ही बुक स्टालों से गायब हो गया था। 


एक लड़की चौराहे की ससुराल में सताई ऐसी लड़की की कहानी थी, जिसके माँ-बाप ने उसे विदा करते हुए समझा दिया था कि बेटी, अब ससुराल ही तेरा घर है। भले घर की लड़कियों की डोली मायके से उठती है और अर्थी ससुराल से ही उठनी चाहिए। 


एक अवसर ऐसा आता है, जब दहेज पर्याप्त न मिलने के कारण नायिका को ससुराल से धक्के मार कर घर से निकाल दिया जाता है और रोती-बिलखती नायिका एक ऐसे चौराहे पर पहुँच जाती है, जहाँ एक रास्ता उसके ससुराल से आता था और एक रास्ता मायके जा रहा होता है। तीसरा रास्ता वेश्याओं के कोठों की ओर जाता था और चौराहे का चौथा रास्ता किसी नदी या रेल की पटरियों की ओर जाता था। जहाँ वह आत्महत्या कर सकती है। पूरी तरह कहानी याद नहीं, पर पचास से सत्तर के अर्से में कई फिल्मों में ऐसी सिचुएशन क्रियेट थी, यह स्वर्गीय राज कुमार गुप्ता जी का कहना था। 


पाकेट बुक्स में सबसे पहले सबसे ज्यादा चर्चित हुए गुलशन नन्दा का एक उपन्यास था - डरपोक।


1960 में प्रदर्शित राज खोसला निर्देशित फिल्म "बम्बई का बाबू" डरपोक उपन्यास की ही कहानी थी। किन्तु फिल्म के कहानीकारों में विख्यात साहित्यकार उपन्यासकार व फिल्मी लेखक राजिन्दर सिंह बेदी और एम. आर. कामथ का नाम था। अपने शुभचिन्तकों की सलाह पर गुलशन नन्दा जी ने फिल्म बनाने वालों को नोटिस भेजा, किन्तु फिल्मी लेखकों का कहना था कि यह आइडिया उन्होंने ओ. हेनरी की कहानी से लिया है। नन्दा जी को उस फिल्म की कहानी का श्रेय नहीं मिला। हालांकि उन दिनों गुलशन नन्दा इतने ज्यादा पढ़े जाते थे कि असम्भव नहीं लेखक द्वय कामथ और बेदी ने नन्दा जी का उपन्यास और ओ. हेनरी की कहानी दोनों पढ़े हों और आइडिया नन्दा जी के उपन्यास से ही विकसित किया हो। 


इन्टरनेट पर बम्बई का बाबू के बारे में वर्णन है कि देवआनंद अभिनीत राज खोसला दवारा निर्देशित बम्बई का बाबू फिल्म की कहानी में राजिंदर बेदी और एम.आर कामथ ने O Henry की कहानी A Double Dyed Deceiver से प्रेरित प्रसंगों को रखा और इसमें इनसेस्ट के कोण का मिश्रण करके हिंदी सिनेमा के लिए इसे एक बिल्कुल भिन्न फिल्म बना दिया जिसके कथानक की बराबारी न तो इससे पहले बनने वाली हिंदी फ़िल्में कर सकती हैं न बाद में बनने वाली| सत्तर के दशक में जब बी.आर.चोपडा के सुपुत्र रवि चोपडा ने निर्देशन की कमान संभाली तो उन्होंने बम्बई का बाबू के कथानक को कम तनाव उत्पन्न करने वाला बनाकर अमिताभ और सायरा बानो को लेकर जमीर फिल्म का निर्माण किया|


भाई बहन के आदर्श रूप पर जाएँ तो सतह पर फिल्म में इनसेस्ट का पुट है लेकिन यह फिल्म का मकसद नहीं कि हॉलीवुड की फिल्मों The Cement Garden और Desire Under the Elms की भांति इनसेस्ट को खंगालें, बल्कि यहाँ फिल्म नायक नायिका के मध्य एक गलतफहमी, जिसे नायक तो जानता है अतः उसके दिमाग में सब कुछ स्पष्ट है, परन्तु नायिका सच से अनभिज्ञ है अतः तनावग्रस्त है, के कारण उपजी तनावग्रस्त स्थितियों में उनके मानसिक संघर्षों को दर्शाने का लक्ष्य लेकर चलती है|


अमिताभ बच्चन और सायरा बानो की फिल्म ज़मीर में भी गुलशन नन्दा जी को कहानी का श्रेय नही दिया गया। कहानीकार के रूप में सी. जे. पावरी का नाम था। 


इस संस्मरण से आप यह तो समझ सकते हैं कि फिल्म बनाने वालों से टकराना एक पाकेट बुक्स लेखक के लिए कभी आसान नहीं रहा। 


कानूनी किताबों के रिकॉर्ड में तो ऐसे बहुत से किस्से मिल जायेंगे, जब किसी लेखक ने किसी फिल्म की कहानी अपनी होने का दावा किया, हमेशा दो ही बातें हुई हैं या तो लेखक मुकदमा हार गया या उसे दस-बीस-पचास हज़ार देकर खामोश कर दिया गया। 


देव आनन्द की फिल्म ये गुलिस्ताँ हमारा पर भी किसी लेखक ने कहानी अपनी होने का दावा किया था। फिल्म ठीक चल रही थी। मुकदमे की वजह से फिल्म पर रोक न लगे, कोई परेशानी न हो, इसलिए देव आनन्द ने आऊट आफ कोर्ट बात की और उस लेखक की औकात के हिसाब से कुछ लाख देकर उसे खामोश कर दिया। मुकदमे की नौबत ही नहीं आई। 


पर पाकेट बुक्स लेखकों की कहानियाँ फिल्म वालों द्वारा चुराने के और भी बहुत से किस्से मिल जायेंगे, पर उनके बारे में फिल्मी पत्रिकाओं में लिखने वाले गासिप लेखक बेहतर बता सकते हैं। मैंने तो फिल्मों पर गिनती के दो आर्टिकल से ज्यादा तीसरा भी कभी नहीं लिखा। वो भी किसी फिल्मी पत्रिका के लिए नहीं, एक नई पत्रिका के लिए लिखें थे, जो बहुत जल्दी बन्द भी हो गई थी और अशोक कुमार और गुरुदत्त पर ही लिखे थे।. 


मैं जानता हूँ - मेरे जवाब से बहुतों की प्यास नहीं बुझी होगी, पर इस सन्दर्भ में, मैं अधिक कुछ भी नहीं लिख सकता। 


- योगेश मित्तल

2 टिप्‍पणियां:

  1. वेद प्रकाश शर्मा के १९८८ में प्रकाशित उपन्यास 'सुहाग से बड़ा' पर १९९९ में 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' का निर्माण हुआ था जिसके नायक 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' के नायक अक्षय कुमार तथा निर्माता-निर्देशक उसी के निर्माता-निर्देशक उमेश मेहरा थे। वेद प्रकाश शर्मा को कथा-पटकथा-संवाद के लिए श्रेय दिया गया था। फ़िल्म असफल रही थी।

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    1. इस जानकारी के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया ! इसे हम पुस्तक में आपके नाम सहित वर्णित करेंगे ! धन्यवाद...!
      जय श्रीकृष्ण !

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