राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 1 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 21 मई 2021

राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स - 1

 सम्बन्धों में खटास की शुरुआत

आपने राजहंस के उपन्यास पढ़े हैं....? 


आपने शेखर के उपन्यास पढ़े हैं...? 


आपने रतिमोहन के उपन्यास पढ़े हैं....? 


'हाँ या नहीं' - जिसमें भी आपका जवाब हो, उसे अपने पास ही रखिये, क्योंकि मेरा इसके बाद एक सवाल यह भी है कि... 


क्या आप लेखक हैं...?


यदि हैं तो आगे चलकर आप समझ जायेंगे कि मैंने राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स के मुकदमे का किस्सा बयान करने से पहले यह कैसे सवाल छेड़ दिये। 


अब आयें विजय पाकेट बुक्स और राजहंस उर्फ केवलकृष्ण कालिया के सम्बन्धों की बात पर... 


विजय कुमार मलहोत्रा ने जब राजहंस प्रकाशित करना आरम्भ किया, उसके गेटअप, मैटर, कवर डिजाइन में कोई कमी नहीं छोड़ी। बैक कवर पर राजहंस के रूप में केवलकृष्ण कालिया की खूबसूरत फोटो। 


बैक कवर को सजाने-संवारने का काम शादीपुर डिपो और वेस्ट पटेलनगर के बीच पड़ने वाले बलजीत नगर में रहने वाले आर्टिस्ट एन. एस. धम्मी से लिया गया। किन्तु कवर डिजाइन के लिए अमरोहा में रहने वाले बेहतरीन आर्टिस्ट "शैले" से शानदार डिजाइन बनवाये गये।


शैले उस समय पाकेट बुक्स में सबसे खूबसूरत डिजाइन बनाने वाले, सबसे मंहगे आर्टिस्ट के रूप में जाने जाते थे। 


पुस्तक में टोटल मैटर के हिसाब से बत्तीस, तैंतीस, चौंतीस लाइने सैट की जाती थीं और एक लाइन में कम से कम बारह शब्द होते थे। 


राजहंस का उपन्यास पढ़ने वाले सभी पाठकों को भरपूर मनोरंजन के साथ सालिड पाठ्यसामग्री मिले, इसका पूरा ख्याल रखा जाता था। 


राजहंस के सभी उपन्यासों के प्रूफ कम से कम दो बार तथा आवश्यकता पड़ने पर तीन बार भी पढ़े जाते थे। विजय कुमार मलहोत्रा चाहते थे कि राजहंस के उपन्यासों में भाषाई और मात्रा की कोई गलती नहीं रहे। 


एक बात यहाँ मैं आप सबको बता देना चाहूँगा कि बहुत से लेखकों के लेखन में पहले भी मात्राओं की गलतियाँ होती रहती थीं, अब भी होती हैं। किन्तु प्रकाशक प्रूफरीडिंग में लेखकों की गलतियाँ भी शुद्ध करवाने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे। 


इसके अलावा उस समय की मशहूर फिल्मी पत्रिकाओं में राजहंस के पूरे- पूरे पेज के विज्ञापन दिये गये। 


'राजहंस' की 'सेल' बढ़ने पर विजय कुमार मलहोत्रा ने कभी भी केवलकृष्ण के कुछ कहने का इन्तजार नहीं किया। हमेशा पारिश्रमिक बिना कहे ही बढ़ा दिया। 


सारी बातों का आप एक ही मतलब निकाल सकते हैं कि विजय कुमार मलहोत्रा और केवलकृष्ण कालिया के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। सम्बन्धों में कहीं भी जरा-सी भी खटास नहीं थी। 


फिर क्या हुआ कि इस रिश्ते में बाल आ गया। 


विजय पाकेट बुक्स में नये व पुराने लेखकों का आना-जाना तो आरम्भ से ही चलता रहता था, कई नये लेखकों की स्क्रिप्ट विजय कुमार मलहोत्रा ने पसन्द भी की थीं। उन्हें अवसर देने के बारे में विचार और निर्णय भी कर लिया था। 


उन नये लेखकों में कानपुर में रहने वाले वासुदेव के उपन्यास विजय कुमार मलहोत्रा को बहुत अच्छे लगे थे और लुधियाना में रहने वाले एक सरदार लेखक हरविन्दर के उपन्यास भी उन्हें काफी पसन्द आये थे। 


पुराने लेखकों में राज भारती जी से विजय कुमार मलहोत्रा की अच्छी दोस्ती थी और उनसे व्यक्तिगत बातों की चर्चा होती रहती थी। 


भारती साहब कभी वालिया साहब के साथ, कभी मेरे और वालिया साहब के साथ तो कभी वालिया साहब और इन्देश्वर जोशी के साथ विजय पाकेट बुक्स जाते रहते थे। 


इन्देश्वर जोशी की नौकरी उन दिनों छूटी हुई थी और वह नई नौकरी के लिए परेशान था। 


राज भारती जी को विजय पाकेट बुक्स के बढ़ते हुए काम को देखकर पहले से ही आइडिया था कि किसी न किसी दिन विजय जी को कुछ और आदमी काम पर रखने ही पड़ेंगे। 


एक दिन जब मैं और भारती साहब विजय पाकेट बुक्स गये तो विजय जी ने मुझसे कहा - "योगेश, तू मेरे यहाँ आ जा...। यहाँ का काम भी सम्भाल ले, ज्यादा कुछ नहीं, तुझे यहाँ बन्दों से काम लेना होगा और यहीं बैठकर नावेल  लिखा करना।"


"मुश्किल है...।" मैंने कहा - "एक तो मेरा खेल खिलाड़ी का काम भी जिम्मेदारी का है। फिर मनोज में भी अक्सर एडीटिंग के बहुत से काम आते रहते हैं और वक़्त-बेवक़्त वो तो मुलखराज को घर पर भेजकर भी बुलवा लेते हैं।"


"आप इन्देश को रख लो।" भारती साहब तत्काल बोल उठे -"वह आप जो कहोगे, सब काम सम्भाल लेगा।"


फिर भारती साहब और विजय जी में कुछ देर इन्देश्वर जोशी के बारे में बातें हुईं। इन्देश्वर जोशी को हम सभी शार्ट में 'इन्देश' ही कहते थे। 


भारती साहब और विजय जी की बातों का आखिरी नतीजा यही निकला कि विजय कुमार मलहोत्रा ने भारती साहब से इन्देश्वर जोशी को विजय पाकेट बुक्स भेजने के लिए कह दिया। 


दरअसल विजय कुमार मलहोत्रा का पाकेट बुक्स बिजनेस के अलावा भी एक बिजनेस प्लेटफार्म था, वह यह कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के सभी बुक स्टाल्स का ठेका उनके पास था। 


जहाँ तक मैं समझता हूँ - लेखन और प्रकाशन से कोई सम्बन्ध न रखने वाले मित्रों को भारत के रेलवे स्टेशनों में बिकने वाली किताबों के स्टाल्स के बारे में सम्भवतः कम ही जानकारी होगी। अत: उनके लिए यह डिटेल लिख रहा हूँ कि भारत के बहुत सारे रेलवे स्टेशनों के स्टाल्स पर बिकने वाली पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, हिन्दी-अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के उपन्यास एवं जनरल नॉलेज की पुस्तकें इलाहाबाद स्थित एक. एच. व्हीलर एंड कंपनी की मार्फत वितरित होती रही हैं।  


उन दिनों दिल्ली के पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन में पुस्तकें बेचने का ठेका ए. एच. व्हीलर एंड कंपनी के पास ही था, किन्तु नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का ठेका विजय कुमार मलहोत्रा के पास था और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के एक नम्बर प्लेटफार्म के मुख्य प्रवेशद्वार के साथ ही लगते बुक स्टाल पर कभी विजय कुमार मलहोत्रा, कभी उनके भाई, कभी पिताजी बैठते थे। 


विजय कुमार मलहोत्रा आमतौर पर सुबह-सुबह  छ: बजे से दस-ग्यारह बजे तक और शाम के किसी वक़्त से दस बजे या कुछ अधिक वक़्त रात तक पहले प्लेटफार्म के मुख्य स्टाल पर बैठते थे। फिर उन्हें राणा प्रताप बाग, विजय पाकेट बुक्स के लिए भी काफी वक़्त निकालना पड़ता था। कुल मिलाकर उनका जीवन एक आम आदमी के जीवन से कुछ अधिक ही व्यस्त था, इसलिए उन्हें एक उचित और उपयुक्त सहयोगी की सख्त आवश्यकता थी, जो उनकी हिदायत के अनुसार काम कर सके और जिससे वक़्त-बेवक़्त वह खुल कर बातें और सलाह-मशवरा भी कर सकें। मैं जब भी दोपहर के वक़्त मनोज पाकेट बुक्स के शक़्तिनगर स्थित आफिस जाता था, वहाँ से पैदल ही राणा प्रताप बाग विजय पाकेट बुक्स में भी एक चक्कर लगा लेता था और वहाँ विजय कुमार मलहोत्रा जी के साथ कभी थोड़ा तो कभी ज्यादा वक़्त बिताते हुए उनके दिल के काफी करीब हो गया था। वह मुझसे अपने मन की हर बात बिना किसी संकोच और झिझक के कर लेते थे। 


विजय पाकेट बुक्स में अक्सर मेरी मुलाकात केवल जी उर्फ राजहंस जी से भी हो जाती थी। कई बार ऐसा भी हुआ, जब हम साथ साथ विजय पाकेट बुक्स के आफिस से बाहर निकलते थे, तब राह चलते-चलते हमारी आपस में काफी बातें होती थीं। 


मुझे नहीं पता - मुझ में ऐसा क्या है कि जिन लोगों से भी मेरी कभी भी थोड़ी सी भी नजदीकियाँ रहीं, उन्होंने कभी भी अपने मन की बात मुझसे शेयर करने में जरा भी संकोच नहीं किया। ऐसे बहुत से आम लोग भी हैं, लेखक भी और प्रकाशक भी। हाँ, मैंने कभी भी किसी के विश्वास को धोखा नहीं दिया। एक की बात दूसरे से कभी नहीं की। अपने जीवन में मैंने हमेशा ईमानदारी, सच्चाई, वफ़ादारी, अच्छाई को ही जीवन का अंग बनाया। किन्तु इन्हीं व्यक्तिगत अच्छे सम्बन्धों की वजह से हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के विजय पाकेट बुक्स के मुकदमे में मेरी हालत त्रिशंकु की सी रही और दोनों पक्षों से बार-बार लताड़ का सामना करना पड़ा, एक तरह से बेइज्जती भी सहनी पड़ी। 


यह तो आप सभी जानते हैं कि तब मोबाइल या ऐसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स  नहीं होते थे कि आप कान में ईयरफोन लगाकर गाने सुनते रहें। 


तब मनोरंजन का एकमात्र साधन मैगज़ीन्स और उपन्यास ही होते थे और यात्रीगणों में, जिन्हें पढ़ने का शौक होता था, वो तो कई-कई पत्रिकाएँ, उपन्यास खरीद लेते थे, लेकिन जिन्हें शौक नहीं होता था, वे भी अक्सर एक-दो किताबें खरीद ही लेते थे और रेलवे स्टेशन के ठेकेदार को जिन पुस्तकों को ज्यादा बिकवाना होता था, उन्हें वह अपने हाकर्स को ट्रेन के डिब्बों में घूम-घूमकर बेचने की विशेष हिदायत देते थे। 


रेलवे स्टेशन पर किसी एक लेखक को पुश करने से उसकी सेल में काफी फर्क पड़ता था।


राजहंस की सेल बढ़ाने के लिए उन दिनों नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के हरेक प्लेटफार्म पर राजहंस की किताबें सबसे आगे करीने से सजाकर रखी जाती थीं और चूँकि  केवलकृष्ण कालिया की लेखनी में गज़ब का दम था और एक नयापन भी तो पहली बार उनका उपन्यास खरीदने वाला हमेशा के लिए राजहंस का मुरीद हो जाता था। 


पर सिर्फ एक बेहतरीन लेखक से प्रकाशन संस्था को उस समय की दिग्गज प्रकाशन संस्थाओं हिन्द पाकेट बुक्स, स्टार पाकेट बुक्स, अशोक पाकेट बुक्स, साधना पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के बराबर खड़ा नहीं किया जा सकता था, जबकि विजय कुमार मलहोत्रा विजय पाकेट बुक्स को उन सबकी टक्कर में खड़ा करना चाहते थे। अत: उन्होंने चार और लेखक तैयार किये। 


नये लेखकों में कानपुर के वासुदेव और लुधियाना के हरविन्दर को उन्हीं के नाम से छापने का निर्णय लिया गया तथा पुराने लेखकों में यशपाल वालिया के उपन्यास मीनू वालिया के नाम से छापना तय हुआ। 


भारती साहब ने अपने दो नामों के लिए विजय कुमार मलहोत्रा को मना लिया। एक नाम था एस. कुमार, जिसमें भारती साहब,राज भारती से कुछ अलग हट के, कुछ भिन्नता लिए जासूसी उपन्यास प्रस्तुत करना चाहते थे और दूसरा नाम था सावन, जिसमें वह सामाजिक उपन्यास लिखना चाहते थे। 


विजय कुमार मलहोत्रा राज भारती जी को तब से जानते थे, जब उनका पहला उपन्यास (जो कि सामाजिक ही था) "मुस्कुराहट कैद है" करतार सिंह "क्वांरा" नाम से जिल्दाकार में छपा था, इसलिए उनके बीच लेखक-प्रकाशक से अधिक, दोस्ती का रिश्ता था। 


यहाँ एक बात आप सब और जान लीजिये कि "राजभारती" नाम से विख्यात आपके प्रिय उपन्यास सम्राट का असली नाम "करतार सिंह" ही था और वह एक सरदार परिवार के सबसे बड़े पुत्र थे, लेकिन उन्होंने परिवार के सख्त विरोध की परवाह न करते हुए दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल कटवा लिये थे, उनके सबसे छोटे भाई किशन ने भी बाद में ऐसा ही किया था, जबकि दूसरे नम्बर के भाई महेन्द्र और तीसरे नम्बर के भाई मनोहर सरदार ही रहे थे। 


भाइयों के जिक्र का विशेष कारण यह है कि राज भारती जी ने एस. कुमार नाम से जो उपन्यास छपवाये, आरम्भ में उनके बैक कवर पर अपने सबसे छोटे भाई किशन की फोटो दी थी, जिसकी शक्ल उन दिनों कुछ-कुछ भारती साहब से मिलती थी, लेकिन बाद में किशन के मना करने पर (क्योंकि उसकी इनकमटैक्स विभाग में नौकरी लग गई थी)  अपनी फोटो देनी आरम्भ कर दी थी। 


बहरहाल वासुदेव, हरविन्दर, मीनू वालिया, सावन और एस. कुमार नामों के विजय पाकेट बुक्स में प्रकाशित होने से विजय पाकेट बुक्स का रूतबा और बुलन्द हुआ। 


उन सब में वासुदेव को बहुत जल्दी पाठकों का प्यार मिला और उसकी सेल भी बड़ी तेजी से बढ़ी। वासुदेव की एक खासियत थी कि वह लिखने के लिए हमेशा मोटे रजिस्टर इस्तेमाल करता था तथा हमेशा हरे रंग की इंक का फाउन्टेन पेन इस्तेमाल करता था।


उसकी राइटिंग इतनी खूबसूरत थी कि अक्षर पृष्ठों पर टंके हुए लगते थे और कम्पोजीटर्स उसके उपन्यास की कम्पोजिंग में बहुत कम गलतियाँ करते थे। 


वासुदेव की बढ़ती सेल देख, विजय कुमार मलहोत्रा ने वासुदेव को टाप पर रख, वासुदेव, हरविन्दर, सावन, मीनू वालिया की भी पत्रिकाओं में पब्लिसिटी आरम्भ कर दी। 


आज के जमाने के लेखकों को मैं एक खास बात और बता दूँ कि तब के प्रकाशक अपने यहाँ के लेखकों को राइटर्स कापी के रूप में उसकी प्रकाशित पुस्तक की पाँच  से दस तक की कापी तो देते ही थे, प्रकाशन संस्था में प्रकाशित अन्य सभी पुस्तकों का भी एक सैट बिना माँगे ही, पढ़ने के लिए दे देते थे। इस सन्दर्भ में यह भी कहूँगा कि प्रकाशक उन लेखकों को भी अपने यहाँ छपी सभी पुस्तकें कम्पलीमेन्टरी कापी के रूप में दे देते थे, जिनसे उनके अच्छे सम्बन्ध होते थे। यह जिक्र इसलिए भी कि मुझे मेरठ के हर प्रकाशक के यहाँ से कम्पलीमेन्टरी कापी मिल जाती थीं, जबकि उनमें से बहुतों के यहाँ उस समय मैं छप नहीं रहा होता था। मुझसे कभी भी किसी प्रकाशक ने किताबों के लिए मना नहीं किया, ना ही कभी मजाक में भी किताबों के पैसे माँगे। 


केवलकृष्ण कालिया को भी विजय पाकेट बुक्स में प्रकाशित होने वाली हर पाकेट बुक्स बिना माँगे ही मिल जाती थी, पर वे किताबें अड़ोसियों-पड़ोसियों को पढ़वाने में ही काम आती थीं, केवलकृष्ण उर्फ राजहंस हिन्दी में लिखने जरूर लग गये थे, पर वह जामा मस्जिद क्षेत्र में पाकिस्तान से आकर बिकने वाले उर्दू के उपन्यास या पत्रिकाएँ ही पढ़ते थे, इसलिए वासुदेव, हरविन्दर, मीनू वालिया अथवा सावन के विजय पाकेट बुक्स में छपने से उन्होंने कभी कोई परेशानी महसूस नहीं की, किन्तु धीरे-धीरे उनसे लेकर उपन्यास पढ़ने वाले उनकी मित्र-मण्डली के लोगों ने उन्हें बताना आरम्भ किया कि वासुदेव, हरविन्दर, मीनू वालिया और सावन के उपन्यासों की शैली बिल्कुल उनके जैसी ही है तो वासुदेव का एक उपन्यास उन्होंने भी पढ़ा। वासुदेव का उपन्यास उन्हें अच्छा लगा तो हरविन्दर, मीनू वालिया और सावन के उपन्यासों पर भी नज़र डाली और केवलकृष्ण कालिया यह देखकर दंग रह गये कि सभी की शैली उन्नीस-बीस उन जैसी ही है और ऐसे में उनके किसी अपने मित्र ने उनके कानों में यह बात डाल दी कि ऐसे सारे उपन्यास उनकी ही शैली के आयेंगे तो उनकी बिक्री पर, राजहंस के उपन्यासों की बिक्री पर असर पड़ सकता है। और अपने मन में पैदा होती इस खटास को उन्होंने एक दिन मजाक ही मजाक में विजय कुमार मलहोत्रा पर पंजाबी में यह कहकर व्यक्त कर ही दिया कि अब तो आपके पास चार-चार राजहंस हो गये हैं। अब मेरी क्या जरूरत है।"


"तेरी जगह कोई नहीं ले सकता।" विजय कुमार मलहोत्रा ने केवलकृष्ण के दिल की बात जाने बिना सहज रूप से कहा, लेकिन वह केवलकृष्ण उर्फ राजहंस के मन को तसल्ली देने के लिए काफी नहीं था। 


दोस्तों, अब जरा याद करें - वह पंक्तियाँ, जो मैंने आरम्भ में लिखी हैं। 


आपने राजहंस के उपन्यास पढ़े हैं....? 


आपने शेखर के उपन्यास पढ़े हैं...? 


आपने रतिमोहन के उपन्यास पढ़े हैं...? 


मैंने ऐसा क्यों लिखा, जानने के लिए, यदि आप एक लेखक हैं तो इनमें से किसी भी एक ही उपन्यासकार के लगातार पांच-छ: उपन्यास पढ़ें, बीच में एक भी उपन्यास या कहानी किसी अन्य लेखक की न पढ़ें और फिर अपना उपन्यास या कहानी लिखें। 


फिर क्या होगा - जानने के लिए पढ़ें अगली किश्त) 

- योगेश मित्तल

6 टिप्‍पणियां:

  1. समस्त किश्तों के विवेचन एवं अपने पास संग्रहीत राजहंस के उपन्यासों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी विशिष्ट लेखन शैली कैसे परिवर्तित होती चली गई।क्या आप उनके परवर्ती जीवन की जानकारी से अवगत करा सकते हैं?

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    1. आदरणीय ओंकार जी,
      सादर सप्रेम नमस्कार!

      जैसा कि आपने जानना चाहा है कि राजहंस की विशिष्ट शैली समय के अन्तराल में कैसे परिवर्तित होती चली गई तो मैं यह कहना चाहूँगा कि कुछ थोड़ा सा परिवर्तन तो मैं स्वीकार करता हूँ और उसका कारण था आरम्भ में वह भी आरिफ़ मारहर्वी, जमील अंजुम, अंजुम अर्शी की तरह उर्दू में ही लिखते थे और उनका हिन्दी ट्रांसलेशन होता था, लेकिन सात आठ उपन्यासों के बाद वह हिन्दी में लिखने लगे तो कुछ उर्दू अल्फ़ाज़ों का मोह सम्भवतः छोड़ दिया और विजय पाकेट बुक्स से मनोज और हिन्द में जाते ही, उन दोनों जगहों पर काम करने वाले प्रूफरीडर्स ने सम्भवतः कुछ ज्यादा ही छेड़छाड़ कर दी!

      आप नोट करेंगे तो जानेंगे कि शैली परिवर्तन का असर विजय पाकेट बुक्स के आरम्भिक उपन्यासों में नाममात्र है, लेकिन बाद में एक मजबूरी यह आ गई थी कि हाइकोर्ट की डीबी ने प्रकाशकों और लेखक को जता दिया था कि या तो कम्प्रोमाइज़ कीजिये या नाम पर बैन लगना सम्भव था!

      ऐसे में मुकदमे के बाद विजय पाकेट बुक्स से छपने वाले सभी उपन्यास यशपाल वालिया और हरविन्दर के लिखे हुए थे!

      और हिन्द पाकेट बुक्स के कर्ता धर्ता तो आरम्भ में राजहंस की शैली में 'था, थे, थी' के प्रयोग को दोषपूर्ण मानते थे और तब के साहित्यिक लेखक तो 'राजहंस' को गुलशन नन्दा से भी घटिया लेखक मानते थे और हिन्द पाकेट बुक्स में साहित्यिक रुचि वाले लोगों का प्रभुत्व था, वहाँ के एडीटर व प्रूफरीडर्स भी साहित्यिक अभिरुचि के थे, इसलिए हिन्द पाकेट बुक्स की पुस्तकों में शैली परिवर्तित नज़र आयेगी!

      वस्तुतः केवलकृष्ण कालिया उर्फ़ राजहंस ने अपनी शैली परिवर्तित नहीं की थी! उनकी शैली उनके व्यक्तित्व में इस कदर रची-बसी थी कि वह चाहते तो भी परिवर्तित नहीं कर सकते थे, लेकिन जिनमें आपको राजहंस की शैली परिवर्तित नज़र आयी, वे उपन्यास या तो हिन्द पाकेट बुक्स के होंगे या यशपाल वालिया अथवा हरविन्दर के लिखे! अथवा प्रूफरीडर्स तथा एडीटर्स की अति समझदारी का शिकार...!

      और हाँ, साहित्यिक क्षेत्र के बहुत से लेखक गुलशन नन्दा को न केवल घटिया लेखक मानते थे, बल्कि अश्लील लेखक कहते थे, इस बारे में बहुत जल्द गुलशन नन्दा जी से मनोज पाकेट बुक्स के अग्रवाल मार्ग, शक्तिनगर में हुई अपनी मुलाकात का ब्यौरा प्रस्तुत करूँगा, तब आप जानेंगे कि पल्प फिक्शन के मनोरंजक साहित्य प्रस्तुत करने वाले लेखकों को साहित्यिक लाबी किस कदर अछूत मानती थी!

      जय श्रीकृष्ण...!

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