सम्बन्धों में खटास की शुरुआत
लेखक सैकड़ों पैदा हुए हैं, हैं और होते रहेंगे, लेकिन ऐसे कुछ ही लेखक होते हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद आप उनकी लेखनी के प्रभाव से काफी देर तक अपने आपको मुक़्त न करा सकें।
ऐसे लेखक भी बहुत होंगे, जिनकी कृति का कथानक आपके दिल में चलचित्र सा घूमने लगे, लेकिन अगर आप स्वयं भी एक लेखक हैं तो किसी अन्य लेखक की कृतियाँ पढ़कर आपके लेखन में उसी लेखक की शैली जड़ें जमा ले, आप भी उसी लेखक की तरह लिखने लगें तो उस लेखक की शैली का लोहा तो आपको मानना ही पड़ेगा।
ऐसे ही एक लेखक हुए हैं गोविन्द सिंह। गोविन्द सिंह की लेखन शैली का कमाल था कि पढ़ते हुए लगता था कि घटनाएँ कहीं इर्दगिर्द, कहीं निकट ही घट रही हैं।
सुमन पाकेट बुक्स में रतिमोहन नाम से गोविन्द सिंह ही लिखते थे और अगर आप एक लेखक हैं तो रतिमोहन या गोविन्द सिंह के कुछ उपन्यास पढ़ने के बाद अपनी कहानी या उपन्यास लिखिये, आपके लेखन में उनकी भाषा शैली का प्रभाव अवश्य आ जायेगा।
रतिमोहन (गोविन्द सिंह) के उपन्यासों में घटनाक्रम बहुत ज्यादा नहीं होता था, भावाव्यक्ति अधिक होती है।
अब आयें "शेखर" के उपन्यासों की खूबियों पर। डाकुओं पर बेहतरीन उपन्यास लिखने वाले रामकुमार भ्रमर ही "शेखर" नाम से लिखते थे। उनके उपन्यास में घटनाएँ और भावाव्यक्ति साथ-साथ चलती थी और शेखर की शैली में भी कुछ ऐसा जादू था कि आप उसके पांच-छ: उपन्यास पढ़ने के बाद अपनी कहानी या उपन्यास लिखें तो आपकी भाषा "शेखर" की लेखन शैली के प्रभाव में अवश्य आ जायेगी।
केवलकृष्ण कालिया उर्फ़ राजहंस।
राजहंस उर्फ़ केवलकृष्ण कालिया की कलम में बाकी दोनों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही विशेष खासियत थी, उनकी पंक़्तियां व डायलॉग सिर्फ भावनाओं को ही नहीं छूते थे, दिल और दिमाग में धमक भी पैदा करते थे। घटनाएँ दिल और दिमाग को अक्सर झटका सा देते हुए साथ-साथ चलती थीं।
राजहंस के उपन्यास प्रकाशित होने के साथ ही चर्चा का विषय होने लगे थे। समाज में औरत और सैक्स के लिए पुरुषों की सोच और व्यवहार को राजहंस ने आईना दिखाया था और बड़े साहस के साथ बड़े 'बोल्ड' कथानक पेश किये थे।
उनके कथानक की भिन्नता और साहसिक विषयों ने आम पाठकों को जितना प्रशंसक बनाया, उतना ही तात्कालीन लेखकों को भी प्रभावित किया। पाकेट बुक्स लाइन के लगभग सभी लेखकों ने राजहंस को दिल से सराहा।
वासुदेव, हरविन्दर, यशपाल वालिया और राज भारती भी राजहंस के बहुत तगड़े प्रशंसक थे और उनमें से किसी ने भी यह बात कभी भी छिपाई नहीं।
उन दिनों आप इनमें से किसी भी लेखक के घर जाते तो उसके यहाँ राजहंस के कुछ उपन्यास दिखाई न दें, यह सम्भव ही नहीं था।
मैं बहुत जल्दी किसी शैली के प्रभाव में नहीं आता, लेकिन जब मैं जनता पाकेट बुक्स के लिए मेजर बलवन्त नाम के लिए "चीख का रहस्य" लिख रहा था, उसमें राजहंस की शैली के प्रभाव आये बिना न रह सका, क्योंकि वह उपन्यास लिखना आरम्भ करने से पहले मैंने भी राजहंस के एक-दो उपन्यास पढ़े थे।
अब मैंने जिन लेखकों की लेखन शैली के जादू से आपको परिचित कराया है, आप यदि लेखक हैं तो उनके उपन्यास पढ़कर भी अगर कहें कि आप पर उस लेखक की लेखन शैली का प्रभाव नहीं पड़ा तो यकीन मानिए या तो आपने उपन्यास ठीक से नहीं पढ़े या उनके प्रभाव से स्वयं को बचाने के लिए जरूरत से ज्यादा सतर्क हो गये हैं या आप झूठ बोल रहे हैं।
खैर, वासुदेव, हरविन्दर, यशपाल वालिया और राजभारती जी उन दिनों हिन्दी में राजहंस के उपन्यासों के अलावा किसी दूसरे लेखक को पढ़ ही नहीं रहे थे और यह राजहंस की जादुई लेखनी का प्रभाव था कि उन सबकी लेखन शैली राजहंस जैसी हो रही थी।
विजय कुमार मलहोत्रा ने किसी लेखक से नहीं कहा था कि वह राजहंस जैसी शैली में लिखे। किसी भी लेखक ने जान बूझकर राजहंस की शैली नहीं अपनाई थी, लेकिन असर तो आ गया था और केवलकृष्ण कालिया उर्फ़ राजहंस को यही लगा कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है या करवाया जा रहा है। यह अनावश्यक कड़वाहट उत्पन्न होने का कारण था।
मज़े की बात यह है कि उन दिनों खुद को साहित्यिक लेखक मानने वाले कई लेखक राजहंस की शैली को दोषपूर्ण और अशुद्ध मानते थे।
मैं किसी का नाम लेकर विवाद खड़ा नहीं करना चाहता, लेकिन यह सच्चाई है कि तब कई लेखकों ने परस्पर बातचीत में राजहंस के अमूमन वाक्यों में 'था, थे, थी' के प्रयोग को दोषपूर्ण ठहराया था।
उन दिनों दिल्ली में बेशक हिन्द पाकेट बुक्स, स्टार पाकेट बुक्स, मनोज पाकेट बुक्स, अशोक पाकेट बुक्स, साधना पाकेट बुक्स और विजय पाकेट बुक्स जैसे दिग्गज प्रकाशक थे, जिनके यहाँ कोई भी किताब पांच हज़ार से कम नहीं छपती थी, तो भी प्रकाशकों और लेखकों का गढ़ तब भी मेरठ ही कहलाता था।
उन दिनों दिल्ली के प्रकाशन क्षेत्र में यह बात मशहूर थी कि मेरठ के प्रकाशक जब चाहें - किसी भी लेखक का दिमाग खराब कर सकते हैं।
मुझे यह तो पता नहीं कि उन दिनों राजहंस उर्फ़ केवलकृष्ण से मिलने मेरठ के कुछ या कई प्रकाशक आये या नहीं, लेकिन एक बात मालूम है कि लेखकों से मिलने के लिए उनके प्रशंसक आये दिन आते रहते थे। बिमल चटर्जी और राज भारती जी से मिलने के लिए आने वाले दिल्ली से बाहर के कई प्रशंसकों से मैं भी मिला हूँ।
राजहंस की तो उन दिनों धूम थी। उनसे मिलने भी अक्सर उनके "फैन" आते रहते थे। ऐसे ही एक दो अवसरों पर ऐसे "फैन" भी आये, जिन्होंने राजहंस को जतलाया कि मेरठ में उनके एक-एक उपन्यास का उन्हें एक-एक लाख तक मिल सकता है, किन्तु केवलकृष्ण मेरठ में छपने के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर सके।
बड़े प्रकाशक जब किसी दूसरी फर्म के लेखक को अपनी फर्म में लाना चाहते हैं तो बातचीत की शुरुआत हमेशा बिचौलियों से करते हैं। खुद तब सामने आते हैं, जब बातचीत नतीजे का रूप धारण करने के कगार पर होती है। लेकिन यह स्टाइल तब के दिल्ली के प्रकाशकों का था, मेरठ के प्रकाशकों के बारे में तब दूसरी ही कहानी कही जाती थी। उन्हें तो किसी अन्य फर्म के किसी लेखक को अपने पाले में लाना होता था तो ब्रीफकेस नोटों से भरकर खुद ही लेखक के घर पहुँच जाते थे।
No बिचौलिया, कोई बिचौलिया नहीं, इसलिए मेरठ के प्रकाशक जब किसी दूसरी फर्म के किसी लेखक को तोड़ते थे तो एकदम धमाका होता था, ऐसे धमाके मैंने तब देखे थे, जब मैं बिमल चटर्जी के साथ हुआ करता था और बिमल चटर्जी ज्योति पाकेट बुक्स के विपिन जैन के लिए लाला के बाजार स्थित कृष्णा लाज में ठहरें हुए एक उपन्यास पूरा कर रहे थे और मैं भी बिमल चटर्जी के साथ ठहरा हुआ था। तब मेरठ के अनेक प्रकाशक ब्रीफकेस लिए बिमल से मिलने आये थे। यह नहीं था कि ब्रीफकेस नोटों से ठसाठस भरा होता था, पर नोट ब्रीफकेस में ही होते थे। पर खैर... यह राजहंस बनाम विजय पाकेट बुक्स के विषय से बाहर की बात है।
असली बात यह है कि दिल्ली के प्रकाशकों ने बिचौलियों के जरिये लम्बी बातचीत कर राजहंस को अपने यहाँ छपने के लिए तैयार कर लिया और फिर बातचीत पक्की करने के लिए खुद आगे आ गये और विजय पाकेट बुक्स के विजय कुमार मलहोत्रा को पता ही नहीं चला कि कब प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी फर्म के लौह स्तम्भ को जमीन से उखाड़ दिया।
उन्हें तो तब पता चला, जब उनकी मेज पर दो अलग-अलग पाकेट बुक्स फर्मों के दो सर्कुलर आ गये। और वे सर्कुलर थे - हिन्द पाकेट बुक्स और मनोज पाकेट बुक्स के, जिनमें घोषणा थी कि "राजहंस" का आगामी नया उपन्यास.......... उनके यहाँ से आ रहा है।
आगे बढ़ने से पहले उन लोगों को सर्कुलर के बारे में विस्तृत जानकारी दे दूँ - जो प्रकाशन जगत की किसी भी जानकारी से अनभिज्ञ हैं।
सर्कुलर प्रकाशक की ओर से पुस्तक विक्रेता को भेजा हुआ एक पैम्फलेट होता है, जिसमें प्रकाशक आने वाले सैट में क्या क्या छाप रहा है, इसकी पूरी जानकारी होती है और तब यह प्रचलन था कि हर नया सैट भेजने से पहले प्रकाशक - अपने सैट की जानकारी भेजने के लिए पुस्तक विक्रेता को लगभग एक माह पहले सर्कुलर अवश्य भेज देते थे, जिससे पुस्तक विक्रेता सैट डिस्पैच होने के वक़्त से काफी पहले ही अपना बढ़ा या घटा हुआ आर्डर भेज दें।
अधिकांशतः सर्कुलर ए फोर साइज का होता था, लेकिन मनोज पाकेट बुक्स तथा कई अन्य प्रकाशकों द्वारा दूसरों से भिन्नता रखने के लिए कई बार ए फोर से डबल ए थ्री साइज के सर्कुलर भी निकाले जाते थे।
तब ऐसा भी होता था, जब प्रकाशक के पास किसी पुस्तक विक्रेता का बढ़ा हुआ आर्डर डिस्पैच के वक़्त तक नहीं पहुँचता था, तब प्रकाशक डिस्पैच रजिस्टर में उसका पिछला आर्डर देख, उतनी ही संख्या में माल भेज देते थे, जितना पिछले सैट में भेजा गया था। जब भी कभी प्रकाशकों को अपने सैट के लेखकों में कुछ नया बदलाव करना होता था, सर्कुलर अवश्य भेजा जाता था।
अब एक खास बात और.. वह यह कि विजय पाकेट बुक्स के विजय कुमार मलहोत्रा जी के दिल्ली से बाहर के बहुत सारे पुस्तक विक्रेताओं से बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। उन दिनों पुस्तक विक्रेताओं से उतने गहरे सम्बन्ध मनोज पाकेट बुक्स अथवा हिन्द पाकेट बुक्स के मालिकों के नहीं थे। इसके कई कारणों में से एक मुख्य यह था कि विजय कुमार मलहोत्रा जिससे भी मिलते थे - एक मित्रवत इन्सान की तरह मिलते थे। उनसे मिलते हुए न तो किसी पुस्तक विक्रेता को प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता का सा फासला महसूस होता था ना ही लेखक को - लेखक व प्रकाशक जैसा व्यवहार महसूस होता था। विजय कुमार मलहोत्रा का व्यवहार सबसे दोस्ताना सा होता था। व्यापार की बात से पहले सुख-दुख और पहले पानी बिना किसी बात या पूछताछ के पेश करवाना, फिर चाय-नाश्ते के बारे में पूछना उनके व्यवहार का एक हिस्सा था। मुझे अच्छी तरह याद है - जब हम नई दिल्ली रेलवे स्टेशन स्थित विजय जी के बुक स्टाल पर पहुँचते थे, स्टाल पर काम करने वाला विजय जी का कारिन्दा, उनके बिना कहे ही पानी के गिलास सामने पेश कर देता था। हमारे पानी पीने के बाद ही विजय जी चाय का आर्डर देते थे, लेकिन आर्डर देने से पहले वह पंजाबी टच हिन्दी में खाने के लिए भी पूछ लेते थे, वो भी इस तरह से ब्रेड पकौड़ा चलेगा या समोसा-कचौड़ी। हाँ, मना करने पर कोई जबरदस्ती नहीं करते थे, पर चाय जरूर आती थी।
एक खास बात और कि दिल्ली से बाहर से ट्रेन द्वारा आने वाले पुस्तक विक्रेता अक्सर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरते तो विजय जी उन्हें उनकी आवश्यकता का माल (पुस्तकें - उपन्यास, पत्रिकाएँ, जनरल बुक्स आदि) वहीं होलसेल रेट पर दे देते थे, जिससे पुस्तक विक्रेता का समय बहुत बच जाता था और इस तरह, इसलिए भी विजय जी के पुस्तक विक्रेताओं से सम्बन्ध प्रगाढ़ हो गये थे।
तो जब पुस्तक विक्रेताओं के पास हिन्द और मनोज के सर्कुलर पहुँचे, उन्होंने अपना आर्डर तो एक पोस्ट कार्ड पर लिख कर भेज दिया और सर्कुलर विजय कुमार मलहोत्रा तक पहुँचा दिया। वैसे भी उन दिनों पोस्ट कार्ड पांच पैसे का होता था और लिफाफा पन्द्रह पैसे का। पुस्तक विक्रेता सर्कुलर में आर्डर भरकर भेजते तो ख्वामखाह पन्द्रह पैसे फूंकने पड़ते थे, जबकि पोस्ट कार्ड में आर्डर लिखकर भेजने से दस पैसे बच जाते थे।
आज सौ के नोट की भी बहुत ज्यादा वैल्यू नहीं है, लेकिन तब पांच-पांच पैसे की वैल्यू होती थी। यह सब बातें इतनी बारीकी से मुझे इसलिए पता हैं, क्योंकि तब दिल्ली के गाँधी नगर से निकलने वाली पंकज पाकेट बुक्स और जनता पाकेट बुक्स के सारे काम मेरी आँखों के सामने होते रहे थे और भारती पाकेट बुक्स और विनय पाकेट बुक्स में भी सर्कुलर और आर्डर देखने के अवसर मुझे मिलते रहे थे।
हिन्द और मनोज के जब सर्कुलर विजय कुमार मलहोत्रा के सामने आये तो उन्होंने केवलकृष्ण से मिलने की बहुत चेष्टा की, किन्तु जिस केवलकृष्ण से उनका मिलना हमेशा बड़ी आसानी से हो जाता था, उससे कई दिनों तक मुलाकात नहीं हुई। विजय कुमार मलहोत्रा ने किसी वर्कर को केवलकृष्ण के घर भेज कर मैसेज भी पहुँचवाये।
पर विजय कुमार मलहोत्रा भी इस बात पर अडिग थे कि इस बारे में पहले केवलकृष्ण से बात करनी है, फिर सोचेंगे कि क्या करना है।
(शेष फिर)
और फिर मुकदमे की नौबत कैसे आई और किसने किया मुकदमा?
- योगेश मित्तल
बहुत ही शानदार लेख
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