राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 7 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

सोमवार, 12 जुलाई 2021

राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 7

राणा प्रताप बाग पहुँचकर, फिर उसी हाल में महफ़िल जमी, जहाँ किताबों का भण्डार था और वीपी पैकेट और रेलवे के बण्डल तैयार किये जाते थे। 


आज की महफ़िल में वासुदेव और हरविन्दर नहीं थे। वे वापस कानपुर और लुधियाना चले गये थे, लेकिन आज की महफ़िल में इन्देश्वर जोशी भी हम सबके साथ ही एक फोल्डिंग कुर्सी पर बैठा था, जैसे वह विजय पाकेट बुक्स में नौकरी करने से पहले साथ ही बैठा करता था।


थोड़ी देर बाद कुछ और लोग आ गये, जिन्हें मैं नहीं जानता था, किन्तु वे सभी उम्रदराज थे, अत: मेरे लिए यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं था कि वे सब विजय कुमार मलहोत्रा के पुराने एवं घनिष्ठ मित्र हैं। 


विजय जी उन्हें राजहंस के हिन्द व मनोज में छपने का किस्सा सुनाने लगे। 


उन सब बातों में न मेरे लिए कुछ नया था, ना ही बताने योग्य नया। 


अचानक वालिया साहब ने एक दस का नोट इन्देश्वर जोशी की ओर बढ़ाते हुए धीरे से कहा - "इन्देश, यार मेरे लिए एक पान ले आ..।" फिर मेरी ओर देख कर बोले -"एक योगेश जी के लिए भी..।"


"आओ योगेश जी, चलते हो?" इन्देश ने उठते हुए मेरा हाथ थामते हुए मुझसे कहा -"चलो, पान ले आयें।"


मैंने पहले भी बताया है - मैं एकदम मस्तमौला था। छोटी-बड़ी गाड़ियों में बैठने और घूमने वालों से भी मेरी दोस्ती थी तो फटे और मैले कपड़ों में दिखने वालों से भी बहुत मुहब्बत भरे रिश्ते थे मेरे। 


और एक आदत उन दिनों मेरी जिन्दगी का खास अंग थी, वह यह कि कितना ही जरूरी कहीं जाना हो, अचानक कोई भी किसी काम को कहे, मना करना तो मैंने सीखा ही नहीं था। 


यहाँ तक कि जब मैं बंगला साहब गुरुद्वारे के सामने कनाट प्लेस में रहता था, तब कई अड़ोसी-पड़ोसी मुझसे कभी कोई  मामूली सा बाज़ार का काम सौंप देते थे तो चाहें कितना ही व्यस्त रहा होऊँ, कभी इन्कार नहीं करता था। वहाँ के पड़ोसियों ने बाज़ार से आधा किलो चीनी ला देने और स्टुडियो से फोटो ला देने ही नहीं, रीगल या रिवोली सिनेमा हॉल में फिल्म 'हाऊस फुल' रही हो तो मुझसे फिल्मों के टिकट तक ला देने का काम लिया था।


मेरी कनाट प्लेस के सिनेमा हॉल्स के गेटकीपर्स से भी उन दिनों अच्छी खासी जान-पहचान थी, जिसे आप दोस्ती भी कह सकते हैं। 


और इन्देश्वर जोशी के साथ तो अनेक बार साथ उठना-बैठना, खाना-पीना रहा था। हाँ, यह सब उसके विजय पाकेट बुक्स में नौकरी करने से पहले की बात थी।


इसलिये जैसे ही इन्देश्वर जोशी ने मुझसे यह कहा कि 'आओ योगेश जी, चलते हो। चलो, पान ले आयें' तो बिना एक क्षण सोचे, मैं उठ खड़ा हुआ। 


विजय पाकेट बुक्स के सामने वाला पार्क जहाँ खत्म होता था, उसके बाद की दुकानों में एक पनवाड़ीे की दुकान थी। मैं और वालिया साहब हमेशा उसी दुकान से पान बनवाते और बंधवाते थे। 


हम उस दुकान तक पहुँचे। रास्ते में इन्देश ने मुझसे एक सवाल किया - "आजकल आप क्या लिख रहे हो?"


सवाल सहज ढंग से किया गया था और मैने सहजता से ही जवाब दिया कि मनोज पाकेट बुक्स के लिए बाल पाकेट बुक्स लिख रहा हूँ।"


"पर आजकल तो वो बाल पाकेट बुक्स छाप नहीं रहे हैं।" इन्देश बोला। 


"हाँ, मैंने भी इस बारे में राज भाई साहब से कहा तो वह बोले -  'इसका मतलब यह तो नहीं कि छापेंगे ही नहीं, या पहले नहीं छापी।' उनका कहना है - छापने के लिए कम से कम पन्द्रह-बीस किताबें तो एडवांस में होनी चाहिए।" मैंने कहा। 


"इतनी किताबें एडवांस में क्यों?" इन्देश ने पूछा। 


"वो पहले भी आठ किताबों का सैट निकालते रहे हैं। और उनका मानना है कि दो सैट की किताबें तो रिजर्व में होनी ही चाहिए।"


"और कोई नहीं लिख रहा बाल पाकेट बुक्स?"


"पहले बिमल चटर्जी और अशीत चटर्जी लिख रहे थे, पर अब उन्हें जासूसी उपन्यास लिखने से ही फुरसत नहीं है। एक नया लड़का है तरुण कुमार वाही - उसकी स्क्रिप्ट राज भाई साहब ने मुझे पढ़ने को दी थीं। मुझे तो बहुत अच्छी लगी थीं। मैंने तो राज भाईसाहब से यही कहा कि यह तो मुझसे भी अच्छा लिख रहा है। पता नही, अभी भाई साहब उससे लिखवा रहे हैं या नहीं।"


यही सब बातें करते हुए हम पनवाड़ीे तक पहुँचे थे। पनवाड़ीे को पान बनवाने का आर्डर देकर इन्देश बोला - "फिर तो आप कुछ दिनों में मनोज में जाओगे?"


"कल ही जाऊँगा...।" मैंने कहा - "उपन्यास के एण्ड के कुछ ही पेज लिखने हैं।"


"तो वहाँ पता करना कि राजहंस वाले मामले में वो लोग क्या-क्या कर रहे हैं?" इन्देश ने कहा। इन्देश बहुत ज्यादा चतुर नहीं था, इसलिये ज्यादा घुमा-फिरा कर बातें नहीं कर सका। असली बात पर बड़ी जल्दी आ गया। 


मेरी सिक्स्थ सेंस उन दिनों बहुत तेज़ थी। इन्देश की बात पर मैं मुस्कुराया - "मुझे यह सलाह देने के लिए यह पाठ तुझे किसने पढ़ाया? विजय बाबू ने या भारती साहब ने या वालिया साहब ने?"


"किसी ने नहीं, यह तो मैं खुद आप से कह रहा हूँ। विजय बाबू के हम सब पर इतने एहसान हैं, हमें भी उनके लिए कुछ करना चाहिए।" इन्देश ने कहा। 


"ठीक है, लेकिन विश्वासघात और गद्दारी जैसा काम, मैं कभी भी किसी के साथ नहीं कर सकता। अव्वल तो मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि इन दिनों विजय बाबू मेरे सामने कभी भी कोई ऐसी बात नहीं करेंगे, जो अगर मैं मनोज में बता दूँ तो उन्हें कोई नुक्सान हो और मनोज वाले भी मेरे सामने कोई सीक्रेट बात नहीं करेंगे, लेकिन गलती से उन्होंने मेरे सामने कभी कोई ऐसी बात की भी तो न तो मैं मनोज की बात विजय में करूँगा, ना ही विजय की बात मनोज में। और इस विषय में दोबारा मुझसे कोई बात तुम भी मत करना।"


पनवाड़ीे मुझे भी जानता था। उसने वालिया साहब का पान बनाकर लपेट कर दे दिया। मेरा पान उसने मुझे दे दिया और मैंने जोड़ा पान का बीड़ा मुंह में दबा लिया। फिर इन्देश से बोला - "अगर आज मैं बहककर इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करूँगा तो हो सकता है, आज मेरे किसी एक से या दोनों से और अच्छे सम्बन्ध हो जायें, लेकिन मैं हमेशा के लिए विजय बाबू और मनोज वालों, दोनों की नजरों के साथ-साथ अपनी नज़रों में भी गिर जाऊँगा। तुम जो मुझे सलाह दे रहे थे, अगर किसी के कहने पर दे रहे थे तो उन्हें मेरा जवाब दे देना। मैं गद्दार और विश्वासघाती कहलाना नहीं चाहता।"


इन्देश खामोश रहा। कुछ नहीं बोला। पनवाड़ीे के यहाँ से वापस लौटते हुए हम दोनों ही खामोश रहे।


जब हम वापस विजय पाकेट बुक्स पहुँचे, वहाँ कोई गम्भीर चर्चा चल रही थी, पर मुझे देखते ही वालिया साहब एकदम मुझसे बोले - "योगेश जी, आजकल शेखर क्या कर रहा है?"


"कौन शेखर...?" मैंने अचरज से पूछा। 


"नहीं-नहीं, शेखर नहीं रंजीत...। रंजीत क्या कर रहा है?"


"कौन रंजीत...?"


"वही, आपका दोस्त...।"


"मेरा रंजीत नाम का कोई दोस्त नहीं है।" मैंने कहा। 


"और सूरज नाम का...?" वालिया साहब ने पूछा। 


"नहीं, सूरज नाम का भी कोई दोस्त नहीं है।"


"फिर तो बड़ी मुश्किल रहेगी।" विजय कुमार मलहोत्रा बोले- "अगर अपनी पोजीशन तगड़ी रखनी है तो इन नामों के राइटर तो ढूँढने ही पड़ेंगे।"


"चक्कर क्या है?" मैंने फुसफुसाते हुए यशपाल वालिया से पूछा - "ये शेखर, रंजीत और सूरज नाम के दोस्त क्यों चाहिए?"


"जब हिन्द और मनोज के ट्रेडमार्क - राइटर के रूप में छापने हैं तो उन नामों के बन्दे तो चाहिए।" वालिया साहब ने मेरे कान में सरगोशी की। 


"बन्दे चाहिए या लेखक....?" मैंने पूछा। 


"लेखक मिल जायें तो वैल एण्ड गुड...पर लेखक मिलना आसान नहीं है। इन नामों के बन्दे मिल जायें तो भी कहानी सैट कर लेंगे।" वालिया साहब बोले। 


"ये तुम दोनों फुस-फुस क्या कर रहे हो?" भारती साहब ने यशपाल वालिया से पूछा तो वालिया साहब बोले - "योगेश जी को बता रहा हूँ। हमें रंजीत, सूरज और शेखर क्यों चाहिए?"


तभी भारती साहब को अचानक ही कुछ याद आया। वह मुझसे सम्बोधित होते हुए बोले - "योगेश कर्नल रंजीत नाम से तो तेरा भी एक नावल छपा था न...? जनता पाकेट बुक्स में।"


"नहीं, कर्नल रंजीत नाम से नहीं, मेजर बलवन्त नाम से। कर्नल रंजीत उसमें कैरेक्टर का नाम था। हिन्द पाकेट बुक्स के ट्रेडमार्क कर्नल रंजीत से जस्ट उलट।"


"हुम्म....।" भारती साहब गम्भीर हो गये। 


"पर एक नाम मनोज भी तो है - आपके सर्कुलर में...। उसकी 'सेल' तो सूरज और शेखर से भी अच्छी है। उसे नहीं छापना क्या?" मैंने पूछा। 


"मनोज नाम का बन्दा मिल गया है। वालिये के पड़ोस में है एक मनोज।" भारती साहब ने कहा। 


मैं चौंका। 


"किस मनोज की बात हो रही है?" मैंने वालिया साहब से पूछा - "वही, जो आपके पड़ोस में रहता है।"


"हाँ...।" वालिया साहब ने कहा। 


"पर वो तो नाबालिग है शायद...।"


"तो क्या हुआ? मैंने पन्द्रह साल की उम्र में कहानी लिखनी शुरू कर दी थी।" वालिया साहब बोले - "और योगेश जी, आपने बाडी देखी है मनोज की? हमारे बेदी से ज्यादा हैल्दी है।"


"पर वो नाबालिग है। उसकी फोटो देंगे तो उसके मम्मी-पापा से भी तो पूछना होगा, परमिशन लेनी होगी।" मैंने कहा। 


"चिन्ता मत कर, वालिया सबसे बात कर चुका है।" भारती साहब बोले और तब मुझे पता चला कि हिन्द-मनोज और राजहंस से व्यापारिक लड़ाई में विजय पाकेट बुक्स और विजय कुमार मलहोत्रा कई कदम आगे बढ़ चुके थे, जिसकी अभी मुझे बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी।


वालिया साहब और मैं अपने-अपने पान का पूरा मज़ा भी नहीं ले पाये थे कि विजय जी द्वारा मंगाई गयी चाय आ गई। मजबूरन हम दोनों ही मुंह का पान नाली के हवाले कर आये। चाय पीते-पीते बातों का दौर भी चलता रहा।


विजय जी का दिमाग दोहरे पशोपेश में था। एक तरफ तो उनकी यह सोच थी कि ऐसी की तैसी मनोज और हिन्द की। इन्होंने ही केवल (राजहंस) का दिमाग खराब किया है। इन्हें तो सबक सिखा कर ही रहेंगे। 


दूसरी तरफ उनके दिमाग में यह बात भी थी कि मनोज और हिन्द के ट्रेडमार्क्स छापने की यह जो खुराफात वह करने जा रहे हैं, उलटी ही न पड़ जाये। गनीमत यह थी कि उनके सगे भाइयों के साथ-साथ उनके जितने भी निकटतम लोग थे, सभी उनका हौसला बढ़ाने वाले थे। 


प्रकाशकों में उनकी बात अशोक पाकेट बुक्स, एन. डी. सहगल कम्पनी एण्ड सन्स के वसन्त सहगल और साधना पाकेट बुक्स के सर्वेसर्वाओं से हुई थी। 


दोनों ने ही इस विवाद में विजय कुमार मलहोत्रा जी के कदमों का समर्थन किया था। उनका कहना था कि अगर यह लड़ाई कोर्ट तक जाती है तो इससे पता चलेगा कि कानून प्रकाशकों के हित का कहाँ तक समर्थन करता है।


वैसे उनका यह मानना था कि लेखक और प्रकाशक के बीच के मुकदमे में कोर्ट की समस्त सहानुभूति लेखक के साथ रहनी है, क्योंकि लेखक को गरीब और शोषित माना जाता है और प्रकाशक की स्थिति पूंजीपति और महाजन की थी। अर्थात लेखक गरीब और मजलूम तथा प्रकाशक अमीर सेठ और जालिम मक्खीचूस समझा जाने योग्य था। 


चाय पीते-पीते अचानक इन्देश्वर जोशी को न जाने क्या सूझा, वह विजय कुमार मलहोत्रा जी से एकदम बोल उठा - "आप सूरज में मेरी फोटो छाप दो...?"


"तेरी...।" भारती साहब चौंके। 


"तेरी...।" वालिया साहब भी चौंके और विजय कुमार मलहोत्रा भी चौंके। लेकिन मैं, बस, मुस्कुरा कर रह गया। 


"तू कहीं से लेखक लगता भी है।" विजय जी बोले। 


"लगता क्यों नहीं, मैं तो हूँ ही लेखक। अभी तक चार उपन्यास लिख चुका हूँ। एक भी छपा नहीं तो क्या हुआ। चाहो तो वालिया साहब से पूछ लो।" इन्देश चाय का घूंट भरते हुए यूँ बोला, जैसे चार पैग ठर्रा चढ़ा लिया हो। 


"बात तो सही है।" वालिया साहब हंसते हुए बोले - "इसके लिखे चार नावल मेरे पास पड़े हैं। कहता है - यशपाल वालिया में छपवा लो।"


"तो छपवाये क्यों नहीं तूने...?" विजय जी ने पूछा। 


"यशपाल वालिया की कब्र खुदवानी है मैंने...?" वालिया साहब माथे पर बल डाल कर बोले। 


"ये मत बोलो वालिया साहब।" इन्देश्वर जोशी एकदम तैश में आकर बोला - "आप विजय बाबू को दे दो मेरे चारों उपन्यास। विजय बाबू उन्हें छापेंगे भी और एक-एक लाख बेचेंगे भी। तब आपको पता चलेगा कि इन्देश्वर जोशी किस महान हस्ती का नाम है।"


"ठीक है, तू विजय को दे दे इसके नावल..।" भारती साहब चुस्की लेते हुए यशपाल वालिया से पंजाबी लहज़े में बोले। 


"ठीक है....। ला देइयो।" वालिया साहब के कुछ कहने से पहले विजय बाबू ने कहा। फिर वह इन्देश से पंजाबी में सम्बोधित हुए - "तो तू चाहता है - मैं तेरा नावल सूरज नाम में छाप दूं।"


"मेरा छापो या किसी का भी छापो। पीछे फोटो मेरी छाप देना। बस, मुझे हज़ार रुपये दे देना।" इन्देश बोला। 


"हज़ार छोड़, मैं दो हज़ार दे दूंगा। पर कल को कोर्ट में कोई गवाही देनी पड़ी तो.... " 


"तो क्या, आप जो कहेंगे, वो कहूँगा, चाहें फांसी लग जाये या कोई गोली मार दे। और अपनी बात का मैं पक्का हूँ। इसकी गवाही वालिया साहब और भारती साहब दोनों देंगे और योगेश जी भी।" इन्देश्वर जोशी बड़े आत्म विश्वास से बोला। 


"ये बात तो है।" वालिया साहब ने विजय जी को देखते हुए सिर हिलाया - "आदमी पिद्दी सा है यह, पर जिगरा बहुत बड़ा है इसका। एक बार तो दारू के नशे में अपने से दुगुने पहलवान से भिड़ गया था। वो तो मैंने स्कूटर पर बैठा, स्कूटर दौड़ा लिया, वरना उस रोज इसके नट-बोल्ट ऐसे ढीले होते कि महीना भर तो 'मम्मी-मम्मी' कहते बीतता।"


"ये आप मेरी तारीफ कर रहे हो या बुराई?" इन्देश्वर जोशी ने भड़क कर पूछा। 


"तारीफ कर रहा हूँ पागल। बताया नहीं कि तू अपने से दुगुने पहलवान से भिड़ गया था।" वालिया साहब बोले। 


"तो फिर आप छाप रहे हो ना सूरज में मेरी फोटो।" इन्देश्वर जोशी ने बात का रुख घुमा, फिर से विजय जी को देखा। 


और आखिरकार उस दिन इस बात पर मोहर लग गई कि सूरज के बैक कवर पर इन्देश्वर जोशी की फोटो जायेगी। अन्जाम चाहें - जो हो देखा जायेगा। 


और बाद में सचमुच ऐसा ही हुआ था। विजय पाकेट बुक्स में छपने वाले मनोज के उपन्यास के पीछे वालिया साहब के पड़ोस में रहने वाले 'मनोज' नाम के नाबालिग लड़के की फोटो छपी थी और 'सूरज' के उपन्यास के बैक कवर पर इन्देश्वर जोशी की फोटो छपी थी। 


उस रोज की महफ़िल इसी एकमात्र फैसले के बाद बर्खास्त हो गई। 


मैं, वालिया साहब और भारती साहब एक साथ ही वापस लौटे। इस बार हमने शक्तिनगर का रिक्शा किया और शक्तिनगर के बस स्टाप से 816 नम्बर बस पकड़ी। भारती साहब मोतीनगर उतर गये। वहाँ से पटेलनगर के लिए उन्होंने स्कूटर या दूसरी बस पकड़ी होगी। 


मैं रमेशनगर उतर गया। बालीनगर का स्टाप रमेशनगर के बाद था तो बस, रमेशनगर से बालीनगर का सफर वालिया साहब ने अकेले ही किया। 


उसी रात मैंने मनोज के लिए लिखा जाने वाला उपन्यास पूरा कर लिया।


स्क्रिप्ट देने मैं दोपहर दो बजे तक शक्तिनगर, अग्रवाल मार्ग स्थित मनोज पाकेट बुक्स के आफिस पहुँचा। 


केबिन में राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता दोनों थे। दोनों ही मुझे बहुत पसन्द करते थे। अपनी हर बात मुझसे खुलकर करते थे। किसी भी उपन्यास का विज्ञापन बनवाते हुए हमेशा मुझसे सलाह लेते थे। मेरा हमेशा गर्मजोशी से स्वागत करते थे। 


लेकिन..... 


उस दिन मुझे देखते ही राजकुमार गुप्ता जी के मुंह से पहला वाक्य जो निकला, वह था -


"ले भई, आ गया, विजय का भेदिया...।" राजकुमार गुप्ता ने गौरीशंकर गुप्ता की ओर देखते हुए कहा था। 


पर आज मैं ऐसे किसी भी टोन्ट के लिए पहले से तैयार था। हँसते हुए बोला - "कमाल है, ये तो मेरे और विजय बाबू के बीच की सीक्रेट डील थी। दीवारों को भी हमने खबर नहीं होने दी। आपको कैसे पता चल गया?"


(शेष फिर) 


योगेश मित्तल

 

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