कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 6 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

मंगलवार, 13 जुलाई 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 6

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 6
वेद प्रकाश शर्मा की एक तस्वीर जो मैंने खींची थी



कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 6
योगेश मित्तल

उन दिनों मेरठ में ही रह रहा होने के कारण फंक्शन वाले दिन मैं अकेला ही पहुँचा था। 


मैं अन्य मेहमानों से कुछ ज्यादा ही जल्दी आ गया था, किन्तु यार के घर पहुँच कर भी बेकार था, क्योंकि एक तो कोई पहचाना चेहरा तो क्या कोई भी चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। 


और दूसरे जिसने बुलाया था, उसकी शक्ल भी दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रही थी, बल्कि उसे बुलाने - पुकारने का भी कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। मैंने दो-तीन बार 'वेद जी, वेद भाई' कहकर पुकारा भी, पर मेरी आवाज पर सिर्फ हल्की सी गुर्राहट ही सुनाई दी।


उस समय कोई वाचमैन - दरबान भी कहीं नहीं दिख रहा था। तब कोठी में कालबेल जैसी भी कोई चीज़ नहीं थी। 


समस्या यह भी थी कि उस समय मुझे घर में प्रवेश का कोई अन्य रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था। रास्ता सिर्फ दायीं ओर का वह शीशे का द्वार था, जिसके पीछे एक डार्क कलर का एक बड़ा सा कुत्ता था। वह कुत्ता मुझे उस समय शेर दिखाई पड़ रहा था।


वह मुझे देख कर भौंक तो ज्यादा नहीं रहा था, पर घूर रहा था और गुर्रा रहा था, पर राहत की बात यही थी कि उस समय उसके और मेरे बीच शीशे का बन्द दरवाजा था। 


दायीं ओर के उसी शीशे के दरवाजे के पास एक और द्वार था, जो उस समय बन्द था। और जो शीशे का दरवाजा था, वह भी बन्द था, पर यह वही दरवाजा था, जिसके पीछे बाद में तुलसी पेपर बुक्स का आफिस बना था। 


बहुत देर बाद मुझे एहसास हुआ कि शायद एक तो मेरठ में ही होने की वजह से, दूसरे खुद को जरूरत से ज्यादा इम्पोर्टेन्ट और घर का सा आदमी समझने और जरूरत पड़े तो वेद की मदद करने की झोंक में, मैं जरूरत से ज्यादा जल्दी आ गया था। 


वह मोबाइल का जमाना नहीं था, अन्यथा सारी समस्या दो मिनट में हल हो जाती। 


अन्ततः मैं कोठी से वापस बाहर आ गया। सड़क पर खड़े होकर सोचा - 'कहाँ जाऊँ...?'


दरअसल मेरठ के मुख्य शहर से इतनी दूर, मैं रिक्शे का मोटा किराया खर्च करके आया था और वेद भाई की कोठी देखी होने के बावजूद अपनी भुलक्कड़ प्रवृत्ति के कारण ढूँढने में भी समय खराब किया था, वो तो गनीमत है कि कहीं पर 'तुलसी' लिखा नज़र आ गया और समझ में आ गया कि यही वेद भाई की कोठी है, पर कोठी का मिलना भी, न मिलने के बराबर रहा। 


सड़क पर पहुँच कर मैंने सोचा, किधर जाऊँ। फंक्शन का टाइम होने और लोगों का आगमन शुरू होने तक वक़्त तो बिताना था। वापस अपनी बहन या मामाजी के यहाँ देवीनगर या हरीनगर जाने-आने का डबल किराया खर्चने की मुझे अपनी औकात नज़र नहीं आ रही थी। अत: बेस्ट सोल्यूशन मुझे यही सूझा कि किसी टी स्टाल को ढूँढा जाये और वहाँ बैठकर बहुत धीरे-धीरे चाय की चुस्कियाँ ली जायें। एक नहीं तो दो-तीन चाय पीते-पीते फंक्शन का वक़्त हो ही जायेगा। 


तब मेरे दिल और दिमाग में एक बात और भी आ रही थी कि अक्सर हम भारतीयों को लेटलतीफ कहा जाता है तो दरअसल वो हम भारतीयों की अक्लमन्दी ही होती है। आपको कभी भी कहीं पर कोई बुलाये देर से ही पहुँचना चाहिए। जल्दी तो मेरे जैसे मूर्ख ही पहुँचते हैं। कोई भी भारतीय, अगर कहीं, कभी भी जल्दी या वक़्त से नहीं पहुँचता, तो इसीलिये... क्योंकि वह अक्लमन्द होता है। 


सड़क पर पहुँच, मैं दायीं ओर मुड़ गया, क्योंकि बायीं ओर तो दूर तक कोठियों की कतार सी नज़र आ रही थी। तब वेद जी की कोठी के निकट, वो माल या मार्केट नहीं थी, आज जिसकि वजूद दिखाई देता है। 


तब आसपास कहीं चाय की दुकान भी दिखाई नही दी तो मैं सड़क पार कर उस सड़क पर पहुँच गया, जिस तरफ से रिक्शा मुझे शास्त्रीनगर, वेद जी की कोठी तक लेकर आया था। 


चाय की दुकान की तलाश में, मैं उस सड़क पर कहाँ तक, कितना आगे बढ़ गया, मुझे पता ही नहीं चला। पता तब चला, जब अचानक टांगों ने यह महसूस कराया कि मैं बहुत ज्यादा चल चुका हूँ। 


तब मैंने दायें-बायें देखा तो मुझे यह भी समझ नहीं आया कि मैं कहाँ पर खड़ा हूँ। निकट - ऐसी कोई दुकान भी नहीं थी, जिस पर कोई ऐसा बोर्ड लगा हो, जिस पर उस जगह का नाम लिखा हो। मैं पलट कर वापस मुड़ गया और धीरे धीरे वापसी के लिए चलने लगा। 


मेरे लिए वे बेहद परेशानी के क्षण थे। सूरज अब ऊपर चढ़ रहा था और वहाँ आसपास न कोई छांवदार छज्जा था, न ही कोई रिक्शा आता जाता दिख रहा था। 


आते जाते कुछ लोग दिख रहे थे। 


मैंने एक शख्स को रोककर पूछा कि शास्त्रीनगर किधर पड़ेगा? उसने हाथ से एक ओर इशारा किया और आगे बढ़ गया। 


मैं उसी दशा में आगे बढ़ने लगा, काफी देर तक मैं खरामा-खरामा चलता रहा, टांगें अब भगवान का भजन कीर्तन करने लगी थीं, लेकिन तभी अचानक ही मुझे एक खाली रिक्शा दिखाई दे गया। रिक्शेवाला शक्ल से काफी बलिष्ठ और दबंग लग रहा था, फिर भी मैंने उसके निकट जाकर पूछ ही लिया - "भाईसाहब, ये शास्त्रीनगर किधर पड़ेगा...?"


उसने जवाब देने के स्थान पर सवाल किया - "शास्त्रीनगर जाना है?"


"हाँ...।" मैंने कहा। 


"बैठ फिर... बीस रुपये लगेंगे...।" उसने दबंग लहज़े में कहा। 


'बीस रुपये...।' सुनते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई - 'बाप रे...।' मैंने सोचा - 'इसका मतलब है, मैं बुरी तरह रास्ता भटक गया हूँ और बहुत दूर आ गया हूँ।'


चूंकि मैं अनावश्यक रूप से बहुत ज्यादा पैदल चल चुका था और शरीर 'ता-थैया ता-थैया' करने के मूड में बिल्कुल नहीं था, इसलिए मैं झट से रिक्शे में बैठ गया। 


रिक्शेवाले ने बड़ी तेजी से पैडल पर पैर मारे। रिक्शा इधर घुमाया, उधर घुमाया और दो-तीन मिनट में रिक्शा उस सड़क पर ला खड़ा किया, जिसे पार करते ही मुझे अब वेद भाई की कोठी दूर से ही दिख रही थी। 


"निकाल बे, बीस रुपये निकाल...।" रिक्शेवाले ने तम्बाकू का पान खाने से पीले भद्दे हुए दांत चमका, कड़ककर कहा। 


अगर दिल्ली में मेरे इलाके के किसी रिक्शेवाले ने मुझसे ऐसा सलूक किया होता तो अपनी सिंगल पसली की बाडी होने के बावजूद मैं उससे अकड़ पड़ता, लेकिन वह रिक्शेवाला मुझसे चौगुनी सेहत का बदमाश टाइप शख्स लग रहा था, ऊपर से मुझे आसपास कोई ऐसा नहीं दिख रहा था, जिससे मदद की कोई उम्मीद कर सकूँ। फिर भी मैंने थोड़ी हिम्मत की - "सड़क पार...।"


पर मेरे अधिक कुछ भी कहने से पहले ही वह बोला - "यही है शास्त्रीनगर, पैसे निकाल और दो कदम चलकर सड़क पार कर ले।"


पैसे माँगते हुए भी उसका अन्दाज़ फाड़ खाने वाला था। मैंने घबरा कर उसे फटाफट बीस रुपये दिये और रिक्शे से उतरकर यूँ भागते हुए सड़क पार की कि अगर देर हुई तो वह रिक्शेवाला मेरी तिक्का-बोटी अलग कर देगा। आप मुझे डरपोक न समझें, पर उस समय मैंने पलटकर एक बार भी पीछे नहीं देखा और तब तक नहीं देखा, जब तक कि वेद भाई की कोठी में दाखिल नहीं हो गया।


कोठी में दाखिल होकर पलटकर देखा तो वह रिक्शेवाला कहीं दिखाई नहीं दिया, तब मैंने और अच्छी तरह झांककर दूर तक देखा और मेरे चेहरे पर उस समय विजय के या आश्वस्त होने के भाव आये, यह आप खुद तय कर लीजिये। 


दोस्तों, रास्ते याद रखने के बारे में, शायद मैं पहले भी बता चुका हूँ, मेरी याद्दाश्त ज़ीरो है। पचास साल पुरानी बात सुना सकता हूँ, लेकिन पचास कदम दूरी का घर भी अक्सर भूल जाता हूँ। इसे आप मेरी कमज़ोरी कहिये या जो चाहें - मनचाहा नाम दे लीजिये। पर सोचिये - उस समय फिजूल में बीस रुपये खोकर मेरा क्या हाल हो रहा होगा, मैं किसे कोस रहा होऊँगा..? 


वेद की कोठी में तब खासी चहल-पहल आरम्भ हो चुकी थी। जाने पहचाने कई चेहरे नज़र आ गये थे। मैं भारती साहब को आया देख, उन्हीं की ओर बढ़ गया। यशपाल वालिया नहीं थे, तब तक वह वेद जी से भली-भाँति परिचित या घनिष्ठ नहीं हुए थे। 


मैंने अपनी बेवकूफ़ी की वह कथा उस समय किसी को नहीं सुनाई। बाद में जब भी, जिसे भी सुनाई, उसी से गालियाँ खाईं। वेद भाई ने तो यह कहकर भी फटकारा कि "अबे गधे, कोठी तक आ ही गया था तो एक नहीं तो पांच-छ: बार जोर से चिल्ला चिल्लाकर आवाज लगाई होती तो कोई न कोई तो सुन ही लेता, तूने क्या सोचा था, सब लोग सो रहे होंगे।"


पर भाई, जो हो गया, सो हो गया। उस रोज एक दबंग रिक्शेवाला टकरा गया तो वो भी एक सीख ही देकर गया कि बेटा, शक्ल देखकर, जब पहले ही अन्तरात्मा डर रही थी तो चार कदम और चल लेता, शायद रिक्शा करना ही नहीं पड़ता, लेकिन दोस्तों, बहुत बार बहुत अच्छे रिक्शेवालों से भी वास्ता पड़ा है, आपने मेरे किस्सों में पढ़ा ही होगा। दुनिया में हर तरह के लोग होते हैं। एक के गलत होने से सभी कभी गलत नहीं हो जाते। 


यह घटना, मेरी जिन्दगी की दस-बीस बेवकूफियों की बहुत खास घटनाओं में से एक है, जिसे मैं मरते दम तक कभी नहीं भूल सकता और इसका विस्तारपूर्वक वर्णन मैंने इसलिये किया है, क्योंकि आज़ की जेनरेशन में यदि कोई मेरे जैसा बेवकूफ 'लिखाड़ी' हो तो मेरी जिन्दगी के इन अनुभवों से लाभ उठाये। हालांकि मुझे यकीन है कि इस 'कम्प्यूटर एज' में मेरे जैसा कोई बेवकूफ होने की सम्भावना शून्य है। फिर भी मेरे दोस्तों, हम भारतीयों को अपनी परम्पराओं का बखूबी निर्वाह करना चाहिए। यदि आपको कभी किसी फंक्शन में आमंत्रित किया जाये तो बहुत ज्यादा जल्दी तो कभी नहीं पहुँचें, बल्कि जल्दी भी नहीं पहुँचे, कुछ देर से ही पहुँचें, देर से पहुँचने में कोई बुराई नहीं है। थोड़ा बहुत लेट-लतीफ होना भी कभी-कभी बहुत आरामदायक होता है। 


उस फंक्शन के दौरान मैं बाकी सबसे बखूबी मिला, सबसे गुफ्तगू की, किन्तु वेद भाई से बात करने का अवसर दो-ढाई घंटे बाद मिला, वो भी कुछ क्षण। मेरे कन्धे पर हाथ रख कहा -"योगेश, आजकल तुम मेरठ में ही हो?"


"हाँ...।" मैंने कहा। 


"कहाँ...।"


"कभी जीजी के यहाँ देवीनगर और कभी मामाजी के यहाँ हरीनगर...।"


"यार, दो-चार दिनों में मिलना, कुछ खास बात करनी है।"


"कैसी खास बात....?"


"है कुछ.... मिलना जरूर...।" वेद भाई ने कहा। 


"श्योर....।" मैंने कहा, फिर वेद भाई किसी और तरफ निकल गये और मैं मेरठ के विभिन्न परिचितों में घूमने लगा। 


उस रोज वहाँ से मैं और भारती साहब साथ-साथ वापसी के लिए निकले। मैं भारती साहब के साथ साथ रोडवेज़ बस अड्डे तक गया, जब दिल्ली की बस आई तो भारती साहब उसमें चढ़ गये और मैंने वहाँ से प्रतिमा जीजी के यहाँ के लिए रिक्शा पकड़ा। 


रिक्शे पर बैठे जीजी के घर पहुँचते हुए मैं अटकलें लगाता रहा कि वेद भाई ने मुझे क्यों बुलाया होगा। क्यों मुझे कुछ दिन बाद मिलने आने के लिए कहा है। 

 

- योगेश मित्तल

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