राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 8 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

बुधवार, 14 जुलाई 2021

राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 8

"तूने तो गद्दारी करने की ठान ली है, पर हमें तो व्यापार करना है। सारी खबरें रखनी ही पड़ेंगी।" गौरी भाई साहब मुस्कुराते हुए गर्दन हिलाते हुए बोले। 


"मैंने कौन सी गद्दारी कर दी...?" मैंने पूछा। 


"अब मेरा मुँह मत खुलवा।" गौरीशंकर गुप्ता बोले - "हमारे दुश्मनों के यहाँ रविवार को भी चाय नाश्ता करने पहुँचा हुआ था।  या कह दे नहीं गया था - रविवार को तू विजय पाकेट बुक्स में...।"


"जगदीश जी ने बताया है कुछ.,.?" 


"अरे जगदीश जी को देख कर तो तू और  राजभारती टी स्टाल में घुस गये थे। पता चलने पर राज भाई ने एक लड़के को साइकिल से राणा प्रताप बाग भेजा था। उसने तुझे भी वहाँ देखा था और बाकी सबको भी। चल, अब भी कह दे कि तू नहीं गया था विजय पाकेट बुक्स में...।" गौरीशंकर गुप्ता निरन्तर मुस्कुरा रहे थे। 


"असली जासूस तो आपलोग हो।" मैं हँसा - "आपने तो पूरी जासूसी एजेन्सी खोल रखी है। योगेश मित्तल साँस  भी लेता है तो आपको पता चल जाता है - कहाँ पर खड़े होकर साँस ली थी। पर उस दिन आप मुझे दरीबे में छोड़, अचानक कहाँ गायब हो गये थे...?"


"हम पटेलनगर गये थे, यह तो जगदीश जी ने तुझे बता ही दिया था बेटा... फिर क्यों पूछ रहा है?" गौरीशंकर गुप्ता बोले। राजकुमार गुप्ता इस बीच बिल्कुल खामोश रहे, लेकिन वह मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे। 


"इसलिये कि पटेलनगर तो मेरी पहचान सिर्फ भारती साहब और उनके परिवार से है। आपकी पहचान किससे है, यह थोड़े ही मालूम है मुझे।"


"क्या करेगा जानकर।" इस बार राजकुमार गुप्ता बोले, फिर एक क्षण रुककर, तुरन्त ही आगे बोले - "गौरी भाई, बता दो इसे। इससे क्या छिपाना? यह तो अपने घर का ही आदमी है।"


चाहते तो राज भाई साहब खुद भी मुझे बता सकते थे, पर जो बात बताने का मूड उन्होंने बनाया था, उसे बताने की जिम्मेदारी छोटे भाई को सौंपने का मतलब था, दोनों भाइयों में सहमति कायम रहे। और गज़ब की समझ-बूझ थी दोनों भाइयों में। राजकुमार गुप्ता का इशारा पाते ही गौरीशंकर गुप्ता बोले - "हम पटेलनगर वकील से मिलने गये थे। देर-सवेर हमारा विजय से मुकदमा चलना ही है तो तैयारी तो पहले से ही करनी है। हिन्द पाकेट बुक्स के वकील हैं सरदार अनूपसिंह। हमने भी उन्हीं को अपना वकील चुना है।"


"तू सोच रहा होगा कि हम अपना भेद खुद ही तुझे क्यों बता रहे हैं।" राजकुमार गुप्ता गौरीशंकर गुप्ता की बात आगे बढ़ाते हुए बोले - "हमें तुझ पर पूरा विश्वास है। हमारे साथ तू कब से है, याद कर। तेरा 'हत्यारों का बादशाह' हमने कब छापा था। याद है तुझे। और अण्डे की खेती, बोतल में हाथी, कद्दू वाला बौना कब छापी थीं। हमारे लिए तू घर का आदमी है ।"


"और देख योगेश।" गौरीशंकर गुप्ता बोले - "तू हमारे लिए काम करे या न करे, हमारे लिए तू हमारा भाई है। हमारी बिरादरी का भी है और हमें भरोसा है कि तू बिरादरी और भाईचारे की इज्जत रखेगा।"


"अच्छा, यह देख योगेश, विजय ने तो यह सबसे खास चीज़ तुझे नहीं दिखाई होगी, पर मैं दिखाता हूँ।" राजकुमार गुप्ता ने गौरीशंकर गुप्ता की बात खत्म होते ही मुझसे कहा और मुझसे आगे देखने का इशारा करते हुए, एक पेपरशीट टेबल पर रख दी। 


वह विजय पाकेट बुक्स का सर्कुलर था। वही सर्कुलर - जिसमें राजहंस के साथ मनोज, सूरज, कर्नल रंजीत और शेखर के उपन्यासों का विवरण था। 


इस बीच मैं बिल्कुल खामोश रहा। सर्कुलर देखकर भी मैंने यह ज़ाहिर नहीं किया कि मैं सर्कुलर पहले भी देख चुका हूँ।


"देख रहा है ना यह...। मनोज और सूरज छाप रहे हैं तेरे विजय बाबू जी।" गौरीशंकर गुप्ता एकाएक गम्भीर हो गये। 


"छापें तो सही, छठी का दूध न याद दिला दिया तो... " राजकुमार गुप्ता हँसे -"पता तो चलना चाहिए उन्हें भी असली बनियों से पाला पड़ा है।"


बात पूरी करते-करते राज बाबू ने एक क्षण गौरी बाबू पर नज़र डाली और बड़ी और ऊँची  टेबल के बावजूद मैंने उनकी वो हरकत देख या समझ ली, जो सम्भवतः चेहरे मुझ पर टिकाये, उनके हाथों ने की थी। 


राज बाबू ने अपना बायाँ हाथ गौरी बाबू की ओर बढ़ाया था और गौरी बाबू ने राज बाबू की ओर अपना दायाँ हाथ बढ़ा दिया था। दोनों भाइयों के हाथ एक क्षण के लिए मिले और अलग हो गये। 


एकाएक मुझे बड़ी तेजी से एक बात समझ में आई। वह यह कि चाहते हैं कि मैं यह सारी बातें विजय पाकेट बुक्स में जाकर विजय कुमार मलहोत्रा से कहूँ और वह यह समझते हैं कि मैं यह सब विजय जी से जरूर कहूँगा। और सारी बातें वे बता ही इसीलिए रहे थे। 


तुरन्त ही मैंने अपना मुँह खोला - "छोड़िये, ये सब बातें, अब जरा यह नॉवेल सम्भाल लीजिये।"


"बाल उपन्यास है?" गौरीशंकर गुप्ता ने पूछा। 


"हाँ...।" मैंने कहा। 


"कितने हैं...?"


"एक...।"


"तू भी यार, जब भी करेगा, छोटा काम ही करेगा। तीन-चार इकट्ठे लिखकर ले आता। तुझे भी इकट्ठे पैसे लेते मज़ा आता...।"


"भाई साहब, मैं तो हूँ ही छोटा आदमी। तो छोटी-छोटी बातें ही करूँगा। मेरी जरूरतें भी छोटी-छोटी हैं। देखिये - बैठा भी छोटी कुर्सी पर हूँ। आपके जैसी रिवाल्विंग कुर्सी पर बैठने लायक बन जाऊँ, बड़ी बातें भी करने लगूँगा।"


मेरी बात पर दोनों भाई धीमा ही सही, ठहाका मारकर हँसे। उपन्यास मुझसे लेकर गौरी भाई ने एक साइड में रखकर, एक पेपरवेट उसके ऊपर रख दिया। फिर अपने पास की दराज खोली। दराज में ही गिनकर रुपये निकाले और मेरी ओर बढ़ा दिये। 


मैं रुपये थाम, बिना गिने, जेब में रखने लगा तो राज बाबू बोले - "गिन तो ले।"


"छोटे से लेखक की छोटी-सी रकम है। गौरी भाई ने गलत थोड़े ही दी होगी।" मैं बोला। 


"नहीं, पहले गिन, फिर जेब में रख।" राजकुमार गुप्ता कुछ सख्ती से बोले - "पैसे हमेशा गिनकर,  लेने-देने चाहिए।"


मैंने गिने। दस-दस के बारह नोट और एक पांच का नोट, एक सौ पच्चीस रुपये थे। तब हमें एक बाल उपन्यास के इतने ही रुपये मिलते थे।


उस समय एक खास बात मैंने कई प्रकाशकों में नोट की थी, लेखक को जब भी दो सौ से कम की पेमेन्ट करते थे, पारिश्रमिक खुले रुपयों में ही देते थे। शायद इसके पीछे प्रकाशकों की यह सोच रहती हो कि बेचारे लेखक को खुले कराने के लिए परेशान न होना पड़े। हाँ, दो सौ से अधिक की पेमेन्ट होती थी, तब एक सौ के नोट का मुंह देखने का सौभाग्य मिल जाता था। ऐसा बहुत कम होता था, जब प्रकाशक के पास खुले रुपये न हो और सौ रुपये की पेमेन्ट में भी उसे सौ का नोट देना पड़ता हो। 


पेमेन्ट लेने के बाद मैं उठने लगा तो राज बाबू बोले - "रुक जा, चाय तो पीता जा..।"


मैं फिर से बैठ गया। उसके बाद राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता ने मुकदमे या विजय पाकेट बुक्स की कोई बात नहीं की।


मनोज पाकेट बुक्स से बाहर निकलने के बाद उस दिन भी मेरे दिल में एक बार विजय पाकेट बुक्स जाने का ख्याल आया, लेकिन मैंने अपने मन पर कन्ट्रोल कर लिया। दिमाग में एक ही बात आई, चूँकि  विजय कुमार मलहोत्रा की नज़र में मेरा 'मनोज' में आना-जाना बहुत है, इसलिये वो मुझसे कितनी भी बातें कर लें, मेरे प्रति उनका सन्देह बना ही रहेगा। यही सोच - मनोज में राज और गौरी बाबू के दिल में रहेगी, इसलिये बेहतर यही है - बिना काम इन दोनों ही जगहों पर आना-जाना बन्द ही रखा जाये। और मैं 'घर वापसी' के बस स्टाप पर पहुँच गया।


घर पहुँच मैंने अगली स्क्रिप्ट मेरठ के एक प्रकाशक के लिए आरम्भ कर दी। उन दिनों मेरठ में लेखकों और प्रकाशकों की भरमार थी। लोगों में चर्चा होती थी कि जिसके पास आठ-दस हजार फालतू हुए पब्लिशर बन जाता है। कागजी से उधार कागज मिल जाता है। प्रिंटिंग प्रेस वाला उधारी में छाप देता है। कैश पैसा तो लेखक, आर्टिस्ट, बाइन्डर तथा डाक टिकटों और रेलवे बण्डलों की बुकिंग के लिए रखना होता है। प्रिंटिंग प्रेस वाले और कागजी को वीपीपी की पेमेन्ट आने तक टरकाया जाता रहता था। मगर पब्लिकेशन करने की इस गूढ़ नीति ने बहुत से नौसिखियों की लुटिया भी डुबोई थी। 


उन दिनों पब्लिकेशन लाइन का जरा भी तजुर्बा न रखने के बावजूद "पॉकेट बुक्स' का धन्धा करने वाले बहुत से प्रकाशन खुले और बन्द हुए। ऐसे प्रकाशनों का सबसे अधिक फायदा उठाया लेखकों ने। लेखकों ने एडवांस भी माँगा तो मिला। नये प्रकाशकों से एडवांस लेने के बावजूद लेखकों ने लिखने का रूटीन अपने पुराने प्रकाशकों के हिसाब से बनाये रखा। नये प्रकाशक ने जब जल्दी स्क्रिप्ट देने का डण्डा कसा तो लेखक ने फटाफट औना-पौना उपन्यास लिखकर या किसी से लिखवा कर दे दिया। 


बेचारे नये प्रकाशक तो विश्वास पर धन्धा कर रहे होते थे, जबकि हम जैसे लेखक बहती गंगा में हाथ धो रहे होते थे। 


अधिकांश नये प्रकाशकों का धन्धा डूबने का कारण, उनके प्रकाशन में उपन्यासों की कहानियों का लचर होना भी था। 


मेरठ के लिए शुरू किया उपन्यास लिखते हुए मुझे कई दिन हो गये, उन दिनों मैं न तो वालिया साहब से मिला, ना ही भारती साहब से। 


यह एक 'आउट ऑफ रूटीन' बात थी, क्योंकि उन दिनों से पहले, लगभग रोज ही यह होता आया था कि या तो मैं सुबह-सुबह वालिया साहब के घर चला जाता था या वालिया साहब मेरे यहाँ चक्कर लगा लेते थे। जिस दिन सुबह मिलना न हुआ, उस दिन दोपहर या शाम में मिलना अवश्य होता था। चाहें वालिया साहब मेरे यहाँ आयें या मैं उनके यहाँ जाऊँ, रोज एक बार मिलना तो तय था। भारती साहब के भी हफ्ते में दो चक्कर तो लग ही जाते थे, लेकिन उनका आना शाम छ: बजे के बाद ही होता था।


उन दिनों यह रूटीन एक बार जो टूटा, बाद में कभी भी पहले जैसा नहीं बन सका। वालिया साहब के दिन भी उसके बाद बहुत सी परेशानियों के रहे। बाद में उन्हें बालीनगर का घर भी छोड़ना पड़ा और दूसरा किराये का घर उन्हें राजौरी गार्डन में मिला, जो मेरे घर से बहुत दूर था। बालीनगर में तो पैदल ही आना-जाना हो जाता था। उसके बाद हमारा परिवार भी बंगला साहब गुरुद्वारे के सामने स्थित फ्लैट में शिफ्ट हो गया। 


हाँ, हमारे बंगला साहब गुरुद्वारे के सामने शिफ्ट होने के बाद भारती साहब का हफ्ते में दो बार आना-जाना, मिलना, फिर से शुरू हो गया, लेकिन इसका कारण यह भी था कि जब हम रमेशनगर रहते थे, तब भी भारती साहब हफ्ते में दो तीन बार गुरुद्वारे अवश्य जाते थे और जिस गुरुद्वारे में वह हमेशा जाते थे, वह बंगला साहब गुरुद्वारा ही था।


मुझे याद नहीं, वालिया साहब और भारती साहब से मिले बिना कितने दिन बीते, पर जब मेरा मेरठ के लिए लिखा जाने वाला उपन्यास कम्पलीट हो गया तो सोचा - वालिया साहब और भारती साहब से मिलूँ। उनमें से किसी ने भी मेरठ जाना हो तो साथ हो जायेगा। पहले वालिया साहब के यहाँ गया। घर पास था और अक्सर उनके यहाँ तो मेरा पैदल ही आना-जाना होता था।


वालिया साहब के यहाँ ताला लगा हुआ था। इसका मतलब था - पूरा परिवार कर्मपुरा गया हुआ है। कर्मपुरा में एक छोटा फ्लैट वालिया साहब के पिताजी के नाम एलाटेड था, जिसमें वालिया साहब के माता पिता, छोटा भाई कुक्कू उर्फ हरजिन्दर और छोटी बहन बबली रहते थे। बड़ी बहन एयरफोर्स के आफिसर से विवाहित थी और कभी-कभी ही अपने बच्चों सहित मायके आती थी। वालिया साहब के पिता भी भारती साहब के पिता की तरह सरदार थे, किन्तु यशपाल वालिया और हरजिन्दर दोनों ने ही दाढ़ी-मूंछ सफाचट करा रखीं थीं और बाल भी कटवा कर, 'हीरो टाइप' सैट करा रखे थे। 


बालीनगर से ही मैंने पटेलनगर की बस पकड़ी। भारती साहब के यहाँ पहुँचा। वह बाहरी बड़े कमरे और किचेन के बीच बने छोटे कमरे में थे, जिसमें एक तख्त और एक बहुत छोटी मेज रखी थी। मुझे भारती साहब के यहाँ भी आने-जाने में कोई रोक-टोक नहीं थी। एक बार मैं आवाज देता "भारती साहब" और अन्दर से भारती साहब की आवाज आती "आ जा, अन्दर आ जा' । तुरन्त मैं अन्दर भारती साहब के पास तक पहुँच जाता। 


उस दिन मैं जब अन्दर पहुँचा तो भारती साहब चाय की चुस्कियाँ भर रहे थे और जूते मोजे पहने कहीं जाने के लिए तैयार बैठे थे।


" चाय पियेगा।" भारती साहब ने पूछा। 


"नहीं, अभी नहीं।" मैंने कहा - "घर से चाय नाश्ता करके ही चला हूँ।" मैंने कहा। 


 पास की टेबल पर कुछ हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी के उपन्यास रखे थे। 

हिन्दी के उपन्यासों ने मुझे चौंका दिया। मैंने फटाफट वे उपन्यास उठाकर उलट-पलट कर देखे। 


पहला उपन्यास जो मैंने उठाया, वह विजय पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित राजहंस का तलाश था, लेकिन उपन्यास के बैक कवर पर राजहंस उर्फ केवलकृष्ण की फोटो नहीं थी। दूसरा उपन्यास विजय पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित 'मनोज' का था, जिसका शीर्षक याद नहीं, पर उस उपन्यास के बैककवर पर वालिया साहब के पड़ोसी नाबालिग लड़के की फोटो थी। तीसरा उपन्यास विजय पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित सूरज का था। उसका भी शीर्षक याद नहीं, पर उसके बैक कवर पर इन्देश्वर जोशी की खूबसूरत तस्वीर थी। 


सबसे आखिर में मैंने सूरज का उपन्यास उठाया था, मैं उसे पलट कर इन्देश्वर जोशी की तस्वीर देख ही रहा था कि भारती साहब बोले - "रह गया न तू फिसड्डी।"


"फिसड्डी क्यों?" मैंने पूछा। 


"इन्देश को जुम्मा-जुम्मा चार दिन पैदा हुए, हुए उसकी तस्वीर भी छप गयी और तुझे एड़ियाँ रगड़ते सालों हो गये और कोई पूछने वाला नहीं।" भारती साहब चाय का कप खाली करते हुए, कप साथ की टेबल पर रखकर बोले। 


"ऐसी बात नहीं है, पूछने वाले तो बहुत हैं।" मैंने कुछ अकड़ से कहा। 


"खाक पूछने वाले हैं। नाम से छापने वाला है कोई...?"


"सब नसीब की बात है, वरना सूरज नाम में मनोज में छपा पहला उपन्यास 'दोस्ती' मेरा ही होना था।"


"पर छपा तो नहीं न...?" भारती साहब बोले। (सूरज में मेरा लिखा 'दोस्ती' उपन्यास क्यों नहीं छपा, वह भी एक लम्बा किस्सा है, पर वह किस्सा फिर कभी) 


"चलो, छोड़ो - ये सब बातें। ये बताओ - कहाँ की तैयारी है?" मैंने पूछा। 


"तुझे कहीं किसी काम से तो नहीं जाना?" सवाल के जवाब में भारती साहब ने पूछा। 


"नहीं।" मैंने कहा। 


"ठीक है, चल फिर, चलते हैं।" भारती साहब ने कहा। फिर भाभी जी से पंजाबी में कहा - "दोपहर का खाना नहीं बनाना।"


रास्ते में मैंने भारती साहब से पूछा - "मेरठ जाने का कोई प्रोग्राम है?"


"नहीं, अभी तो नहीं। क्यों, तूने जाना है...?"


"हाँ, मेरठ का नॉवेल  कम्पलीट हो गया। खैर, मैं खुद ही चक्कर मार लूँगा  किसी दिन।"


"तुझे 'विजय' के उपन्यास कैसे लगे?" भारती साहब ने बात का रुख पलटते हुए पूछा।


"अच्छे हैं, सैट आउट कर दिया..?" मैंने पूछा। 


"नई दिल्ली और दरीबे में आउट कर दिया है।"


"और बाहर... बाहर का माल डिस्पैच नहीं किया?" मैंने पूछा। मैंने यह सवाल इसलिये किया था, क्योंकि पाकेट बुक्स व्यवसाय में हमेशा मैं यही देखता आया था कि पहले दिल्ली से बाहर माल भेजा जाता था। सब जगहों पर माल भेजा जाने के बाद ही दिल्ली में सप्लाई की जाती थी। किन्तु भारती साहब की बात से मुझे लगा था - दिल्ली से बाहर माल नहीं भेजा गया है। और मेरा अनुमान सही था, यह भारती साहब के जवाब से ज़ाहिर हो गया। 


"तीनों किताबों की फिलहाल ज्यादा कापी नहीं तैयार करवाई हैं। इसलिए सिर्फ दिल्ली में ही आउट की है। अगर राजहंस और मनोज वालों को किताबों पर स्टे मिल गया और किताबों की बिक्री पर कोर्ट ने रोक लगा दी तो बाहर से माल वापस मँगवाना काफी महँगा पड़ता और दिक्कतें भी बहुत आतीं, इसलिये बाहर माल नहीं भेजा, बल्कि ज्यादा छपवाया ही नहीं।" भारती साहब ने बताया। 


"और कोर्ट ने इन सारी किताबों की बिक्री पर रोक लगा दी तो..?" मैं सोचते हुए बोला - "ये सारी किताबें तो बेकार हो जायेंगी।" मुझे उन दिनों पब्लिकेशन लाइन की उतनी बारिकियाँ नहीं मालूम थीं, जितनी आज मैं जानता हूँ। 


"कोई बेकार नहीं होगी।" भारती साहब ने बताया - टाइटिल और फ्रन्ट के चार पेज बदलकर, सारी किताबें दूसरे किसी भी नाम से मार्केट में फेंक दी जायेंगी।"


"यानि हर बात की तैयारी पहले से ही है।" 


"हाँ...।"


"और अब हम जा कहाँ रहे हैं?" मैंने पूछा। 


"हाइकोर्ट...।" भारती साहब ने बताया। 


"हाइकोर्ट...।" मैं बुरी तरह चौंका - "पर हाइकोर्ट क्यों?"


"मुकदमा शुरू हो गया है पागल।" भारती साहब बोले - "कल पहली पेशी थी। आज दूसरा दिन है।"


"कल क्या हुआ मुकदमे में...?" मैंने पूछा। 


"कल जस्टिस महोदय ने हिन्द, मनोज, राजहंस और विजय सबकी अपनी-अपनी बात सुनी थी और आज बहस होगी। राजहंस ने तलाश के मार्केट में डिस्पैच करने और बिक्री पर रोक लगाने के लिए स्टे माँगा है और मनोज वालों ने मनोज और सूरज की बिक्री पर रोक लगाने की माँग की है, जिस पर आज बहस होनी है।"


मैं और भारती साहब मुकदमा शुरू होने से काफी पहले हाइकोर्ट पहुँच गये। 


विजय कुमार मलहोत्रा जी के साथ, उनका मंझला भाई प्रेम भी था। सबसे छोटा सुभाष उस दिन नहीं आया था। 


भारती साहब ने मुझे विजय पाकेट बुक्स के वकीलों के बारे में भी बताया और उनसे मेरा औपचारिक परिचय भी कराया। 


विजय पाकेट बुक्स की ओर से मुकदमा सुप्रीम कोर्ट के नामी गिरामी बुजुर्ग एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा लड़ रहे थे। उनका बेटा अशोक मरवाहा उन्हें असिस्ट कर रहा था। 


ठीक समय पर कोर्ट की कार्यवाही आरम्भ हुई। मुकदमे की सुनवाई हाइकोर्ट की डबल बेंच कर रही थी, जिसके वरिष्ठ जस्टिस सरदार फौजा सिंह गिल थे। 


विजय पाकेट बुक्स की ओर से आदरणीय सोमनाथ मरवाहा ने कोर्ट को जब यह बताया कि 'राजहंस लेखक विजय पाकेट बुक्स का ट्रेडमार्क है' तो छूटते ही जस्टिस फौजा सिंह गिल महोदय ने कहा - "एक लेखक कभी ट्रेडमार्क नहीं हो सकता।"


यह ट्रेडमार्क सिस्टम पर एक जबरदस्त तमाचा था। 


(शेष फिर) 


और फिर क्या हुआ??? 

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