कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 7 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 7

 



लक्ष्मी पाकेट बुक्स की किताबों की कम्पोजिंग और प्रिन्टिंग करने वाले एक शख्स का मकान और कम्पोजिंग एजेन्सी और प्रिन्टिंग प्रेस बाहरी मेरठ के कंकरखेड़ा क्षेत्र में थी। 


अचानक ही एक दिन मेरे दिल में आया कि जब मैं लगातार मेरठ में ही रह रहा हूँ तो मुझे वहीं कहीं एक कमरा ले लेना चाहिए। 

लक्ष्मी पाकेट बुक्स के उन दिनों के स्वामी सतीश जैन उर्फ मामा से मैंने इस बात का जिक्र किया। उस समय वह कंकरखेड़ा वाले प्रेस वाले वहीं थे। ( उनका नाम आज याद नहीं है। सहूलियत के लिए हम 'राजनाथ जी' कहेंगे।) 

बातचीत में शामिल होते हुए उन्होंने पूछा - "शहर से थोड़ा दूर...चल जायेगा?"

"चल जायेगा।" मैंने बिना सोचे समझे कह दिया। 

उनके पास एक मोपेड थी। वह उसी समय मुझे मोपेड पर बैठा कर कंकरखेड़ा ले गये। 

उन्हीं के मकान में एक कमरा था, जिसका एक दरवाजा बाहरी गली और एक मकान के अन्दर पड़ता था। 
लेट्रीन-बाथरूम सभी किरायेदारों के लिए एक ही था और पानी के लिए एक हैण्डपम्प था, जो मकान के अन्दर मेरे कमरे के बिल्कुल निकट ही था। 

जब मैंने कमरा देखा तो खास बात मैंने यही देखी थी कि उसका एक द्वार बाहर की गली में था, जिससे मुझे 'टैम-बेटैम' घर आने में भी कोई परेशानी नहीं होनी थी। 

बाहर से ताला, फिर दरवाजा खोला और अपने घर के अन्दर। 

मैंने कमरा किराए पर ले लिया। 

उन दिनों मैं कुछ नये प्रकाशकों के लिए विक्रांत सीरीज़ के उपन्यास लिख रहा था। 

उन दिनों बहुत से ऐसे प्रकाशकों के लिए भी लिखा, जिनसे दिली जुड़ाव कभी भी कुछ ज्यादा नहीं रहा। 

उनमें से ज्यादातर ऐसे प्रकाशन थे, जो जब शुरू हुए, तभी हम जैसे सभी लेखकों को यह पता चल गया था कि यह गाड़ी ज्यादा चलने वाली नहीं है, इसके कई कारण थे। वे सिर्फ नकली ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश काम्बोज और एच. इकबाल छापकर नोट छापना चाहते थे।

किसी अच्छे लेखक को उसके नाम से छापने में, उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। 

उनकी दिलचस्पी यह थी कि पन्द्रह सौ किताबें छाप लें। उन में से हजार तो बेवकूफ हिन्दी पाठकों की वजह से बिक ही जायेंगी और बाकी का लाट बाद में सैकड़े के रेट में दिल्ली के दरीबे में बेच ही देंगे और ऐसे में नुक्सान न हो, इसका वे प्रकाशक मैथमैटिकल हिसाब लगाकर ही प्रोडक्शन खर्च कर रहे थे। 

मतलब साफ है - लेखक से वह कहते - तूने दो फार्म कम लिखने हैं। 

ऐसे प्रकाशक अच्छे प्रकाशकों के मुकाबले फार्म कम रखते, एक पेज में लाइनें कम रखते और कम्पोजिंग एजेन्सी से कम रेट में काम करवा लेते। 

टाइटिल के लिए भी किसी अच्छे आर्टिस्ट से डिजाइन नहीं बनवाते। चार अंग्रेजी उपन्यासों के कवर में काट-पीट कर, कटिंग- पेस्टिंग द्वारा सैटिंग करवाकर, किसी लोकल आर्टिस्ट से कवर तैयार करवाकर उस पर उपन्यास और लेखक का नाम लिखवा लेते। 

चूँकि कम फार्म की किताब होती, इसलिए बाइन्डिंग का खर्च भी कम आता और डिस्पैच में पोस्टेज स्टाम्प का भी। फिर बाइन्डिंग में सिलाई का खर्चा न कर वे स्टेपल्ड करवाते थे, जिससे किताब ज्यादा पतली दिखने लगती थी। 

आठ फार्म की सिलाई हुई किताब के मुकाबले, आठ फार्म की स्टेपल्ड किताब पतली नज़र आती थी। 

और बुक स्टाल पर दो घंटे बिताने के लिए किताब तलाश रहा पाठक तो उस किताब को देखकर ही छोड़ देता था, जबकि उतने ही पेजों की सिलाई हुई किताब तुरन्त उठा लेता था। 

आज भी यदि आप में से किसी के पास पुरानी किताबें हो तो देखें कि उनमें दो स्टेपलिंग पिन लगी हैं या सिलाई हुई है, फिर बराबर पेजों वाली ऐसी दो किताबों को एक टेबल पर पास-पास रख उनकी मोटाई देखें। 

ऐसे प्रकाशकों की मुख्य सोच होती थी - पाठक बेवकूफ है। सब बिकता है। 

फिर उन्हें देश की उन लाइब्रेरीज़ पर भी जरूरत से ज्यादा भरोसा था, जहाँ से रोज़ पचासों उपन्यास दीवाने किराये पर लेकर उपन्यास पढ़ते थे। 

उन दिनों ऐसे-ऐसे ठरकी पाठक थे, जो शाम के बाद किराये पर उपन्यास देने वाली दुकान से दो-दो उपन्यास किराये पर ले जाते थे और अगली शाम दोनों उपन्यास वापस कर, फिर दो उपन्यास माँगते थे। 

प्रकाशक ऐसे पाठकों के कारण अपना कूड़ा माल भी बिकने का भरोसा रखते थे, लेकिन ऐसे प्रकाशकों को असल में ऐसे पाठकों ने ही ठिकाने लगाया।

लाइब्रेरियों में पढ़ने वाले पाठकों ने भी ऐसे प्रकाशकों का नाम देखते ही किताबें छोड़नी आरम्भ कर दीं तो किराये की लाइब्रेरी चलाने वालों ने भी ऐसी किताबें खरीदनी बन्द कर दीं। 

मतलब - पाठकों को मूर्ख समझने वाले प्रकाशक तीन-चार सैट बेशक बेच लें, लेकिन उनका माल अन्ततः उनके घर का कूड़ा बन जाता था और वीपी के पैकेट पर पैकेट वापस आने लगते और फिर सारा माल सैकड़े के भाव बेचकर पब्लिकेशन बन्द करने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता। 

दिल्ली में शुरू-शुरू में सैकड़े का माल खरीदने का काम नारंग पुस्तक भण्डार के चन्दर उर्फ चन्द्र प्रकाश नारंग ने ही किया था। बाद में मनोज पुस्तक भण्डार और रतन एण्ड कंपनी तथा कुछ अन्य लालकिले, कनाट प्लेस पर पटरी लगाने वाले भी मैदान में आ गये। 

मुझे याद है वरिष्ठ उपन्यासकार गोविन्द सिंह ने मुझसे एक बार कहा था - पाठक लेखक से ज्यादा अक्लमन्द होता है। लेखक महीने दो महीने लगाकर जो उपन्यास लिखता है, पाठक उसे दो घंटे में पढ़कर दस गलतियाँ निकाल कर फेंक देता है। तो वर्तमान और भविष्य के लेखक भी इस बात का पूरा ध्यान रखें। पढ़ने वाले को आप कूड़ा नहीं परोस सकते, अगर पाठकों का दिल जीतना है तो शब्दों में जान होनी चाहिए। कहानी में कुछ नया होना चाहिए। घटनाक्रम रोचक होना चाहिए। डायलॉग मजेदार होने चाहिए। सब कुछ अच्छा होना चाहिए। कूड़ा एक बार जरूर पाठक सहन कर लेगा, लेकिन दूसरी बार उस पर थूकेगा भी नहीं, हाथ लगाना और आँख गड़ाना तो बहुत दूर की बात है। 

कंकरखेड़ा में कमरा किराए पर लेने के कुछ ही दिन बाद मुझे समझ में आया कि वह कमरा मेरे लिए बहुत ठीक नहीं था। कमरा छोटी गली में था, इसलिए सूरज की किरणों की कोई गुंजाइश नहीं थी। वहाँ दिन में भी लाईट जलाये बिना काम नहीं किया जा सकता था। और.... 

जब भी मैं कुछ सोचने लगता, हैण्डपम्प चलाने की आवाज दिमाग पर हथौड़े बरसाने लगती। 

मकान के स्वामी ने मुझे एक चारपाई दे दी थी, लेकिन गद्दा, तकिया, रजाई, चादर मुझे खरीदने पड़े थे। 

मेरे काम को देखते हुए मकानमालिक ने मुझे बिजली के लिए एक निश्चित राशि के एवज़ में दिन और रात को भी लाईट जलाने की इजाज़त दे दी थी। 

चाय-नाश्ता और खाना पीना मुझे  बाजार के रेस्तरां पर ही निर्भर रहना पड़ता था। 

सभी परेशानियों के बावजूद, अपने काम में लगा रहने के कारण मैं काफी दिन व्यस्त रहा। ध्यान ही नहीं रहा कि वेद भाई ने  कहा था - मिलने को। 

उपन्यास पूरा हुआ। पेमेन्ट हाथ में आई तो सोचा - कुछ दिन दिल्ली हो आऊँ, पर तभी वेद भाई की याद आई। सोचा - जाने से पहले वेद भाई से मिलता चलूँ और मैंने डी. एन. कालेज का रिक्शा पकड़ा।

उस दिन, उस वक़्त संयोग से आफिस में सुरेश जी नहीं थे। सिर्फ वेद भाई थे और वह कुछ लिख रहे थे और सामने कुछ 'गैली प्रूफ' रखे थे। 

मुझे देखते ही वेद भाई ने लिखना बन्द किया। पेन एक ओर रखा और पेज उलट कर रख दिये, फिर हाथ बढ़ाकर, हाथ मिलाया। मेरा स्वागत किया, फिर पूछा - "मेरठ में ही है या दिल्ली से आ रहा है?"

"अभी तो मेरठ में ही हूँ।" मैंने कहा। 

"यार, तेरे से एक काम है...?" वेद ने कहा। 

"क्या...?"

"सुना है, तेरी रीडिंग बहुत ज्यादा है, दिमाग बहुत तेज़ दौड़ता है।"

"हाँ, यह तो है।" मैंने कहा -"कुछ न कुछ पढ़े बिना तो मैं एक दिन भी नहीं रह सकता। और कुछ न कुछ लिखे बिना भी....।"

"और भारती साहब बता रहे थे कि तू प्लाट बनाकर उपन्यास लिखता है।"

"हाँ, मैं एक डायरी में सब कुछ लिखता हूँ। जो उपन्यास लिखता हूँ, उसी डायरी में आठ-दस पेज में उसकी कहानी, शुरुआत और अन्त सब लिखने के बाद ही कभी उपन्यास लिखना आरम्भ करता हूँ। दरअसल उपन्यास की स्टार्टिंग और एण्ड सोचा हुआ हो तो बीच का ताना-बाना बुनने और कैरेक्टर तथा सीन क्रियेट करने में बहुत आसानी रहती है और डायरी हमेशा मैं साथ ही रखता हूँ।"

"अभी है डायरी...?" वेद ने पूछा। 

"नहीं, अभी तो नहीं है। देवीनगर जीजी के यहाँ पड़ी है।"

"यार, दो-तीन एकदम यूनिक, एक्सट्रा ओर्डिनरी आइडियाज मुझे लिखकर दे। मैं तुझे उसके पैसे दूंगा। पसन्द आया तो भी और न पसन्द आया तो भी। लेकिन उस आइडिये पर उपन्यास मैं खुद ही लिखूँगा।" वेद ने कहा। 

"फिलहाल नया आइडिया सोचने से पहले तो जो तैयारशुदा हैं, वो दिखा दूँ...?" मैंने पूछा। 

"कुछ खास हैं...?" वेद ने पूछा। 

"मेरी नज़र में तो हैं, तुम्हारी नज़र में क्या हैं, तुम पढ़कर देखना...।" मैंने कहा - "पर एक समस्या है, उसमें से एक "लाश की दुल्हन" की मैं गंगा पाकेट बुक्स में और एक "मिट्टी का ताजमहल" की लक्ष्मी पाकेट बुक्स में पब्लिसिटी करवा चुका हूँ।"

"फिर छपवाये क्यों नहीं....?"

"छापने के लिए दोनों ही जगहों से एक जैसा जवाब रहा कि अभी रुक जा, अभी ठहर जा...।" और फिर व्यस्त ज्यादा हो गया तो सोचना छोड़ दिया। 

"ठीक है, दिखाना....।" वेद भाई ने कहा। फिर उसके बाद सामने ही रखे गैली प्रूफ मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले -"जरा एक नज़र इन पर भी डाल ले।"

जो लोग गैली प्रूफ का मतलब नहीं समझे हों, उन्हें बता दूँ कि उन दिनों कम्पोजिंग एजेन्सी में हर कम्पोजीटर के सामने लकड़ी के छोटे-छोटे खाने बना एक बड़ा केस होता था, जिसके हर खाने में अलग-अलग अक्षर के बहुत सारे 'पीस' होते थे। कम्पोजीटर को याद रखना होता था कि किस खाने में कौन सा अक्षर है। फिर कम्पोजीटर एक-एक अक्षर उठाकर जोड़ कर एक शब्द बनाता था और हर शब्द के बाद एक स्पेस वाला 'पीस' लगाकर अगला अक्षर उठाता था और उसमें भी अक्षर अक्षर जोड़ कर शब्द बनाता। शब्द पूरा होते ही, फिर से स्पेस डालकर अगले शब्द के अक्षर चुने जाते। 

उदाहरण के तौर पर यदि कम्पोजीटर को टाइप करना है -

'हे मेरे प्रभु राम।'

तो पहले वह ह अक्षर चुनता, फिर उसके ऊपर 'ए' मात्रा अलग से लगाता, जो 'ह' पर जुड़ जाती और 'हे' अक्षर तैयार हो जाता। फिर स्पेस डालकर, इसी प्रकार 'मेरे' शब्द में 'म' और 'ए' की मात्रा तथा 'र' और 'ए' की मात्रा जोड़ कर 'मेरे' शब्द तैयार किया जाता। उसके बाद स्पेस डालकर 'प्र' का एक ही अक्षर चुना जाता, किन्तु 'भु' टाइप करने के लिए 'भ' और 'उ' की मात्रा को जोड़ना पड़ता था। फिर स्पेस देने के बाद 'राम' टाइप करने के लिए पहले 'र' अक्षर चुना जाता, फिर उसमें 'आ' का डण्डा लगाया जाता, उसके बाद 'म' अक्षर उठाकर लगाया जाता और फिर स्पेस के बाद सम्बोधक चिन्ह। 

पर हिन्दी के जिन शब्दों में आधा अक्षर आता था, उसके लिए आधे-आधे अक्षर के अलग-अलग केस थे। इस प्रकार हिन्दी की कम्पोजिंग, अंग्रेजी के मुकाबले बहुत कठिन थी। पर कम्पोजीटर्स को प्रतिदिन के हिसाब से दिहाड़ी (मजदूरी) बहुत ज्यादा नहीं मिलती थी। 

हिन्दी में 'शब्द' का आधा 'ब'

'क्या' का आधा 'क'

'स्याही' का आधा 'स'

'ख्वाब' का आधा 'ख'

इसी तरह बहुत सारे आधे अक्षरों के अलग केस थे, लेकिन कभी कभी जब 'स' 'ष' 'घ' 'ध' 'श' 'ज' 'ग' 'ख' जैसे अक्षर कम्पोजिंग केस में कम पड़ जाते तो कम्पोजीटर उसकी पूर्ति आधे अक्षर के साथ 'आ' का डण्डा लगाकर, कर देते थे, किन्तु कई बार ऐसा होता था कि कम्पोजीटर्स की यह चालाकी मेरे जैसे तेज तर्रार प्रूफरीडर भाँप जाते तो वहाँ करेक्शन लगा, पूरा अक्षर सैट करने की हिदायत देते। ऐसे में अक्सर कम्पोजिंग एजेन्सी के मालिक को प्रेस पर छपने गये फार्म की वापसी का इन्तजार करना पड़ता था और जब फार्म वापस आता तो जैसे कम्पोजीटर्स को एक-एक अक्षर चुनकर लाइन, फिर एक-एक लाइन के बीच एक या डबल स्पेस डालकर, लाइनों को जोड़कर पेज बनाना होता था, उसी प्रकार छपे फार्म से एक-एक अक्षर चुनकर वापस सही केस अर्थात अक्षर के खाने में डालना होता था और जब केस भर जाता तो नये फार्म में जहाँ 'आधा अक्षर' और 'आ' का डण्डा जोड़कर पूरा अक्षर बनाया जाता, उसे करेक्ट किया जाता था। 

कम्पोजीटर्स के हाथ में लाइन बनाने के लिए लोहे का एक छोटा केस होता था, जिसमें अक्षर अक्षर जोड़कर शब्द और फिर लाइन बनाने में एक बार में सात आठ लाइनों से अधिक नहीं बन पाती थीं, कम्पोजीटर उन लाइनों को कान्टीन्यूटी में एक लम्बी ट्रे में रखते जाते थे। ट्रे में सौ के लगभग लाइन आ ही जाती थीं। हर प्रेस वाले पहले उन्हीं लाइनों को चारों ओर से बाँध कर, उस पर पहले इंक का रोलर चलाते थे, फिर प्रूफ के लिए पेपर रखकर ऊपर एक  दबाव डालकर प्रिन्ट करने वाला रोलर, बेलन की तरह फेर देते थे। 


तब गैली में रखी सभी लाइनों का प्रिन्ट कागज पर आ जाता था। उन लाइनों में पेज नम्बर कहीं पर भी नहीं होता था। उसे गैली प्रूफ कहा जाता था। अधिकांशतः प्रेस मालिक स्वयं ही गैली प्रूफ पढ़ते थे। बाद में गैली प्रूफ की गलतियों पर करेक्शन लगवाकर, निश्चित लाइनों से पेज बंधवा, नीचे पेज नम्बर डलवाकर पेज प्रूफ निकाले जाते थे और वही प्रकाशक के पास रीडिंग के लिए भेजे जाते थे, किन्तु बहुत से बड़े प्रकाशक गैली प्रूफ भी खुद पढ़वाते थे। 


वेद ने मुझे जो गैली प्रूफ दिये मैंने पढ़कर, वापस उसे थमा दिये। फिर चाय पीने के बाद इजाज़त लेकर निकल गया। 


अगले दिन मैंने अपनी डायरी में से अपने उपन्यासों के पेज फाड़कर वेद को ला दिये। वेद ने उनके जबरदस्ती मुझे सौ रुपये दे दिये और साथ ही कहा कि अगर तेरा आइडिया पसन्द आया और उस पर मैंने उपन्यास लिखा तो तुझे और पैसे दूँगा। 


उसके बाद मैं दिल्ली चला गया। दोबारा लौटकर मैं लगभग दो महीने बाद मेरठ आया। उस दौरान मैं दिल्ली में मनोज और भारती पाकेट बुक्स का काम करता रहा। 

मेरठ लौटा तो लक्ष्मी पाकेट  बुक्स के स्वामी सतीश जैन ने कहा - "यार बड़े दिन लगा दिये। तुम कंकरखेड़ा का कमरा न तो छोड़ कर गये, ना ही किराया देकर गये। राजनाथ जी पाँच-छ: चक्कर लगा चुके हैं। उनसे मिलकर समस्या सुलझाओ। 

" ठीक है, मिल लूँगा।" मैंने कहा। उसके बाद मैं ईश्वरपुरी की ओर निकल गया तो बाहर कोने पर, गिरधारी चाय और पान वाले की दुकान पर, महावीर जैन (अनिल पाकेट बुक्स वाले) मिल गये। मुझसे बोले - "कहाँ घूम रहा है? तुझे रायल वाले पूछ रहे हैं और वेद प्रकाश शर्मा भी एक रोज किसी से कह रहा था - 'योगेश जी, कहीं महीनों से दिखाई नहीं दिये। उसका भी कोई काम कर रहा है क्या?"

"नहीं तो...।" मैंने कहा। 

"चल, फिर भी मिल लियो एक बार। मिलने में क्या जाता है। पर यहाँ तक आया ही है तो एक बार रायल वालों से मिलता जा।"

"ठीक है।" मैंने कहा और ईश्वरपुरी में दाखिल हुआ। ईश्वरपुरी के अन्तिम छोर पर बायीं ओर का दूसरा मकान रायल पाकेट बुक्स का था। उस समय उसका कार्य भार चन्द्रकिरण जैन के पिता जी देख रहे थे, जो किसी ऊँचे ओहदे से रिटायर होने के बाद प्रकाशन सम्भाल रहे थे। वो मुझसे बहुत अच्छे से मिले और उन्होंने मुझे वैसा ही काम बताया, जो प्रकाशन जगत के 'जगतमामा' सतीश जैन मुझसे कई बार करवा चुके थे। जाहिर था - ऐसे कामों के लिए 'द बेस्ट' कहने और मशहूर करने का काम मामा की ही 'हिमाकत' 'शरारत' या 'जर्रानवाज़ी' थी। 

वहीं यह भी जिक्र आ गया कि तब मैं कंकरखेड़ा में रह रहा हूँ तो वह मुझ पर बिगड़ पड़े। बोले - "पागल है तू.... जो कंकरखेड़ा रह रहा है। वहाँ से ईश्वरपुरी आने-जाने का मतलब है - रोज दो तीन घंटों की बरबादी। तू छोड़ वो कमरा और यहाँ मेरे पास आ जा । यह बाहर की मेरी बैठक खाली पड़ी है। आज से तू यहीं रहेगा। मैं कमरे की सफाई करवा देता हूँ।"

और उन्होंने मुझे एडवांस में धन भी दिया, जिससे मैं कंकरखेड़ा जाकर, किराया चुकाकर, अपना सारा सामान ले आऊँ। 

मैं कंकरखेड़ा गया। राजनाथ जी को किराया चुकाकर मैंने कमरा छोड़ने की बात की तो वह ढेर सारी उदासी चेहरे पर लाकर बोले -"मत जाओ। तुम्हारे बिना मन नहीं लगेगा।"

मुझे हँसी तो बहुत आ रही थी, पर दबा गया। हँसी का कारण था, जितने दिन मैं कंकरखेड़ा रहा, मुश्किल से दो तीन बार ही राजनाथ जी से मिलना हुआ था। 

अक्सर मैं रात को लिखता था तो सुबह सात बजे से नौ बजे तक सोता रहता था और जब उठता था तो वह थोड़ी दूर स्थित अपनी कम्पोजिंग एजेन्सी में जा चुके होते थे। 

खैर, उस दिन रिक्शा करके मैं अपना सारा सामान रायल पाकेट बुक्स की कोठी की बाहरी बैठक में ले आया। 

फिर हरीनगर रामाकान्त मामाजी के यहाँ गया तो पहले तो वह बहुत नाराज़ हुए, "तुझे किराये पर रहने की क्या जरूरत आ पड़ी? हम सब मर गये हैं क्या?"

बहुत अनुनय विनय के बाद मामाजी शान्त हुए तो जिद्द पकड़ ली कि "चल, अपना कमरा दिखा।" 

कमरा दिखाया तो वह और बिफर पड़े -"यहाँ चारपाई तो है ही नहीं, सोयेगा क्या जमीन पर।" 

और वह मुझे घसीट कर बाजार ले गये और निवाड़ का एक फोल्डिंग पलंग दिलवाया। मेरे कमरे में दोबारा मेरे साथ जाकर, पलंग सैट करवाया। उस पर गद्दा, बिछवा, तकिया चादर, रजाई ठीक से रखवाये। फिर कमरे को ताला लगवा, डिनर के लिए मुझे अपने साथ घर ले गये। 

खाना खाने के बाद मैंने सोचा - "कल वेद भाई से भी मुलाकात कर लूँगा। शायद कोई जरूरी काम हो।"

पर अगले रोज तो क्या...? अगले कई रोज़ तक मैं वेद भाई से नहीं मिल पाया। 

(शेष फिर)

- योगेश मित्तल

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