राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 9 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 9

जस्टिस फौजा सिंह गिल के अल्फ़ाज़ सबके लिए एक झटका थे। जस्टिस महोदय का कहना था -  ट्रेडमार्क किसी कम्पनी द्वारा किसी वस्तु विशेष के लिए अपनी पहचान का ठप्पा लगाने के लिए रजिस्टर्ड किये जाते हैं और एक लेखक कोई वस्तु नहीं होता। 

कोर्ट में दूसरी एप्लीकेशन राजहंस की थी। उनकी ओर से सरदार अनूपसिंह ने पैरवी करते हुए कहा कि राजहंस - केवलकृष्ण कालिया का नाम है। विजय पाकेट बुक्स राजहंस नाम से 'तलाश' उपन्यास प्रकाशित कर रहा है, जो कि केवलकृष्ण कालिया का लिखा नहीं है। विजय पाकेट बुक्स द्वारा राजहंस का नकली उपन्यास 'तलाश' प्रकाशित और वितरित किये जाने पर रोक लगाई जाये। 

विजय पाकेट बुक्स की ओर से राजहंस नाम पर विजय पाकेट बुक्स के स्वामित्व की उनके एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा तरह-तरह की दलीलें देते रहे। जिनका जवाब सरदार अनूपसिंह निरन्तर देते रहे। सरदार अनूपसिंह और राजहंस के हक में  जस्टिस महोदय का यह कथन और सोच 'एक लेखक कभी ट्रेडमार्क नहीं हो सकता' उनका पक्ष मजबूत कर रही थी और आखिरकार फैसला राजहंस के पक्ष में ही हुआ। 'तलाश' उपन्यास पर राजहंस को स्टे मिल गया।

उस रोज उससे ज्यादा बहस नहीं चली। 

अगले दिन मैं मेरठ चला गया। मेरठ में तब मेरा बहुत से लोगों से गहरा अपनापन था। 


मेरे अन्दर आदत थी कि मैं एक का काम लेकर जाता था तो भी सबसे "हैलो - हाय - नमस्ते - जयराम जी की" करके ही आता था। 

मेरठ के ओडियन सिनेमा वाली सड़क पर, ओडियन सिनेमा के बाद ईश्वरपुरी का क्षेत्र पूरी तरह प्रकाशकों का गढ़ कहलाता था। 

अन्दर घुसते ही दायें हाथ की ओर सबसे पहला मकान सलेक चन्द जैन का था, जिनके बड़े बेटे अमर चन्द जैन के लिए सलेक चन्द जैन द्वारा खोली गई "अमर पाकेट बुक्स" में मेरे दो सामाजिक  उपन्यास "पापी" और "कलियुग" "प्रणय" नाम से छपे थे। "प्रणय" के बैक कवर में मेरी रंगीन फोटो छपी थी। पर वह किस्सा फिर कभी...। 

सलेक चन्द जैन जी के दूसरे बेटे अरविन्द जैन ने पहले सामने की ही एक बिल्डिंग के अपर फ्लोर को किराये पर लेकर अपना घर अलग बसाया और गली के आखिर में एक बाहरी कमरे को किराये पर लेकर पूजा पाकेट बुक्स खोली थी, किन्तु असली कामयाबी उसे "गौरी पाकेट बुक्स" खोलने पर, "केशव पंडित" रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क में खतौली के राकेश गुप्ता उर्फ राकेश पाठक के उपन्यास छापने पर मिली। पर यह किस्सा भी फिर कभी.. 

ईश्वरपुरी में दूसरा मकान सुमत प्रसाद जैन का था ।  जिनके पुत्रों संजीव जैन, राजीव जैन और पंकज जैन - तीनों से मैं कभी न कभी बेहद करीब रहा हूँ। 

इसके बाद तिलक चन्द जैन का मकान था, जिनके सुपुत्रों राकेश जैन ( धीरज पाकेट बुक्स) और मनेश जैन से मैं जब तक मेरठ जाता रहा, हमेशा मिलकर आता था। 

उसके बाद तब की गंगा पाकेट बुक्स और बाद में दुर्गा पाकेट बुक्स के प्रकाशक सुशील कुमार जैन की बिल्डिंग थीं। उनके बड़े बेटे दीपक जैन से आज भी मेरा सम्पर्क है। 

आगे सड़क के आखिर में बायें मोड़ पर रायल पाकेट बुक्स का आफिस था। उनके मकान में कुछ समय तक मैं किरायेदार भी रहा था। 

आगे महावीर जैन का अनिल पाकेट बुक्स भी आफिस था। वहीं कहीं परशुराम शर्मा और मदन सेन जैन की पारस पाकेट बुक्स भी थी। 

और ईश्वरपुरी से बाहर उसी रोड पर आगे का क्षेत्र हरीनगर कहलाता था। वहाँ पहले सीक्रेट सर्विस पब्लिकेशन का कार्यालय था। बाद में अरुण जैन और मनेश जैन के राधा पाकेट बुक्स, रवि पाकेट बुक्स और धनेन्द्र कुमार जैन के पब्लिकेशन का आफिस था। 

यह सब आपको बताने का कारण यह कि हर पब्लिकेशन में मैं पाँच से बीस मिनट तक लगाकर ही मैं मेरठ से वापस लौटता था। 

कभी-कभी देवीनगर में लक्ष्मी पाकेट बुक्स तथा अन्य स्थानों पर स्थित पाकेट बुक्स पब्लिकेशन्स के आफिस में घूम आता था। मतलब कोई व्यापारिक नहीं था। बस, आदत थी मिलते-जुलते रहने की। हरीनगर में मेरे चार माताओं का घर भी था और देवीनगर में मेरी सबसे बड़ी बहन का। वहाँ भी कुछ घंटे व्यतीत करके ही वापस दिल्ली लौटता था। अत: सुबह का मेरठ गया - रात को ही दिल्ली लौटता था। कई बार बहन या मामाजी के यहाँ रुकना हो जाता तो अगले ही दिन वापस लौटना होता था। 

इस बार जब देवीनगर पहुँचा तो वहाँ लक्ष्मी पाकेट बुक्स के आफिस में पुराने मालिक जंगबहादुर नहीं थे। वहाँ मेरे पुराने प्रकाशक  छीपीवाड़ा स्थित 'ओरियन्टल पाकेट बुक्स' के सतीश जैन उपस्थित थे। सतीश जैन - वही - जो मेरठ के प्रकाशन जगत में "मामा" के नाम से मशहूर थे। मुझे वह "कलाकार" भी कहा करते थे। 

मुझे देखते ही उन्होंने कहा - "कमाल है यार, आज मैं तुम्हें ही याद कर रहा था। तुम्हारे लिए बहुत सारा काम है। यहीं मेरठ रुक जाओ। मेरे घर चलो, वहीं मैं तुम्हारे रहने-खाने-पीने का इन्तजाम कर देता हूँ।"

"रहने की तो कोई समस्या नहीं है। पास की गली में मेरी बड़ी बहन रहती हैं और हरीनगर में मामाजी रहते हैं। वैसे काम क्या है?" मैंने पूछा। 

"यार, चार उपन्यासों में तो दो-दो फार्म बढ़वाने हैं और अगले सैट के चार-पाँच उपन्यास लिखवाने हैं। तुम नहीं आते तो मैं तुम्हें चिट्ठी लिखने वाला था।"

"मेरा पता मालूम था आपको?" मैंने पूछा। 

"नहीं, पता तो नहीं मालूम था, पर तुम्हें कौन नहीं जानता। किसी न किसी से मिल ही जाता।" सतीश जैन ने कहा। 

"पर आज तो मैं घर पर भीड़ बोलकर नहीं आया। अधिक से अधिक उपन्यास का मैटर बढ़ा सकता हूँ।"

"ठीक है। आज एक उपन्यास का मैटर बढ़ा दो। कुछ पेज शुरू में बढ़ा देना, कुछ बीच में और कुछ आखिर में...। जहाँ-जहाँ जैसा तुम ठीक समझो।" सतीश जैन ने उपन्यास मुझे थमा दिया और कहा- "इसके बाद यार दो चार दिन बाद तुम मेरठ आ जाओ। मेरा सारा काम तुम पर ही आश्रित है।" 

मैं उस रोज वहीं रुक गया। रात को अपनी सबसे बड़ी बहन प्रतिमा जैन के यहाँ रुक गया। तब वह देवीनगर में एक मकान के फर्स्ट फ्लोर पर किराये पर रहती थीं। बाद में जीजाजी के रिटायर होने पर उन्होंने नेहरूनगर में अपना मकान ले लिया, अब वह वहीं रहती हैं। 

रात को मैंने मैटर बढ़ा दिया और सुबह जब आफिस खुला तो सतीश जैन को थमा दिया। सुबह-सुबह मैटर मिल जाने से सतीश जैन बहुत खुश हुए और बोले - "अब यार, अभी दिल्ली जाओ या शाम को। आज का दिन तो तुम्हारा खराब होना ही है। एक और नावल में दो फार्म बढ़ा दो, प्लीज़।"

और मेरे अन्दर यह खराब आदत थी कि "ना" करना तो सीखा ही नहीं था तो मैंने भी सोचा कि घर पर यह तो कहा ही मैंने कि मेरठ जा रहा हूँ तो घर में सब समझ जायेंगे कि मैं जीजी के यहाँ रुक गया होऊँगा।  

दरअसल तब मैं लापरवाह भी बहुत था। जहाँ रात हुई, वहीं रात गुज़ार ली। कुछ ऐसी ही आदत थी। घर के लोग चिन्ता करेंगे, यह सोचता भी नहीं था। इस आदत का भी एक किस्सा था, किन्तु वह किस्सा फिर कभी...। 

मैंने बारह-साढ़े बारह बजे तक लक्ष्मी पाकेट बुक्स के आफिस में ही दूसरे उपन्यास के दो फार्म भी बढ़ा दिये तो सतीश जैन बोले - "यार, अभी तो शाम होने में बहुत देर है। एक उपन्यास के दो फार्म और बढ़ा दो।"

दोपहर के लंच के लिए उन्होंने समोसे और चाय वहीं आफिस में मँगवा दिये। वह खुद भी लंच के लिए घर नहीं गये, जबकि रोज घर जाते थे। और तब मोबाइल का जमाना नहीं था और लैण्डलाइन फोन भी हर जगह नहीं होते थे। 

सतीश जैन ने मुझसे एक और उपन्यास के पेज बढ़ाने के लिए कहा तो मुझे लगा - सतीश जैन सही कह रहे हैं। एक और उपन्यास के पेज बढ़ाये जा सकते हैं। 

मैंने फटाफट तीसरे उपन्यास पर नज़र डाली और उसके पेज बढ़ाने में लग गया। उस रोज फटाफट मैटर बढ़ाते हुए साढ़े चार बजे तक मैंने तीसरे उपन्यास के भी दो फार्म बढ़ा दिये तो सतीश जैन हँसते हुए बोले - "कलाकार, अब एक उपन्यास के दो फार्म और बढ़ाने हैं। एक किताब के लिए मुझे तुम दूसरे लेखक के पास दौड़ाओ। यह कोई अच्छी बात नहीं है।" और सतीश जैन अपनेपन से मेरा दायाँ कन्धा दबाने लगे। 

"यह क्या कर रहे हो?" मैंने कहा तो हँसते हुए सतीश जैन ने कहा -  "हाथ दुख रहा हो। कन्धे दर्द कर रहे हों तो मैं दबा देता हूँ। पर  यार, अब अधूरा काम छोड़ कर मत जाओ।"

अगर मैं कहूँ कि सतीश जैन उर्फ़ मामा मेरठ के सभी प्रकाशकों से बेहतर हों न हों, उनकी वाणी में गज़ब की मिठास थी। किसी की 'ना' को 'हाँ' में बदलवाने का उनका 'हुनर और फन' लाजवाब था। 

मैंने चौथे उपन्यास को भी पढ़ना आरम्भ कर दिया। और उस दिन भी मुझे रात को मेरठ में अपनी बहन के यहाँ ही रुकना पड़ा, क्योंकि उस उपन्यास के पूरे पेज मैं उसी दिन बढ़ा नहीं सका था। 

रात को बहन के घर गया तो कसकर डाँट पड़ी -"दोपहर को खाना खाने क्यों नहीं आया? तेरे लिए खाना बनाया था मैंने।"

जब मैंने बताया कि मैं गली के बाहर ही लक्ष्मी पाकेट बुक्स के आफिस में था तो दोबारा डाँट पड़ी कि बता दिया होता तो किसी को भेजकर तुझे बुलवा लेती या खाना वहीं भिजवा देती।"

पर रात को जीजी ने मुझे ताजा खाना ही खिलाया। 

अगले दिन चौथे उपन्यास के पेज भी पूरे करके दे दिये। सतीश जैन ने मुझे मेरा पारिश्रमिक तत्काल दे दिया।

उस जमाने के जो लेखक, प्रकाशक या पाठक आज भी मौजूद हैं, उन्हें याद होगा कि आरम्भ में उपन्यास एक सौ अट्ठाइस पेज अर्थात आठ फार्म के होते थे, फिर नौ या दस फार्म के होने लगे। उसके बाद 192 पेज यानि बारह फार्म और फिर जमाना आया 240 पेजों अर्थात पन्द्रह फार्म का। 

कुछ प्रकाशक जो लेखकों का पैसा बचाना चाहते थे। वो अक्सर अपने ही यहाँ नकली नामों या ट्रेड नामों से छपे पुराने उपन्यासों में मेरे जैसे किसी लेखक से आगे पीछे और बीच में कुछ-कुछ पेज बढ़वाकर किसी नये या उस समय चल रहे नाम से छाप देते थे। 

इस तरह उपन्यास बिल्कुल नया बन जाता था और उसके पेज किसी एक्सपर्ट लेखक द्वारा बढ़ाये गये होते तो पूर्व में किसी लेखक द्वारा लिखा घटिया उपन्यास भी बढ़िया बन जाता था और प्रकाशक के पैसे भी बहुत ज्यादा बच जाते थे। 

बहुत बार पाठक भी यह बात पकड़ नहीं पाते थे। उन्हें यह तो लगता कि उस जैसी कोई कहानी पहले भी पढ़ी है, पर वह उपन्यास उन्हें नया ही लगता था। 

कई बार प्रकाशक उपन्यास के भीतरी पात्रों के नाम भी बदल देते थे और इस तरह पुराने उपन्यास को नये कलेवर में पेश कर पाठकों को एक तरह से बेहतरीन ढंग से ठगा करते थे। 

उस दिन शाम को जब मैं दिल्ली स्थित अपने घर पहुँचा, मम्मी पिताजी ने यही कहा कि मेरठ में ही रुकना था तो कम से कम पहले बता के तो जाता। 

इसका कारण था पहले एक बार ऐसा हुआ था, जब हमारा आधा परिवार गाँधीनगर था और रमेशनगर में मम्मी-पिताजी रहते थे, तब एक बार मैं चार दिनों तक घर नहीं पहुँचा था, ना गाँधीनगर, न रमेशनगर और फिर चौथे दिन रमेशनगर में मम्मी-पिताजी पुलिस में रिपोर्ट करने वाले थे, तभी मैं रमेशनगर पहुँच गया था। पर वह किस्सा फिर कभी...। 

अगले दिन मैं वालिया साहब के यहाँ जाने ही वाला था कि वह आ गये। वह अपने वेस्पा स्कूटर पर थे। स्कूटर पर बैठे-बैठे ही मुझे आवाज दी। 

मैं बाहर आया तो नाराजगी जताई - "कहाँ थे दो दिन?"

"मेरठ गया था। मैंने भारती साहब को बताया था।" मैंने कहा। 

"मुझे भी बताकर जाना था ना।"

"अगली बार ध्यान रखूँगा... Sorry.।" मैंने मुस्कुराते हुए ड्रामेटिक अन्दाज़ में अपने दोनों कान पकड़े। 

"ठीक है... ठीक है। माफ किया।" वालिया साहब बोले और स्कूटर पर बैठने का इशारा किया। 

हम बालीनगर वालिया साहब के यहाँ पहुँचे तो मीना भाभी बोलीं - "योगेश जी, आप रोज सुबह यहाँ आ जाया करो। वालिया साहब कहते हैं - योगेश बहुत कमज़ोर है। उसे रोज सुबह दो अण्डे खाने चाहिये और आपके घर तो अण्डे खाये नहीं जाते।"

हाँ, तब हमारे यहाँ अण्डे नहीं खाये जाते थे। मेरी माताजी के जीवित रहते,  हमारे घर अण्डों का उपयोग लगभग नहीं ही हुआ। उनके स्वर्गवास के बाद ही हमारे घर अण्डों और आमलेट का सेवन आरम्भ हुआ। 

जब तक वालिया साहब बालीनगर रहे, अक्सर मेरा सुबह का नाश्ता उनके यहाँ होता था और नाश्ते में अण्डे किसी न किसी रूप में अवश्य होते थे। चाहें बायल्ड अण्डे हों या हाफ फ्राई अथवा फ्राइड आमलेट। 

नाश्ता करते-करते विजय पाकेट बुक्स की बातें आरम्भ हो गईं। वालिया साहब ने बताया कि इस बार मुकदमे की लम्बी तारीख पड़ी है। पिछली पेशी पर कोर्ट ने विजय पाकेट बुक्स द्वारा छापी गईं मनोज और सूरज की किताबों की बिक्री पर भी रोक लगा दी और विजय पाकेट बुक्स को कर्नल रंजीत और शेखर के उपन्यास छापने से भी रोक दिया है। 

"तब तो विजय बाबू ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और दरीबे से राजहंस और मनोज व सूरज का सारा माल वापस मँगवा  लिया होगा?"

"न केवल मँगवा लिया, बल्कि उनके टाइटिल कवर और आरम्भ के चार पेज भी फड़वा दिये हैं, क्योंकि स्टे मिलने के बाद राजहंस और मनोज पाकेट बुक्स वाले अगर यह आरोप लगाकर कि विजय बाबू चोरी-छिपे राजहंस, मनोज और सूरज का माल बेच रहे हैं, अगर छापा पड़वा भी दें तो पुलिस को कुछ न मिले।"

कानून के दाँव पेंचों में बहुत छोटी छोटी लगने वाली बातें भी बड़ा महत्त्व रखती हैं। वालिया साहब द्वारा बताई बातों से मुझे यह सब समझ में आने लगा था। 

मैंने निश्चय किया कि अगली पेशी में मैं भी हाइकोर्ट जाऊँगा। कम से कम यह तो पता चलेगा कि ट्रेडमार्क पर कोर्ट का फाइनल स्टैण्ड क्या है और राजहंस नाम किसे मिलता है। ट्रेडमार्क का स्वामित्व रखने वाले को या राजहंस ट्रेडमार्क के लिए लिखने और बैक कवर पर अपनी फोटो छपवाने वाले केवलकृष्ण कालिया को.....। 

(शेष फिर) 

‼️योगेश मित्तल‼️

अगली और आखिरी किश्त के लिए थोड़ा इन्तजार और करें...। 

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