कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 15 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 15

 




"क्या काम कराना होगा?" पूछते हुए मेरे चेहरे पर वही मुहब्बत भरी मुस्कान उभर आई, जिसे आपने मेरे रजत राजवंशी नाम से छपे कुछ उपन्यासों की तस्वीरों तथा फेसबुक की तस्वीरों में देखा है। 


वेद भाई ने बड़े रहस्यमय अन्दाज़ में चेहरा आगे किया और धीरे से पूछा -"बता दूँ...?"


"हाँ...हाँ...बताओ।" मैं भी कुछ मज़े लेने वाले मूड में आ गया था। 


"तो सुन...मामा... एस. पी. साहब से नूतन पाकेट बुक्स में छपे कुछ पुराने-सुराने उपन्यास विक्रांत और विजय सीरीज़ के फ्री में लाया होगा, उन्हीं को कवर-सवर फाड़ के योगेश मित्तल के सामने फेंकेगा, ताकि योगेश मित्तल को पता न चले, यह उपन्यास पहले कहाँ छपे हैं, फिर योगेश मित्तल से कहेगा कि यार, इसमें आधा-आधा फार्म शुरू और आखिर में बढ़ा दो और हर चैप्टर की शुरू और आखिर के तीन-तीन चार-चार लाइन चेन्ज कर दो।"


"हो सकता है, तुम्हारी बात सही हो, पर सतीश जैन एस. पी. साहब से ही पुराने उपन्यास क्यों लेगा?" मैंने पूछा। 


"किसी और से भी ले सकै है, प्रभात पाकेट बुक्स से भी ले सकै है। तिलक चन्द जी के भी पाँव पकड़ सकै है, पर एस पी साहब का नाम मैंने इसलिए लिया है, क्योंकि मेरा ख्याल है - एस. पी. साहब से 'मामा' की कुछ ज्यादा ही पटती है।"


"पटती है?" मैं हँसा। 


वेद प्रकाश शर्मा के चेहरे पर भी हँसी आ गई, एकदम ही वह बोले - "तू कहीं गलत तो नहीं समझ रहा  मैंने कहा - पटती है। 'फटती है' - नहीं कहा है।"


"नहीं, मैं गलत नहीं समझा।" मैंने 'पटती है' ही समझा है। तुम तो जानते ही हो, मैं आमिष   शब्दों का प्रयोग नहीं करता। उपन्यासों में बेशक किसी लफंट-लम्पट-मवाली के मुँह से नानवेजिटेरियन शब्द बुलवा दूँ, व्यक्तिगत जीवन में खुद कभी इस्तेमाल नहीं करता।"


"अच्छी बात है।" वेद भाई ने कहा, फिर संजीदगी से बोले -"योगेश इन बेकार के कामों में क्या रखा है? क्यों करता है यह सब काम? पब्लिशर पीठ पर हाथ फेर कर कहते हैं -योगेश, यह काम तुझसे बढ़िया कोई नहीं कर सकता और तू पिन्नक में आ जाता है और फटाफट कहता है - अच्छा भाईसाहब, देता हूँ मैं करके। तू क्या समझता है। मेरठ में राइटरों की कमी है या मेरठ के राइटर ये सब काम नहीं कर सकते। सब कर सकते हैं। तुझसे अच्छा भी कर सकते हैं, पर मेरठ का कोई राइटर इतना फालतू नहीं बैठा कि इन सब टटपुँजिये कामों में हाथ डाले।"


मेरा मुँह छोटा सा हो गया। वेद प्रकाश शर्मा का कथन शत-प्रतिशत सही था। उपन्यास बढ़ाने-घटाने और एडीटिंग के मामले में बड़े-छोटे सभी प्रकाशक कभी न कभी मुझसे यही बात कह चुके थे कि इन कामों में योगेश का मुकाबला नहीं। योगेश मास्टरमाइन्ड है। और मुझे भी अपने प्रबल आत्मविश्वास के कारण हमेशा यह बात सच ही लगती थी, क्योंकि कई बार ऐसा भी हुआ था कि कई प्रकाशकों ने कुछ उपन्यासों में पहले किसी और से काम करवाया, किन्तु मज़ा नहीं आया तो दोबारा मुझसे करवाया। मनोज पाकेट बुक्स में तो एक बार राज कुमार गुप्ता जी ने छ: सात उपन्यासों में किसी और लेखक से एडीटिंग और मैटर बनवाने का काम करवाया। उस लेखक को भी पारिश्रमिक दिया, मगर फिर उसका सारा काम रद्द कर, फिर दोबारा से मुझसे सारा काम करवाया और मुझे भी मेरा पारिश्रमिक दिया, किन्तु वेद प्रकाश शर्मा ने उस समय मुझसे जो बात कही, थप्पड़ की तरह मेरे दिल पर लगी थी। 


एकटक मेरा चेहरा देख रहे वेद भाई को पता नहीं कैसे मेरे दिल का हाल मालूम हो गया और वह एकदम कह उठे- "लगै, मेरी बात तूने दिल पर ले ली है।"


"नहीं-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।" मैं फीकेपन से बोला तो वेद भाई मुस्कुराये -"कुछ कैसे नहीं है, बस, रोने की कसर है तेरे चेहरे पर। पर भाई मेरे, मैंने यह नहीं कहा कि तू खराब काम करता है, तेरे काम का तो कोई मुकाबला ही नहीं है, पर यह डेढ़ टके की तारीफ के चक्कर में तू सौ की मजदूरी वाला काम छोड़ रहा है, यह कोई अक्लमंदी नहीं है। अब यह सोचकर मत रोने लग जाइयो कि वेद ने तुझे बेवकूफ कहा।"


मुझे हँसी आ गई। 


"हाँ, अब ठीक है। तू सीरियस मत हुआ कर, हँसता हुआ ही अच्छा लगै है। सीरियस में तो लगै - अभी रोने वाला है।"


मैं फिर से हँसा, इस बार कुछ जोर से। मुझे हँसता देख वेद भाई भी खुश हो गये। 


वैसे वेद भाई ने मेरे बारे में जो कुछ कहा था, कुछ भी गलत नहीं है। मै बचपन से ही जरूरत से ज्यादा इमोशनल हूँ और अपनी यह कमी दूर तो करना चाहता हूँ, पर बहुत प्रयास करके भी मैं आज तक यह कमी दूर नहीं कर पाया हूँ। पिछले दिनों रात को टीवी पर एक सीरियल चल रहा था - 'गुम है किसी के प्यार में' , उस दिन मेरी बेटी ससुराल से घर आई हुई थी। मैं सीरियल में कुछ ऐसा मग्न था कि मुझे पता ही नहीं चला कि मेरी आँखों से आँसू बह रहे हैं। पता तब चला, जब मेरी बेटी अचानक मोबाइल से मेरी तस्वीर खींचने लगी, बड़ी मुश्किल से मुँह दायें-बायें छिपा, रिक्वेस्ट करके उसे फोटो खींचने से तो रोक दिया, मगर को बेटी ने व्हाट्सएप के हमारे पारिवारिक फैमिली ग्रुप में लिखकर डाल ही दिया - 'पापा इज़ क्राइंग।'


बहरहाल, अब उम्र का जो पड़ाव है, लगता नहीं कि किसी प्रकार खुद को बदल पाऊँगा। हाँ, बदलने की कोशिश, फिर भी मैं करता रहूँगा।


उस दिन वेद प्रकाश शर्मा से और भी बहुत सी बातें हुईं। कुछ याद हैं, कुछ याद नहीं, पर उन सब व्यक्तिगत बातों का जिक्र यहाँ गैरजरूरी और बोर करने वाला हो सकता है, इसलिए आगे चलते हैं। 


वेद से विदा लेकर मैंने देवीनगर के लिए रिक्शा किया। लक्ष्मी पाकेट बुक्स का आफिस वहीं फ्रन्ट रोड पर था और वहीं साथ की गली के एक मकान के फर्स्ट फ्लोर पर मेरी बहन किरायेदार थीं। 


जब देवीनगर पहुँचा तो लक्ष्मी पाकेट बुक्स का आफिस तो खुला था, पर आफिस में मालिक साहब सतीश जैन नदारद थे। एक कोने पर छोटी सी टेबल पर उस आफिस के एकमात्र क्लर्क पतले-दुबले छोटे कद के, किन्तु मुझसे कुछ उठते हुए कद के, रामअवतार जी  मौजूद थे।


मुझे देखते ही वह अपनी कुर्सी से खड़े हो गये और आगे बढ़कर तपाक से मेरा स्वागत किया और हाथ बढ़ाया। मैंने भी तपाक से हाथ मिलाया तो वह बड़े ही खुश होकर गदगद अन्दाज़ में बोले -"सर, हम आपको बहुत याद करते हैं।"


"हैं...।" मैं एकदम चौंका और गम्भीरता से बोला -"पर मैंने तो आपसे कभी कोई उधार नहीं लिया।"


अब वह चकराये। बोले -"हम उधारी की बात कहाँ बोले हैं। हम तो बोले हैं - हम आपको बहुत याद करते हैं।"


"हाँ, पर इन्सान उसी को बहुत याद करता है, जिससे पैसा-वैसा लेना हो, जिसे उधार दिया हो।"


"नहीं-नहीं, हम उस लिए आपको याद नहीं करते हैं। हमारी घरवाली बोलती है किसी दिन भाईसाहब को खाने पर बुलाइये न, इसीलिए....कल रविवार है, कल हमारे घर....।"


यह मेरे लिए जबरदस्त झटका था। मैंने रामअवतार जी की बात काटते हुए उनसे कहा -"भाईसाहब, मैं तो आपकी घरवाली को जानता भी नहीं। वो मुझे खाने पर क्यों बुला रही हैं? अगर राखी-वाखी बांधकर भाई बनाना हो तो उन्हें बता दीजियेगा कि मेरी बहुत सारी बहनें हैं और किसी भी बहन को कभी मुझसे कुछ मिलता नहीं है, सब जानती हैं कि यह बहुत कड़का भाई है और समय-समय पर मेरी मदद ही करती रहती हैं।"


"हैं - हैं - हैं...।" रामअवतार जी अजीब से ढंग से हंसे। फिर बोले - "नहीं, वो ऐसा है कि हम उनको आपके बारे में बताये थे कि आप बहुत बड़े राइटर हैं तो वो बोलीं - उनको खाने पर बुलाइये न...। हम कभी किसी राइटर को नहीं देखें हैं।"


"क्या...?" रामअवतार जी की सीधी सादी सादगी भरी बात पर मेरा दिल ठहाका लगाने का हुआ, पर मूड मजाक का बन गया -"आपकी घरवाली ने जंगल देखा है कभी?"


"नहीं..। वो तो हम भी नहीं देखे। यहीं कंकरखेड़ा में पैदा हुए, वहीं रहते आये हैं। मेरठ से बाहर नहीं गये कभी।" वह बोले। 


मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ कि आज हमारे भारत में ऐसे भी लोग हैं, जिन्होंने अपने शहर गली, मोहल्ले से अधिक कुछ भी नहीं देखा। इस लिहाज़ से तो आजकल के बहुत से स्कूलों का मैनेजमेन्ट बच्चों को महीने में एक बार कहीं बाहर घुमाने ले जाते हैं, बहुत अच्छा है, पर उस समय बात आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा -"चिड़ियाघर तो देखा होगा?"


"नहीं...यहाँ कहाँ पर है?" रामअवतार जी  ने मुझ पर ही सवाल उछाल दिया तो मैंने गहरी साँस ली और बोला -"किसी रोज घरवाली को दिल्ली ले जाओ, वहाँ चिड़ियाघर में शेर और हिरण दिखाओ। बस, वैसे ही होते हैं राइटर। कोई कोई शेर जैसे और कोई-कोई हिरण जैसे।"


"नहीं न सर। कल सण्डे है। कल सुबह का खाना हमारे साथ खाइये न। आपकी बड़ी कृपा होगी।" और रामअवतार जी मेरे पैरों पर झुकने लगे। मैंने एकदम बीच में ही उन्हें रोक दिया तो वह रूआँसेसे होकर बोले -"हम शिड्युल कास्ट हैं, इसलिए मना कर रहे हैं ना?"


यह मेरे लिए नया रहस्योद्घाटन था। मुझे नहीं पता था - रामअवतार जी शिड्युल कास्ट हैं, पर अब मुझे मेरी गैरत धिक्कारने लगी कि एक शख्स इतने प्रेम से मुझे भोजन का निमंत्रण दे रहा है और मैं उससे मज़ाक कर रहा हूँ, बल्कि मज़ाक उड़ा रहा हूँ। कितना नीच हूँ मैं। 


और मैं इमोशनल हो गया तथा मैंने रामअवतार जी की पीठ थपथपाकर उनसे कहा - "कंकरखेड़ा तो मैं रहा हुआ हूँ, आप एक कागज पर अपना पता लिखकर दे दीजिये, मैं कल लंच आपके यहाँ ही करूँगा, पर एक रिक्वेस्ट है। चावल-दही मैं खाता नहीं। सिम्पल रोटी-दाल के अलावा कुछ भी नहीं खाऊँगा। यह ध्यान रखियेगा।"


"जी, अच्छा।" रामअवतार जी फटाफट अपनी कुर्सी की ओर बढ़ गये और फिर किसी पुराने बेकार प्रूफ का एक कागज़ निकाला और उसकी अनप्रिन्टेड बैक साइड में अपना पता लिखने लगे। तभी मुझे याद आया - सतीश जैन वहाँ नहीं हैं और मैंने अभी तक रामअवतार जी से जैन साहब के बारे में कुछ भी नहीं पूछा है तो तभी मैंने यह प्रश्न भी उगल दिया -"आज जैन साहब नहीं आये अभी तक...?"


"आये हैं ना....? यहीं पास में शेव बनाने गये हैं।" रामअवतार जी कागज़ पर अपना पता लिखते-लिखते बोले । 
मैं वहीं बिछी कुर्सी पर बैठ गया।


थोड़ी देर बाद सतीश जैन आये तो मैंने उन्हें ऊपर से नीचे देखा। पर मेरे कुछ कहने से पहले ही वह बोले -"कितनी देर हुई आये...?"

"दो-तीन घण्टे तो....." मैंने 'तो' को खींचते हुए कहा -"नहीं हुए।"

"मुझे मालूम है। मुझे आधे घण्टे से ज्यादा नहीं लगा, शेव बनवाने में...।"

"शेव घर पर नहीं बनाते?" मैंने पूछा। 

"ऐसा ही है।" सतीश जैन हँसे। फिर बोले -"कभी कभी घर पर भी बना लेता हूँ।"

"या कभी-कभी बाहर भी बनवा लेता हूँ - जब ज्यादा चिकना होने का मन करता है।" मैंने कहा। 

"जो चाहे, समझ लो।" सतीश जैन अपनी सीट पर बिराजने से पहले मेरी ओर हाथ बढ़ाते हुए बोले। 

मैंने हाथ मिलाया तो मेरा हाथ हिलाते हिलाते वह सीट पर पसर गये। फिर हाथ छोड़ा, जेब से एक चकाचक सफेद रुमाल निकाला और रुमाल मुंह पर फेर टेबल पर ही रख दिया। 

"यार, इतनी गर्मी तो नहीं है कि पसीना पोंछने की जरूरत आ पड़े।" मैंने कहा। 

"नहीं, वो क्या है... उसने क्रीम कुछ ज्यादा लगा दी।" सतीश जैन ने रुमाल मुँह पर फेरने का कारण हज्जाम पर डाल दिया। 

मैं कहना तो चाहता था कि तुम्हीं ने कहा होगा, ज्यादा चिकना करने के लिए। किन्तु शब्द रोक लिये और यह अच्छा ही किया। सतीश जैन तुरन्त मतलब की बात पर आ गये। दराज़ से उन्होंने दो खाकी से लिफाफे निकाले। उनमें कुछ था। 

पहले एक लिफाफे में हाथ डाला। उसमें से एक प्रिन्टेड उपन्यास निकाला और बोले - "यार, यह एक थ्रिलर उपन्यास है। इसमें स्टार्टिंग और एण्ड में चार-चार, छ:-छ: पेज बढ़ा देना और बीच में भी हर चैप्टर की स्टार्टिंग में पांच- छ: लाईन बढ़ा देना।” 

“चैप्टर के एण्ड की भी लाइनें बढ़ानी या चेन्ज करनी हैं?" मैंने पूछा। 

"नहीं, फिर काम बहुत ज्यादा बढ़ जायेगा। यही काफी है।" सतीश जैन ने कहा। फिर दूसरे लिफाफे से एक और उपन्यास निकाला। बिल्कुल उसी हालत में - जैसी में पहला उपन्यास था और जैसा कि वेद प्रकाश शर्मा ने वर्णन किया था। किताबों के कवर फटे हुए थे। शुरुआती चार पेज भी नहीं थे। आखिर में भी विज्ञापन वाले पेज नहीं थे। 
एक बात और कई बार प्रकाशक किताब के हर फार्म के आखिरी पेज अर्थात सोलहवें, बत्तीसवें, अड़तालीसवें पर नीचे किताब और लेखक का नाम शार्ट में देते थे। सतीश जैन कभी ऐसी किताब एडिट करवाते या उसमें काम करवाते तो अच्छी तरह प्रिन्ट मैटर पर कलम इस तरह चला देते थे कि कुछ भी पढ़ना असम्भव होता था। 
और... 

मेरे द्वारा काम करने के बाद वो पुराना उपन्यास इतना नया हो जाता था कि जिस किसी ने भी पहले पढ़ भी रखा हो, उसे पढ़ा-पढ़ा सा बेशक लगे, पर उसे आसानी से पता नहीं चल सकता था कि यह उपन्यास कहाँ पढ़ा है। इसका कारण यह भी था, मुझसे काम करवाने के बाद सतीश जैन अक्सर अन्दर के कुछ पात्रों के नाम स्वयं बदल देते थे या किसी से बदलवा देते थे और पुराना घिसा पिटा उपन्यास नया हो जाता था। 

एक तरह से यह पाठकों से चीटिंग थी और इस चीटिंग में प्रकाशक का साथ देने वाला शख्स आपका अपना योगेश मित्तल था, जिसे कि प्रकाशक सबसे ईमानदार और सच्चा लेखक मानते थे और कहते भी थे। 

पर तब मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि यह मैं कुछ गलत कर रहा हूँ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। 

मेरी सोच बस, यह थी कि मैं लेखक हूँ और मुझे लिखने का जो भी काम मिल रहा है, करना चाहिए और फिर मुझे अपनी बीमारी की वजह से हर समय पैसों की जरूरत रहती थी। दवाएँ और डाक्टरी इलाज, उस समय की कमाई के हिसाब से बहुत महँगा पड़ता था। मेरा सोचना यह भी होता था कि मैं यदि घर खर्च के लिए घर के लोगों की बहुत मदद न भी करवाऊँ, कम से कम अपनी बीमारी, अपने इलाज के खर्च का बोझ तो घर पर न डालूँ।
 
सतीश जैन ने दूसरा जो उपन्यास मुझे दिया, वह विक्रान्त सीरीज़ का ही था। 

मैंने दोनों लिफाफे थामते हुए पूछा - "कब तक चाहिये?"

"इस बार कोई जल्दी नहीं है।" सतीश जैन बोले -"बेशक आप दिल्ली ले जाओ। जब चक्कर लगे, तब दे जाना। स्पेशली आने की जरूरत नहीं है।"

यह मेरे लिए घोर अचरज़ की बात थी। सतीश जैन के लिए मैं जब से काम कर रहा था, ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था।

"ठीक है, फिर मैं अभी चलूँ।" मैंने उठने का उपक्रम करते हुए कहा, लेकिन उठा नहीं। 

"आज चाय नहीं पीनी....?" सतीश जैन ने पूछा। 

"अरे हाँ...।" मैं सोच ही रहा था कि कुछ भूल रहा हूँ। मँगा लो...मँगा लो।" 

"रामअवतार जी।" सतीश जैन ने रामअवतार जी से कहा और वह तत्काल उठ गये। 

"तीन चाय...।" सतीश जैन बोले। 

रामअवतार जी चाय का आर्डर देने चले गये तो सतीश जैन ने पूछा -"कुछ खायेगा भी?" 

" रामअवतार जी को भेजने के बाद पूछ रहे हो।"

"क्या हुआ। वो फिर चले जायेंगे।" 

सतीश जैन ने कहा। फिर अचानक ही न जाने क्या हुआ, चेहरे पर मुस्कान लाकर बोले -"यार, वो हमारा बीस रुपये का पिछला हिसाब बाकी है, वो कैश दे रहे हो या काम में एडजस्ट करने हैं।"

"कौन से बीस रुपये...?" मैं जानते बूझते अनजान बन गया। 

"यार, वो... पीछे... रिक्शे के किराये के लिए तुमने लिये थे?" इस बार सतीश जैन ने साफ़-साफ़ खुलकर कह ही दिया। , पर मैं भी लापरवाह और मस्त था, अनजान-अनभिज्ञ बनते हुए बोला -"कब यार, मैंने तो कोई रुपये नहीं लिये। आपने मेरे हाथ में दिये थे क्या?"

"नहीं, तुम्हारे हाथ में तो नहीं दिये, पर तुम्हारा ही रिक्शा था।" 

"मेरा रिक्शा...। क्या कह रहे हो जैन साहब...? मेरठ तो क्या दिल्ली में भी मेरा कोई रिक्शा नहीं है।"

"वो...यार...मेरा मतलब है, तुम जिस रिक्शे पर आये थे, उसका किराया मैंने दिया था।"

"क्यों दिया था, मैंने माँगे थे क्या पैसे?"

"नहीं, तुमने माँगे तो नहीं थे, पर तुम्हारे पास पचास का नोट था, इसलिये...।"

"जैन साहब, पचास का नोट कोई हज़ार का नोट नहीं था, रिक्शेवाला खुला कर देता। मुझे तीस रुपये वापस कर देता, पर आपने मेरी शक्ल देखकर, खुश होकर खुद ही रिक्शेवाले को बीस रुपये दिये थे, फिर आप माँगना भूल भी गये थे। अब महीनों बाद, माँगना तो क्या, आपको उसका जिक्र भी नहीं करना चाहिए।"

"यार, ये कोई बात नहीं हुई। हिसाब तो हिसाब है।"

तभी रामअवतार जी चाय लेकर आ गये, पर चाय वह दो ही लाये थे, जो ‘दो चाय वाले छींके’ में कांच के गिलासों में लटक रही थीं। 

"तीन नहीं लाये?" सतीश जैन ने पूछा। 

"नहीं, हम नहीं पियेंगे।" रामअवतार जी बोले।

"समोसे तो खा लोगे?" मैंने पूछा। 

वो जवाब देते हुए हिचकिचाने लगे। मैंने जेब से बीस का नोट निकालकर, उनकी ओर बढ़ाया तो उन्होंने हिचकिचाते हुए सतीश जैन की ओर देखा तो मैं बोल उठा -"पकड़ो - पकड़ो, ये जैन साहब के ही पैसे हैं।"
पता नहीं सतीश जैन ने कोई इशारा किया या मेरी बात का असर था, रामअवतार जी ने पैसे पकड़ लिये, तब मैं बोला -"छ: समोसे ले आना और बाकी जो बचे उसकी जलेबी। आज जैन साहब शेव बनाने की खुशी में पार्टी दे रहे हैं।"


रामअवतार जी मुस्करा दिये, पर सतीश जैन ठहाका मार कर हँसने लगे। 


"अब मैंने तुम्हारे कोई बीस रुपये नहीं देने...।" मैंने रामअवतार जी के पलट कर जाने से पहले ही सतीश जैन से कहा तो सतीश जैन का सिर अजीब से अन्दाज़ में दायें बायें घूमा और वह बोले -"तुम यार, बहुत चालू चीज़ हो।"


"आपसे कम...।" मैंने कहा -"रिक्शेवाले को दिये पैसे भी आखिर मेरी जेब से निकलवा ही लिये।"


फिर मुझे भी हँसी आ गई। हँसी रुकी तो मैंने पूछा -"यह पहला चांस है, जब आप कोई जल्दी नहीं मचा रहे हो। वरना आप काम भी घोड़े पर सवार होकर करवाते हो।"


"वो यार, अगले शनिवार को मैं दो हफ्ते के लिए टूर पर जा रहा हूँ।"


"टूर पर....। किसलिये?"


"यार, ये बुकसेलर तब तक पैसा नहीं भेजते, जब तक टूर न लगाओ।"


"तो ये कहो कि नोटों की उगाही के लिए टूर पर जा रहे हो।"


"यही बात है, मगर टूर लगाने पर भी सब अच्छे बुक्स एजेन्ट तो पैसे दे देते हैं। कुछ हरामी नहीं भी देते, बहाना कर देते हैं, पर ज्यादातर दे देते हैं।"


"आप किसी एजेन्ट को नहीं भेजते, खुद ही जाते हो टूर पर...।"

"खुद मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता भाई...। जाना पड़ता है। व्यापार करना है तो बाहर खुद जाना ही पड़ेगा। निकलना ही पडेगा।"

"पर मनोज पाकेट बुक्स और विजय पाकेट बुक्स वाले तो बाहर अपने टूरिंग एजेन्ट को ही भेजते हैं। वही उगाही करके लाता है।"

"वो बड़े प्रकाशक हैं। उनका काम इतना फैला है कि उनके लिए जाना सम्भव नहीं होता, हमें तो खुद जाना पड़ता है। फिर भी कभी-कभी हम भी किसी एजेन्ट को भेज देते हैं, पर रेगुलर इन्हें भेजना बिजनेस के लिए भी ठीक नहीं होता।"

"वो क्यों?"

"कई बार ये एजेन्ट बुकसेलर से सांठ-गाँठ कर लेते हैं। दिखाते हैं किताब बारिश में खराब हो गई, फिर सैकड़े में बेच दी। पब्लिशर ने सौ किताब भेजीं, बताते हैं बण्डल भीग गया। साठ किताबें खराब हो गईं। फिर एजेन्ट कहता है। खराब किताब वापस भेजना तो और नुक्सान का काम होता। भेजने का खर्च भी पड़ता और किताब रद्दी हो जातीं, इसलिए वहीं सैकड़े के भाव बेच दी।"

"नहीं यार, मुझे नहीं लगता, एजेन्ट ऐसा करते होंगे। और बुकसेलर भी ऐसा करते होंगे।"

"योगेश जी, बड़े लफड़े हैं। एक बार पब्लिशर बन जाओ, तब पता चलेगा - आटे दाल का भाव। कई बार बारिश के दिनों में हम ठीक ठाक माल भेजते हैं और दो दिन बाद पता चलता है, जिन- जिन स्टेशनों पर माल भेजा था - बाढ़ आ गई। स्टेशन पर पड़ा सारा माल बरबाद हो गया। तब हालत ऐसी हो जाती है कि घरवालों के सामने रोते भी नहीं बनता। रात को नींद भी नहीं आती। रेलवे से क्लेम करने में भी पूरा पैसा नहीं मिलता और क्लेम पास होने में भी अक्सर इतना समय लग जाता है कि पब्लिशर का भट्टा न बैठता हो तो बैठ जाए। और एजेन्ट... एजेन्ट ने आपको कितना लूटा है, पता तब चलता है, जब आप बहुत मोटा लुट चुके होते हो और मज़े की बात है, एजेन्ट के पास आपके हर सवाल का जवाब होता है। आप जानते हो कि वो आपको बेवकूफ बना रहा है, बना चुका है, लेकिन आप उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते।"

किताबी दुनिया का यह सच मैंने पहली बार सतीश जैन के मुँह से सुना था।

मैं यह नहीं कहूँगा कि सतीश जैन ने जो कहा, सौ परसेन्ट सही था, ना ही यह कहूँगा कि सौ परसेन्ट गलत था, लेकिन पाकेट बुक्स व्यवसाय में टूरिंग एजेन्ट की भी एक विशेष भूमिका हमेशा से रही है। टूरिंग एजेन्ट अच्छे और ईमानदार भी हुए हैं और ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने प्रकाशकों को रुला दिया। 

प्रकाशक जब भी कोई नया सैट निकालते थे, बुकसेलर्स को एक सर्कुलर भेजते थे, जिसमें नये सैट का विवरण होता था और पुस्तक विक्रेता को उस सर्कुलर में अपना आर्डर भरकर लिफाफे में रखकर भेजना होता था। बहुत से पुस्तक विक्रेता ऐसा भी करते भी थे, पर कई पुस्तक विक्रेता तब भी लिफाफे में आर्डर न भेजकर पोस्ट कार्ड में आर्डर भेजते थे, जब पोस्ट कार्ड पांच पैसे का होता था और लिफाफा पन्द्रह पैसे का और तब भी जब पोस्टकार्ड पन्द्रह पैसे का हुआ और लिफाफा पैंतीस या पचास पैसे का। 

पर फिर भी यदि पाँच सौ सर्कुलर भेजे जाते तो सौ-सवा सौ से अधिक आर्डर नहीं आते थे, बहुत से स्टेशनों से कोई आर्डर आता ही नहीं था, जबकि प्रकाशक जानते थे कि वहाँ हिन्दी उपन्यासों की खपत है, पर वहाँ का आर्डर नहीं आया है। ऐसे ही शहरों, स्टेशनों से आर्डर लाने का काम टूरिंग एजेन्ट करते थे और प्रकाशक उन्हें यह दायित्व भी सौंपते थे कि वह जहाँ-जहाँ पिछली पेमेंट रुकी हुई है, वहाँ से पिछली पेमेंट भी लेते आएं।    

मेरे दोस्तों, यह तो आप सब मेरे पिछले एपिसोडों में पढ़ ही चुके हैं कि पाकेट बुक्स व्यवसाय में उन दिनों रेल पार्सल द्वारा भेजा जाने वाला अधिकांश माल उधार जाता था या वीपी से बिल्टी भेजी जाती थी, मगर आज यह भी जान लीजिये कि अधिकांश शहरों में पुस्तक विक्रेताओं की रेलवे कर्मचारियों से साँठ-गाँठ रहती थी, पुस्तक विक्रेता बिना बिल्टी के ही रेलवे से बण्डल छुड़ा लेते थे और माल आराम से बेचते रहते थे, जबकि उन्होंने वीपी से आई बिल्टी पोस्टमैन से ली ही नहीं होती थी। पर यहाँ भी बुकसेलर्स की साँठ-गाँठ चलती थी और यह साँठ-गाँठ पोस्ट आफिस के पोस्टमैनों के साथ होती थी। नियमानुसार तो पोस्टमैन कोई भी वीपी ज्यादा दिनों तक रोक नहीं सकते थे, वीपी जिस पार्टी को भेजी जाती है, यदि वह वीपी रिसीव नहीं करती, पैसे देकर वीपी नहीं छुड़ाती तो वीपी को भेजने वाली पार्टी को वापस भेज दिया जाता था, लेकिन डाक कर्मचारियों से साँठ-गाँठ रखने वाले पुस्तक विक्रेता, रेलवे से माल बिना बिल्टी के छुड़ाकर बेचने के बीस-पच्चीस दिन या महीने बाद बिल्टी की वीपी छुड़ाते थे, इसके लिए पोस्टमैन क्या धांधली करते थे, यह पोस्टआफिस में काम करने वाले कर्मचारी ही बता सकते हैं, पर धांधली होती थी, बदमाशियाँ होती थीं, मेरी यह बात सौ परसेन्ट सही है। 

सतीश जैन से उस रोज जो कुछ जाना, वही सब भारती पाकेट बुक्स के लालाराम गुप्ता के द्वारा भी सत्यापित हुआ और मनोज पाकेट बुक्स, राज पाकेट बुक्स, विजय पाकेट बुक्स से भी अक्सर चर्चाओं में सही जाना। 

जो लोग यह कहते हैं कि असली मेहनत तो लेखक करता है, लेकिन उसकी मेहनत को लूट कर, उसका शोषण करके प्रकाशक कोठियाँ खड़ी करते रहे, वे यह भूल जाते हैं कि प्रकाशक बहुत मोटी पूंजी लगाते थे और कई बार तो ब्याज पर उधार लेकर, कई बार पत्नी के जेवर तक गिरवी रखकर भी प्रकाशकों ने पैसे लगाये। और इस धन्धे में बहुत से प्रकाशक बरबाद भी हुए व सड़क पर आ गये। उन बरबाद हुए प्रकाशकों के बारे में कोई नहीं जानता और ऐसे प्रकाशकों का दर्द मैं भी नहीं बता सकता, अगर फेसबुक पर कहीं वो मेरा लिखा पढ़ रहे हों तो वही सामने आकर बता सकते हैं। 

हाँ, मैं दावे के साथ यह कह सकता हूँ कि मनोज पाकेट बुक्स आरम्भ करने के लिए गुप्ता भाइयों राजकुमार गुप्ता, गौरीशंकर गुप्ता और विनय कुमार गुप्ता में से मंझले भाई गौरीशंकर गुप्ता ने अपने मित्रों से ब्याज पर एक मोटी रकम उधार ली थी और उसके बाद राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता ने दिन रात मेहनत की। जी हाँ, दिन रात...। कई बार वह सर्दियों में भी रजाई में सोने की जगह आगे के सैट के उपन्यासों की तैयारी कर रहे होते थे। अक्सर बाहर माल भेजने के लिए खुद भी बण्डल पैक करते रहते थे। मैंने उनके वो दिन देखे हैं। उन्हें डाक के और रेलवे के बण्डल बनाते देखा है। यही काम गंगा पॉकेट बुक्स के सुशील जैन, भारती पॉकेट बुक्स के लालाराम गुप्ता, ओरियंटल और लक्ष्मी पॉकेट बुक्स  के सतीश जैन को भी देखा है। गौरी पॉकेट बुक्स के अरविन्द जैन को भी पूजा पॉकेट बुक्स के समय पैकिंग का काम खुद करते देखा है।       

मैंने राजकुमार गुप्ता के साथ कौड़िया पुल से शक्तिनगर तक बस में भी सफर किया है और एक बार दस बीस पैसे, जो भी किराया होता था, मैंने जेब से दिया, क्योंकि राज कुमार गुप्ता की जेब में कुछ रुपये तो थे, चिल्लर नहीं थी। 
मैं गौरी पाकेट बुक्स में सुपरहिट प्रकाशक बने अरविन्द जैन के उन पलों का साझीदार हूँ, जब पूजा पाकेट बुक्स में वह पैसे-पैसे के लिए तंग रहते थे और वह अक्सर गंगा पाकेट बुक्स के सुशील जैन और नूतन पाकेट बुक्स के एस पी साहब अर्थात सुमत प्रसाद जैन से 'चचा, जरा दो सौ रुपये देना' कहकर उधार माँगा करते थे, लेकिन अरविन्द और उसकी पत्नी के त्याग और जीवट की यह कहानी शायद उनके रिश्तेदारों को भी पता न हो कि गौरी पाकेट बुक्स खोलने के लिए अरविन्द जैन की पत्नी ने अपने मायके और ससुराल के सारे जेवर अपने पति के हवाले कर दिये थे कि तुम हिम्मत करो, मैं तुम्हारे साथ हूँ और अरविन्द जैन ने वो जेवर किसी ऐसे शख्स के यहाँ गिरवी रखे, जो ईश्वरपुरी के प्रकाशकों को कोई भनक भी न पड़ने दे और इज़्ज़त भी बनी रहे, पर अब यह बातें बताकर मैं उनकी इज़्ज़त घटा नहीं रहा हूँ, मुझे विश्वास है। उनके त्याग और हिम्मत की यह सच्चाई लोगों के लिए प्रेरणादायक होनी चाहिए।


मुझे यह सब इसलिये पता है, क्योंकि वह नवरात्रि का समय था। अरविन्द जैन की पत्नी सम्भवतः नवरात्रि के व्रत करती थीं। उस दिन अरविन्द जैन के यहाँ अष्टमी या नवमी की पूजा थी। पक्का खाना बना था। अरविन्द ईश्वरपुरी में ही किसी ऊपरी मंजिल पर किराये पर रहते थे, उस रोज जबरन मुझे अपने घर ले गये। उस दिन पूजा के बाद पक्का खाना हमने साथ-साथ खाया। 

उस दिन अरविन्द ने अपनी परेशानियाँ, अपनी मजबूरियाँ और हालातों की मुझसे खुलकर चर्चा की और नयी पाकेट बुक्स खोलने के लिए मुझसे सलाह माँगी। उसने कई नये नाम सोच रखे थे, लेकिन उसकी पत्नी 'गौरी' नाम के प्रति ज्यादा उत्सुक थीं। मैंने इसीलिए गौरी पाकेट बुक्स नाम रखने का सुझाव दिया था और केशव पंडित नाम भी मेरे सामने फाइनल हुआ था, पर यह कहानी फिर कभी...। अभी इसकी चर्चा इसलिये कि लेखकों की गरीबी का दोष और ज़िम्मेदार कम से कम मैं शत-प्रतिशत प्रकाशकों को नहीं मानता। 

जरा सोचिये, यदि कर्ज लेकर मनोज पाकेट बुक्स की स्थापना करने वाले राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता जीतोड़ मेहनत न करते और फेल हो जाते तो...? 

जरा सोचिये... अगर पत्नी के जेवर गिरवी रखकर गौरी पाकेट बुक्स की नींव रखने वाले अरविन्द जैन एक बार फिर नाकामयाब हो जाते तो...? पूजा पाकेट बुक्स में वह परेशान हाल और बुरी हालत में थे ही....। 

खैर, उस दिन समोसे और जलेबी का लुत्फ़ उठाने के बाद जब मैं चलने के लिये उठा तो सतीश जैन ने पहली बार मेरा कोट देखा और हठात् ही कह उठे - "यह किसका कोट पहन आया?"

"खराब लग रहा है क्या?" मैंने पूछा। 

"नहीं, अच्छा लग रहा है, पर बाजू कुछ लम्बी है, इसे छोटी करवा लो।" सतीश जैन ने कहा। 

मैंने सिर हिलाया। बोला कुछ नहीं, पर -'ऐसा ही करूँगा' मैंने मन ही मन सोचा। 

सतीश जैन के यहाँ से दोनों उपन्यासों के लिफाफे सम्भालने के बाद मैं निकलने ही वाला था कि रामअवतार जी ने याद दिलाया - "भाई साहब, कल का प्रोग्राम मत भूलियेगा। हम इन्तजार करेंगे।"

"कैसा प्रोग्राम...?" सतीश जैन ने बोला। 

"हमने भाईसाहब को भोजन का निमंत्रण दिया है।" रामअवतार जी धीरे से बोले। 

"ओह...।" सतीश जैन के मुँह से धीमा सा 'ओह' निकला, पर इससे आगे उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।

लक्ष्मी पाकेट बुक्स से बाहर निकल मैं पास की गली में घुस गया, उसी गली में छठा-सातवाँ घर रहा होगा, जिसमें मेरी बहन किरायेदार थीं। बहन के यहाँ पहुँचा तो वहाँ भी जीजी के मुँह का पहला वाक्य था -"यह कोट किसका पहन आया?"

"मेरा ही है।" मैंने कहा। 

"देख के नहीं खरीदा था, कितना खराब लग रहा है।" जीजी ने कहा। 

"बहुत ज्यादा खराब लग रहा है?" मैंने उदास होकर पूछा। 

"नहीं, बहुत ज्यादा तो नहीं, पर बाजू ज्यादा लम्बी हैं। थोड़ी छोटी हो जायेंगी तो बुरा नहीं लगेगा।" जीजी ने कहा। 

"आप कर दोगी छोटा...?" मैंने पूछा। 

"कोशिश करूँगी, पर आज तो नहीं, कल....।" 

"ठीक है....।" मैंने कहा और कोट उतारकर, वहीं एक ओर डालकर, वहीं एक पलंग पर लेट सतीश जैन से लिए दोनों उपन्यासों में से एक पर नज़र डालने लगा।  

सतीश जैन ने अवश्य मुझे टाइम की छूट दी थी, पर ऐसे काम के लिए दोबारा मेरठ चक्कर लगाना, मेरी नज़र में हिमाकत थी और मैंने दोनों उपन्यासों का काम कम्पलीट करके ही दिल्ली जाने का विचार कर लिया था। 

उस दिन मैं वहीं जीजी के यहाँ ही रहा। एक उपन्यास का काम कम्पलीट कर दिया और दूसरे में काम शुरू कर दिया, किन्तु दूसरे उपन्यास का काम अगले दिन भी जारी रहा।

अगले दिन मुझे याद था कि उस दिन, रविवार के दिन मैंने लंच रामअवतार जी के यहाँ करना है, इसलिए जीजी को खाना बनाने को मना कर दिया था। 

ग्यारह बजे काम बंद कर मैं स्वयं को कंकरखेड़ा जाने के लिए तैयार करने लगा। उस दिन ठण्ड कुछ ज्यादा थी। गर्म बनियान पहनने के बाद मैंने दो स्वेटर भी पहन लिए थे। उसके बाद मुझे कुछ पहनने की जरूरत नहीं थी, पर न जाने मन क्या आया कोट भी पहन लिया। कोट पहनकर ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ा हुआ था, मुझे लगा - कोट में मेरी पर्सनालिटी कुछ ज्यादा अच्छी लग रही है।

यूँ तो मैं अपने व्यक्तित्व के निखार पर ज़रा भी ध्यान देने वाला नहीं हूँ। मनोज पॉकेट बुक्स में जब मैं पहली बार अरुण कुमार शर्मा द्वारा ले जाया गया था तो मैं नीले-सफ़ेद रंग का रात को पहना जाने वाला पाजामा पहने था और ऊपर हरे रंग की पूरी बाज़ू की शर्ट थी तथा पैरों में हवाई चप्पल, पर उस दिन न पहनते-पहनते भी मैंने कोट पहन ही लिया, फिर निकल पड़ा दावत खाने।

मेरी पत्नी का नाम विवाह से पहले राजकुमारी माहेश्वरी था, अब वह राज मित्तल है । उसके आने के बाद मुझे दुनियादारी और सामान्य शिष्टाचार कुछ-कुछ समझ में आने लगा है, वरना शादी से पहले तो मैं वज़्र मूर्ख था और उस दिन मेरे दिल-दिमाग में इतनी सी बात भी नहीं आई कि किसी के यहाँ खाना खाने जा रहा हूँ तो उसके यहाँ के लिए कुछ फल या मीठा लेता जाऊं। मैं बिलकुल खाली हाथ ही रामअवतार जी के यहाँ पहुँचा।         

कंकरखेड़ा के लिए मैंने रिक्शा तय किया और रिक्शेवाले को दाएं-बाएं घुमाते हुए आखिरकार रामअवतार जी के घर के सामने ही रिक्शा रुकवाया, ढूंढने में परेशानी इसलिए नहीं हुई, क्योंकि रामअवतार जी घर के बाहर ही एक लेडीज शाल ओढ़े हुए चहलकदमी कर रहे थे। 

मुझे देखते ही वह मेरी तरफ लपके और हाथ मिलाते-मिलाते मुझसे लिपट गए और रूंधे स्वर में बोले -"हमको भरोसा नहीं था कि आप आ ही जाओगे।"

"क्यों भरोसा क्यों नहीं था ?" मैंने पूछा।

"वो हम शेड्यूल कास्ट हैं ना।" 

उनसे अलग हो, मैंने सिर पर हाथ मारा -"भाई मेरे, इक्कीसवीं सदी का ज़माना है, लोग चाँद पर जा रहे हैं और आप यह शेड्यूल कास्ट-शेड्यूल कास्ट कर रहे हो। भाई, दोबारा मेरे सामने यह शेड्यूल कास्ट का राग मत अलापना।"

"जी अच्छा।" रामअवतार जी बोले और सामने ही दिख रहे खुले दरवाजे से मुझे अपने घर के अंदर ले गए ।

घर क्या था-एक कमरा था। उसी में एक कोने में रसोई थी । वहाँ  रामअवतार जी की पत्नी पीतल के भगोने में स्टोव पर कुछ चढ़ाये हुए थीं और अंगीठी पर तवा चढ़ा हुआ था। लगता था - बस, मेरा ही इंतज़ार था। उनकी ओर से तैयारी पूरी थी। दूसरे कोने में एक मैला-कुचैला गद्दा बिछा था, जिस पर पूरी बाज़ू के स्वेटर पहने पाँच-सात साल के दो छोटे बच्चे एकदम शांत बैठे हुए थे। एक लड़का था, एक लड़की। लड़की बड़ी थी।     

दरवाजे के पास ही एक फोल्डिंग चेयर खुली हुई बिछी थी। उसके सामने ही एक चौड़ा स्टूल रखा था।
 
"बैठिये सर..।" रामअवतार जी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए बोले। मैं कुर्सी पर बैठ गया, पर मैंने एक बात नोट की कि यहाँ मुझे रामअवतार जी ने ‘सर’ कहकर सम्बोधित किया था, जबकि पहले मैंने उनके मुँह से हमेशा भाईसाहब सुना था, हालांकि वह उम्र में मुझसे बड़े थे।

मैं कुर्सी पर बैठा ही था कि अंगीठी और स्टोव के सामने बैठी महिला पल्लू संभालते हुए, घूंघट करते हुए जल्दी से उठीं और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, उन्होंने मेरे निकट आ, तेज़ी से मेरे पैर छू लिए।  

"अरे । यह क्या ?" उन्हें आशीर्वाद देने के स्थान पर मैं हड़बड़ाया -"मैं आपसे छोटा हूँ।"

"छोटे हैं तो का हुआ, आप बहुत बड़े लाइटर हैं।" भोजपुरी लहजे में जब उन महिला ने कहा तो मेरा दिमाग सनक गया। उनके मुँह से 'लाइटर' शब्द सुनते ही मुझे लगा -'कहीं रामअवतार जी का मेहमान बनकर मैंने गलती तो नहीं कर दी।'

पर 'लाइटर' शब्द पर रामअवतार जी ने भी गौर कर लिया था और तुरन्त पत्नी की गलती सुधारते हुए बोले -"लाइटर नहीं, राइटर। राइटर हैं ये। बहुत बड़े लेखक हैं ।"

रामअवतार जी की पत्नी ने घूंघट में कनखियों से गुस्से में पति की ओर देखा -"आप ही तो लाइटर-लाइटर बताये थे।"

मेरा दिल बड़े जोर से हँसने का हुआ, पर मैंने अपने होंठ कसकर भींच लिए। 

तभी एक चौदह-पंद्रह वर्षीय लड़का बाहर से अंदर आया तो रामअवतार जी की पत्नी चिल्लाईं -"अरे अभी तो लाइटर साहब आएं हैं। थोड़ी देर में पहुँचा देंगे।"

"ये क्या पहुँचाने की बात हो रही है ?" मैंने पूछा तो राम अवतार जी तो सकुचाये, पर उनकी पत्नी सरलता से कह उठीं -"यह स्टूल-कुर्सी इन्हीं का है, दो घंटे के लिए माँगे थे, ये इतनी जल्दी लेने आ गए।"

यह समझने के बाद कि रामअवतार जी ने कुर्सी और स्टूल मेरे लिए पड़ोस से उधार माँगे थे, मैं तुरन्त कुर्सी से उतर गया और मैले-कुचैले गद्दे पर बैठे दोनों बच्चों के साथ बैठ गया और बोला -"स्टूल और कुर्सी वापस कर आइये। मैं यहाँ ज्यादा आराम से हूँ ।" 

रामअवतार जी ने कुर्सी पर बैठने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया, किन्तु मैं तो गद्दे पर जम चुका था। अंततः रामअवतार जी अपनी पत्नी के कहने पर स्टूल और कुर्सी पड़ोसी के यहाँ वापस कर आये। 

थोड़ी देर बाद ही रामअवतार जी की सीधी-सादी सुघड़ गृहिणी पत्नी ने मेरे लिए भोजन की थाली लगा दी। रामअवतार जी को मेरे साथ बैठने में संकोच हो रहा था, पर जब मैंने उनकी पत्नी से कहा -"भाभी जी, भैया के लिए भी थाली लगाइये, वरना मैं खाना नहीं खाऊँगा" तो उन्होंने राम अवतार जी के लिए भी थाली लगा दी।
 

मैंने अपनी थाली में राम अवतार जी के बच्चों को भी खींच लिया। उन्हें अपने हाथ से कौर बनाकर खिलाने लगा तो पहले तो वह शरमाये, सकुचाये, फिर पहले लड़के ने मेरे हाथ से अपने मुँह में कौर ले लिया, फिर लड़की भी आगे बढ़ आई। 

उस समय दोनों बच्चों के चेहरों पर जो खुशी उभरी थी, आज बरसों बाद भी उसे याद कर दिल अजीब सी प्रसन्नता महसूस करता है, हालांकि उस समय मेरे लिए यह ख़ास बात नहीं थी। मैं बहनों के यहाँ खाना खाता तो भांजे- भांजी को साथ बैठा लेता था। मामा जी के यहां भी अक्सर भाई-बहनों को साथ बैठा लेता था ।

मेरे पिताजी ने एक उसूल बना रखा था, रात का खाना सारा परिवार एक साथ बैठकर खाता था। पिताजी का कहना था - साथ बैठकर खाने से प्यार बढ़ता है । मुझे लगता है - पिताजी के इसी संस्कार ने मुझे हर जगह ढेर सारा प्यार दिलाया है ।   

खाने में अरहर की दाल और देशी घी में चुपड़ी रोटी थीं। साथ में टमाटर-प्याज सलाद के तौर पर कटे हुए थे और मिठाई के रूप में बेसन का हलवा था। सब कुछ घर का बना हुआ। और सबसे आखिर में रामअवतार जी की पत्नी ने पापड पेश किया। खाना खाकर चलने लगा तो अचानक रामअवतार जी की पत्नी बोलीं -"एक बात कहें, आप बुरा तो नहीं मानेंगे।"
"नहीं भाभीजी, आप दो या तीन बात कहिये, मैं उनका भी बुरा नहीं मानूँगा।" मैंने कहा।

"ये आपके कोट की बाज़ू थोड़ी लम्बी है। इसे छोटा करवा लीजिये।"

उस समय मुझे क्या हुआ, मुझे पता नहीं। बस, अचानक ही कोट उतारा और रामअवतार जी से बोला -"ज़रा आप पहनकर तो दिखाइए।" 

"अरे नहीं ।" रामअवतार जी एकदम पीछे हट गए।

"तुम्हें भाभी की कसम..।" मैंने कहा ।

"अरे यह क्या कर रहे हैं आप । पाप चढ़ाएंगे क्या ?" रामअवतार जी की पत्नी बोलीं।

"पाप तो भाई की बात न मानने पर चढ़ेगा भाभी जी । मैं भाई भी हूँ और मेहमान भी । डबल-डबल पाप चढ़ेगा ।"

और ना-नुकुर करते-करते भी आखिर रामअवतार जी ने कोट पहना। संयोग की बात कोट उन पर बिलकुल फिट आया और जंच भी गया।  

"यह कोट अब आप ही रखो।" मैंने कहा -"जब-जब पहनोगे तो मेरी याद तो आयेगी ।"

रामअवतार जी की आँखों में आँसू आ गए। अब की बार वह फिर मुझसे 'भाईसाहब' कहकर सम्बोधित हुए और बोले -"भाई साहब, ऐसा कोट तो..."

मैंने उन्हें बीच में ही रोक दिया और पीठ थपथपाई। चलते हुए मैंने उनके दोनों बच्चों को भी दो-दो रुपये थमा दिए। ऐसी आदत तो नहीं थी मेरी। पर उस समय मेरे मन में शायद मेरा वास नहीं था।  

लेकिन अपनी करतूत का असली इनाम मुझे पहले जीजी के घर मिला। मुझे बिना कोट के आया देख जीजी ने कहा -"तू तो कोट पहन के गया था, कोट कहाँ छोड़ आया ?"

पता था - डांट पड़ेगी, इसलिए पहले तो मैं इधर-उधर बात घुमाता रहा, लेकिन आखिरकार जीजी को सच बता ही दिया, फिर जो लेक्चर सुनना पड़ा -"बड़ा धन्ना सेठ हो रहा है। करोड़पति हो रहा है। मैंने कोट के रंग का धागा और सूई निकालकर रखी है और जनाब दानवीर कर्ण बनकर किसी ऐरे-गैरे को कोट लुटा आये"

अगले दिन मैं लक्ष्मी पॉकेट बुक्स में उनके दोनों उपन्यास कम्पलीट करके देने गया तो देखा रामअवतार जी नौकरी पर मेरा दिया कोट पहनकर आये हैं। 

सतीश जैन उस दिन बार-बार उन्हें घूर-घूरकर देख रहे थे।

मैं पहुँचा तो मुझे दोनों उपन्यासों का पारिश्रमिक देने के बाद मुझसे बोले -"ज़रा, दो मिनट बाहर तो चलना ।"
मुझे लेकर वह सड़क पर आ गए और चेहरे पर बला की गंभीरता लाते हुए बोले -"ये रामअवतार जी जो कोट पहने हैं, वो तुम्हारा वाला ही है ना ?"

"हाँ यार, वो मुझ पर जम नहीं रहा था, इसलिए...."

बात पूरी नहीं कर सका मैं । सतीश जैन भभक उठे -"यार, तुम आदमी एकदम पागल हो।"

(शेष फिर)

कई बार हमारे मन में पहले से कोई अच्छी या बुरी बात नहीं होती, अचानक ही हम जो नहीं चाहते, वो भी कर बैठते हैं, शायद वही करवाने वाली शक्ति भगवान होती हो। मेरे साथ बहुत बार ऐसा हुआ कि मैंने जो कभी सोचा भी नहीं, करना भी नहीं चाहा, वही कर बैठा। 

इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ था। 

जय श्रीकृष्ण।

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस शृंखला की आगामी कड़ी की प्रतीक्षा बड़ी लंबी हो गई है योगेश जी। आपसे आग्रह है कि इसे पूर्ण करें।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी जितेंद्र जी इसके लिये मैं माफी चाहता हूँ। सर ने तो भाग लिख दिये थे लेकिन मैं दफ्तर की व्यस्तता के चलते उन्हे प्रकाशित नहीं कर पाया था। कल से फिर एक एक दिन के अंतराल में कड़ियाँ डालूँगा।

      हटाएं