कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 17 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शनिवार, 18 सितंबर 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 17

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 17



सुशील जैन एकदम कुर्सी से उठे और कुर्सी पीछे धकेल, मेज को क्रास कर, आगे निकल आये और बड़े तपाक से वेद प्रकाश शर्मा की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा -"आज योगेश और आप साथ-साथ कैसे?" 


और फिर पीछे पड़ी कुर्सी खींचकर सुशील जी ने वेद के निकट कर दी।  मैंने अपने लिए खुद ही कुर्सी खींच ली।  


"आज मैं योगेश की सिफारिश करने आया हूँ। " वेद ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।  


"इसे सिफारिश की क्या जरूरत पड़ गई?" सुशील जैन अपनी कुर्सी पर बिराजते हुए बोले -"ये तो हमारा वैसे ही हीरो है, जो काम कोई न कर सकै, इससे करवा लो। "


"काम ही करवाते रहोगे या कुछ नाम और दाम भी दोगे?" वेद ने कहा और इससे पहले कि सुशील जैन बात समझ कर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते, वेद ने बात आगे बढ़ा दी -"सुना है, आपने इसका विज्ञापन छापा है, किसी नावल का।  बहुत अच्छा-सा नाम है.... "


"लाश की दुल्हन...। " सुशील जैन ने वेद की बात पूरी की। 


"हाँ... हाँ... वही.... लाश की दुल्हन... तो कब छाप रहे हो यह नावल, योगेश के नाम से...? 


" हम तो कल छाप दें... पहले यह नावल दे तो सही, पर इसने तो इतने खसम पाल रखे हैं कि हमारा नम्बर ही नहीं आता।  आज भी छ: महीने बाद शक्ल देख रहा हूँ.... वो भी शायद आप पकड़ लाये हो, इसलिए.... " सुशील जैन धाराप्रवाह कहते चले गये।  


वेद ने मेरी ओर देखा -"यो क्या चक्कर है भई? मुझे 'जुल' दिया सो दिया, जैन साहब को भी लपेट लिया। "


"नहीं यार, वो दिल्ली से आना ही नहीं हुआ। " मैं कुछ खिसियाकर बोला।  


"यह गलत बात है योगेश। " वेद ने मुझसे दो टूक स्वर में कहा -"या तो विज्ञापन नहीं देना था और विज्ञापन दिया है तो नावल भी दो।  तुम दोगे तो जैन साहब न छापें, यह हो ही नहीं सकता। "


"लिखूँगा यार....। " मैंने फिर से खिसियाये लहज़े में कहा।  


"कब लिखेगा, जब लोग विज्ञापन भी भूल जायेंगे...?" 


"विज्ञापन तो लोग अब तक भूल ही चुके होंगे। " सुशील जैन बोले -"छ: महीने पहले छपा था, फिर हमने रिपीट ही नहीं किया। "


"रिपीट क्यों नहीं किया?" वेद ने सुशील जैन से पूछा।  


"करते कैसे... यह मेरठ से ऐसा गायब हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग और हमें तो अपना पता भी नहीं देकर गया कि कहीं हम एक चिट्ठी ना लिख दें।  हाँ, मामा से इसकी घणी यारी है... उसके पास अपना तो अपना, शायद पड़ोसियों का भी अता-पता लिखा रखा है। "


"तो यार, आप मामा से मेरा पता ले लेते। " मैंने कहा।  


"क्यों माँग लेते मामा से?" सुशील जैन तमक कर बोले -"हमारी कोई इज्जत नहीं है क्या? अपने लेखक का पता दूसरे पब्लिशर से माँगना हमारे लिए तो भीख माँगने जैसा है। "


"कह तो जैन साहब सही रहे हैं। " वेद ने सुशील जैन का पक्ष लिया -"तुझे खुद अपना पता इन्हें लिखवाना चाहिए था। "


यहाँ सभी पाठक समझ गये होंगे कि 'मामा' सम्बोधन द्वारा लक्ष्मी पाकेट बुक्स के सतीश जैन का जिक्र हो रहा था। 


"अब लिखवा दूँगा...। " मैंने कहा, फिर सुशील जैन से बोला -"एक कागज़ और पेन दीजिये। "


सुशील जैन ने एक तरफ रखा, रफ पेपर्स का पैड और पैन मेरी तरफ बढ़ा दिया।  मैंने उस पैड के ऊपरी पेपर पर अपना दिल्ली का पता लिख दिया।  


वेद प्रकाश शर्मा ने अब आगे जो कहा, वो पूरी तरह मेरी सिफारिश थी।  बड़े ही नम्र स्वर में वेद सुशील जैन से बोला -"जैसा कि मैंने लोगों से सुना है, आपको योगेश से बहुत प्यार है। "


"वो तो है। " सुशील जैन एकदम कह उठे।  


"तो इसे इसके नाम से छापो न, इस बात की गारन्टी मैं लेता हूँ, इसे छापकर आपको कभी अफसोस नहीं होगा और यह आपके साथ गद्दारी भी नहीं करेगा। " वेद ने कहा।  


"यह तो है...। " सुशील जैन बोले - "इसकी ईमानदारी और सच्चाई पर तो मेरठ का कोई पब्लिशर शक नहीं कर सकता। "


"तो फिर छापिये न योगेश मित्तल का उपन्यास...। "


"हमने कब मना किया, पहले यह नावल दे तो सही। " सुशील जैन ने गेंद मेरे पाले में फेंक दी।  


"ले भई...। " वेद ने  ओर देखा -"जैन साहब तो तैयार बैठे हैं।  अब तू बता - कब देवेगा उपन्यास?"


"जल्दी ही स्टार्ट करूँगा, कम्पलीट होते ही दे दूँगा। " मैंने कहा।  दरअसल अर्सा पहले अमर पाकेट बुक्स में जब मेरे सामाजिक उपन्यास 'पापी' और 'कलियुग' उपन्यासकार के रूप में मेरे पहले उपनाम - "प्रणय" नाम से बैक कवर पर रंगीन तस्वीर के साथ के साथ छपे थे, तब तीसरे उपन्यास 'लोक-लाज' को पब्लिशर साहब को देने के समय मेरे साथ कुछ ऐसा घटा था कि मैंने प्रकाशकों से निश्चित वायदा करना छोड़ दिया था, पर वो किस्सा फिर कभी....।  हाँ, उस घटना के बाद 'प्रणय' नाम से मेरा कोई उपन्यास फिर कभी नहीं छपा। 

 

अब भी मैंने वेद प्रकाश शर्मा और सुशील जैन के सामने गोल-मोल बात कही थी, पर वेद प्रकाश शर्मा के सामने मेरी दाल न गलनी थी।  उसने कहा -"तेरा यह जल्दी कब होवैगा? कहीं तू जैन साहब को भी गोली तो नहीं दे रहा बेट्टा, जैसे मुझे दी थी कि ला रहा हूँ उपन्यास कम्पलीट करके, पर मेरी बात और थी, मैंने तेरी कोई पब्लिसिटी नहीं की थी, लेकिन जैन साहब तो तेरी पब्लिसिटी भी कर चुके हैं - 'लाश की दुल्हन' उपन्यास का नाम और विज्ञापन भी तूने ही बनाया था।  नाम भी ठीक ठाक है, बल्कि मैं तो कहूँ... बहुत शानदार नाम है - लिख डाल इस पर उपन्यास। "

"लिखूँगा यार..। " मैंने वेद से कहा।  


"तो फिर तेरी और से मैं जैन साहब को पक्का कर लूँ?" वेद ने पूछा।  


मैं अचानक खामोश हो गया।  


उस जरा सी देर की खामोशी पर सुशील जैन ने सहसा यह कहते हुए प्रहार कर दिया -"योगेश, तू उपन्यास लिखना तो स्टार्ट कर दे, पर एक शर्त मेरी भी है। "


"शर्त....। " मैं चौंका।  


वेद भाई भी चौंक पड़े और तुरन्त बोले -"अब ये शर्त की क्या भसूड़ी है जैन साहब?"


"कुछ नहीं, मामूली सी बात है।  योगेश मेरे पास तीन उपन्यास जमा कर देगा, तब मैं पहला उपन्यास छापूँगा। "


मैंने गहरी सांस ली और बहुत धीमे से बुदबुदाया -"न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी। "


"क्या कहा?" एकदम ही ये दो शब्द वेद भाई और सुशील जैन के मुँह से लगभग एक साथ निकले थे।  


"नहीं, कुछ नहीं। " मैंने अपनी तस्वीर वाली मुस्कान फेंकते हुए कहा।

  

तो सुशील जैन बोले -"देखिये योगेश जी, आपके और सलेकचन्द जी के बीच क्या हुआ, क्यों अमर पाकेट बुक्स में आपका ‘पापी’ और ‘कलियुग’ के बाद तीसरा उपन्यास 'लोक-लाज’ नहीं छपा, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं नहीं चाहता कि हमारे आपके रिश्ते में भी वैसा ही कोई इतिहास दोहराया जाये, इसलिए तीन उपन्यास तो जरूरी हैं।  उसके बाद जब पहला उपन्यास छपेगा तो आपके पास बहुत वक़्त होगा, चौथे उपन्यास के लिए, उसमें दो चार दिन आप विलम्ब भी कर दोगे तो हमें परेशानी नहीं होगी। "


सुशील जैन की इस बात पर वेद प्रकाश शर्मा ने भी कहा -"योगेश, तेरे अमर पाकेट बुक्स के लफड़े के बारे में मुझे भी कुछ नहीं पता, पर यो समझ में आवै है कि जैन साहब की बात बिल्कुल ठीक है।  अब तू मेरी बात मान और कमर कस ले।  लिखना शुरू कर दे।  ठीक...। "


"ठीक....। " मैंने कहा।  


"तो ठीक है ना जैन साहब...।  यह तीन उपन्यास दे देगा, तब आप छापना शुरू कर देना।  अब जरा मैं इसका कमरा देख लूँ।  सुना है - रायल पाकेट बुक्स के मकान में ले रखा है। " 


और वेद भाई उठ खड़े हुए।  मैं भी उठ खड़ा हुआ।  


तभी सुशील जैन मीठी मुस्कान फेंकते हुए बोले -"जयन्ती प्रसाद सिंघल भी योगेश जी के जबरदस्त 'फैन' हैं, पता नहीं क्या जादू किया है, इनकी बुराई भी तारीफ की तरह करते हैं। "


"बुराई.....?" मैं और वेद दोनों ही ठिठक गये।  


"हाँ, एक बार मुझसे कह रहे थे - बहुत लापरवाह आदमी है... बहुत ज्यादा लापरवाह है, लेकिन इतने गुणी आदमी में दो चार ऐब तो होवै ही हैं। "


वेद की हँसी छूट गई।  मैं भी मुस्करा दिया। 


"अब लिखने में लग जा, फालतू 'टाइम वेस्ट' करना बन्द कर दे। " वेद ने दो कदम आगे बढ़ने के बाद मुझे समझाया। 


"मैं कहाँ फालतू 'टाइम वेस्ट' करता हूँ। " मैंने कहा तो वेद ने घूर कर मुझे देखा और बोला -"और यह कभी बिमल चटर्जी, कभी भारती साहब, कभी यशपाल वालिया, कभी कुमारप्रिय, कभी गाँधीनगर के लौंडे-लपाड़ों के साथ घूमते-फिरते रहने के चर्चे दिल्ली के नारंग पुस्तक भण्डार का चन्दर यूँ ही बदनाम करने को सुनावै है। "


"चन्दर मुझे बदनाम करता है?" मैंने चौंककर पूछा।  


"नहीं, वो तो तारीफ ही करता है, लेकिन कभी-कभी किसी के द्वारा की गई तारीफ भी बदनाम करने वाली होती है, यह भी तुझे समझना चाहिए।  चन्दर तो इस तरह कहता है कि योगेश मित्तल असली यारों का यार है।  उसे जिसके साथ चाहो, देख लो।  कभी बिमल चटर्जी, कभी कुमारप्रिय, कभी परशुराम शर्मा, कभी राज भारती, कभी वालिया, कभी लालाराम गुप्ता, कभी राजकुमार गुप्ता, कभी गौरीशंकर गुप्ता, कभी ज्ञान गपोड़ी के साथ। " वेद ने कहा -"तेरी इस तारीफ से यही समझ में आता है कि तेरी नज़र में टाइम की कोई कीमत है। " 


"ऐसा क्यों कहते हो यार...। " मैं चेहरे पर कृत्रिम उदासी लाकर बोला -"कई बार तो यह कम्बख्त योगेश मित्तल वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ भी दरीबे में घूमता पाया गया है। "


वेद के चेहरे पर हँसी उभर आई, पर एकदम कड़क कर बोला -"फालतू मजाक मत न करै।  काम पर ध्यान दे।  सुशील जी ने तेरा विज्ञापन भी किया हुआ है। "


"विज्ञापन तो लक्ष्मी पाकेट बुक्स में मामा सतीश जैन भी एक उपन्यास का किया था। " मैंने कहा।  


"वो मिट्टी का ताजमहल.... नाम सुनकर ही लगे - प्रेम बाजपेयी का सालों पुराना कोई नावल होगा, जिसमें एक लड़का होगा, एक लड़की होगी, दोनों की दुख भरी कोई कहानी होगी।  वो तो योगेश, नाम ही एकदम पिटा हुआ है, इसीलिए मैंने उसका कोई जिक्र नहीं किया, पर यह नाम 'लाश की दुल्हन'.....नाम से ही साला सस्पेंस झलकता है।  उत्सुकता पैदा होती है - कोई लड़की कैसे बन सकती है - लाश की दुल्हन।  तू 'मिट्टी के ताजमहल' पर मिट्टी डाल और 'लाश की दुल्हन' शुरू कर दे। "


बातें करते हुए हम रायल पाकेट बुक्स के मकान तक आ गये थे तो वेद ने एकाएक चुप्पी साध ली।  मैं भी इस चुप्पी के समय में दो बातें बता दूँ - वेद ने गाँधी नगर के जिन लौंडे-लपाड़ों का जिक्र किया था, वह मेरे गाँधी नगर के दोस्त अरूण कुमार शर्मा और नरेश गोयल थे तथा बाद में जिस ज्ञान गपोड़ी का जिक्र किया था, वह गप्पें मारने में मशहूर गर्ग एंड कंपनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग का जिक्र था।  


"यहाँ कौन सा कमरा तूने किराये पर लिया है?" वेद ने पूछा तो अपनी जेब में से कमरे की चाबी निकालते-निकालते मैं सन्न रह गया।  


कमरा सामने था, मगर उस पर एक भारी भरकम और बड़ा सा ताला लटक रहा था, जबकि मैंने उस पर जो ताला लगाया था, वो एक छोटा और सस्ता सा ताला था।  


"क्या हुआ? अपना कमरा नहीं पहचान रहा?" वेद ने पूछा।  


"कमरा तो यही है - सामने वाला।  लेकिन इस पर मेरा ताला नहीं है। " मैंने कहा।  


(शेष फिर)

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