"ताला तेरा नहीं है, यह क्या बात हुई?" वेद ने चकित होकर कहा।
बात तो मेरी भी समझ में नहीं आ रही थी, लेकिन इससे पहले कि मैं कुछ कहता, सामने की गैलरी में आ खड़े हुए, जयन्ती प्रसाद सिंघल जी बुलन्द और रौबदार आवाज कानों में पड़ी -"अबे तू जिन्दा है, मैं तो सयझा, मर-खप गया हो गया। सदियाँ बीत गईं तुझे देखे। "
"सदियाँ....। " मैं और वेद दोनों जयन्ती प्रसाद सिंघल के इस शब्द पर मुस्कुराये, तभी जयन्ती प्रसाद सिंघल जी का खुशी से सराबोर स्वर उभरा -"अरे वेद जी, आप भी आये हैं, इस नमूने के साथ। धन्य भाग हमारे। आये हैं तो जरा हमारी कुटिया भी तो पवित्र कर दीजिये। "
जयन्ती प्रसाद सिंघल ने बायीं ओर स्थित रायल पाकेट बुक्स के छोटे से आफिस की ओर प्रवेश के लिये संकेत किया। आफिस में आगन्तुकों के बैठने के लिए एक ही फोल्डिंग कुर्सी खुली पड़ी थी, जयन्ती प्रसाद सिंघल जी ने दूसरी भी खोल दी, फिर स्वयं टेबल के पीछे बास की कुर्सी पर विराजे और हमसे बैठने का अनुरोध किया।
वेद और मैं बैठ गये, पर बैठते-बैठते वेद ने कह ही दिया - "मैं तो यहाँ योगेश जी का कमरा देखने आया था, पर यहाँ तो दिक्खै आपने अपना ताला लगा रखा है। "
"इसका ताला तोड़ कर, अपना न लगाता तो और क्या करता, दस महीने में तो यह कमरा भूतों का डेरा हो जाता। हम सारे घर की रोज सफाई करवावैं हैं, लेकिन..."
"दस महीने कहाँ हुए अभी...। " तभी मैंने जयन्ती प्रसाद सिंघल जी की बात काटते हुए कहा तो वह बोले -"हिसाब लगाना आवै है या सिर्फ कागज़ काले करना ही जानै है?"
मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो रही थी कि अगर जयन्ती प्रसाद जी ने दस महीने के हिसाब से किराया-भाड़ा और बिजली, जो कि मैंने बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं की थी, सब जोड़-जाड़ कर पैसे माँग लिये तो....?
पर तभी अचानक वेद ने गम्भीर स्वर में कहा -"पर आपने योगेश जी का ताला क्यों तोड़ा? यह तो आपने गलत किया न...?"
"बिल्कुल नहीं। " जयन्ती प्रसाद जी बोले -"हमने पन्द्रह-बीस दिन इसका इन्तज़ार किया, फिर ताला तोड़ दिया कि इसके पीछे कमरे की साफ सफाई तो हो जाये? हम तो रोज इसकी सफाई करवाते थे, अब किराये-भाड़े के साथ इसे बीस रूपये हर महीने सफाई के भी देने होंगे। "
"क-क-कितने रुपये देने होंगे?" मेरी आवाज काँपने लगी थी। तुरन्त ही वेद ने मेरी ओर देखा और उसका हाथ मेरी पीठ पर चला गया। उसे उस समय मुझ पर बहुत तरस आया था।
तभी मेरे सवाल के जवाब में जयन्ती प्रसाद जी बोले -"तू अपने आप हिसाब लगा ले, दस महीने के कितने हुए? तू जो हिसाब लगायेगा, हम मान लेंगे। "
मैंने नोट किया कि जो जयन्ती प्रसाद मुझसे योगेश जी और आप करके बोलते थे, वह तू-तड़ाक से और बड़े फ्रेंक लहज़े में बात कर रहे थे। सही भी था, अब मैं उनका लेखक बनकर, उनके सामने नहीं बैठा था, बल्कि किरायेदार था।
"दस महीने नहीं हुए हैं अभी। " मैंने कहा।
"हुए तो दस महीने ही हैं, पर चल तू बता, तेरे हिसाब से कितने महीने हुए हैं, उसी से हिसाब लगा ले। "
मैं चुप। हिसाब लगाने में भी दिल घबरा रहा था कि मेरे हिसाब को गलत बता कर जयन्ती प्रसाद जी कोई और चुभती बात न कह दें।
यहाँ वेद ने मेरे लिये बात सम्भाली और विनम्र स्वर में जयन्ती प्रसाद जी से कहा -"हिसाब आप ही लगाकर बता दो, पर कम से कम हिसाब बनाना, क्या है कि लेखक तो होता ही गरीब है और आप जितने महीने का भी किराया लोगे, योगेश पर तो मुफ्त का वजन पड़ेगा, क्योंकि जितने भी दिन का यह किराया देगा, उसमें से एक भी दिन यह यहाँ रहा तो है ही नहीं। "
"ठीक है। आप पहली बार हमारे यहाँ आये हैं, हमारी कुटिया को पवित्र किया है तो आपकी बात मानकर, मैं योगेश के लिये ज्यादा से ज्यादा कनशेसन कर देता हूँ और एक ही बात बोलूँगा। "
"बोलिये....। " वेद ने कहा।
"तो इससे कहिये - पचास रुपये दे दे। हमारा इसका हिसाब खत्म। " जयन्ती प्रसाद सिंघल एकदम बोले तो मेरा दिल बल्लियों उछल गया।
"पचास रुपये। " हठात् ही मेरे मुंह से निकला। इतनी छोटी रकम में जान छूटने की तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। सिर्फ पचास रुपये देने थे मुझे, जबकि मैं तो बुरी तरह लुटने के लिए तैयार बैठा था।
"बेटा, ये तो वेद साहब के लिहाज़ में तुझे छोड़ रहा हूँ, वरना आज तो तेरी जेब से एक-एक छदाम निकलवा लेनी थी मैंने। कंगला करके भेजना था। " जयन्ती प्रसाद सिंघल जी मेरा चेहरा गौर से देखते हुए बोले तो वेद ने मेरी पीठ पर धौल मारा -"अब देख क्या रहा है, फटाफट दे पचास रुपये, इससे पहले कि मकानमालिक का इरादा बदल जाये। "
"काहे का मकानमालिक, हम सब भाई-बन्द हैं वेद जी। एक-दूसरे का ख्याल नहीं रखेंगे तो कैसे चलेगा। " जयन्ती प्रसाद सिंघल जी बोले। इस समय उनका स्वर व लहज़ा बिल्कुल बदला हुआ था और स्वर ऐसा था कि मकानमालिक नहीं कोई घर का बुजुर्ग सामने बैठा हो।
मैंने जेब से पचास रुपये निकालकर फटाफट जयन्ती प्रसाद जी की ओर बढ़ाये तो वह मुस्कुराये -"खुश है, लूटा तो नहीं तुझे?"
मेरी हँसी और खुशी ऐसी थी कि जुबान गुंग हो गई थी।
"अच्छा, अब योगेश का कमरा तो देख लिया, मैं चलूँगा, योगेश के साथ बहुत वक़्त बीत गया। " और वेद एकदम उठ खड़े हो गये।
"अरे, ऐसे कैसे चलूँगा, अभी तो आपसे कुछ बात भी नहीं हुई। चाय-वाय का दौर भी नहीं चला। " जयन्ती प्रसाद सिंघल जी तुरन्त बोले तो वेद ने उनकी ओर हाथ बढ़ा कर विनम्र स्वर में कहा - "फिर कभी जैन साहब। ये वादा रहा। "
जयन्ती प्रसाद जी को भी सभी लेखक व परिचित 'जैन साहब' ही कहते थे, वैसे भी वह जैन समुदाय से ही थे।
जयन्ती प्रसाद जी ने वेद से हाथ मिलाया और हाथ थामे-थामे ही बोले -"थोड़ी देर रुकते न?"
"फिर कभी...। आज आप योगेश जी से बात कीजिये। इन्हें ‘दबाकर’ चाय नाश्ता कराइये। " कहकर वेद एक पल भी रुके नहीं। अपना हाथ छुड़ा, पलटे और जाते-जाते मेरी पीठ थपथपाई -"फिर मिलते हैं। "
मुझे कुछ भी बोलने का अवसर ही नहीं दिया वेद ने। उसके ऐसे अचानक आंधी तूफान की तरह निकल जाने से मुझे यही लगा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम ध्यान आ गया होगा। जाते-जाते वेद मेरे लिए चाय नाश्ते का डायलॉग मार गये थे तो आफिस में बैठे-बैठे ही जयन्ती प्रसाद जी ने चाय के लिए बोल दिया।
थोड़ी देर बाद जयन्ती प्रसाद जी के सुपुत्र चन्द्रकिरण जैन एक ट्रे में चाय-नाश्ता लिये आये और मुझे देखते ही बोले -"ओहो, आज तो ईद का चांद निकल आया। कहाँ रहे इतने दिन?"
"दिल्ली...। " मैं धीरे से बोला।
"अब तो रहोगे... कुछ दिन मेरठ में ?"
"हां...। " मैंने कहा और जो बात अभी तक जयन्ती प्रसाद जी से नहीं कह पाया था, चन्द्र किरण से बोला -"वो यार मेरे कमरे की चाबी....। "
मगर चन्द्र किरण की ओर से किसी भी रिस्पांस से पहले जयन्ती प्रसाद जी बोल उठे -"काहे की चाबी... अन्दर कुछ नहीं है तेरा?"
"पर मेरा सामान...?" मैं एकदम बौखला गया।
"सब तेरे मामा को बुलवा कर उठवा दिया। उन्हीं के घर मिलेगा। लगै - मामा के यहाँ होकर नहीं आ रहा। " जयन्ती प्रसाद जी बोले।
यह सच ही था, मेरठ आने के बाद अभी तक मैं मामाजी के यहाँ नहीं गया था। मैंने स्वीकार किया कि मामाजी के यहाँ अभी तक नहीं गया हूँ।
खैर, चाय-नाश्ता करने के बाद मैं रायल पाकेट बुक्स के आफिस से निकला तो फिर बीच में किसी अन्य प्रकाशक से नहीं मिला।
सबसे नजरें बचाता हुआ ईश्वरपुरी से बाहर आ गया, लेकिन सड़क तक नहीं पहुँच सका, कार्नर पर ही गिरधारी पान और चाय वाले की दुकान थी, जिस पर उस दिन गिरधारी का बेटा राधे बैठा था, मुझ पर नज़र पड़ते ही बोला -"राइटर साहब, पान तो खाते जाओ। "
मैं ठिठककर घूम गया और पान की दुकान पर आ गया। राधे मुझसे बिना पूछे ही पान लगाने लगा। दरअसल उन दिनों मुझे जानने वाला हर पनवाड़ीे जानता था कि मैं कभी सादी तो कभी सादी और पीली पत्ती तम्बाकू का पान खाता था।
"पीली पत्ती डालूँ?" राधे ने सादी पत्ती डालने के बाद पूछा।
"नहीं, आज रहने दे। " मैंने कहा। मामाजी के यहाँ जा रहा था और पीली पत्ती की महक तेज़ नाक वालों को पलक झपकते ही आ जाती थी, जबकि सादी पत्ती में चलने वाले 'रवि' तम्बाकू की महक का पता भी नहीं चलता था।
राधे ने एक जोड़ा बना कर मुझे पकड़ाया। मैंने बीड़ा अपनी दायीं दाढ़ में फँसाया और आगे बढ़ गया।
ईश्वरपुरी की अगली गली हरीनगर कहलाती है, जिसका पहला ही काफी बड़ा मकान मेरे मेरठ वाले मामाओं का है। सबसे बड़े मणिकान्त का ग्राउण्ड फ्लोर में दायाँ पोर्शन था, उनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता बायें पोर्शन में तथा उनसे छोटे विजयकान्त रामाकान्त मामाजी के ऊपर फर्स्ट फ्लोर में व सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ता, जो कि एडवोकेट थे, बड़े मामा जी मणिकान्त गुप्ता जी के ऊपर के पोर्शन में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। चारों मामाओं की एक या दो बसें यूपी रोडवेज़ में प्राइवेट बसों के तौर पर निर्धारित रूट पर दौड़ती थीं।
बडे़ मामाजी मणिकान्त गुप्ता की यूपी के बड़ौत के बड़का गाँव में लम्बी चौड़ी खेतीबाड़ी और जमींदारी भी थी। उनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता एल आई सी के एजेन्ट भी थे और जेवर आदि सामान गिरवी रख जरूरतमन्दों को ब्याज पर कर्ज भी दिया करते थे। तीसरे नम्बर के मामाजी विजयकान्त गुप्ता ने मेरठ के पुल बेगम के पास स्थित 'जगत' सिनेमा का ठेका भी ले रखा था, जहाँ वह नई पुरानी फिल्में भी लगाते थे। मुझे वहाँ विजयकान्त मामाजी के बच्चों और मामीजी के साथ अनेक फिल्में मुफ्त में देखने के अनेक अवसर मिले, जिसमें चन्दरशेखर, शकीला, आगा, के.एन. सिंह, मुकरी की 'काली टोपी लाल रूमाल तथा प्रोड्यूसर डायरेक्टर नासिर हुसैन की देवानन्द, आशा पारेख, प्राण, राजेन्द्रनाथ अभिनीत 'जब प्यार किसी से होता है' की मुझे आज भी याद है।
सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ता मामाजी की भी यूपी रोडवेज़ में बसें चलती थीं और वकालत भी चलती थी। मामाओं का मेरठ में खासा रसूख और दबदबा था, पर जब भी मैं मेरठ रहा, खाने-पीने-रहने का तो हमेशा आराम रहा, लेकिन जिन्दगी में कभी उनसे कभी भी एक पैसे की आर्थिक सहायता लेने की स्थिति कभी नहीं आई, लेकिन वहाँ भाई बहन सभी उम्र में मुझसे छोटे थे, इसलिए उन पर जब तब मैं कुछ न कुछ खर्च कर देता था, जिसके लिए मामा-मामी तो नहीं, भाई-बहन ही अक्सर टोका करते थे कि "भैया, इतना खर्चा क्यों करते हो फिजूल में। "
रामाकान्त मामाजी के मेरे ईश्वरपुरी वाले सभी प्रकाशकों से नजदीकी सम्बन्ध थे और अक्सर प्रकाशकों के आफिस में भी उनका उठना-बैठना होता रहता था, इसलिये मैं निश्चिन्त हो गया था कि जयन्ती प्रसाद जी ने मेरा सामान मामाजी को उठवा दिया है तो उन्होंने और भाई-बहनों ने सहेज़ कर सलीके से ही रखवाया होगा, इसलिये पान चबाते हुए मामाजी के घर तक पहुँचा, किन्तु अन्दर जाने से पहले मैंने सारा पान नाली में थूक दिया। कारण था रामाकान्त मामाजी की धर्मपत्नी चन्द्रावल मामीजी। वो जब भी मुझे पान खाते देखतीं, कहतीं -"योगेश भैया, तुम्हारे दांत बहुत अच्छे हैं, पान मत खाया करो। हालांकि वह स्वयं पान सुपारी खा लेती थीं और अपने दांतों की सुन्दरता से सन्तुष्ट नहीं थीं और उनके सौन्दर्य नष्ट होने का कारण पान और सुपारी को ही बताती थीं।
जब मैं रामाकान्त मामाजी के घर पहुँचा, वे दालान में कतार से लगे गमलों के पौधों को पानी दे रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने हाथ रोक लिया और बोले -"आ जा, सही टाइम पर आया। आ जा, थोड़ा पुण्य तू भी कमा ले। "
"पुण्य....?" मैं कुछ समझा नहीं, इसलिये प्रश्नवाचक नज़रों से मामाजी की ओर देखा तो उन्होंने पानी से भरी एक बाल्टी और उसमें पड़े मग्गे की ओर इशारा किया और बोले -"बाल्टी भरी है, मग्गा पड़ा है। चल, पानी दे पौधों को। "
मैं बाल्टी की ओर बढ़ा। मग्गा पानी से भरकर बाल्टी से बाहर निकाला, फिर पूछा -"किस-किस गमले में पानी देना है?"
"निरा बुद्धू ही है तू... जो गमला गीला दिख रहा है, जिसमें पानी भरा है। उसमें मैंने दे दिया है, बाकी जो सूखे दिख रहे हैं, जिनकी मिट्टी पर ताजा पानी नहीं दिख रहा, उनमें पानी देना है। "
"कितना-कितना पानी डालना है?" मैंने पूछा।
"तू सचमुच बुद्धू है....। " मामाजी 'बुद्धू' शब्द पर जोर डालते हुए बोले -"न बहुत ज्यादा, ना बहुत कम...। अभी आधा-आधा मग्गा डाल दे सभी में। "
मैं पौधों को पानी देने के लिए गमलों में पानी डालने लगा। जब दायित्व से मुक्ति मिली तो देखा, मामाजी बान की खुरदुरी चारपाई वहीं पीछे ही चारपाई डाल कर बैठे हुए हैं।
मैं भी मामाजी के पास जाकर बैठ गया और बैठकर बोला -"मामाजी, मेरा सामान कहाँ पर रखवाया है?"
"कौन सा सामान?" मामाजी ने पूछा।
"वही - जो मेरे पब्लिशर ने आपको उठवाया है। " मैंने कहा।
"क्या बक रहा है? मुझे किसी ने कोई सामान नहीं उठवाया। " मामाजी ने कहा और मैं सन्नाटे में डूब गया।
यह क्या कह रहे हैं मामाजी? मुझसे मज़ाक तो नहीं कर रहे?
जयन्ती प्रसाद जी ने तो मुझे वो कमरा खोल कर भी नहीं दिखाया था, जिसमें मैं किरायेदार था।
(शेष फिर)
इस कड़ी को ऐसे मोड़ पर समाप्त किया गया है कि आगामी कड़ी की प्रतीक्षा कठिन से कठिनतर होती जा रही है।
जवाब देंहटाएंस्वास्थ्य कारणों से अक्सर विलम्ब हो जाता है, वरना कुछ न कुछ रोज़ लिखने का रूटीन मेरा बहुत बेहतर है, बल्कि एक साथ कई-कई कहानियां बेहतरीन ढंग से चलती रहती हैं ! जल्दी ही पोस्ट करूंगा ! दुकान पर भी कुछ दिन से काम ज्यादा है ! इसलिए विलम्ब के लिए Sorry ...!
हटाएंइस शृंखला को आगे नहीं बढ़ाया गया। अधूरापन अनुभव हो रहा है।
जवाब देंहटाएंकाफी दिनों से अस्वस्थ चल रहा था! अब आगे लिख रहा हूँ!
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