अरुण कुमार शर्मा उन दिनों कोई नौकरी पाने के लिए भी भाग-दौड़ कर रहा था ! अतः उसका मुझसे मिलना कम ही होता था !
भारती पाॅकेट बुक्स का विज्ञापन वाला अखबार मुझे थमाने के बाद अगले दिन सुबह ही सुबह वह मेरे घर आ गया ! तब मैं नहा-धोकर तैयार था ! मुझे सुबह जल्दी उठने और जल्दी नहा लेने की आदत तब भी थी, अब भी है !
"आ चल, बाहर चलते हैं !" अरुण ने कहा !
हम बाहर निकल मामचन्द चायवाले की दुकान पर बाहर पड़ी खाली बेंच पर बैठ गये !
तब चाय पन्द्रह पैसे की होती थी ! चाय का आर्डर अरुण ने दिया और मुझसे पूछा -"तो क्या सोचा है ?"
"किस बारे में ?" मैंने पूछा तो वह गर्म हो गया और बहुत भद्दी भाषा में उसने जो कुछ कहा, उसका मतलब यह था कि कभी अपने लिए भी कुछ करना है या हमेशा बिमल चटर्जी और कुमारप्रिय के लिए लिखना है !
फिर वह शांत होकर बोला - "मैं भारती पाॅकेट बुक्स में जाने के बारे में पूछ रहा था !"
"हाँ, जाऊँगा तो सही !" मैंने कहा - "पर उन्होंने पूछा कि पहले कुछ लिखा है तो मेरे पास कलकत्ते के सन्मार्ग अखबार में छपी बच्चों की कविता या कहानी के अलावा कुछ भी नहीं है !"
मैंने लिखा तो बहुत कुछ था, किन्तु किसी भी प्रकाशक के यहाँ से मेरे नाम से तब तक कुछ भी नहीं छपा था !
मेरी बात सुनकर अरुण फिर गुस्सा हो गया -"तुझे कुछ प्रूफ देने की जरूरत है ?"
मैं चुप रहा ! मेरी उम्र उस समय पन्द्रह-सोलह से अधिक नहीं थी ! कहानियाँ कितनी ही लिख चुका होऊँ - आत्मविश्वास की बेहद कमी थी ! तब अरुण कुमार शर्मा मेरी जिन्दगी का आत्मविश्वास था !
मेरे लिए हर वो प्रकाशक बहुत बड़ा था, जो कुछ छाप रहा था और मैं तो उन दिनों शर्मीला भी बहुत था ! किसी भी नये शख्स से बात करना मेरे बस की बात नहीं थी !
मैंने अरुण से पूछा -"तू चलेगा साथ में ?"
अरुण ने तीखे स्वर में पूछा - "मैं क्या करूंगा ?"
मैंने कहा - "तू साथ रहेगा तो थोड़ी हिम्मत रहेगी !"
उस समय अरुण ने क्या कहा था, याद नहीं, पर मुझे बुरी तरह लताड़ा था ! अंततः मैंने अकेले ही भारती पॉकेट बुक्स जाने का निर्णय ले लिया ! प्रकाशक का पता था – 1901, गली लेहसुआ, सीताराम बाजार, दिल्ली - 6
पर उस इलाके के बारे में, तब मैं कुछ भी नहीं जानता था ! दरीबे के बारे में जरूर जानता था ! वह भी इसलिए नहीं कि वहां पुस्तक विक्रेताओं के यहाँ जाता था, बल्कि किनारी बाजार के कटरा खुशहाल राय में मेरे नाना-नानी रहते थे और उनके यहां जाने के लिए हम कभी परांठे वाली गली से, तो कभी दरीबा कलां से रास्ता पकड़ते थे !
अरुण ने मुझे बार-बार सीताराम बाजार का पैदल का रास्ता भी बताया, ताकि मुझे रास्ता याद हो जाए और रिक्शा लेना हो तो कहाँ से लेना सस्ता पडेगा, यह सब भी समझाया !
मैंने रविवार के दिन भारती पॉकेट बुक्स जाने का फैसला किया ! वैसे भी विज्ञापन में मिलने का समय रविवार 11:00 से 6:00 बजे का था ! अरुण की सलाह पर मैंने उस समय जो मैंने कंधे पर लटकाने वाला कपडे का थैला लिया और उसमे, जो उपन्यास "धाँय-धाँय-धाँय " लिख रहा था, उसका रजिस्टर साथ रख लिया ! कपडे का वैसा थैला बाद में काफी समय तक मेरा ट्रेड मार्क रहा ! कभी थैला कंधे पर नहीं होता तो प्रकाशकगण ही नहीं, लेखक यार-दोस्त तथा अन्य परिचित भी पूछ लेते – “आज झोला कहाँ है भई ?”
गाँधीनगर में तब बसें नहीं चलती थीं या शायद बहुत कम चलती रही हों, क्योंकि चांदनी चौक या कौड़िया पुल तक जाने के लिए तांगे अथवा फोरसीटर ही आम सवारी थी ! तांगा सस्ता था ! चांदनी चौक के चालीस पैसे लगते थे !
मैं तांगे से चांदनी चौक पहुंचा ! चांदनी चौक में सीताराम बाजार से रिक्शे का किराया ज्यादा होने के कारण पैदल ही निकला और काफी भटकने के बाद अंततः सीताराम बाजार पहुंचा और गली लेहसुवा और भारती पॉकेट बुक्स को ढूंढने के प्रयास में हिम्मतगढ़ तक के तीन चक्कर लगा दिए !
लोगों से पूछ-पूछ कर हार गया, पर भारती पॉकेट बुक्स का पता नहीं लगा तो चाय पीने के लिए कोई चाय की दूकान ढूंढने लगा ! पास की एक गली में चाय की दूकान थी ! वहां तक पहुंचा तो उसने बताया कि छोटी सी गली, जो आगे से बंद है, वहीं है - भारती पॉकेट बुक्स का ऑफिस !
मैं फिर उस जगह पहुंचा, जहां भारती पॉकेट बुक्स होने की संभावना थी ! पर कहीं कोई दिखाई न दिया, ना ही कहीं कोई बोर्ड नज़र आया ! हाँ, इस बार सांवले रंग के पैंतीस- चालीस के दरम्यान के एक लम्बे चश्माधारी शख्स दिखे तो मैंने उनसे भारती पॉकेट बुक्स के बारे में पूछा तो उन्होंने उसी छोटी सी गली में आने के लिए मुझसे कहा - जिसके आखिर में भी एक मकान का दरवाज़ा था और वह गली बंद थी !
एक ताला लगे बंद दरवाजे के सामने उन्होंने मुझे खड़ा रहने को कहा और सामने के एक खुले दरवाजे से अंदर मकान में जा, ऊपर जाने की सीढ़ियां चढ़ते चले गए !
वहां भारती पॉकेट बुक्स का कहीं कोई बोर्ड नहीं था !
थोड़ी ही देर बाद वह चाबियों का एक गुच्छा लेकर आये और जिस दरवाजे के सामने मुझे खड़ा किया था, उसका ताला खोला और बोले -"आओ, बैठो !"
और एक फोल्डिंग कुर्सी खोलकर दरवाजे की साइड में रख दी ! मेरे सामने अब एक मेज थी और उसके दूसरी तरफ एक हत्थे वाली लकड़ी की कुर्सी थी !
मैं कुर्सी पर बैठा तो उन्होंने कांच के एक गिलास में पानी मेरे सामने रख दिया और बिना कुछ बोले बाहर निकल गए ! वह पंडित जी थे, भारती पॉकेट बुक्स का अस्तित्व जब तक रहा, वह भारती पॉकेट बुक्स से जुड़े रहे !
मैं बहुत देर पैदल घूमते हुए थक गया था ! लेकिन पानी के दो घूँट ही पिए ! दो घूँट पीकर गिलास मेज ओर रख दिया ! फिर चारों तरफ नज़र दौड़ाई ! यह कमरा छोटा सा था, किन्तु कमरे की दायीं तरफ की दीवार में द्वार था, जिससे एक दूसरा कमरा दिख रहा था, जिसमें सुतलियों से बंधे किताबों के बहुत सारे बण्डल दिखाई दे रहे थे !
थोड़ी देर बाद आहट सुनकर मैंने पीछे देखा, गेहुएं रंग का भारी शरीर और गोल चेहरे वाला एक शख्स उस ऑफिस में प्रवेश कर रहा था, उसकी एक टांग में लचक थी ! वह लालाराम गुप्ता थे, भारती पॉकेट बुक्स के स्वामी !
वह अंदर आकर मालिक वाली कुर्सी पर बैठा तो मैंने नमस्कार किया !
"पानी पीजिये !" वह मेरे सामने रखे पानी के गिलास की तरफ संकेत करके बोले ! मैंने पानी का गिलास उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया !
"हाँ, कितना माल चाहिए आपको ? हमारे पास .... टाइटल हैं !" गुप्ता जी ने मुझसे पूछा और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया !
गुप्ता जी मुझे बुकसेलर समझ रहे थे !
मुझे चुप देख वह फिर बोले - "दूकान कहाँ है आपकी ?"
"जी, मैं राइटर हूँ !" मैंने दबी जुबान से धीरे-धीरे कहा !
"क्या ?" गुप्ता जी जोर से बोले !
"जी, मैं राइटर हूँ !" मैंने फिर कहा, इस तरह जैसे बोलते हुए कोई अपराध कर रहा हूँ !
गुप्ता जी बहुत जोर से ठहाका मारकर हंसे !
वह वक्त मेरे सिटपिटाने का था ! आप यकीन करेंगे - उसके बाद मैंने आज तक अपना परिचय देते हुए कभी भी किसी से यह नहीं कहा कि “मैं राइटर हूँ !”
गुप्ता जी को ठहाका मारते देख मेरी हालत खराब हो गयी थी ! मन ही मन मैं अरुण को कोसने लगा, जिसने मुझे भारती पॉकेट बुक्स में जाने की सलाह दी और अपने आप पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था ! सुबह दस बजे से सिर्फ नाश्ता करके निकला मैं, अपना मज़ाक उड़वाने के लिए यहां आया था !
अब ढाई बज रहे थे !
(क्रमशः)
इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय
©योगेश मित्तल
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