हँसते-हँसते आँसू निकल आने के किस्से सुने हैं कभी आपने ? मेरे सामने वह स्थिति साकार थी ! वह भी तब, जब मैं "कुछ नही" से "कुछ होने" "कुछ बनने" की कोशिश में पहला कदम बढ़ा रहा था !
लम्बे ठहाके के बाद जब गुप्ता जी शांत-स्थिर हुए तो भी उनके चेहरे पर मुस्कान बरकरार थी ! उन्होंने सिर को एक बार यूँ ही दायें से बायें घुमाया ! फिर एक सफेद रूमाल निकाला ! आँखें पोंछी !
दायें से बायें सिर घुमाने का अन्दाज गुप्ता जी का अपना विशिष्ट अन्दाज था, जो बाद में भी अक्सर मुझे देखने को मिला !
पर उस समय मेरी स्थिति क्या थी, आप सब बखूबी समझ रहे होंगे !
बोलने के लिए एक भी शब्द-वाक्य, कुछ नहीं सूझ रहा था ! उठकर भाग जाने का दिल कर रहा था ! वहाँ एक क्षण भी ठहरना जानलेवा लग रहा था !
पर मैंने चुपचाप -निशब्द गुप्ता जी को पहले आँखें पोंछते, फिर मेज की एक दराज से एक चश्मा निकाल आँखों पर चढ़ाते देखा !
चश्मा आँखों पर चढ़ा गुप्ता जी ने अच्छी तरह मेरी ओर देखा और पूर्ववत मुस्कुराते हुए मीठे और नर्म शब्दों में पूछा - "आपका नाम क्या है ?"
"योगेश मित्तल !" मैंने बड़ी मुश्किल से ही नाम बताने के लिए अपने हलक से आवाज निकाली थी !
"यहाँ तक आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई ?"
मैंने सिर हिलाकर जताया कि नहीं हुई, जो कि सरासर झूठ था और झूठ बोलने की मुझे कभी भी आदत न थी ! फिर भी उस समय बस, सिर इन्कार में हिल गया !
"कहाँ रहते हो ?" गुप्ता जी का अगला सवाल था !
अब तो मुँह खोलना ही पड़ा !
"गाँधीनगर...!" मैंने कहा !
"वहाँ से तो चाँदनी चौक के लिए तांगा किया होगा ?"
"जी हाँ !" बमुश्किल मैंने जवाब दिया !
"फिर चाँदनी चौक से यहाँ तक....?" गुप्ता जी ने शब्द अधूरे छोड़ दिये !
मैं चुप रहा !
"रिक्शे से आये हो ?" गुप्ता जी ने पूछा !
मैंने इन्कार में सिर हिला दिया ! कुछ भी बोलना, उस समय मेरे लिए ‘किसी सीधे पहाड़’ पर चढ़ने जैसा काम था !
"तो क्या चाँदनी चौक से यहाँ तक पैदल आये हो ?"
मेरा सिर धीरे से ऊपर से नीचे हिला !
गुप्ता जी मुझे यूँ देख रहे थे, जैसे मैं कोई अजूबा होऊँ ! शायद उन्हें मुझ पर तरस भी आने लगा था !
कुछ क्षण की खामोशी के बाद उन्होंने मुझसे पूछा - "घर से कब चले थे ?"
जवाब देने के लिए अब भी बोलना जरूरी ही था !
मैंने बताया -"दस बजे !"
"दस बजे !" गुप्ता जी लगभग उछल से ही गये और बोले -"तब तो आपको भूख भी लग रही होगी ?"
मैंने इन्कार में सिर हिलाया ! पर गुप्ता जी ने तभी आवाज दी - "पण्डित जी !"
बाहर कहीं बीड़ी फूँक रहे पण्डित जी बीड़ी फेंककर तत्काल अन्दर आये !
"दो समोसे ले आओ और फिर ऊपर दो चाय के लिए कह देना !"
ऊपर यानि सामने के मकान में किसी ऊपरी मंजिल पर गुप्ता जी का घर था और चाय, हमेशा तो नही, पर अक्सर उनके घर से ही बनकर आती थी !
पण्डित जी गये और कुछ ही देर में गर्म, ताजे तले हुए समोसे लेकर आ गये ! उतनी देर तक गुप्ता जी मुझसे मेरे घर-परिवार और शिक्षा सम्बन्धी सवाल करते रहे !
समोसे मेरे सामने रखकर पण्डित जी वापस पलट गये ! चाय के लिए ऊपर घर पर आर्डर करने !
समोसे कागज के लिफाफे में थे ! मैंने लिफाफा गुप्ता जी की ओर सरकाया तो वह बोले -"यह आपके लिए हैं ! मैंने तो अभी-अभी खाना खाया है ! पण्डित जी ने ऊपर आकर बताया कि कोई ‘बच्चा’ मिलने आया है तो मैं खाना खाने ही जा रहा था ! अब पेट में कुछ भी खाने की जगह नहीं है !"
यह गुप्ता जी थे - लालाराम गुप्ता ! भारती पाॅकेट बुक्स के स्वामी ! जानते थे कि सामने बैठा छटंकी उनके यहाँ से ‘एक रुपये का भी माल’ नहीं खरीदने वाला ! और एक लेखक के रूप में तो मेरा हुलिया देखकर ही उन्हें कोई आशा न रही थी ! फिर भी ‘बेचारे भूखे बालक’ के लिए गर्मागर्म समोसे मँगा दिये थे !
मैंने समोसे खाये ! समोसे खत्म होने से पहले ही चाय भी आ गई !
चाय में जरूर गुप्ता जी ने मेरा साथ दिया ! आज की दुनिया में क्या ऐसा सम्भव है कि बिना किसी स्वार्थ के एक अजनबी की मेहमान जैसी खातिर कर दी जाये ?
चाय पीते-पीते गुप्ता जी बोले - "योगेश जी, मुझे विश्वास तो नहीं है ! फिर भी अपना लिखा कुछ लाये हो तो दिखाओ !"
उनकी नजर मेरे कन्धे पर लटके थैले पर थी, जो शुरु से ही बदस्तूर मेरे कन्धे पर ही था !
मैंने फटाफट थैला कन्धे से उतारा और रजिस्टर निकाल गुप्ता जी के सामने कर दिया ! गुप्ता जी ने पहला पेज खोला और नाम पढ़ा - "धाँय-धाँय-धाँय !"
अगले ही पल वह एक बार फिर बड़े जोर से हँसे ! पर इस बार उन्होंने अपनी हँसी पर जल्दी काबू पा लिया और बोले - "धाँय-धाँय-धाँय ! यह भी कोई नाम है ? योगेश जी, आपको तो नाम रखना भी नहीं आता ! उपन्यास में क्या लिखोगे ?"
इस बार मैंने थोड़ी हिम्मत संजोई -"आप पढ़कर देख लीजिये !"
शायद गुप्ता जी के खिलाये समोसों का नतीजा थी वह हिम्मत !
गुप्ता जी ने पढ़ना शुरु किया ! पढ़ते गये ! पढ़ते गये ! फिर जब ब्रेक लगाया तो बोले -"यह सब आपने लिखा है ?"
"जी !" मैंने कहा !
"कहाँ से नकल किया है ?"
"जी, मैंने खुद लिखा है !"
"ठीक है, पर कहीं से तो आइडिया लिया होगा ?" गुप्ता जी ने कहा और गुप्ता जी की इस बात के जवाब में क्या कहूँ, मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो बोला -"आप मुझसे लिखवाकर देख लीजिये ?"
"क्या ?" गुप्ता जी एक बार फिर हँसे -"आप यहाँ मेरे सामने लिखोगे ?"
"हाँ !" मैंने कहा ! शायद यह समोसों और चाय का कमाल था कि मुझ में थोड़ा आत्मविश्वास आने लगा था !
गुप्ता जी सिर एक बार फिर पूर्ववत अन्दाज में हिला -"योगेश जी, आप तो मुझे पागल बना रहे हो ! लेखकों को लिखने के लिए मूड बनाना पड़ता है ! एकांत की जरूरत होती है और आप यहाँ मेरे सामने लिखने की बात कर रहे हो !"
"मैं लिख सकता हूँ !" मैंने कहा -"मुझे एकांत की जरूरत नहीं है !"
बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में आते-जाते ग्राहकों के व्यवधान के बावजूद निरन्तर लिखते रहने की आदत, इस आत्मविश्वास का मूल कारण थी !
"क्या लिखोगे ?" गुप्ता जी ने पूछा !
"आप जो कहें - कोई भी, कैसा भी सीन बतायें, मैं लिख दूँगा !"
गुप्ता जी ने मेरा रजिस्टर मेरी ओर बढ़ा दिया और बोले - "अपनी इसी कहानी को आगे बढ़ाइये !"
मैंने पेन निकाला और लिखना शुरु किया ! आधे घण्टे से अधिक समय तक मैं लिखता रहा ! उतनी देर तक गुप्ता जी एक भी शब्द नहीं बोले ! फिर अचानक गुप्ता जी की आवाज मेरे कानों में आई - "बस योगेश जी !"
मेरा पेन रुक गया ! रजिस्टर गुप्ता जी ने अपनी तरफ खींच लिया ! मेरा लिखा पढ़ा ! रजिस्टर बन्द करके मेरी ओर सरकाया ! फिर बोले - "इमरान सीरीज़ तो हम आपसे नहीं लिखवा सकते ! यह हमारे एक अन्य लेखक बिमल चटर्जी लिख रहे हैं और बहुत अच्छा लिख रहे हैं !"
और तब मुझे पता चला कि बिमल भी भारती पाॅकेट बुक्स में लिख रहे हैं !
गुप्ता जी नहीं जानते थे कि मैं और बिमल एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं, बल्कि हमारा रोज का उठना-बैठना है !
अपनी बात पूरी करने के कुछ क्षण बाद गुप्ता जी फिर बोले -"पर हमारे पास एक टाइटिल तैयार है - जगत सीरीज़ का ! नाॅवल ओम प्रकाश शर्मा के नाम से छपेगा !"
गुप्ता जी ने एक कवर डिजाइन का कलर प्रूफ मेरे सामने रख दिया ! टाइटिल पर लिखा था - "जगत की अरब यात्रा"
लेखक के नाम की जगह "ओम प्रकाश शर्मा" छपा था !
गुप्ता जी फिर बोले - "अगर आप इस टाइटिल पर नाॅवल लिख सकते हैं तो लिखना शुरु कर दीजिये, पर उपन्यास हमें दस दिन में कम्प्लीट चाहिए ! सताइस-अट्ठाइस लाइन से आठ फार्म लिखने होंगे !"
फिर गुप्ता जी को लगा कि फार्म का मतलब शायद मैं न समझा होऊँ, बोले - "कुल एक सौ अट्ठाइस पेज लिखने होंगे ! पर कहानी हमें पसन्द आयेगी, तभी छापेंगे, वरना आपकी मेहनत बेकार भी जा सकती है !"
"जी...!" मैंने सब कुछ समझने के अन्दाज़ में सिर हिलाया !
"और उपन्यास दस दिन में पूरा करना होगा, लेकिन कम्पलीट करने से पहले आप अगले संडे को यहां आइये, तब तक जितना भी मैटर लिखा हो साथ ले आइयेगा !" गुप्ता जी ने कहा !
तब मुझे नहीं पता था कि संडे को तो मेरी क्लास लगनी है !
क्रमशः
इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय
©योगेश मित्तल
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