इंसान जिद्द पर आ जाए तो क्या नहीं कर सकता ! पर जिद्द अच्छी बातों के लिए हो तो ठीक ही रहती हैं ! और तब तो एक आदत के अलावा मुझ में कोई बुरी आदत थी ही नहीं !
हाँ, बाद में बुरी आदतें भी सीखीं, पर बहुत धीरे-धीरे ! उनका जिक्र भी समय आने पर करूंगा !
अगर आप नौजवान या किशोर ना कहें तो सीधे-सीधे शब्दों में कह सकते हैं कि उन दिनों मैं बहुत आदर्शवादी बच्चा था, बस एक बुरी आदत थी मुझ में! तब मैं बहुत गुस्सैल था! आज जो लोग मुझे जानते हैं, यकीन ही नहीं करते कि कभी मुझे गुस्सा भी आता रहा होगा!
जब गुप्ता जी ने कहा - “उपन्यास दस दिन में पूरा करना होगा, लेकिन कम्पलीट करने से पहले आप अगले संडे को यहां आइये, तब तक जितना भी मैटर लिखा हो साथ ले आइयेगा !"
तब मैंने सोचा – ‘अब उठने का वक्त हो गया है !’
वैसे भी मेरी नज़र में अब कोई बात बाकी रह ही नहीं गयी थी! मैं उठ खड़ा हुआ!
गुप्ता जी ने फ़ौरन टोक दिया -"अरे-अरे, आप तो एकदम खड़े हो गए ! अभी हमने आपको जाने की इज़ाज़त कहाँ दी है!"
दोस्तों, आप समझ रहे हो न मेरी हालत! जिस शख्स ने घर से बाहर निकल - लोगों के बीच, बड़े-बड़े लोगों के बीच उठना-बैठना भी न सीखा हो! जिसे किसी भी शख्स से बात करते हुए घबराहट होती हो, गुप्ता जी के सामने क्या उसका दम नहीं निकल रहा होगा! मेरी तो अपने दोस्तों अरुण कुमार शर्मा और बिमल चटर्जी के सामने भी अक्सर हालत पतली हो जाती थी!
मैं फिर से बैठ गया और गुप्ता जी की तरफ देखने लगा !
गुप्ता जी ने साइड में रखे पेन स्टैंड से एक पेन निकाल लिया था और वहीं रखे एक पैड से एक कागज़ फाड़ कर उस पर कुछ लिखने लगे! लिखकर कागज़ मोड़ लिया और फिर मेरी तरफ देखकर बोले - "अभी हमारे बीच बिज़नेस की बात तो हुई ही नहीं !"
मेरी समझ में कुछ नहीं आया! सच, आप मज़ाक न समझें - मैं आज जितना चतुर-चालाक-समझदार समझा जाता हूँ, तब था ही नहीं! मेरी समझ में सचमुच नहीं आया था कि गुप्ता जी किस बिज़नेस की बात कर रहे हैं!
बिमल चटर्जी के लिए कहानियाँ लिखता था, वह जो देते ले लेता था! पंकज पॉकेट बुक्स के लिए - तो उसके मालिक बिमल जैन ने जो दिया, ले लिया! कभी अपने मुँह से कुछ कहा ही नहीं! इसलिए भोलेपन से ही मैंने पूछा - "बिज़नेस, कैसे बिज़नेस की बात?"
"योगेश जी, अभी हमारे बीच लेन-देन की बात तो हुई ही नहीं! अगर आपका उपन्यास हमें पसंद आता है तो आप हमसे कितना पारिश्रमिक लेंगे?" गुप्ता जी ने पूछा!
मेरे लिए यह असमंजस वाली स्थिति थी! लोग एक उपन्यास का कितना लेते हैं, प्रकाशक लेखक को कितना देते हैं, मुझे कुछ भी मालूम नहीं था! पहले सोचा - जितना बिमल चटर्जी मुझे देते रहे हैं, वही कह दूँ! पर मुँह से निकला -"जो मर्ज़ी हो, दे दीजियेगा!"
गुप्ता जी ने मोड़ी हुई पर्ची की तहें खोली और मेरी तरफ बढ़ा दी ! मैंने पर्ची देखी, उस पर अंकों में लिखा था – 75 Rs.
'अभी हम आपको इतना ही देंगे! और पारिश्रमिक स्क्रिप्ट पढ़ने-पसंद करने के बाद ही देंगे!" गुप्ता जी ने कहा, फिर मेरी आँखों में झाँकते हुए बोले - "ठीक है ?"
उस पूरे दौर में पहली बार मेरे चेहरे पर मुस्कान ने जन्म लिया!
"ठीक है !" मैंने कहा, पर सच तो यह था कि मुझे लग रहा था - मेरे नाम लॉटरी निकल आई हो !
वापसी में मैंने चांदनी चौक तक का रिक्शा किया! फिर वहां से तांगा पकड़ गांधी नगर पहुंचा !
जब मैं घर पहुंचा अरुण मेरे घर पर ही था ! घर क्या था - घर के नाम पर एक छोटा सा कमरा था ! शायद आठ बाई छह फुट का ! साथ ही कमरे से जुडी बहुत छोटी सी रसोई थी ! एक मकान में एक-एक कमरे में रहने वाले छह परिवार थे !
अरुण हमारे कमरे के बाहर के बरामदे में पडी चारपाई पर बैठा था ! उसके हाथ में रुल्ड फुलस्केप पेपर्स का मोटा सा पुलंदा था !
"यह क्या है ?" मैंने पूछा !
"ये चार बाल पॉकेट बुक्स हैं, तू ज़रा पढ़कर सही कर दे !" अरुण ने कहा !
मुझे अरुण पर तरस आया - 'क्यों यह इतनी मेहनत कर रहा है !'
पर यह न कहकर मैंने यह कहा कि वो पहले जो ठीक की थीं, उनका क्या हुआ ?
"गौरी भाई साहब को दे दीं !" अरुण ने कहा - "पेमेंट भी मिल गयी !"
"क्या ?" मैं आश्चर्यचकित होकर बोला -"इतनी काट-पीट वाली कहानियाँ उन्होंने ले लीं ?"
"पागल है क्या? इतनी काट-पीट वाली उन्हें देकर गालियाँ खानी थी? सारी की सारी दोबारा रीराइट करके देकर आया था! एक हफ्ता पढ़ने में लगाया, फिर पैसे दे दिए! अब तू फिर काट-पीट करेगा तो फिर रीराइट करके देकर आऊँगा !" अरुण ने कहा ! फिर मुझसे पूछा - "तू बता हो आया भारती पॉकेट बुक्स ?"
मैंने सारा ब्यौरा बताया और बोला - "पर टाइम बहुत कम दिया है ! सिर्फ दस दिन में स्क्रिप्ट पूरी करनी होगी !"
"दस दिन कम हैं? रोज दो फ़ार्म लिखेगा तो चार दिन में नॉवल तैयार !" अरुण ने कहा -"आज रात लगकर तू मेरी कहानियाँ सही कर दे, कल से अपना नॉवल शुरू कर देना! फिर संडे को पूरा नॉवल ही ले जाना ! पहले तू कुछ फार्म लिखकर दिखाने जाएगा, फिर नॉवल पूरा करके ले जाएगा ! तेरा टाइम नहीं खराब होगा !"
मुझे अरुण की बात जमी ! सोचा - 'हाँ, मैं तो चार दिन में भी नॉवल पूरा कर सकता हूँ !'
रात को लिखने की मुझे आदत थी ! पहले भी पूरी-पूरी रात जाग-जागकर कई बार लेखन कार्य किया था !
पर वह रात क़यामत की रात थी !
रात साढ़े नौ बजे थे कि मकानमालिक जगदीश गुप्ता घुमते हुए आ गए! उस समय घर का मुख्य द्वार भी खुला था, जिसे दस बजे कोई न कोई किरायेदार अंदर से कुंडी लगाकर बंदकर लेता था! उनका एक दूसरा मकान भी था, वहीं रहते थे! दिन में अक्सर आते थे, पर उस रोज, रात को आ धमके! सभी किरायेदारों की लाइट बुझी हुई थी, सिर्फ हमारी जल रही थी! जगदीश गुप्ता सीधे हमारे कमरे में घुस आये और कड़ककर बोले -"लाइट कैसे जल रही है अब तक ?"
दरअसल उन दिनों गांधीनगर में हर मकानमालिक किराए के अलावा अपने किरायेदारों से साठ वाट के बिजली के बल्व के दो रूपये महीना और पंखे के पाँच रूपये लेते थे, लेकिन यह शर्त होती थी कि लाइट नौ बजे के बाद नहीं जलेगी !
खैर, उस समय तो मुझे बुरी तरह फटकारा जगदीश गुप्ता ने और धमकी दी कि दोबारा लाइट नौ बजे के बाद जली देखी तो कनेक्शन ही काट देंगे, तब मरते रहना अँधेरे में !
हमारे यहां की लाइट मैंने क्या बंद करनी थी, जगदीश गुप्ता ने ही बंद कर दी! उस समय जगदीश गुप्ता को भी कहाँ पता था कि एक दिन स्वयं वह मेरे लिए मीठा रसगुल्ला बनने वाले हैं!
जगदीश गुप्ता के जाने के बाद मेरी माता जी और बड़ी बहन ने भी मुझसे कहा कि अचानक ही गुप्ता जी ने घर से निकाल दिया तो कहाँ भटकते फिरेंगे !
खैर, लाइट बंद हो गयी तो भी भगवान् ने मेरे लिए बत्ती जला रखी थी !
मकान के मुख्य द्वार के साथ ही स्ट्रीट लाइट का एक पोल था, जिसकी ट्यूबलाइट की रोशनी छत पर अच्छी तरह पड़ती थी !
मैं छत पर गया और पेन निकाल, मशीन की तरह चालू हो गया ! अगले दिन मैंने अरुण के सभी बाल उपन्यास करेक्शन करके अरुण को दे दिए ! फिर सरकारी ट्यूबलाइट की रोशनी का फायदा उठा, “जगत की अरब यात्रा” शुक्रवार की रात तक ही कम्पलीट कर लिया ! इस तरह चार दिन में नॉवल कम्पलीट करने की जिद्द मन में ठानी तो नॉवल पूरा भी हो गया! अब शनिवार का दिन मस्ती का था और रविवार के लिए दिल में धुकधुकी थी!
रविवार को भी हमेशा की तरह मैं जल्दी ही तैयार हो गया और इंतज़ार करने लगा कि कब दस बजे और कब मैं निकलूं ! इश्क़ करने वाले आशिक भी पहली बार माशूका से मिलने जाने के लिए इतने व्यग्र नहीं होते होंगे, जितना मैं उस दिन था !
खैर, भारती पाॅकेट बुक्स पहुंचा और पूरी स्क्रिप्ट गुप्ता जी को थमाई तो उन्हें बिजली के करंट जैसा झटका लगा ! अचंभित से बोले -"आपने पूरा नॉवल लिख दिया ? कुछ ठीक-ठाक भी लिखा है या यूँ ही बेगार टाली है ?"
मेरी बोलती बंद ! लगा - अरुण की सलाह मान, जिंदगी की सबसे बड़ी मूर्खता की है !
गुप्ता जी ने अनमने मन से स्क्रिप्ट के दो-चार पेज पलटे, फिर स्क्रिप्ट दराज में रख मुझसे बोले - "इसे पढ़ने में हफ्ता तो लग जाएगा, अगले हफ्ते हम आपको इसकी पेमेंट कर देंगे या स्क्रिप्ट वापस कर देंगे!"
"ठीक है!" कहकर मैं उठने लगा तो लालाराम गुप्ता बोले - " अरे बैठिये, अभी तो हमने चाय भी नहीं पी ! चाय आने दीजिये!"
मैंने सोचा - कितने अच्छे हैं गुप्ता जी ! मेरे आने से पहले ही मेरे लिए चाय के लिए बोला हुआ है!
पर जनाब, इंतज़ार चाय का नहीं था ! गुप्ताजी ने मुझसे बातें करते हुए आधे घंटे से अधिक का समय बिता दिया - पर चाय नहीं आई ! हाँ, जब मैं चाय फिर कभी पीने की बात कहकर उठने की सच्च ही रहा था, तब एक के बाद एक तीन अजनबी भारती पॉकेट बुक्स में दाखिल हुए! पहले शख्स कद में छोटे, पर मुझसे बड़े थे और औसत शरीर के थे!
उनके चेहरे पर बड़ी मीठी सी मुस्कान थी, मेरी तरफ नज़र फेंकते हुए बोले - "और भई!"
अंदाज़ ऐसा था - जैसे मुझे बरसों से जानते हों!
यह राज भारती थे, बाद में जिनका मेरा बरसों साथ रहा!
दूसरे शख्स भारती साहब से कुछ लम्बे, भारी बदन के थे, पर मोटे नहीं कहे जा सकते थे! आँखे बड़ी-बड़ी और चेहरे पर ऐसी हंसी कि सफ़ेद चमकदार दांत भी नज़र आ रहे थे! उन्होंने चेहरा झुकाया और मुंह मेरे कान के पास लाकर बोले - "माँ के पेट से ही लिखना सीखकर आये हो?'
मुझे बहुत गुस्सा आया, पर चेहरे पर मुस्कान सजाये खामोश बैठा रहा!
तब नहीं पता था कि कभी इसी शख्स के लिए मेरी आँखें आंसुओं से भर जाएंगी!
वह यशपाल वालिया थे!
तीसरा शख्स लंबा और पतला था, वह मुझे देखकर मुस्कराया, बोला कुछ नहीं!
वह वीरेंद्र सिंह लौहचब थे ! उनसे मिले मुद्दत हो गयी ! उनके बारे में आज मुझे कुछ नहीं मालूम!
( शेष फिर )
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पुरानी किताबी दुनिया से परिचय
©योगेश मित्तल
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