वीरेन्द्र सिंह लौहचब भारती पाॅकेट बुक्स के दायीं ओर स्थित पुस्तकों के गोदाम टाइप कमरे से लकड़ी की एक कुर्सी निकाल लाये, जिसे मेरे बायीं ओर की दीवार से सटाकर रख दिया ! उस पर भारती साहब (राज भारती) विराजे !
दायीं ओर की कोने की दीवार से सटी खड़ी एक फोल्डिंग कुर्सी, खोलकर मेरे दायीं ओर बिछा दी ! उस पर वालिया साहब बैठ गये !
फिर किताबों के दो-दो बण्डल बिछाकर, छ: बण्डलों से वीरेन्द्र सिंह लौहचब ने अपने लिए स्थान बनाया और किताबों के बण्डलों पर पसर गये !
अब लालाराम गुप्ता ने मुँह खोला ! राज भारती जी से सम्बोधित होते हुए वह बोले -"करतार ! ये योगेश मित्तल हैं ! उपन्यास लिखते हैं !"
फिर मेरी ओर देखते हुए गुप्ता जी ने मुझे बताया -"योगेश जी, ये हैं राज भारती..."
"उपन्यास सम्राट राज भारती !" यशपाल वालिया ने गुप्ता जी को टोका तो गुप्ता जी ने फिर से संशोधन करते हुए परिचय कराया -"साॅरी-साॅरी ! योगेश जी, यह हैं उपन्यास सम्राट राज भारती ! भारती पाॅकेट बुक्स के असली मालिक ! भारती पाॅकेट बुक्स के सर्वेसर्वा !"
फिर गुप्ता जी की निगाह वालिया साहब की तरफ घूमी, साथ ही दायें हाथ की तर्जनी भी ! और फिर वह बोले - "और ये हैं यशपाल वालिया ! सामाजिक उपन्यास लिखने में इनका कोई जवाब नहीं !"
फिर वही तर्जनी वीरेन्द्र सिंह लौहचब की ओर घूमी और गुप्ता जी बोले -"और ये हैं वीरेन्द्र जी ! भारती पाॅकेट बुक्स का कोई काम इनके बिना नहीं होता ! वीपी स्लिप बनाने - बण्डल बनाने - रजिस्टर मेन्टेन करने, माल डिस्पैच कराने, हर काम में एक्सपर्ट और अब तो हम वेद प्रकाश काम्बोज के नाम से इनका लिखा उपन्यास भी छाप रहे हैं !"
वीरेन्द्र सिंह गुप्ता जी की बातों पर मुस्कुराये !
तभी भारती साहब ने मेरी पीठ पर हाथ रखा ! मैंने उनकी ओर देखा तो बोले - "क्यों, मजे आ रहे हैं ना ?"
"मजे ?" मैं बुदबुदाया और भारती साहब की ओर देखा !
मैं कुछ समझा नहीं था !
भारती साहब ने अपनी बात स्पष्ट की -"तेरी उम्र में बच्चे अपने बापू से खर्ची माँगते हैं ! पर तुझे तो इसकी कोई जरूरत ही नहीं ! मजे हुए कि नहीं !"
भारती साहब मेरी जिन्दगी में आनेवाले पहले ऐसे शख़्स थे, जिनका सम्बोधन शुरु से ही बेहद नजदीकी होने का एहसास दिलाता था !
भारती साहब की बात पूरी होते ही वालिया साहब ने मुझसे पूछा -"योगेश जी, पैदा होते ही लिखना शुरु कर दिया था क्या ?"
अब मुझ जैसे भोलेनाथ का तब का जवाब भी सुन लीजिये -"पैदा होते ही कोई कैसे लिख सकता है ?"
मुझे वालिया साहब के शब्दों में छिपा मज़ाक और व्यंग्य समझ में ही नहीं आया था, जबकि कहानियों में मज़ाक और व्यंग शामिल करना मुझे बखूबी आता था !
वीरेन्द्र सिंह ने स्पष्टीकरण किया कि वालिया साहब का मतलब है, जैसे अभिमन्यु ने माँ के पेट में चक्रव्यूह के बारे में जान लिया था, वैसे ही आप भी सब कुछ सीखकर पैदा हुए हो क्या ?और फिर पैदा होते ही नाॅवल लिखना शुरू कर दिया !"
वीरेन्द्र सिंह की बात पर मुझे वालिया साहब पर बहुत गुस्सा आया ! मारे गुस्से के मेरा मुँह कुप्पे सा फूल गया, जिसे सबसे पहले भारती साहब ने लक्ष्य किया और वालिया साहब और वीरेन्द्र सिंह से पंजाबी मिश्रित हिन्दी में बोले - "क्यों परेशान कर रहे हो बेचारे को ? पूछना है तो कोई ढंग की बात पूछो !"
मेरे हृदय में भारती साहब के लिए ढेर सारी श्रद्धा उमड़ी !
"यह आदमी सबसे समझदार है !" तब मैंने सोचा था !
"ढंग की बात ! फिर आप ही पूछ लो !" वालिया साहब ने उस समय ठेठ पंजाबी में कहा था, पर बात मेरी समझ में आ गई !
और तब भारती साहब ने मुझसे एक सवाल पूछा और मैं एकदम आसमान से गिरा !
"तेरी शादी हो गई ?" भारती साहब ने पूछा !
"शादी...!" मैं बौखलाया -"अभी तो मैं..."
"छोटा हूँ...बच्चा हूँ ! यही कहना है न आपको !" वालिया साहब मेरी बात पूरी होने से पहले बोले -"नाॅवल तो आप बड़े-बड़ों वाले लिख रहे हो ! जगत सीरीज में क्या होता है, मालूम है न आपको ?"
"और फिर शादी कोई ऐसी बात नहीं है, जो छोटी उम्र में न हो सके ! राजस्थान में तो आज भी दो-दो साल के लड़के-लड़कियों की शादी हो जाती है ! आपकी भी हो गई हो तो बता दीजिये !" इस बार मुँह खोला था वीरेन्द्र सिंह ने !
"मेरी नहीं हुई !" बमुश्किल अपना गुस्सा पीते हुए मैंने कहा तो वालिया साहब तुरन्त बोले -"तो करवा दें ?"
"नहीं !" मैं एक झटके से बोला ! आवाज में गुस्सा तब शायद वालिया साहब ने भी नोट कर लिया, बोले -"योगेश जी, आप तो गुस्सा हो रहे हो ? हम तो मज़ाक कर रहे हैं !"
"मुझे ऐसे मज़ाक पसन्द नहीं !" मैं गुस्से से बोला !
भारती साहब का हाथ तभी मेरी पीठ पर आया -"तो कैसे मजाक पसन्द हैं, तू ही बता दे ! अब ये सब वैसे ही मज़ाक करेंगे !"
मैंने भारती साहब को यूँ देखा, जैसे उनके शब्दों पर विश्वास ही नहीं हो रहा हो, मैं तो उन्हें अपनी 'साइड' समझ रहा था !
सम्भवत: भारती साहब कुछ भाँप गये ! तुरन्त ही चेहरा घुमा लालाराम गुप्ता जी से बोले -"तूने योगेश जी को चाय-वाय पिलाई या नहीं ?"
"बस, मँगाने ही जा रहा था ! तुम लोगों का इन्तजार कर रहा था !" गुप्ता जी ने कहा !
"तो अब तो हम आ गये ! फटाफट चाय मँगाइये गुप्ता जी !" वालिया साहब बोले !
गुप्ता जी ने पण्डित जी को आवाज दी !
पण्डित जी शायद नजदीक नहीं थे ! रिस्पांस नहीं मिली तो गुप्ता जी ने वीरेन्द्र सिंह से ही अनुरोध किया - "जरा आप ही ऊपर चाय के लिए बोल दीजिये !" फिर आँख दबाते हुए बोले -"योगेश जी के लिए दो कप बोलियेगा !"
तब आँख मारने या आँख दबाने के संकेतों से मैं पूरी तरह अनजान था, तत्काल बोला -"नहीं, मैं एक ही कप पियूँगा !"
गुप्ता जी हँसे ! वीरेन्द्र सिंह से बोले -"जाओ, बोल दो !"
वीरेन्द्र सिंह बाहर निकल, सामने वाले मकान में दाखिल हो गये !
तभी वालिया साहब ने अपनी कुर्सी मेरे और करीब खींच ली और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले -"आपके बाल बहुत अच्छे हैं ! बिल्कुल देवानन्द लग रहे हो !"
मैंने उसे अपनी तारीफ समझा और खुश हो गया ! तब मैं अपने बाल आगे से उठे हुए गुफ्फेदार देवानन्द स्टाइल में ही काढ़ा करता था, मगर तब तक मैंने देवानन्द की एक भी फिल्म नहीं देखी थी, सिर्फ फिल्मी पत्रिकाओं में उसकी तस्वीर देखी थी !
वालिया साहब का हाथ सिर से मेरे कन्धे पर चला गया और अपना चेहरा मेरी ओर झुकाते हुए बड़े प्यार से बोले -"आप गुस्सा हो ?"
मैंने "नहीं" में सिर हिला दिया !
"नहीं, आप गुस्सा हो !" वालिया साहब फिर बोले -"मारे गुस्से के आपकी आँखों में आँसू भी आ रहे हैं !"
वालिया साहब ने ठीक पकड़ा था ! उस वक्त मारे गुस्से के और स्वयं को अपमानित महसूस कर, मेरी आँखें नम थीं ! आँसू आये तो नहीं थे, पर कभी भी टपक सकते थे !
दोस्तों ! अब तो आप समझ गये होगे कि मेरी क्लास ली जा रही थी और क्लास लेनेवाले मामूली शिक्षक नही, सबके सब हेडमास्टर थे ! उनके मज़ाक और व्यंग कभी मैं समझ जाता, कभी सिर के ऊपर से गुजर जाते ! हो सकता है - तब के शब्द मैंने हुबहू पेश न किये हों, पर एक-एक भाव बिल्कुल सही है ! हाँ, पंजाबीमिश्रित हिन्दी और ठेठ पंजाबी में की गई उनकी बातें और कमेन्ट्स भाव समझने के बावजूद हुबहू नहीं हैं, क्योंकि आज भी मेरी पंजाबी उतनी धांसू नहीं है, जितनी एक आम दिल्लीवासी की होती है !
मेरे इन्कार करने पर भी कि मैं गुस्सा नहीं हूँ, वालिया साहब फिर बोले -"नहीं, आप गुस्सा हो ! लो गुस्सा थूक दो !" उन्होंने सामने पड़ी ऐश-ट्रे उठाकर मेरे मुँह के बिल्कुल करीब कर दी ! बेसाख्ता मुझे हँसी आ गई !
"हाँ...ये हुई न बात !" वालिया साहब ने ऐश-ट्रे मेरे मुँह के सामने से हटा ली और बोले -"योगेश जी ! हम सब तो आपके फैन हैं !" फिर दायें हाथ की अँगुली ऊपर उठा, सीलिंग से लटकते हुए पंखे की ओर इशारा किया -"वो वाले !"
इस बार मुझे गुस्सा नहीं आया ! चेहरे की हंसी बरकरार रही ! तभी वालिया साहब ने फिर कहा _ "हम सब तो चिड़ियाघर जा रहे थे, पर गुप्ता जी ने आपके बारे में बताया तो देखने आ गए !"
प्यारे बन्धुगणों, मेरी उम्र बेशक कम थी, पर मैं निरा बच्चा नहीं था ! एक बार फिर मुझे बुरा तो लगा. पर अपने चेहरे पर मैंने कोई भाव नहीं आने दिया !
पढ़ाई के दिनों में मेरी गिनती अच्छे विद्यार्थियों में होती थी ! जानता था, हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, इसलिए सोच लिया अब अपने चेहरे पर कोई भाव न आने दूंगा ! थक-हारकर ये सीनियर-दिग्गज-महारथी मुझे बख्श देंगे, पर मेरा ख्याल गलत था !
अभी तो क्लास शुरू हुई थी !
तभी वीरेंद्र सिंह वापस आ गए ! उन्हें रास्ता देने के लिए वालिया साहब ने अपनी कुर्सी हटाई, पीछे की और वीरेंद्र सिंह के अंदर आये और किताबों के बण्डल वाली अपनी सीट पर पसरते हुए बोले - "योगेश जी, आपकी कोई माशूका है ?"
हे भगवान ! बस, इसी सवाल की कसर रह गयी थी ! उन दिनों 'गर्ल फ्रेंड' जैसा शब्द प्रचलन में नहीं था, पर माशूका का मतलब मैं जानता था !
वीरेंद्र सिंह के सवाल पर मेरी क्या हालत हुई, क्या बताऊँ ! पर हाँ, यदि किसी नॉवल में मुझे सीन लिखना होता तो यही लिखता कि शर्म के मारे मेरे गाल लाल हो गए !
पर वहां आइना भी नहीं था, जो मैं अपना चेहरा देख पाता ! तभी वालिया साहब बोले _"माशूका नहीं समझे ! माशूका उर्दू का शब्द है, इसका मतलब है प्रेमिका !"
"मालूम है !" हठात ही मेरे मुंह से निकल गया !
इसके बाद मेरी खिंचाई कहाँ तक पहुंची होगी, क्या आप अनुमान लगा सकते हैं ?
(शेष फिर)
इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय
©योगेश मित्तल
Dhanyewad ji
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