पुरानी किताबी दुनिया से परिचय - 9 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

बुधवार, 3 मार्च 2021

पुरानी किताबी दुनिया से परिचय - 9

ज सोचता हूँ - मेरी वो खिंचाई अस्वाभाविक नहीं थी ! मेरे सामने कोई अजूबा आ जाये तो उसकी हकीकत जानने के लिए मैं भी कुछ तो शगूफे छेड़ूँगा ही !

"माशूका नहीं समझे ! माशूका उर्दू का शब्द है, इसका मतलब है प्रेमिका !” जब वालिया साहब ने मुझसे कहा और हठात ही मेरे मुंह से निकल गया था - "मालूम है !”

तब इससे पहले की कोई और कोई भी प्रतिक्रिया देता,  शुरु से खामोश बैठे गुप्ता जी (लालाराम गुप्ता) ने अब पहली बार मुँह खोला, बोले -"योगेश जी को सब पता है, इन्हें आप सब बच्चा मत समझिये !" और इसी के साथ उन्होंने दराज में रखी "जगत की अरब यात्रा" की मेरी स्क्रिप्ट निकालकर राज भारती जी की ओर बढ़ा दी !

अब सोचता हूँ तो लगता है कि उस समय गुप्ता जी को अवश्य ही मुझ पर तरस आ गया होगा !

गुप्ता जी ने स्क्रिप्ट क्या बढ़ाई, माहौल में एकदम सन्नाटा छा गया ! सबकी नज़रें मेरी स्क्रिप्ट पर ठहर गई थीं !
तभी कहीं कोई कुण्डी खड़की थी ! 

गुप्ता जी स्वयं उठ गये ! वालिया साहब ने अपनी कुर्सी  मेरी कुर्सी से दूर कर ली ! 

गुप्ता जी के बाहर निकलने का रास्ता बन गया ! गुप्ता जी बाहर निकले, जब लौटे तो एक केतली में चाय और एक हाथ की अँगुलियों में कुछ कप लटक रहे थे ! आॅफिस की दायीं दीवार पर एक आला था ! दो कप पहले से ही वहाँ रखे थे !

गुप्ता जी पुराने उत्तर भारतीय संस्कारों से बंधे धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, उनके आॅफिस में "गुप्तानी जी" को आते-जाते हमने कभी नहीं देखा !

वापस अपनी कुर्सी पर बैठने के बाद गुप्ता जी ने सभी के लिए कप बिछा दिये और केतली से चाय उड़ेलने लगे !
पर मेरी नज़र भारती साहब पर भी थी, जो मेरी स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते जा रहे थे, सरसरी नज़र से देखते हुए ! वालिया साहब और लौहचब भाई की नज़रें उस समय भारती साहब पर ही थीं !

तभी गुप्ता जी ने भारती साहब से कहा - "करतार ! मैंने तो योगेश जी को दस दिन का टाइम दिया था, पर ये तो पाँच दिन में ही ले आये और मुझे लगता है - मैटर कम नहीं पड़ेगा, बढ़ सकता है ! अट्ठाइस की जगह तीस लाइन करवानी पड़ सकती हैं !"

"हुम्म !" भारती साहब ने एक हुंकार भरी और उन्होंने शुरू के पेज यूं ही सरसरी नज़र से देखते हुए पलट दिए ! फिर चाय का कप उठाते हुए, काफी पन्नों बाद बीच में कहीं पर ठहर गए और ध्यान से बीच के पन्नों से कोई दृश्य पढ़ने लगे ! 

चाय के घूँट-घूँट भरते, वह पढ़ते रहे ! पन्ने पलटते रहे ! 

बाकी सब भी चाय की चुश्कियाँ लेते हुए भारती साहब की ओर देखते रहे ! मैं भी !

चाय का कप खाली होते ही भारती साहब ने स्क्रिप्ट बन्द कर दी और मेरी पीठ थपथपाई ! फिर मेरी ओर देखते हुए अंग्रेजी में कुछ कहा, जो  धड़कते दिल के साथ अच्छे-बुरे विचारों में घिरा मैं ठीक से नहीं सुन सका ! बाद में एक बार भारती साहब से पूछा तो वह हँस दिये, बोले -"कहा होगा कुछ ! अब तू वो सब मत सोच ! आगे की सोच !"
पर आज यह संस्मरण लिखते हुए सोचता हूँ कि उन्होंने "Keep it up" या वैसा ही कुछ कहा होगा ! क्योंकि उसके तुरन्त ही बाद उन्होंने लालाराम गुप्ता जी से कहा -"तेरे तो मजे हैं ! बैठे-बिठाये हीरा मिल गया ! पैसे-वैसे दिये इसे ?"

"पैसे भी देंगे और पार्टी भी करेंगे, पर अभी नहीं !" गुप्ता जी बोले !

"अभी क्यों नहीं ?" भारती साहब बोले !

तभी वालिया साहब ने भारती साहब के एक हाथ के नीचे दबी स्क्रिप्ट खींच ली ! भारती साहब ने एक नजर वालिया साहब की ओर देखा और मुस्कुरा कर बोले -"पढ़ ! तू भी पढ़ !"

उसके बाद तुरन्त गुप्ता जी की ओर घूमकर अधिकारपूर्ण स्वर में बोले -"पैसे दे इसे !"

आपने किसी फिल्म में किसी अभिनेता का डायलाॅग सुना होगा कि मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी मिल जानी चाहिए ! कुछ वैसा ही अधिकारपूर्ण कहना था भारती साहब का ! 

पर लालाराम गुप्ता बोले -"दे दूँगा ! तू उसकी चिन्ता मत कर !"

"दे दूँगा क्या होता है, अभी दे !" भारती साहब दबंग होकर बोले !

"अगले हफ्ते दे दूँगा ! ‘मेरी योगेश जी की’ बात हो गई है !" गुप्ता जी ने कहा !

"अगले हफ्ते क्यों ? अभी क्यों नहीं ? तूने स्क्रिप्ट पढ़ी ?" भारती साहब बोले !

"नहीं पढ़ी, इसीलिए तो..." गुप्ता जी बोले तो भारती साहब फिर तेज आवाज में बोल उठे -"नहीं पढ़ी तो अभी पढ़ और पैसे दे !"

अब गुप्ता जी ने अपना आखिरी हथियार फेंक दिया, जो बाद में भी मैंने अनेकों बार फेंकते देखा था, जब उन्होंने किसी को पैसे नहीं देने होते थे !

गर्दन लटकाकर टेढ़ी करते हुए बोले -"पैसे नहीं है ! सच, अभी हालत बहुत टाइट है !"

अब भारती साहब शांत और खामोश हो गये ! एक क्षण चुप रहने के बाद गम्भीर स्वर में बोले - "अगले हफ्ते पक्का ! कहीं से भी करके !"

"पक्का !" गुप्ता जी ने कहा !

उस दौरान वालिया साहब मेरी स्क्रिप्ट पढ़नी शुरु कर चुके थे !

भारती साहब ने गुप्ता जी से 'पक्का' करने के बाद मेरी ओर देखा, बोले -"चिन्ता नहीं करनी, तू बिल्कुल सही जगह आया है !" 

इसके बाद अगली एक लाइन उन्होंने पंजाबी में कही थी, तब उन्हें नहीं मालूम था कि मैं पंजाबी बोलने में जीरो और समझने में अनुमान के बल पर अर्थ लगाता हूँ ! यह और बात है कि मेरे अनुमान हमेशा सटीक बैठते रहे हैं !
तो इसके बाद भारती साहब ने पंजाबी में जो कहा, उसका मतलब था ‘एक दिन सारे प्रकाशक तेरा लोहा मानेंगे !’
और बाद में एक वक्त ऐसा ही आया, जब बाद में ख्याति प्राप्त करनेवाले बहुत से लेखकों से ज्यादा प्रकाशकों में, ख़ास तौर से प्रकाशकों में, मैं बहुत ज्यादा लोकप्रिय था !

यही नहीं प्रकाशकों के स्टाॅफ, प्रिन्टिंग प्रेसवालों, बाइन्डर्स और नये-पुराने लेखकों में भी मैं बेहद प्रिय रहा ! 
मुरादाबाद के लेखक नरेश सिंह चौहान तथा अन्य बहुत से लेखक इस बारे में बेहतर बता सकते हैं !   बहुत से ऐसे लेखक, जिनकी उनके जीवन में एक ही पुस्तक पाॅकेट बुक्स में छपी, अक्सर मिलने पर आज भी मेरे पैर छूते हैं ! कारण - प्रकाशकों के अनुरोध पर उनकी कृति को मैंने सम्पादित करते हुए कुछ बेहतर दृश्य जोड़, न केवल छपने लायक बनाया, बल्कि उन्हें उनके सर्कल में बेहद लोकप्रिय बनाने में भरपूर योगदान दिया, पर उन सभी का नाम मत पूछियेगा !  

कुछ सच्चाइयां परदे के पीछे ही अच्छी रहती हैं ! अच्छी लगती हैं !

बहरहाल इधर भारती साहब मुझसे बड़ी आत्मीयता से बातें करने लगे, उधर वालिया साहब मेरी स्क्रिप्ट में खोये हुए थे ! काफी देर बाद स्क्रिप्ट बन्द कर वालिया साहब ने वीरेन्द्र सिंह की ओर बढ़ा दी और एकदम कुर्सी से उठ खड़े हुए और झुक कर, मेरी ओर बढ़ते हुए बोले - "योगेश जी...योगेश जी ! आपके चरण कहाँ हैं ?"
और वह यूँ लपके, जैसे सचमुच मेरे पैर छूने जा रहे हों, पर जो कुछ उन्होंने किया, उससे सभी के होठों से ठहाके निकल गये !

वालिया साहब ने दोनों हाथों से मुझे ऊपर उठा लिया ! फिर बोले -"यार, आप तो मेरी बीबी से भी हल्के हो !"
तो यह थे असली वालिया साहब ! मोहब्बत से भरे हुए ! 

जो लोग वालिया साहब के जीवन काल में दो-चार बार भी उनसे मिले हैं, मेरे साथ वालिया साहब का यह दृश्य पढ़ते ही उनकी आँखों के आगे यशपाल वालिया का चेहरा घूम जाना लाज़मी है !

वालिया साहब मुझे उठाये हुए ही थे कि तभी वीरेन्द्र सिंह ने भी खड़े होकर मेरी पीठ थपथपाई ! उन्होंने ज्यादा लाइनें नहीं पढ़ी थीं, पर भारती साहब और वालिया साहब की प्रतिक्रिया देखकर ही 'खत का मजमूँ लिफाफे से ही भाँपते हुए' स्क्रिप्ट गुप्ता जी की ओर बढ़ा दी थी !

गुप्ता जी ने मुझसे कहा था कि पेमेन्ट हम स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद पसन्द आने पर ही देंगे ! नहीं पसन्द आई तो स्क्रिप्ट वापस कर देंगे ! 

और यह सब मुझे एक हफ्ते बाद मालूम होना था, पर अपने एक्ज़ाम का रिजल्ट मुझे उसी दिन मालूम हो गया था !
(शेष फिर )

इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय

©योगेश मित्तल

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