कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 3 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

बुधवार, 7 जुलाई 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 3


उन दिनों मैं मेरठ ही रह रहा था। 


कभी देवीनगर में अपनी सबसे बड़ी बहन प्रतिमा जैन के यहाँ तो कभी हरीनगर के एक बहुत बड़े मकान के अलग-अलग पोर्शन में रहने वाले अपने चार मामाओं में से दूसरे नम्बर के मामाजी रामाकान्त गुप्ता जी के यहाँ या तीसरे नम्बर के मामाजी विजयकान्त गुप्ता के यहाँ। 


सभी मामाओं के बच्चे मुझे सगे भाई जैसा मान और प्यार देते थे। 


रामाकान्त मामाजी की पाँचों बेटियों ने मुझे हमेशा सगे भाई जैसा मान और प्यार दिया है। उस समय बड़ी दो बेटियों संगीता और सविता का विवाह हो चुका था। छोटी तीनों बेटियों सरिता, अंजू और राखी के साथ अक्सर मैं लूडो या कैरमबोर्ड भी खेला करता था और कभी-कभी कोई कहानी भी सुनाता था, जबकि विजयकान्त मामाजी की बेटियाँ पूनम और नीलू तथा बेटे बबलू और टीनू मुझे देखते ही "भैया, कोई कहानी सुनाओ" की रट लगाकर घेर लेते थे। 


रिश्तों और रिश्तेदारियों में उन दिनों बेपनाह और निस्वार्थ प्यार होता था और मुझे तो आज भी सभी से वही प्यार और सम्मान हासिल है। 


मामाजी का मकान ईश्वरपुरी की गली के तुरन्त बाद की गली का पहला ही मकान था। 


उस समय तक भारत में कामिक्स युग की शुरुआत हो चुकी थी और यहाँ पहली हंगामी शुरुआत करने का श्रेय एन. एस. धम्मी स्टुडियो को जाता है, जिसका एक हिस्सा बालक हरविन्दर माँकड़ भी था, जो बाद में लोटपोट से जुड़ने के बाद कामिक्स जगत का सुपर स्टार बना। 


उस समय तक मैं नूतन कॉमिक्स, राज कॉमिक्स, मनोज कॉमिक्स और राधा कॉमिक्स के लिए अपना कुछ न कुछ योगदान दे चुका था। लेकिन यह किस्सा कॉमिक्स की दुनिया में फिर कभी....। 


आप सोचेंगे कि कॉमिक्स की दुनिया में एक नया आयाम लिखने वाले चचा चौधरी फेम के 'प्राण' का नाम न लेकर, मैंने एन. एस. धम्मी और हरविन्दर माँकड़ का जिक्र क्यों किया है तो सच्चाई और आँकड़ों के साथ इस विषय पर विस्तार से कॉमिक्स की दुनिया के कालम में लिखूँगा। 


चूँकि मामाजी का घर ईश्वरपुरी के बाद की ही गली में था तो जब भी मैं मामाजी के यहाँ ठहरता, घूमने के लिए बाहर निकलता तो हमेशा मेरा रुख ईश्वरपुरी की तरफ होता था। 


उस रोज ईश्वरपुरी पहुँचा तो वेद भाई से मुलाकात हो गई। मुझे देखते ही बोले - "यहीं मामाजी के यहाँ ठहरे हो?"


"हाँ।" मैंने कहा। 


"अच्छा हुआ, यहीं मिल गये, कर्नल साहब आपको बुलाने वाले थे।" वेद प्रकाश शर्मा जी की एक खास बात मैंने नोट की थी, सुरेश चन्द जैन (रितुराज - कनरल सुरेश) के बारे में बात करते हुए कभी तो मुझसे 'सुरेश जी' कहकर जिक्र करते थे और कभी 'कर्नल साहब', लेकिन लहज़े में सदैव आदर की भावना अवश्य होती थी। 


मैंने पूछा - "कहाँ होंगे सुरेश जी? डी. एन. कालेज...?"


"नहीं, अभी यहीं हैं। आफिस में ही हैं। आप मिल लो। मैं चलता हूँ।" और वेद भाई, यह जा और  वह जा...।ईश्वरपुरी से निकल गये। शायद वह डी.एन. कालेज के सामने तुलसी पाकेट बुक्स के आफिस जाने के लिए निकल गये हों। 


मैं ईश्वरपुरी कंचन पाकेट बुक्स के आफिस में पहुँचा। सुरेश चन्द जैन उस समय आफिस में ही थे। मुझे देखते ही बोले - "यार, कहाँ रहते हो। वैसे तो दिन भर घूमते रहते हो, मगर काम होता है तो नज़र नहीं आते।"


"क्या काम पड़ गया?" मैंने पूछा। 


"तीन चार कहानियाँ हैं। उन्हें रीराइट करना है।" सुरेश जी ने कहा। 


"रीराइट.,.. यह काम तो किसी से भी करवा सकते हैं। इसके लिए मेरी क्या...."


"नहीं, यह काम आप ही कर सकते हो।" सुरेश जी ने कहा । 


"ऐसा क्या काम है...?" मुझे आश्चर्य ही हुआ। 


"कुछ कहानियाँ हैं, उन्हें सिम्पल तरीके से लिखा हुआ है, उन्हें कामिक्स के लिए जैसे लिखते हैं, वैसे लिखना है?"


"ओह... ठीक है... आप कहानियाँ दे दीजिये, मैं तीन चार दिन में दे जाऊँगा।" 


"तीन चार दिन नहीं, इतना टाइम नहीं है। आज ही आज में काम करना है।" सुरेश जी बोले। 


"आज ही आज में तीन चार कहानी कैसे होंगी?" मैंने कहा। 


"यार, हमारे लिए आज रात भी लगा देना। प्लीज़, सुबह का ही प्लेन पकड़ना है। टिकट बुक है।"


"पर रात को, मामाजी ने अपने घर में मुझे एक अलग कमरा दे रखा है। पर रात अचानक उनकी या मामीजी की आँख खुल गई और उन्होंने लाईट जलती देखी तो लैक्चर सुनने को मिलेगा कि बेटा, सो जा। ज्यादा जागेगा तो तबियत खराब हो जायेगी और फिर डाँट पड़ेगी सो अलग..."


"उसका भी इलाज है। आप मामाजी-मामीजी से बोल आओ, रात को घर नहीं आओगे।" सुरेश जी ने सलाह दी और रात आप यहीं, हमारे यहाँ रहकर, सुबह तक सारी कहानियाँ तैयार कर देना।"


बात मुझे जँची। मैंने कहा - "सारी हो पायेंगी या नहीं, कह नहीं सकता, पर कोशिश कर सकता हूँ।"


"ठीक है, कोशिश ही सही। हमें मालूम है - आप कोशिश करोगे तो काम हो ही जायेगा। खाने-पीने और चाय की आप चिन्ता मत करना। जब, जो कहोगे। सब मिलेगा।"


मैंने अपनी जिन्दगी में सिर्फ तीन बार ही रात को भी प्रकाशकों के घर में रहकर, उनके लिए काम किया है। पहली बार तब, जब मेरठ में "मामा" नाम से मशहूर सतीश जैन ने पहली बार पब्लिकेशन किया और ओरियन्टल पॉकेट  बुक्स में मुझसे विक्रांत सीरीज़ का उपन्यास "विक्रांत के दुश्मन" लिखवाया। 


दरअसल सतीश जैन के पास टाइटिल तैयार था, पर स्क्रिप्ट नहीं थी। बाकी किताबें तैयार थीं, बस, एक यही नहीं थी। तब तक मैंने विक्रांत सीरीज़ की महज़ एक या दो ही किताबें पढ़ी थीं, लेकिन विपिन जैन की ज्योति पाकेट बुक्स के लिए 'विक्रांत और वेताल' लिख चुका था, तब सतीश जैन से मैंने कहा भी था कि एक तो मैंने विक्रांत सीरीज़ की किताबें ज्यादा नहीं लिखीं, दूसरे ऐसे दिन-रात लिखने से हो सकता है, स्क्रिप्ट उतनी बेहतर न पड़े तो सतीश जैन बोले - "अरे छोड़ो यार, तुम जो भी लिखोगे। अच्छा ही लिखोगे।"


तब सतीश जैन ने ग्राउण्ड फ्लोर पर ओरियन्टल पाकेट बुक्स का आफिस बनाने के साथ-साथ एक प्रिंटिंग मशीन भी लगा रखी थी और ऊपरी मंजिल पर खुद रहते थे।


वह दूसरा अवसर था, जब मैंने अपने प्रकाशक के यहाँ रात को भी रहकर काम किया। सुबह पाँच बजे के करीब सुरेश जैन जब एकदम तैयार हो कर, मेरे पास आये, उससे कुछ ही देर पहले मैं अपना काम खत्म करके, दोबारा चैक कर रहा था कि कहीं जल्दबाज़ी या नींद की झोंक में कोई चूक न हो गई हो। 


सुरेश जैन ने सुबह मुझसे पूछे बिना, मेरे हाथ में मेरी उम्मीद से कुछ ज्यादा ही रुपये रख दिये और कहा - "योगेश जी, अभी जल्दी है। यह रख लो। कम लगे तो लौटने के बाद हिसाब कर लेंगे।"


और मैं भी उसी समय सुरेश जी के यहाँ से रुखसत हो गया। बाद में जब तुलसी कामिक्स की किताबें मार्केट में आईं तो वेद भाई ने एक बार मुझे फुर्ती से कामिक्स स्क्रिप्ट तैयार करने के लिए मुझे धन्यवाद भी दिया। 


पर वेद के साथ रिश्ते की गहराई सिर्फ इतनी ही नहीं थी। 


तुलसी पाकेट बुक्स से तुलसी पेपर बुक्स के बीच का यह तो महज़ एक पड़ाव था। 


(शेष फिर) 


- योगेश मित्तल

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