दिल्ली में जो लोग रहते हैं, कहीं भी घूम फिर आयें, चैन की साँस, मानों दिल्ली में ही मिलती है।
वैसे तो यह हर शहर में रहने वाले, अपने शहर के लिए महसूस करते हों, पर दिल्ली वालों की बात कुछ और ही है।
दिल्ली के साथ बहुत सी बातें जुड़ जाती हैं। जैसे -
दिल्ली है दिल वालों की।
अब दिल्ली दूर नहीं।
दिल्ली दिल है हिन्दुस्तान का।
और
दिल बड़ा है दिल्ली का, किसी भी गाँव, शहर, प्रान्त, देश का दिल्ली आता है तो दिल्ली का होकर रह जाता है।
बहुत से आक्रांता आये दिल्ली और बार-बार आये। कुछ दिल्ली को लूटकर चले गये तो कुछ यहीं के हो गये।
हम जब कलकत्ता (आज का कोलकाता) रहते थे, दुनिया का सबसे खूबसूरत शहर कलकत्ता ही लगता था। वहाँ बोटानिकल गार्डेन के विशाल बरगद की छाँव में हवाओं के झोंके मन प्रसन्न कर देते थे तो धर्मतल्ला और उसके आस-पास फुटबॉल क्लबों के मैदान एक जुनून सा पैदा कर देते थे और दक्षिणेश्वर, ताड़केश्वर, काली मंदिर, हुगली नदी, डायमंड हार्बर तथा कलकत्ते का कोना-कोना दिल से नहीं, रोम-रोम से जुड़ा लगता था और हम कलकत्ते से बाहर के अपने रिश्तेदारों को 'कलकत्ते' के बारे में यह सब बताते हुए बड़ा गर्व महसूस करते थे कि कलकत्ते में 'कलकत्ता' नाम का तो कोई रेलवे स्टेशन ही नहीं है। एक रेलवे स्टेशन है 'हावड़ा' और दूसरा रेलवे स्टेशन है -'सियालदह' और हवाई अड्डा है - 'दमदम।'
मतलब कलकत्ता में कलकत्ता नाम का कोई हवाई अड्डा भी नहीं है।
और इस लिहाज़ से लोगों को समझाते कि कलकत्ता कितना अनोखा शहर है।
पर कलकत्ता छूटा तो कलकत्ते की बातें भी छूट गईं और जब दिल्ली के हो गये तो दिल्ली की सुबह-शाम सुहानी लगने लगीं।
बाहर से दिल्ली आने वाले, दिल्ली से अपरिचित मेहमानों को हम बताते कि दिल्ली में तीन स्टेशन हैं- शाहदरा, दिल्ली और नई दिल्ली। और अब तो हमने चौथा निज़ामुद्दीन भी जोड़ लिया है। पुराने समय में शाहदरा को हम दिल्ली का प्रवेश द्वार बताया करते थे।
मेरठ से दिल्ली आया तो घर पहुँचने के लिए अन्तर्राज्यीय बस अड्डे से निकल कश्मीरी गेट बस टर्मिनल पर बस का इन्तजार करना भी बड़ा बोझिल काम लगता था, पर हर उकताहट झेल कर, अपने घर पहुँचने से अधिक आनन्द का क्षण दूसरा नहीं हो सकता।
घर पहुँच अपने परिवार के बीच हर पल किसी रोचक फिल्म को देखने के आनन्द जैसा था।
हमारे घर तब एक प्रथा हम अपने बचपन से देखते आ रहे थे, वह यह कि रात का खाना पूरा परिवार एक साथ बैठकर खाया जाता था। मम्मी-पिताजी और सभी भाई बहनों के एक साथ बैठ कर खाना खाने का आनन्द बयान नहीं किया जा सकता ।
उस रात चैन की नींद सोने के बाद, अगले दिन सुबह ही जल्दी तैयार होकर मैं पटेलनगर पहुँचा और सरदार मनोहर सिंह से मिला तो यह जानकर बड़ी निराशा हुई कि खेल खिलाड़ी का तो मैटर भी प्रेस में नहीं गया।
उन दिनों खेल खिलाड़ी पटेलनगर के पार शादी खामपुर स्थित रविन्दर पाल सिंह की प्रेस में छपा करती थी और स्थिति यह थी कि सरदार मनोहर सिंह आर्थिक तंगी के चलते पिछले दो अंकों की कम्पोजिंग - प्रिन्टिंग का बिल नहीं दे पाये थे और रविन्दर पाल सिंह का कहना था कि कम से कम एक इशू की पेमेन्ट तो कर दें, उसे भी वर्कर्स को तनख्वाह देनी है। और जगहों की पेमेन्ट भी लटकी हुई हैं। तनख्वाह नहीं दी तो वर्कर काम छोड़, कहीं और काम कर लेंगे।
तो दोस्तों, उन दिनों ऐसा भी होता था, प्रेस के मालिकों का पूंजीपति होना जरूरी नहीं था।
ऐसे आम मध्यमवर्गीय लोग भी कम्पोजिंग एजेन्सी और प्रिंटिंग प्रेस लगा देते थे, जिनकी गाड़ी प्रकाशकों की पेमेन्ट पर निर्भर रहती थी।
मैंने सरदार मनोहर सिंह से पूछा कि रविन्दर पाल सिंह की पेमेन्ट क्यों नहीं हुई ? क्या मनीआर्डर नहीं आये? बुकसेलर्स ने पैसे नहीं भेजे?"
तो वह बोले - "वीपी मनीआर्डर तो आये हैं, पर कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, बड़े शहरों की पेमेन्ट अभी पाँच-छ: महीनों से नहीं आई है।"
तब मैंने पूछा - "वीपी मनीआर्डर की सारी पेमेन्ट क्या घर के खर्च में खत्म हो गई?"
"नहीं...। पर खर्च हो गई।" मनोहर सिंह ने कहा।
"खर्च हो गई...? कैसे...? कहाँ...?" मैंने पूछा।
तब मनोहर सिंह अचानक मुझसे बोले - "चल मेरे साथ...।"
"कहाँ...?" मैंने पूछा।
"चल तो...।"
और हम खेल खिलाड़ी आफिस से नीचे उतर आये। सीढ़ियों की गैलरी में ही सरदार मनोहर सिंह की मोटर-साइकिल खड़ी थी।
छोटे कद की वजह से मैं मोटर साइकिल पर आराम से नहीं बैठ पाता था, इसलिए मनोहर सिंह हमेशा मोटर साइकिल मेरी तरफ टेढ़ी करके मुझे बैठाते थे, फिर सीधी कर, खुद बैठ कर किक मारकर, स्टार्ट करते थे।
उस दिन मोटर साइकिल स्टार्ट करके उन्होंने साउथ पटेलनगर की ओर दौड़ा दी।
दोस्तों, हमारे लेखक मित्रों में कई का कहना यह रहा है कि प्रकाशक और लेखक में दोस्ती का क्या मतलब है? लेकिन मेरी अपने हर प्रकाशक से ही नहीं, जिनके लिए मैंने कभी नहीं लिखा, उनसे भी गहरी न सही, अपनेपन वाली दोस्ती रही है, ऐसी कि वे अपने सुख-दुख और व्यक्तिगत मामलों की बातें भी मुझसे कर लेते थे। यहाँ तक कि अपनी लवलाइफ के किस्से भी मुझसे शेयर कर लेते थे। वे मजेदार किस्से भी कभी प्रस्तुत करूँगा, लेकिन उनमें सम्बन्धित शख्स का नाम देना, जहाँ मुनासिब नहीं होगा, वहाँ काल्पनिक नामों से काम चलाना पड़ेगा।
सरदार मनोहर सिंह ने मोटर साइकिल साउथ पटेलनगर में सीधी शेरसिंह की दुकान के सामने ले जाकर रोक दी।
आगे बढ़ने से पहले शेरसिंह के बारे में बता दूँ। शेरसिंह सरदार मनोहर सिंह का बरसों पुराना यार था। ऐसा गहरा कि हफ्ते में दो तीन बार दोनों ही साथ में पीने पिलाने की महफ़िल सजाते रहते थे, पर वो शाम और रात की बात होती थी और उस समय तो सुबह के दस ही बजे थे।
"यहाँ क्या मीट लेना है...?" मैंने मोटर साइकिल से उतरते उतरते पूछा तो मनोहर सिंह बहुत धीरे से बोले- "नहीं, तू चुप रह बस...।"
फिर मेरे साथ साथ मनोहर सिंह शेरसिंह की दुकान के बिल्कुल करीब पहुँचे। उस समय दुकान पर एक भी कस्टमर नहीं था।
शेरसिंह ने मधुर मुस्कान के साथ हम दोनों का स्वागत किया और पंजाबी में सवाल किया - "चा मंगावां...।"
"नहीं यार, तू फटाफट नोट-सोट दे दे...। ये योगेश मेरठ गया हुआ था और खेल खिलाड़ी की वजह से अपने सारे काम छोड़ कर दिल्ली आया है और सुबह से मुझ पर गुस्सा हो रहा है। इसके पास टाइम तो होता नहीं, मेरे लिए स्पेशल टाइम निकाल कर मेरा काम करता है। इसके सामने ही वो प्रेस वाला आ गया और बिगड़ने लगा कि वर्कर्स को तनख्वाह देनी है।"
"यार सॉरी... सॉरी यार...। की करां, इन्तजाम ही नहीं हुआ नहीं तो मैं तेरे घर पहुँचा देता...।" शेरसिंह शर्मिन्दगी से सिर झुकाये हुए बोला।
"देख शेरसिंह, तेरी जरूरत पर मैंने एक मिनट नहीं लगाया, तुझे अपने धन्धे की परवाह न कर पैसे दिये, अब तू मेरी इज्जत रख ले, देख, मेरा धन्धा ही बन्द हो गया तो भूखों मरूँगा...। और फिर कभी किसी की मदद भी क्या करूँगा।"
शेरसिंह ने एक उचटती निगाह मुझ पर डाली। फिर अपना गल्ला खोला। उसमें से कुछ सौ-सौ के नोट निकाले। फिर मुट्ठी में बन्द कर, मनोहर सिंह को आगे आने का इशारा किया। मनोहर सिंह आगे को झुके तो शेरसिंह ने मनोहर सिंह का हाथ थाम, उनके हाथ में वो नोट ठूँस दिये और फुसफुसाया - "हाली इतने ही हैं। हुण काम चला, फिर देखते हैं।"
"कितने हैं....?" सरदार मनोहर सिंह ने पूछा।
"एक हज़ार...।"
"यार ये चिड़िया का चुग्गा किस काम आयेगा..? इससे तो मैं योगेश की तनख्वाह भी नहीं दे सकता। पिछले चार महीने की देनी है।" मनोहर सिंह ने नोट शेरसिंह के मुँह पर फेंक दिये।
"यार, नहीं हैं इस वक़्त...।" शेरसिंह भी एकदम गरम हो उठा- "कह रहा हूँ - दे दूँगा। अब नहीं हैं तो क्या अपनी जान दे दूँ...?"
"देख शेरसिंह...।" मनोहर सिंह नरम पड़ते हुए बोले - "अगर इससे काम चलता तो मैं चुपचाप लेकर चला जाता, पर इससे तो रविन्दर पाल का एक बिल भी पूरा नहीं पड़ेगा और जब तक एक बिल क्लीयर नहीं होता...वो आगे काम करने को तैयार नहीं है। देख, कुछ और जुगाड़ कर...।"
शेरसिंह ने एक क्षण सोचने का दिखावा किया। हाँ, मैं उसे दिखावा ही कहूँगा। सरदार मनोहर सिंह की परेशानी से वह जरा भी परेशान नज़र नहीं आ रहा था। कुछ क्षण यूँ ही दायें-बायें निगाह दौड़ाने के बाद उसने अपने कैश बाक्स में फिर हाथ डाला और सौ सौ के कुछ नोट निकाल कर, मनोहर सिंह द्वारा पहले फेंके गये रुपयों में मिलाये और उन्हें सरदार मनोहर सिंह की ओर बढ़ाते हुए रूखे स्वर में पंजाबी में बोला -"ले हुण, चुपचाप टुर जा, होर नहीं है मेरे कोल...।"
सरदार मनोहर सिंह ने रुपये लिए, गिने। कुल दो हज़ार थे। एक क्षण वह नोट देखते रहे, फिर नोट मेरी ओर बढ़ा दिये।
"योगेश, जरा सम्भाल कर रख ले। " वह मुझसे बोले।
मैंने नोट पैण्ट की अन्दरूनी जेब में रख लिये।
एक बार फिर सरदार मनोहर सिंह ने मोटर साइकिल सम्भाली। मुझे बैठाया और दौड़ा दी। रास्ते में बोले - "देख यार, मैंने इसकी समय पर मदद की, पर मेरी जरूरत की इसे चिन्ता ही नहीं है।"
"तुमने शेरसिंह को पैसे दिये हैं?" मैंने पूछा।
"हाँ यार...।"
"कितने...?"
"वो यार, इसका मकान बन रहा है तो मेरे सामने गिड़गड़ाने लगा...।" सरदार मनोहर सिंह बताने लगे, लेकिन वह बात को लम्बा खींच रहे थे तो मैंने बात काट दी और सवाल किया - "कितने दिये हैं?"
"पन्द्रह हज़ार...।" सरदार मनोहर सिंह यूँ बोले, जैसे कोई अपराधी अपना गुनाह स्वीकार कर रहा हो।
"कब दिये थे?" मैंने पूछा।
"तीन महीने हो गये। तब बोला था - पन्द्रह दिन में देता हूँ...। पर कब से माँग रहा हूँ, रोज़ लारा दिये जा रहा है। आज शायद तेरी शर्म कर ली...। मैं इसीलिए तुझे साथ लेकर आया था।"
बातों बातों में मोटर साइकिल साउथ पटेलनगर से वेस्ट पटेल नगर पहुँच गई तो सरदार मनोहर सिंह ने अचानक मोटर साइकिल एक रेहड़ी वाले के सम्मुख रोक दी । रेहड़ी में आलू लदे थे। रेहड़ी वाला एक नाटे कद का मोटा व्यक्ति था, जिसका पेट आगे को निकला हुआ था। वह पर्पल से रंग का मैला-कुचैला कुर्ता पायजामा पहने था।
"ओये बोटे...।" सरदार मनोहर सिंह रेहड़ी में से एक आलू उठा, रेहड़ी वाले को मारते हुए बोले - "ला, पैसे दे फटाफट...।"
"यार, अभी तो सुबह से बोहनी ही नहीं हुई...।" सब्जी वाला बोटा नाम का व्यक्ति रूंआसे स्वर में बोला।
"आज बोहनी नहीं हुई तो उल्लू के पट्ठे, कल तो कमाया होगा। परसों तो कमाया होगा। उससे पहले तो कमाया होगा।"
"कहाँ यार...। बहुत मन्दा है। कुछ बच ही नहीं रहा।" बोटा अपनी पतली सी आवाज में बोला।
अन्ततः बोटे से कुछ नहीं मिला और सरदार मनोहर सिंह ने मोटर साइकिल आगे बढ़ा दी।
"इसे कितने रुपये दे रखे हैं?" मैंने पूछा।
"ढाई हजार...।" सरदार मनोहर सिंह धीरे से बोले।
"कब...?"
"महीना हो गया...।"
"और कितनों को उधार दिया हुआ है?"
"हैं...तीन-चार और...।"
"ऐसे ही ढाई-ढाई हज़ार तो दिये होंगे...?"
"नहीं, एक दो को ज्यादा भी दिये हैं।"
"घर में, भाभी जी को पता है यह सब...?"
"नहीं यार, तू कुछ बोल भी मत देइयो, वरना बवाल हो जायेगा।"
"बवाल तो मचना ही चाहिए...।" मैंने कहा- "दुनिया की मैगज़ीन आफसेट प्रेस पर छप रही हैं और हम अभी तक लैटर प्रेस पर अटके हैं। और लैटर प्रेस में भी कई बार हमें दो-दो महीने का संयुक्तांक निकालना पड़ा है और आप लोगों को उधार दिये जा रहे हो।" मैं एकदम गर्म हो गया।
"यार, सब साथ में खाने-पीने वाले लोग हैं।" सरदार मनोहर सिंह शर्मिन्दगी वाले भाव में बोले।
"अरे तो इन सब लोगों के साथ दारू की महफ़िल जुटाने का भी मतलब क्या है? आपको अकेले पीने की आदत नहीं है तो कैसे भी लोगों के साथ बैठ जाते हो, पर ऐसे में खर्च कौन करता है। ये लोग तो रोज-रोज बोतल मँगाने से रहे।" मैं फिर से गर्म होकर बोला।
"अब यार, पता नहीं था कि ये मेरे साथ ऐसा करेंगे। अच्छा, आगे से ऐसा नहीं करूँगा। ऐसे लोगों के साथ बैठकर नहीं पियूँगा। तू गुस्सा मत हो।"
उसके बाद हमने वहाँ अन्य कई सब्जी वालों की रेड़ियों को तलाश किया, पर अन्य जिन लोगों से सरदार मनोहर सिंह ने दो से पाँच हज़ार दे रखे थे, कोई वहाँ नहीं दिखा और खास बात यह थी कि मनोहर सिंह को उनमें से किसी के घर का भी पता नहीं था तथा अन्य रेहड़ी वालों में से कोई भी पता बताने को तैयार नहीं था।
तो दोस्तों, खेल खिलाड़ी पत्रिका, जो कभी बीस पच्चीस हज़ार मज़े में बिक जाती थी। उसकी प्रसार संख्या कम होते-होते आखिरकार एकदम बन्द हो जाने के अनेक कारणों में से एक कारण सरदार मनोहर सिंह का दरियादिल होना और दूसरा रोज चार लोगों के साथ बैठकर इंग्लिश दारू पीने की आदत थी।
खैर, उस दिन बाद में खेल खिलाड़ी के आफिस से हम कम्पोजिंग के लिए दिया जाने वाला मैटर लेकर रविन्दर पाल सिंह की प्रेस पहुँचे। जैसे तैसे उसे मनाकर मैटर उसे दिया।
उसके बाद रोज चक्कर लगाकर मैंने हफ्ते भर में मैगज़ीन का सारा काम अपनी तरफ से ओके कर दिया।
इस बीच के हफ्ते में पत्रिका की कलकत्ते, बम्बई, इन्दौर की मोटी पेमेन्ट आ जाने से खेल खिलाड़ी का काम कम्पलीट करवाने में बहुत दिक्कत नहीं आई।
हफ्ते बाद मैंने सरदार मनोहर सिंह से इज़ाज़त ले, फिर से सुबह-सुबह मेरठ की बस पकड़ी।
मेरठ में मैं आम तौर पर सबसे पहले जहाँ मेरठ के लिए बस रोकी जाती है, उसी चुंगी नाके पर उतरा करता था। वहाँ से ईश्वरपुरी का रास्ता पैदल जाने पर भी दस पन्द्रह मिनट का था, लेकिन जब से तुलसी पाकेट बुक्स का आफिस ईश्वरपुरी से डी.एन. कालेज के सामने आया था, मैं डी.एन. कालेज के सामने ही उतरने लगा था।
उस दिन भी डी.एन. कालेज के सामने ही उतरा।
तुलसी पाकेट बुक्स के ऑफिस पहुँचा तो वहाँ सिर्फ सुरेश चन्द्र जैन ही उपस्थित थे। उनके साथ गपशप करके, चाय-वाय पीकर जब मैं निकला तो दिमाग तीन तरफा हो रहा था।
एक ईश्वरपुरी जाकर गंगा पाकेट बुक्स में सुशील जैन से मिलूँ।
दूसरा - देवीनगर जाकर अपनी बड़ी बहन से भी मिल लूँ और लक्ष्मी पाकेट बुक्स में सतीश जैन से भी मिल लूँ।
तीसरा शास्त्री नगर पहुँच वेद भाई से मुलाकात करूँ । आखिर दिल में आया शास्त्रीनगर ही चला जाए और मैंने शास्त्रीनगर का रिक्शा पकड़ा, जब मैं जब मैं शास्त्रीनगर पहुँचा, बारह बजने में भी कुछ समय था ।
वेद भाई उस समय ऑफिस में ही थे । टेबल के इस ओर आगंतुकों के लिए बिछी कई कुर्सियों में से सिर्फ एक कोने की कुर्सी ही इज़्ज़त अफ़ज़ाई का शुक्रिया अदा कर रही थी, क्योंकि उस पर धुरंधर लेखक व साहित्यकार अनगिनत लेखकों के गुरू जनाब आबिद रिज़वी विराजमान थे ।
मैंने वेद भाई को 'विश' किया इनसे हाथ मिलाया। फिर रिज़वी साहब के चरणस्पर्श करने के लिए झुका ही था कि रिज़वी साहब ने उठकर मुझे गले लगा लिया ।
"कब आये दिल्ली से....?" आबिद रिज़वी साहब ने पूछा तो मैंने बताया -
"लगभग डेढ़ घंटा हुआ होगा ?"
"और कहाँ - कहाँ हो आये ...?"
"बस, तुलसी में गया था और तुलसी में आया हूँ ।" मैंने कहा ।
"सुरेश जी ने कोई काम दिया क्या ?" इस बार वेद भाई ने पूछा ।
"काम की तो कोई बात ही नहीं हुई ।" मैंने कहा।
"तो वहाँ क्या अपनी शक्ल दिखाने गया था ?" वेद भाई ने तंज़ कसा।
"नहीं यार, पहले तुम भी वहीं होते थे, इसलिए आदत पड़ गयी । इसलिए डी एन कॉलेज ही उतर गया था । और जब उतर ही गया था तो चाय-वाय तो पीनी ही थी ।" मैंने हँसते हुए कहा ।
"मतलब अब तू चाय और वाय दोनों में से कुछ भी तो पीवैगा नहीं ।" वेद भाई ने इतना ही कहा था कि रिज़वी साहब उठ खड़े हुए और वेद भाई से बोले -"अच्छा, आपलोग नोंक-झोंक करते रहिये। हम चलते हैं।"
आबिद रिज़वी साहब वहाँ जिस काम से मौजूद थे, वह शायद मेरे वहाँ पहुँचने से पहले ही निपट गया था । रिज़वी साहब के जाने के बाद वेद ने विल्स नेवी कट का पैकेट निकाला, एक सिगरेट निकाल कर सुलगाई और पैकेट मेरी तरफ उछाल दिया -"ले, तू भी अपना दिल जला ।"
मैंने मुस्कुराकर एक सिगरेट निकाली और माचिस के लिए हाथ बढ़ाया। वेद भाई ने माचिस भी मेरी तरफ उछाल दी । मैंने सिगरेट मुँह में लगाकर माचिस उठाई और तीली जला, एक लम्बा कश खींचते हुए सिगरेट सुलगाई ।
दोस्तों, मैं बचपन से दमे का मरीज़ हूँ और सिगरेट, शराब मेरे जैसों के लिए लगभग ज़हर जैसी कहलाती हैं । फिर भी कुमारप्रिय की दोस्ती में मैंने सिगरेट की ऐसी बुरी लत पाली कि चेनस्मोकर हो गया था ।
लम्बे बालों, लम्बी दाढ़ी और लम्बे कद के काले भुजंग आर्टिस्ट टी एन रॉय यानि त्रिभुवन नारायण रॉय के मज़ाक में पियक्कड़ हो गया, लेकिन अपनी बुरी आदतों का दोष मैं किसी और को नहीं दे सकता, क्योंकि मेरे मन के किसी कोने में फँसी एक फाँस ने मुझे ने ही मुझे बहुत सारी बुरी आदतों का शिकार बनाया । पर वह किस्सा फिर कभी.....बस, आप याद दिलाते रहिएगा कि कौन-कौन से किस्से मैंने अधूरे छोड़ रखे हैं । उन्हें अलग से एक हैडिंग देकर पेश करूँगा।
ख़ास बात यह है कि बुरी आदतों के इस बुरे आदमी को थोड़ा बहुत बदला भी तो उसी लंगोटिया दोस्त ने, जो बचपन से साथ था । दमे के एक जबरदस्त अटैक की वजह से एक बार ऐसा बीमार पड़ा कि सिगरेट-शराब सब छूट गयीं । फिर उसके बाद ठीक होने पर, सिर्फ कुछ ही दोस्त ऐसे रह गए थे, जिनके साथ कभी-कभी मैं सुट्टा मार ही लिया करता था । वो गिनती के ही थे । एस सी बेदी, यशपाल वालिया और वेद प्रकाश शर्मा । राजभारती साहब के साथ मेरा समय अधिक बीतता था, पर उनके साथ सुट्टेबाजी इतनी ही होती थी कि उन्हीं के सिगरेट में से एक-दो कश मार लिए ।
उस दिन हम दोनों कुछ देर कश मारते रहे। कश मारते-मारते वेद भाई अचानक उठे और बोले -"योगेश, तू बैठ...मैं अभी आया ।"
ऑफिस में मैं अकेला बैठा रह गया । वेद के जाने के बाद कश मारने का भी मूड नहीं हुआ, फिर भी धीरे-धीरे कश मारता रहा ।
वेद को गए पाँच-छह मिनट हो गए तो मुझे बोरियत होने लगी । सोचने लगा - "कहाँ चला गया मेरा यार...?"
(शेष फिर)
यह संस्मरण-शृंखला तो बहुत ही रोचक है। आगामी कड़ी का बेचैनी से इंतज़ार है।
जवाब देंहटाएंजी आभार।
हटाएं