ऐश ट्रे मेरी पहुँच से दूर थी। वेद भाई जहाँ बैठे थे, उससे कुछ दूर बायीं ओर।
ऐश ट्रे अपनी ओर खींचने के लिए मुझे कुर्सी से उठकर टेबल पर काफी आगे झुकना पड़ा। फिर मैंने ऐश ट्रे खींच कर, उसके कार्नर पर अपनी सिगरेट का टोटा रगड़ कर बुझाया और बुझा हुआ टोटा ऐश ट्रे में डाल दिया।
फिर ऐश ट्रे पीछे सरकाकर मैं वापस कुर्सी पर बैठ गया।
उन दिनों शास्त्रीनगर में तुलसी पेपर बुक्स आरम्भ तो हो चुकी थी, लेकिन काम करने वाले लोग उतने नहीं थे, जितने बाद में धीरे धीरे बढ़ गये थे। फिर भी कुछ तो थे, लेकिन थोड़ी देर बाद मैंने जो देखा, मुझे स्वामीपाड़ा का वेद भाई का वो घर याद आ गया, जहाँ बरसात में कई जगह से टपकती छत के नीचे परछत्ती में, हम दोनों ने साथ मिलकर कुछ पेज लिखे थे और साथ साथ खाना खाया था।
और अचानक ही वो दिन क्यों याद आ गया, यह तो मेरी समझ में नहीं आया, पर जब वेद भाई वापस आफिस आये तो उनके हाथों में दो शीशे के मग थे और मग में फलों का जूस...।
बस, उस समय कुछ ऐसा लगा था, जैसे वक़्त अचानक बरसों पीछे चला गया हो।
एक मग मेरी ओर बढ़ा कर वेद भाई ने कहा - "चाय तो तू पीवैगा नहीं, ले अब सेहत बना।"
"चाय पीने के लिए मैंने कब मना किया।" मैं जूस का मग अपने होंठों की तरफ बढ़ाते हुए बोला -"अभी जूस पीते हैं। थोड़ी देर बाद चाय पियेंगे।"
*चाय क्या, खाना खिलावैंगे यार...। पहले जूस तो पी...।" वेद भाई ने कहा और मग होंठों से लगा लिया।
लहज़ा कुछ गम्भीर था वेद भाई का, इसलिए मैंने हँसी-मज़ाक का इरादा छोड़ दिया और जूस का मग मुँह से लगा या और धीरे धीरे घूँट भरने लगा।
"नावल शुरू किया....?" कुर्सी पर बैठने के बाद जूस का मग टेबल पर रख, वेद भाई ने सवाल किया।
"अभी तो नहीं...।" मैं कुछ झिझके अन्दाज़ मे बोला।
"कब शुरू करेगा...?"
"अभी तो टाइम लगेगा...।"
"कितना टाइम लगेगा...?"
"यार, यह बताना तो अभी मुश्किल है।"
"तो कब बताना आसान होगा...?"
मेरे पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था, क्योंकि मैं बड़े असमंजस में था। वेद से मेरा सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ था। याराना कुछ ऐसा था कि मेरा दिल नहीं चाहता था कि हमारे बीच लेखक और प्रकाशक का सम्बन्ध बने।
लोगों को यह बात अजीब लगेगी, मेरी यह सोच बेवकूफी लगेगी, पर दिमाग पर उस समय दिल भारी था और अक्सर मैंने प्रकाशकों और लेखकों के बीच होती हुई नोंक झोंक देखी थी और अक्सर मुझे एक वक़्त बातों-बातों में सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा कही एक बात याद आ जाती थी कि लेखक और प्रकाशक में काहे की दोस्ती, लेखक और प्रकाशक कभी दोस्त नहीं हो सकते। हालांकि एन. डी. सहगल एंड कंपनी, अशोक पाकेट बुक्स के सहगल साहब से पाठक साहब की भी गहरी दोस्ती रही है। सहगल साहब साहब द्वारा कहे गये, उनके अपने शब्दों का अपवाद थे।
अपने मन की इस उलझन को उस वक़्त मैंने वेद भाई से शेयर नहीं किया और खामोश ही रहा, किन्तु कुछ क्षण की खामोशी सुपर लेखक के सुपर दिमाग को झिंझोड़ गई।
"क्यों, मेरे लिए लिखने का मूड नहीं है?" खामोशी के बाद वेद का जलता हुआ सवाल था।
"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।"
"अगर ऐसी कोई बात है तो बता दे, दोस्ती अपनी जगह, व्यापार अपनी जगह...।"
"नहीं यार, अभी जिन-जिनसे कमिटमेन्ट है, पूरी कर लूँ, फिर जब तेरे लिए शुरू करूँगा तो लगातार लिखूँगा।" मैं कुछ मुस्कुराता, कुछ शर्मिन्दा होने का एहसास कराता हुआ बोला तो वेद ने एकदम कह दिया- "वैसे तुझ में शर्म लिहाज़ तो कुछ है ना... इतने दिन बाद आया है तो ये नहीं कि फार्म - दो फार्म लिख लाता कि देख भाई, तेरे लिए नॉवेल शुरू कर दिया है।"
"अरे यार, अब पब्लिशर-लेखक की बात छोड़, मुझे पब्लिशर वेद प्रकाश शर्मा से मिलना होता तो आता ही नहीं। मैं तो अपने यार के दीदार के लिए आया हूँ।" मैंने कहा तो वेद भाई बोले-
"डायलॉगबाजी छोड़, मुझे मालूम है, तू डायलॉगबाजी में बड़ा उस्ताद है। पर यह डायलॉगबाजी उपन्यास में लिखने के लिए बचाकर रखा कर...।"
"ओके बास...।" मैंने जूस का मग खाली कर दिया।
वेद भाई ने भी जूस खत्म कर मग टेबल के बायें कोने में रख दिया। फिर गम्भीर स्वर में कहा - "देख योगेश, आजकल कई लोग मुझसे ट्रेडमार्क लेखकों के बारे में सवाल करते हैं। दरअसल लोग सोचते हैं कि प्रकाशक बनने के बाद बदल गया हूँ। मेरा स्टैण्ड चेन्ज हो गया है। पर ऐसा नहीं है। हाँ, मैं हर नये लेखक को नहीं छाप सकता। एक तो फिलहाल जो नये लेखक आ रहे हैं, उनमें दम-खम ही नहीं है और अगर कोई दम-खम वाला आ गया तो ये दिल्ली वाले उसे मेरठ में टिकने नहीं देंगे। राज - मनोज और हिन्द पाकेट बुक्स वो सफेद हाथी हैं कि खुद को राजा समझने वाला कोई लेखक उनकी ओर भागे बिना नहीं रह सकता। और हम मेरठ के प्रकाशक किसी लेखक को पैसा लगाकर बढ़ायें - चढ़ायें और कमाने का मौका आये तो दिल्ली वाले ले जायें, ऐसा न होने देने के लिए तो बस, एक ही काम किया जा सकता है कि चांस उसी को दो, जो विश्वास पर खरा है और तेरी ईमानदारी और सच्चाई पर मेरठ के हर प्रकाशक को विश्वास है, बेशक तू राज, मनोज और विजय पाकेट बुक्स का खासमखास है। तू वादे का भी खरा है, पर तेरी एक बात पर मेरठ दिल्ली का कोई प्रकाशक भरोसा नहीं कर सकता। तू टाइम का पंक्चुअल नहीं है। थोड़ा इस तरफ ध्यान दे। प्रकाशक का धन्धा टाइम का पाबन्द है। हर काम सही टाइम से हो, अगर धन्धा जमाना है तो बहुत जरूरी है। मैंने सुना है - तू पन्द्रह दिन का वादा करता है तो कभी तो स्क्रिप्ट दस दिन में दे देता है, कभी महीना लगा देता है। प्रकाशक को तू पन्द्रह की जगह दस दिन में स्क्रिप्ट दे दे। चलेगा। लेकिन पन्द्रह के पच्चीस दिन लगा दे नहीं चलेगा।"
उस दिन यह वेद भाई से बहुत लम्बी बात चली थी, बहुत कुछ भूल गया हूँ और कुछ शार्ट भी कर दिया है। अन्ततः वेद भाई ने मुझसे कहा कि 'ठीक है, कोई जल्दी नहीं, तू पहला उपन्यास अगले छ: महीने में दे दे, बाकी उसके बाद एक और जब मर्जी हो दे देइयो। तेरे दो उपन्यास जब मेरे पास हो जायेंगे, तू जिस आर्टिस्ट से कहेगा, तेरा टाइटिल बनवाया जायेगा। कागज भी एन्टिक से बढ़िया लगाया जायेगा। मैटर तैंतीस-चौंतीस लाइन से देंगे। प्रूफरीडिंग तीन तीन बार करेंगे। पर एक बात ध्यान रहे कि एक बार तू वेद का हो गया तो हमेशा वेद का रहेगा।"
"ठीक...।" मैंने कहा। और कुछ बोलने लायक मेरे पास शब्द ही नहीं थे। क्या कहूँ, मेरी कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था।
उस दिन काफी लम्बा समय वेद भाई के साथ बिताया।
लंच हमने साथ-साथ किया। लंच के दौरान वेद भाई ने कहा - "योगेश, बच्चे बड़े हो रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई का जरूरतों का खर्च काफी बढ़ गया है। अब वेद प्रकाश शर्मा को सिर्फ अपने लिए, अपने कैरियर को चमकाने के लिए नहीं कमाना है। बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए, उनकी बेहतर से बेहतर शिक्षा के लिए, उनका कैरियर चमकाने के लिए, उन्हें आत्म निर्भर बनाने के लिए कमाना है और इसलिए धन्धे में कोई बेवकूफी करने के लिए कोई स्थान नहीं है। नये लेखकों को छापा तो जा सकता है, लेकिन छापकर घाटा उठाने की स्थिति बिल्कुल नहीं है।"
उस दिन बहुत दिनों बाद वेद भाई के साथ बड़ी लम्बी सीटिंग रही। इतनी लम्बी सीटिंग हम दोनों के बीच भविष्य में फिर कभी नहीं रही। हालांकि बहुत बार मिले और बैठे।
लगभग साढ़े चार बजे के करीब शाम की चाय और नाश्ते के बाद मैंने शास्त्रीनगर से देवीनगर के लिए पलायन किया।
(शेष फिर)
अभी बहुत कुछ है - वेद भाई के साथ जुड़ी यादों में। वेद भाई ने मुझे नाम से छापने के लिए खुला सुनहरा अवसर दिया था। फिर क्या हुआ कि एक दिन मेरे कई उपन्यास "सोनू पंडित" नाम से छपे।
आखिर ऐसा क्यों हुआ?
यह सब जानने के लिए अभी बहुत वक़्त लगेगा, क्योंकि बीच में बहुत से अलग-अलग स्टाप हैं। अगर आप क्लाइमेक्स मिस नहीं करना चाहते तो वेद भाई से जुड़ी यादों को लगातार पढ़ते रहिये।
सोनू पंडित के नाम से तुलसी पॉकेट बुक्स में 'शगूफ़ा' और 'एक ही नारा, केशव हमारा' नाम से दो उपन्यास छपने की बात मुझे याद है मित्तल जी। आज पता चला कि ये उपन्यास आपने लिखे थे। विजेता पंडित के नाम से भी तुलसी पॉकेत बुक्स ने उपन्यास छापे थे। वेद जी ने अपने द्वारा रचित किरदार केशव पंडित के उपन्यासों में केशव की पत्नी का नाम सोनू और उसके बेटे का नाम विजेता बताया था। उन्हीं को भुनाने के लिए शायद उन्होंने ये ट्रेडमार्क नाम ईज़ाद किए थे। बहरहाल इस संस्मरण-शृंखला की अगली कड़ी का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
जवाब देंहटाएंयोगेश जी के आर्टिकल बहुत रोचक होते हैं।
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