कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 1 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शनिवार, 3 जुलाई 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ की - 1




मुझसे एक फेसबुक मित्र ने कहा कि मैं बहुत दिल से लिखता हूँ और वे अतीत में मेरे द्वारा लिखे उपन्यास पढ़ना चाहते हैं।


मेरे लिए यह बताना आसान नहीं है  कि मैंने कितने नामों से लिखा, किस-किस लेखक और किस-किस ट्रेडमार्क के लिए लिखा और कितने उपन्यास लिखे, कभी रिकॉर्ड नहीं रखा मैंने और बीते हुए दौर को बहुत ज्यादा याद रखने में मेरी कभी भी विशेष दिलचस्पी भी नहीं रही है। 


मैं हमेशा वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति रहा हूँ। अतीत में क्या हुआ, उसे याद करके कभी दुखी नहीं हुआ। 


भविष्य में क्या होना है, इस बात की कभी चिन्ता नहीं की, किन्तु आप यह जान लीजिये कि उस दौर के तकरीबन सभी प्रकाशक मुझे शक्ल और नाम से जानते थे और बहुतों से दोस्ताना अन्दाज में ही बातचीत होती थी।


और दिल से लिखने की बात के विषय में बेबाकी से कहना चाहूँगा कि आज के बहुत से लेखक बेशक दिल से ही लिखते होंगे, लेकिन तब ऐसा नहीं था कि लेखक - जो लिख रहा हो, दिल से ही लिखा गया हो, दिल से ही लिखा जा रहा हो, दरअसल तब एक नहीं, अनेक लेखक ऐसे बुरे वक़्त का शिकार होते थे कि मन न होते हुए भी उन्हें लिखना पड़ता था।


उनकी जिन्दगी में कई बार ऐसा कठिन वक़्त भी आया होता था, जब घर में बच्चों की फीस के लिए या राशन के लिए अथवा किसी अन्य जरूरत के लिए, पैसे के लिए उन्हें उपन्यास की पेमेन्ट  का इन्तजार रहता था। 


कई बार लिखने का मन नहीं होता था, तब भी बेमन से पन्ने भर कर उपन्यास पूरा करना ही होता था, क्योंकि घर खर्च के लिए धन की जरूरत होती थी, जोकि उपन्यास पूरा करने पर ही मिल सकता था। 


इसलिए उन दिनों कुछ अच्छे लेखकों द्वारा भी अक्सर घटिया उपन्यास भी लिखे लिखे जाते थे। लिखे गये हैं। 


बेशक सुरेन्द्र मोहन पाठक, ओम प्रकाश शर्मा या वेद प्रकाश काम्बोज ऐसे बहुत ही उपन्यासकार, जो कभी किसी बहुत ज्यादा worst समय का शिकार नहीं रहे और इसलिए उनकी कलम ने कभी घटिया नहीं लिखा। 


परन्तु वेद प्रकाश शर्मा  जब स्वामीपाड़ा में बहुत छोटी सी जगह में रहते थे, तब एक टीन की परछत्ती के नीचे रहकर लिखते थे, जोकि बारिश में टपकती भी थी। बारिश के ही दिनों में मुझे एक दिन वेद के साथ वहाँ समय बिताने का और साथ साथ बैठकर लिखने का अवसर मिला था। 


दोपहर का खाना भी हमने साथ ही खाया था। तब वेद का विवाह नहीं हुआ था। 


वेद का विवाह भी किसी फिल्मी कथा से कम नहीं था। 


मुझे लगता है - यदि वेद के परिवार के लोग मुझसे सहयोग करें और कोई फिल्मी हस्ती रुचि ले तो वेद की जीवनी पर भी एक ऐसी फिल्म बन सकती है, जो सचिन, संजू और महेन्द्र सिंह धोनी पर बनी फिल्मों को बहुत पीछे छोड़ सकती है। 


सरल स्वभाव के वेद और मेरे बीच अनेक बार कार में साथ साथ सफर करते हुए या आफिस में, घर में या किसी अन्य जगह बहुत सारे ऐसे मौके आये, जब वेद ने मेरे सामने अपना दिल खोल कर रख दिया। 


सच कहूँ तो वेद मेरी नजरों में दिल का हीरा था। बस, लेखक से प्रकाशक बनने के अन्तराल में एक व्यापारिक सोच ने उसे कुछ भिन्न कर दिया था, जो शायद स्वाभाविक ही था, पर उसे मैं अगर वेद की जीवनी लिखूँ, तभी विस्तार से जाहिर करना चाहूँगा। 


लेखकों के दिल से लिखने की बात पर बताना चाहूँगा कि अक्सर ऐसा होता नहीं था। हमेशा दिल से लिखने की स्थिति में प्रोफेशनल लेखक नहीं होता था। कई बार उपन्यासकार को नोटों की इतनी सख्त जरूरत होती थी कि सोचने की जरा भी गुंजाइश नहीं होती थी और आवश्यक पन्ने भर, जल्द से जल्द उपन्यास पूरा करके, प्रकाशक से पेमेन्ट लेनी होती थी, तब उपन्यास कैसा बन पड़ेगा, उपन्यासकार को इसकी भी चिन्ता नहीं होती थी। 


पर उपन्यास अक्सर ठीक ठाक भी बन जाता था, उसके लिए लेखक क्या टेक्नीक इस्तेमाल करते थे, इस पर कभी एक पूरा लेख लिखूँगा, जिससे आज के लेखकों को भी शायद विशेष लाभ हो। मेरा वह लेख - जो आज लेखक नहीं हैं, किन्तु उनकी कल्पना शक्ति बुलेट की रफ़्तार से दौड़ती है, उनके लिए मेरा वह विशेष लेख, बहुत ही लाभदायक होगा। 


जब लेखक को घरेलू खर्च के लिए धन की आवश्यकता होती थी, तब कभी-कभी सारी सावधानियाँ बरतने पर भी जल्दबाजी में नोटों की आवश्यकता पूर्ति के लिए लिखे उपन्यास घटिया और निम्नस्तरीय लिखे जाते थे। 


मैंने भी अपने जीवन में  अपने सामर्थ्य से कमतर काफी कुछ घटिया भी लिखा है। 


अब जरा वेद प्रकाश शर्मा जी की ही बात हो जाये - जब मैं दिल्ली के नामधारी कालोनी कीर्तिनगर में रहता था, तब वेद प्रकाश शर्मा एक दिन दरीबे में मिल गये थे। तब काफी निराश और उदास से थे। 


मनोज वालों से वेद की पहली पहचान मैंने ही करवाई थी। तय बातों के हिसाब से वेद के उपन्यास मनोज पाकेट बुक्स में ही छपने थे।


किन्तु उस समय मनोज पॉकेट बुक्स का काम देखने वाले राजकुमार गुप्ता जी और गौरीशंकर  गुप्ता जी हर काम बहुत दूर तक की प्लानिंग से करने वाले लोगों में से थे। 


उन्होंने अगले तीन चार सैट्स की न केवल प्लानिंग कर रखी थी, बल्कि सरकुलर भी तैयार कर रखे थे। 


अत: राजकुमार गुप्ता जी ने वेद से कहा - "वेद भाई, मनोज में छपने के लिहाज से तो कार्यक्रम थोड़ा लेट हो जायेगा। हम ऐसा करते हैं, आप के तीन चार उपन्यास जीजाजी के विमल पाकेट बुक्स में छाप लेते हैं। उन्हें एक मजबूत और ओरिजिनल नाम की जरूरत भी है। तब तक हम मनोज में प्लानिंग कर लेंगे। प्रोडक्शन की आप चिन्ता मत करो, वहाँ का काम भी मैं ही देखता हूँ, इसलिए प्रोडक्शन तो बिल्कुल मनोज के टक्कर की होगी, बल्कि इक्कीस ही होगा और हम उपन्यास में मैटर भी मेरठ से डबल देंगे।"


वेद दिल्ली छपना चाहते थे, इसलिए उन्होंने कम्प्रोमाइज़ कर लिया और उनका विमल पाकेट बुक्स में उपन्यास... शायद "दहकते शहर" था, जिसमें मैटर मेरठ के उपन्यासों की ही प्रिन्टेड कीमत पर, मेरठ से दुगुना था, लेकिन पारिश्रमिक जो मिला, मेरठ से बहुत कम था, किन्तु यहाँ भी वेद ने कम्प्रोमाइज़ किया।


अन्य कोई लेखक ऐसा कोई कम्प्रोमाइज़ शायद ही करता। 


पर मनोज पाकेट बुक्स द्वारा उनके उपन्यास अपने प्रकाशन में, न छाप कर, जीजाजी के प्रकाशन विमल पाकेट बुक्स में छपवा दिये जाने की, वेद के मन में एक टीस बन गई। उन्हें प्रति उपन्यास सिर्फ आठ हजार मिले थे, जबकि तब वेद मेरठ में एक उपन्यास के दस हजार से अधिक ले रहे थे और मेरठ में एक महीने में दो उपन्यास छप जाते थे, जबकि विमल पाकेट बुक्स के लिए वेद ने जान लड़ाकर दुगुनी मेहनत से उपन्यास लिखे थे और विमल पाकेट बुक्स से छ: - सात महीने में तीन उपन्यास छपे थे। 


और बिक्री औसत दर्जे की थी, जिसे मेरठ से बेहतर बिल्कुल नहीं कहा जा सकता था। उपन्यास में मैटर मेरठ के उपन्यासों से बहुत ज्यादा लिखना पड़ा था। 


खैर, उदास वेद दरीबे से पहले किशनगंज के आसपास रहने वाले अपने साले के यहाँ गये, किन्तु वहाँ ठहरे नहीं, अपने साले से, मेरे साथ जाने की बात कहकर, वापस लौट आये और मेरे साथ नामधारी कालोनी आये।


तब मैं कीर्तिनगर और रमेशनगर के मध्य नामधारी कालोनी में दो कमरों के एक घर में सपरिवार रहता था। वहाँ मैंने अपने मिनोल्टा कैमरे से वेद की एक तस्वीर भी खींची थी, जिसे शायद मैं राज भारती फैन क्लब में पोस्ट कर चुका हूँ। 


उस दिन वेद ने, मेरी माता जी के हाथ का बना खाना, मेरे साथ साथ खाया। हम चार पाँच घंटे गपशप करते रहे। तब मैंने वेद से कहा - मैं मनोज में राज भाईसाहब और गौरी भाई साहब से बात करूँगा।"


वेद की इच्छा थी कि विमल पॉकेट बुक्स में अगला उपन्यास न दें । मुझसे पूछा तो मैंने उनकी इस सोच पर स्वीकृति की मोहर लगा दी । कहा - "यही बहुत अच्छा कदम होगा । विमल पाकेट बुक्स में कितना ही बेहतरीन प्रोडक्शन हो, सेल मनोज पाकेट बुक्स की बुलन्दी नहीं छू सकती। मनोज पाकेट बुक्स में पब्लिसिटी पर भी ध्यान दिया जाता था। जबकि विमल पाकेट बुक्स में इस पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया था।"


विमल पाकेट बुक्स से असन्तुष्ट होकर वेद दोबारा मेरठ में उपन्यास छपवाने लगे, लेकिन यह कदम विशेष रूप से मेरी सलाह पर राजकुमार गुप्ता जी और गौरी शंकर गुप्ता जी को झटका देने के लिए ही उठाया गया था। 


मनोज में छापने की बात करके, वेद को जीजाजी के यहाँ छपवाने के उपरान्त राजकुमार गुप्ता जी  और गौरीशंकर गुप्ता जी ने महीनों वेद से कोई बात तक नहीं की थी, जिसके बारे में जानकर, वेद के साथ-साथ मैं भी असन्तुष्ट था। वैसे भी मैंने सच्चाई और ईमानदारी का ही हमेशा साथ दिया था और वेद के साथ मनोज पाकेट बुक्स में हुई हर बात का तो मैं चश्मदीद भी था। 


वेद द्वारा मेरठ में फिर से उपन्यास दिये जाने का नतीजा बेहतर ही रहा। गौरीशंकर गुप्ता जी ने अपने एक वर्कर मुलखराज को मेरे घर भेजकर मुझे बुलवाया। मैं मनोज पाकेट बुक्स पहुँचा तो छूटते ही मुझसे कहा - "योगेश बेटा, तेरा यार तो बड़ा गद्दार निकला।"


"कौन सा यार गद्दार निकल गया?" मैंने पूछा। 


"मैं वेद प्रकाश शर्मा की बात कर रहा हूँ।" गौरीशंकर गुप्ता जी बोले। 


"भाईसाहब, उसके साथ तो गद्दारी मनोज पाकेट बुक्स ने की है।" मैंने कहा -"बात तो मनोज पाकेट बुक्स में छापने की हुई और फँसा दिया बिमल में, जहाँ उसे पारिश्रमिक भी कम मिला और जो मिला, वो भी भीख की तरह मिला है। कभी पाँच सौ दे दिये, कभी हजार, कभी दो हज़ार। वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखक को एक पेमेन्ट के लिए चार चक्कर लगाने पड़े तो चार हज़ार का तो उसका टाइम ही बरबाद हो गया।"


"क्या बात है? लगता है वेद से तेरा ज्यादा ही याराना है?" गौरीशंकर गुप्ता बोले। 


"वेद से ज्यादा तो मेरा आपसे याराना है, जितनी बार मैं आपसे मिला हूँ और जितना वक़्त आपके साथ बिताया है, वेद के साथ तो उसका दस परसेन्ट भी नहीं बिताया।" मैंने कहा। 


"अच्छा छोड़, शिकवे-शिकायत। तू वेद को बुला ला।" गौरीशंकर गुप्ता बोले। 


"पहले आप उसे एक चिट्ठी लिखकर पोस्ट कर दीजिये। फिर अगर वह नहीं आया तो मैं बुला लाऊँगा।" मैंने कहा। 


मेरे कहने पर गौरीशंकर गुप्ता जी ने खुद अपने हाथ से एक पोस्टकार्ड लिखकर वेद प्रकाश शर्मा जी को पोस्ट किया। 


वेद प्रकाश शर्मा जब दिल्ली आये तो दरीबा कलां में मुझसे मिले। वहीं से मैं उन्हें मनोज पाकेट बुक्स में ले गया। 


लेकिन बाद में जब मनोज पाकेट बुक्स का बँटवारा हो चुका था और राज पाकेट बुक्स की नींव पड़ चुकी थी, तब राजकुमार गुप्ता जी ने एक खास काम किया। किस तरह किया - मुझे नहीं मालूम? क्योंकि मैंने कभी पूछा ही नहीं। पूछता तो राजकुमार गुप्ता जी मुझे सब कुछ बता देते। 



वह खास काम यह था कि राजकुमार गुप्ता जी ने मेरठ में वेद प्रकाश शर्मा के जितने भी कापीराइट प्रकाशकों के पास थे, धीरे-धीरे सब खरीद लिये। 


उसके बाद उन्होंने वेद प्रकाश शर्मा को दिल्ली आकर मिलने के लिए एक कागज पर मैसेज लिखकर, एक लिफाफे में रखकर पोस्ट कर दिया। 


इस बार वेद प्रकाश शर्मा से मेरी मुलाकात सिर्फ एक संयोग था। मुझे गर्ग एण्ड कम्पनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग ने किसी काम के लिए बुलाया था। मैं ज्ञान से बातें करके, फारिग होकर, गर्ग एंड कंपनी से निकला ही था कि सामने दरीबा कलां से वापस लौटते हुए वेद प्रकाश शर्मा पर पड़ी। 


मैं कभी भी किसी भी लेखक को मनोज या राज में ले गया, कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि प्रकाशक या लेखक किसी की भी नाक नीची हुई हो। 


जब मनोज पाकेट बुक्स में भाई-भाई अलग हो गये और मनोज पाकेट बुक्स के स्वामी मंझले भाई गौरीशंकर गुप्ता और छोटे भाई विनय कुमार हो गये तथा बड़े भाई राजकुमार गुप्ता जी को अपने लिए एक अलग पाकेट बुक्स - राज पाकेट बुक्स खोलनी पड़ी थी। 


बाद में राज पाकेट बुक्स ही राजा पाकेट बुक्स में परिवर्तित कर दी गई थी। 


खास बात यह है कि मनोज पाकेट बुक्स को आरम्भ करते वक़्त - मनोज पाकेट बुक्स नाम, राजकुमार गुप्ता जी के तीन बेटों, संजय, मनोज और मनीष में से बीच वाले मनोज के नाम पर रखा गया था। मनीष का तब जन्म भी नहीं हुआ था। 


कुछ समय राज और राजा दोनों के सैट भी निकले तथा उसी पते पर एक हरीश पाकेट बुक्स भी निकाली गई, जिसमें आरम्भ से ही एस. सी. बेदी के राजन- इकबाल सीरीज के उपन्यासों को प्राथमिकता दी गई। 


तब जब विमल पाकेट बुक्स को उपन्यास देना बन्द करने के बाद, वेद की दोबारा मनोज में बात हो गयी थी तथा मनोज में वेद के कई उपन्यास भी छप गए थे, तब भी वेद अंदर से दुखी थे । 


मनोज में वह जैसी उम्मीद कर रहे थे, स्थिति उससे बहुत भिन्न थी । 


वेद तब मनोज से खुश नहीं थे और इसीलिए काफी दिनों से मनोज में नहीं गये थे। फिर मनोज में जाने का इरादा छोड़, वह दोबारा मेरठ में ही छपने का निश्चय कर चुके थे। उन्हें लग रहा था - मनोज में मेरठ से बेहतर 'सेल' नहीं मिल रही है ।



जब मैं दरीबे में गर्ग एंड कंपनी में आया हुआ था । वेद नारंग पुस्तक भण्डार गए थे । वहाँ से कोई पुस्तक खरीदी तो नहीं, हालाँकि गए खरीदने के इरादे से ही गए थे । जब वह नारंग पुस्तक भण्डार से लौट रहे थे, तब मेरी ही नज़र उन पर पड़ी। 



मैंने वेद को आवाज़ दी, क्योंकि ज्ञानेंद्र प्रताप गर्ग भी वेद से मिलना चाहते थे ।


वेद तब उपन्यास जगत की सेलिब्रिटी तो बन ही चुके थे ।    


मैं वेद के पीछे लपका और तेज़ी से दस-बीस कदम चलकर, हीरा टी स्टाल के निकट वेद का हाथ थाम लिया । 


मुझे देख वेद चौंके । 


मैंने कहा - "क्या बात है हवाई जहाज की तरह उड़े जा रहे हो ? सब कुछ ठीक ठाक तो है ।"


"नहीं यार, कुछ ठीक नहीं है। यहाँ दिल्ली में मज़ा नहीं आया ।" वेद का पहला डायलॉग था ।


"आएगा मज़ा ।" मैंने कहा,  "हमारे ज्ञान बाबू तुमसे मिलना चाहते हैं ? आओ, मुलाकात करवा दूँ।"


"हह...। उससे क्या मिलना । सिर्फ गप्पें मारने के लिए, बर्बाद करने के लिए फिलहाल टाइम नहीं है । योगेश जी, हालत बड़ी खराब है । खर्चे बहुत बढ़ गए हैं और दिल्ली वालों ने कमाई ससुरी आधी कर से भी कम कर दी है । अब रेपुटेशन ऐसी हो गयी है कि किसी से उधार माँगते हुए भी शर्म आवै है । और पब्लिशरों से कहो तो नॉवल माँगे हैं या कहें कॉपीराइट लिख दो, नॉवल हम किसी से लिखा लेंगे ।" 


दरअसल उन दिनों मेरठ में एक और सिस्टम ने जन्म लिया था, जिसके जनक थे ब्लैक टाइगर विशाल और इमरान, विनोद हमीद  फ़ोमांचू सीरीज लिखने वाले लेखक बिमल चटर्जी ने।


बिमल चटर्जी को एक बार पैसों की सख्त जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने कुछ प्रकाशकों को अपने कुछ उपन्यासों के नाम लिख कर उसके कॉपीराइट दे दिए तथा प्रकाशकों को इजाजत दे दी कि वे उन नामों के लिए किसी से भी उपन्यास लिखवा कर बिमल चटर्जी के नाम से छाप सकते हैं । बाद में और कितने उपन्यासकारों ने इस सिस्टम का फायदा उठाया, इस बारे में फिर कभी । पर एक मशहूर लेखक के नाम के लिए गरीब और घोस्ट या फेक नाम से लिखने वाले लेखकों को इस सिस्टम की वजह से खूब काम मिला।


खैर बातों के उस दौर में मैंने वेद से पूछा कि "तो अब आगे क्या सोचा है ? किसे दे रहे हो नॉवल ?"


"वहीं मेरठ में देंगे । मनोज में तो बंद कर रहा हूँ । हालाँकि उनका एक लेटर आया है और दिल्ली आते हुए मैंने सोचा  था कि एक बार मिल लूँगा। पर नहीं मिल रहा हूँ। जब उनके लिए लिख ही नहीं रहा हूँ । लिखना ही नहीं है तो टाइम वेस्ट क्यों करुँ ।"  


और तभी वेद ने एक अनावश्यक सा काम किया, जो जरूरी नहीं था, किन्तु उसी ने वेद की उस दिन की दिनचर्या बदल दी ।


वेद ने  जेब से एक मुड़ा -तुड़ा सा कागज़ निकाल कर मेरे हाथ में  दे दिया और कहा - "देख, क्या लैटर भेजा है ।"


वह साधारण से पेपर पर सम्बोधन के बाद एक लाइन लिखा पत्र था-


कृपया शीघ्र आकर मिलें ।

                    राज कुमार गुप्ता ।


मैंने पत्र पढ़ते ही कहा -"ये मनोज वालों का पत्र नहीं है - राज बाबू का है ।" 


"फर्क है क्या दोनों में ...?" वेद ने पूछा ।


"हाँ, यह राज पॉकेट बुक्स के लिए राज बाबू ने भेजा है ।"


"पर मुझसे तो मनोज में भी राज बाबू ही बात करते थे ।"


"तब वह मनोज में बॉस थे । पर अब भाइयों में बँटवारा हो गया है और राज बाबू की फर्म अलग है ।" 


"तो अब क्या करना चाहिए ?"


"चल मेरे साथ....।" मैंने वेद का हाथ पकड़ा और हम दरीबे से निकले । बाहर से शक्ति नगर का ऑटो पकड़ा और शक्तिनगर पहुँच गये।


राज बाबू मुझे और वेद को देख प्रसन्न हो गए और मेरी पीठ थपथपा कर बोले - "ये तूने बढ़िया काम किया । मैं तुझे याद ही कर रहा था ।"


फिर वेद का स्वागत करने के बाद चाय पिलाने के बाद राज बाबू मुझसे बोले - "योगेश बेटा, एक मिनट सुनना और वह दूर पैकिंग कर रहे मुलखराज के निकट बोले - ऐसा है बेटा, वेद जी से तो हमारी लम्बी बात चलेगी । तीन चार घंटे लगेंगे । तुझे को काम हो तो निपटा आ । यहाँ बैठे बैठे बेकार बोर होगा ।"


मेरे लिए यह इशारा था, जो मैं समझ गया । वेद के निकट जा उसके कान में फुसफुसा कर बोला -"मैं चलता हूँ... गुड न्यूज़ देना ।"   


"तू रुक ना...।" वेद ने कहा ।


"राज बाबू तुझसे अकेले में बात करना चाहते हैं ।" मैं धीरे से फुसफुसाया और बना झिझके पूछ लिया -"ऑटो के लिए पैसे वैसे हैं ना ?" 


वेद को बड़े जोर की हँसी आई -"बेइज़्ज़ती कर रहा है ।"


"नहीं यार, यूँ ही पूछ लिया, सॉरी ।" मैंने कहा -"चलता हूँ ।"


वेद ने कसकर हाथ मिलाया और मैं राज बाबू से भी विदा ले चल दिया ।


उन दिनों राज बाबू का ऑफिस शक्तिनगर में किराए के बेसमेंट में था, जहाँ कोई केबिन नहीं था । 


यह पहला अवसर था, जब राज बाबू ने किसी लेखक से बात करने के लिए  'इनडायरेक्ट वे' में मुझे जाने के लिए कह दिया था। 


बेहद परेशानी के दिनों में भी वेद ने जो भी लिखा, उस में पाठकों को मनोरंजन की कमी कहीं नज़र नहीं आई ।



वेद का जिक्र इसलिए भी कि मुश्किल वक़्त में वेद ने भी अपनी काबलियत से हल्के स्तर के कई उपन्यास लिखे, किन्तु फिर भी वह इन्टरटेनिंग रहे। 



किन्तु हर लेखक वेद जैसे शान्त चित्त का नहीं होता, इसलिए बड़े से बड़े लेखकों ने अक्सर बहुत घटिया भी लिखा है, उनमें मैं भी एक हूँ।

(शेष फिर )


- योगेश मित्तल


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें