कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी क साथ की - 13 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा जी क साथ की - 13


 

"नहीं-नहीं, तुलसी का नम्बर तो हमेशा पहला रहेगा।" मैंने वेद भाई की बात पर पुरजोर तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की। 

"रहने दे.... रहने दे....। लिखेगा तो तू... तब ना... जब ये दो-दो पेज वाले तुझे छोड़ेंगे।"

"नहीं यार, अब की बार यह इल्लत नहीं पालनी...।" मैंने वेद भाई को आश्वासन दिया। 

"तेरे कहने से क्या होता है, किसी ने सौ-दो सौ एडवांस दिये। दो चार चिकनी चुपड़ी बातें की तेरी छाती खुशी से फूल जायेगी कि तेरा कितना मान-सम्मान है।"

"नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होगा।" 

इस बार वेद प्रकाश शर्मा ठहाका मार कर हँसे और सरलता छोड़ कुछ ड्रामेटिक अन्दाज़ में बोले - "ऐसा है भाई योगेश जी, तुम भी यहीं हो और मैने तो रहना ही यहीं है। छ: महीने का समय काफी रहेगा?"

"किस बात के लिए...?" मैंने पूछा। 

"नावल शुरू करने के लिए... हमारे लिए नावल शुरू करने के लिए।" वेद भाई ने हँसते हुए कहा - "भाई मेरे, कम्पलीट तो जभी होगा, जब शुरू होगा। ऐसा करियो... जब शुरू करै तो मेरे से सौ का नोट ले जाइयो, एक फार्म का मैटर दिखा के। और वो सौ का नोट समझ ले मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने के लिए होगा। उसका तेरे उपन्यास के मेहनताने से कोई मतलब नहीं होगा।"

मैं तुरन्त ही कुछ न कह सका। फिर कुछ देर बाद धीरे से बोला -"यार, इतनी खराब रेपुटेशन तो नहीं है।"

वेद भाई फिर हँसे -"खराब....। रेपुटेशन...। भाई...यूँ बता, तेरी रेपुटेशन है कहाँ? बेपेंदी का लोटा है, जिधर नोटों की शक्ल दिखी, उधर ही लुढ़क गया। ऐसे कोई धन्धा होवै है।"

"यार, मैं धन्धा करता ही कहाँ हूँ।" मैंने कहा -"मैं तो कलम का पुजारी हूँ।"

"हह... कलम का पुजारी...। बस, डायलॉग मरवा लो तेरे से...। यह जो हम नावल लिखै हैं। हमारा धन्धा ही तो है। हमारी रोजी- रोटी है - हमारा लिखना। देख योगेश, दस-दस जगह पाँव फँसाने में कुछ नहीं रखा। इस तरह किसी एक का भी सगा न हो सकै तू...। मैं यह नहीं कहता कि मेरे लिए लिख... कहीं भी लिख... जम के लिख... और लगातार लिख....।" वेद भाई के स्वर में, मुझे समझाते हुए तल्खी थी। 

मुझे काफी शर्मिन्दगी सी महसूस हुई, बोला -"यार, गुस्सा तो कर मत। अब अगला नावल मैं तेरे लिए ही शुरू करूँगा।"

वेद फिर हँसा। फिर मुस्कुराते हुए बोला- "अभी तू मुझसे यह कह रहा है, अभी लक्ष्मी पाकेट बुक्स या गंगा पाकेट बुक्स में पहुँचेगा तो सब भूल जायेगा। उन्होंने थोड़ा सा एडवांस देना है... थोड़ा पुच-पुच करके पुचकारना है और तू दुम हिलाते हुए उनके काम में लग जायेगा।"

मुझे वेद भाई का यह व्यंग बहुत चुभा, एकदम बोला - "यार, ऐसी बात नहीं है।"

"ऐसी ही बात है योगेश... तुझे किसी को 'ना' करना, 'ना' कहना आता ही नहीं। पहले 'ना' कहना सीख। बल्कि कोई मुश्किल है तो बाहर की छोड़, तू मुझसे ही शुरुआत कर...। बोल मुझसे कि वेद यार, अभी टाइम नहीं है। अभी नहीं लिख पाऊँगा।"

"नहीं-नहीं, अब सबसे पहले तेरे लिए ही लिखूँगा।" 

"चल छोड़, यह सब बातें। जब मर्जी हो लिख। जो मर्ज़ी हो लिख। मेरे लिए लिखै तो स्क्रिप्ट मेरे पास लेकर आ 
जाइयो, जब भी तैयार हो जाये। तेरे लिए टाइम की कोई लिमिट नहीं है। अब बोल समोसे खायेगा?"

"नहीं यार...।"

"जलेबी, बेडमी पूरी...?"

"नहीं।"

"तो क्या दारू पियेगा?"

"ये कोई दारू का टाइम थोड़े ही है।"

"टाइम तो नहीं है और मैने पीनी भी नहीं है। पर तू कहे तो तेरे लिए मंगा जरूर सकूँ हूँ।"

"नहीं, अब मैं चलूँगा।" मैंने कहा और उठ खड़ा हुआ। 

वेद भी उठ खड़ा हुआ और अपनी चेयर से बाहर निकल, टेबल के साथ साथ चलकर घूमते हुए मेरे नजदीक आया और गम्भीर स्वर में बोला -"देख, मेरी किसी बात का बुरा तो मानियो न। हम भाई भाई हैं और एक दूसरे के बारे में हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? मेरी बात पर गौर कर और बस, एक-दो पब्लिशरों से सैटिंग कर ले और दबा कर लिखे जा।"

वेद भाई मेरे साथ बाहर सड़क तक गये। पीछे से आता एक खाली रिक्शा तुरन्त मिल गया। मैंने देवीनगर के लिए रिक्शा तय किया। जब मैं रिक्शे में बैठ गया तो वेद भाई ने एक बार बड़े जोरदार तरीके से हाथ मिलाया और मेरा हाथ देर तक हिलाया। फिर हाथ छोड़ 'अच्छा' कहा और पलट गये। 

चलते हुए मैं यही सोच रहा था, शायद वेद भाई कुछ नाराज़ हैं, उन्हें खुश करने के लिए उनके लिए जल्दी से जल्दी उपन्यास तैयार करना होगा।    

मुझे उम्मीद तो थी कि उस समय लक्ष्मी पाकेट बुक्स का आफिस खुला ही होगा, पर मैं उस समय सतीश जैन से मिलने के मूड में नहीं था, इसलिये रिक्शा लक्ष्मी पाकेट बुक्स से पहले पड़ने वाली, उस गली से भी पहले रुकवा लिया था, जिस में मेरी सबसे बड़ी बहन प्रतिमा जैन उर्फ रानो जीजी का घर पड़ता था।
 
रिक्शे का किराया अदा कर, मैं पैदल ही आगे बढ़ा, लेकिन जैसे ही मैं जीजी की गली में दाखिल होने वाला था, सतीश जैन आफिस से निकले और आफिस से निकलते ही उनकी नज़र मुझ पर पड़ गई। 

"योगेश जी....।" अगले ही पल तेज़ आवाज़ कानों में गूँजी और जीजी की गली में मुड़ते कदम ठहर गये। 

"अरे यार, सच में तुम्हारी उमर बड़ी लम्बी है। कसम से मैं तुम्हें याद कर रहा था। इधर आओ, तुम्हें किसी से मिलाना है।"

इतनी लम्बी बात के बाद तो टालने का भी कोई अवसर नहीं था, मैं लक्ष्मी पाकेट बुक्स के आफिस की ओर बढ़ गया कि 'देखूँ - कौन है, वो महान हस्ती, जिससे मुझे मिलाना है।'

आफिस में कोने पर पड़ी टेबल पर लक्ष्मी पाकेट बुक्स में कुछ ही समय पहले रखे गये, अधेड़ उम्र के वह शख्स जमे हुए थे, जिनके जिम्मे वीपी स्लिप बनाने, वीपी मनीआर्डर फार्म भरने तथा डिस्पैच रजिस्टर मेन्टेन रखने के अलावा, सभी तरह के पत्रों का जवाब देने की जिम्मेदारी थी। उनका नाम याद नहीं आ रहा, लेकिन कुछ पुराने ढंग का नाम था। सहूलियत के लिये हम उनका नाम राम अवतार जी रख लेते हैं। वह किसी बहुत नीची जाति से थे और काफी गरीब व्यक्ति थे। कंकरखेड़ा रहते थे। कंकरखेड़ा में जिन प्रेस वालों के यहाँ मैं किरायेदार रहा था, उन्होंने ही रामअवतार जी को लक्ष्मी पाकेट बुक्स में रखवाया था। राम अवतार जी का इतना जिक्र इसलिए, क्योंकि उनका आगे एक विशेष प्रसंग है, जिसकी वजह से मुझे बहुत डाँट खानी पड़ी थी। 

राम अवतार जी के अलावा आफिस में बिछी हुई एक फोल्डिंग कुर्सी पर एक नौजवान बैठा था, जिसकी उम्र इक्कीस बाईस से अधिक नहीं थी।

राम अवतार जी से तो मैं पहले भी मिल चुका था, इसलिये मेरे लिए यह समझना बहुत आसान था कि सतीश जैन ने उनसे तो मुझे मिलवाना नहीं था और उनके अलावा वहाँ दूसरी शख्सियत वही नौजवान लड़का था, पर सतीश जैन उससे मुझे क्यों मिलवाना चाहते थे, यह मेरी समझ में तुरन्त ही तब आ गया, जब सतीश जैन उस नौजवान से बोले -
"पुनीत, यही हैं योगेश मित्तल, गुरुओं के गुरु हैं यह। यह चाहेंगे तो तुम्हारा नावल छप जायेगा।"

और सतीश जैन के यह कहते ही जो हुआ, मैं एकदम हक्का-बक्का रह गया। उस नौजवान ने एकदम कुर्सी से उठ, मेरे 'चरण' छू लिये और अपनी कुर्सी की ओर संकेत करते हुए बोला- "बैठिये गुरुजी।"

मैं एकदम धर्मसंकट में पड़ गया, जिस नौजवान से मैं पहली बार मिल रहा हूँ। जिसे मैं ठीक से जानता भी नहीं, वो मेरे पैर छू रहा था और मैं इतना बुजुर्ग भी नहीं हुआ था कि लोगों को आशीर्वाद देता फिरूँ। सच कहूँ तो मुझे तो उस समय यह भी समझ नहीं आया कि आशीर्वाद दूँ तो क्या बोलूँ। उसके सिर पर हाथ रखकर मैंने बस यही कहा- "ठीक है.... ठीक है। " और उसके द्वारा खाली की गई कुर्सी पर बैठ गया। उसने अपने लिए दीवार के सहारे खड़ी दूसरी फोल्डिंग कुर्सी खोल कर बिछा ली। 

"योगेश जी, यह पुनीत है। इसने एक उपन्यास लिखा है, लेकिन उसमें अभी काफी कमियाँ हैं। आप इसका उपन्यास ठीक कर दो, फिर इसे कुछ ज्ञान भी दे देना। बच्चे का भविष्य बन जायेगा।"

मेरे लिए यह बड़े ही असमंजस की स्थिति थी। मैं इन्कार में 'ना' कहना ही चाहता था कि सतीश जैन फिर से बोल उठे -"यह आपको, आपकी गुरुदक्षिणा भी बहुत अच्छी देगा। आपकी थोड़ी सी मेहनत से लड़के का भविष्य बन जायेगा। प्लीज़, आप मना मत करना।"

सत्यानाश...। मैं तो मना करने की ही सोच रहा था। वेद भाई से मिलकर आने के बाद मैंने पक्का मन बना लिया था, लेकिन सतीश जैन की बातों ने उलझा दिया। आप में से जो भी लोग सतीश जैन उर्फ मामा से मिले हैं, वह वह समझ सकते हैं कि मस्का लगाने और बातों के जाल में फँसाने और मीठी मीठी बातें करने में वह अपना सानी आप ही थे, दूसरा कोई उनकी टक्कर का हो ही नहीं सकता था। 

नतीजा...। मैंने पुनीत का उपन्यास ठीक करने का काम स्वीकार कर लिया और एक ही दिन में उपन्यास एडिट करके, ठीक करके देने का प्रामिस भी कर लिया। 

मैंने दो-तीन दिन में उपन्यास ठीक करके देने को कहा तो सतीश जैन बोले -"नहीं यार, इसे कल तक ही कर दो। बहुत जरूरी है। पुनीत की पढ़ाई भी चल रही है। यह अब कल ही आ सकता है।"

मैंने बहुत आनाकानी की, किन्तु सतीश जैन ने कहा -"यार, तुम्हें खुद अपनी कैपेसिटी नहीं पता, लेकिन मुझे मालूम है - तुम कल तक बड़े आराम से यह नावल ठीक कर दोगे।"

आखिर सतीश जैन के सामने मैंने हार मान ली और फिर तय यह हुआ कि अगले ही दिन तीन बजे तक मैं उपन्यास छापने लायक बना कर दे दूँगा। 

अब तुरन्त काम शुरू करना मेरे लिए बहुत जरूरी था। लिखने के लिए मैंने रायल पाकेट बुक्स के मकान का बाहरी कमरा किराये पर ले रखा था, पर वहाँ जाना भी मुझे समय की बरबादी लगा और मैं देवीनगर में ही, लक्ष्मी पाकेट बुक्स के साथ की ही गली में रहने वाली अपनी बहन प्रतिमा जैन के यहाँ गया और वहीं एक कोने में जम गया। 

आधे पौने घंटे में ही मैंने पुनीत के उपन्यास पर नज़र मार ली। फिर लाल पेन से करेक्शन, एडिटिंग और लिखना आरम्भ कर दिया। 

तब जीजाजी की पोस्टिंग शायद लखनऊ में थी, किन्तु वह उसी दिन छुट्टी पर घर आये हुए थे। 

जीजी ने उनके लिए चाय बनाई तो मेरे लिए भी बनाकर, मेरे पास रख गईं। 

तब मैं चाय बहुत ज्यादा पीता था। सुबह से शाम दस से बीस कप भी हो जाना, मामूली बात थी। 
पर जीजी चाय रख गईं तो भी मैं एक नज़र डाल कर, भूल गया। 

जीजाजी की नज़र पड़ी  और वह बोले -"चाय नहीं पी तूने अभी तक।" तो झट से मैंने कप उठाया और एक ही साँस में ठण्डी चाय हलक से नीचे उतार, कप एक तरफ रख दिया। 

लेकिन गड़बड़ तब हुई, जब जीजी खाना तैयार करके मेरे पास खाने की थाली रख गईं और कहती गईं -"मुन्नू... खाना रखा है। पहले खाना खा ले, फिर कलम चलाइयो।"

मुन्नू मेरा घरेलू नाम है, पर इस नाम से मुझे पुकारने वाली आज केवल मेरी सगी बहनें ही हैं। 

"ठीक है जीजी।" मैंने जीजी की बात सुनकर कहा और सोचा यह चैप्टर ठीक कर लूँ, फिर खाता हूँ।"

पर कलम चलाते हुए भूल गया कि जीजी खाना रख गईं हैं। चौंका, तब जब जीजाजी की कड़क आवाज सुनाई दी - "प्रतिम...।" वह प्रतिमा जीजी को 'प्रतिम' कहकर ही बुलाते थे। 

उनकी आवाज पर जीजी किचेन से कमरे में आ गईं तो जीजाजी जीजी से बोले -"इसे तो कलम चलाने से फुरसत नहीं है। सब खाना खा चुके, इसका यूँ ही ठण्डा हो गया, इसे तू अपने हाथ से ही खाना खिला दे।"

"नहीं-नहीं, मैं खा लूँगा।" मैंने कहा, पर तब तक जीजी ने पास आकर गाल पर एक हल्का-सा थप्पड़ रसीद कर दिया और गुस्से से बोलीं कि -"देख रहा है, जीजाजी आये हुए हैं। यह नहीं कि जीजाजी के पास बैठ, उनके हाल-चाल पूछे, कुछ बातें करे। बस, आया और कागज़ पेन लेकर बैठ गया।"

"जीजी, आप किचेन का काम निपटा लो, मैं खाना खा लूँगा।" मैंने जीजी के बड़बड़ाने पर धीरे से कहा तो वह बोलीं -"अब थप्पड़ खायेगा या चुपचाप खाना खायेगा।" 

आप में से जिनकी भी, माँ समान बड़ी बहन हैं, वे मेरी इन बातों से, बहन के प्यार और गुस्से की स्मृतियों में अवश्य ही खो सकते हैं, मुझे पूरा यकीन है। 

छोटे भाइयों से बड़ी बहनों का प्यार और गुस्से भरी फटकार, जिन्हें नसीब हुई है, निश्चय ही उन्हें मैं अपने जैसा भाग्यशाली ही समझ सकता हूँ।

उस रोज़ मेरी कलम भी चलती रही, जीजी के गुस्से की जुबान भी और मेरा मुँह भी साथ -साथ जुगाली करता रहा, लेकिन मुझे पूरा खाना खिलाकर, जब जीजी खाली थाली उठाकर जाने लगीं तो मेरे सिर पर एक हल्का-सा झापड़ रसीद करना नहीं भूलीं। 

मेरी यह 77 वर्षीय बड़ी बहन आज भी मेरठ के नेहरूनगर में अपने दोनों बेटों और उनके परिवार के साथ रहती हैं। जीजाजी ईश्वर के घर जा चुके हैं, पर जीजी का आशीर्वाद अभी तक मेरे सिर पर है और भगवान से प्रार्थना है - यह बना रहे।

रात को भी मैं टेबल लैंप जलाकर पुनीत का उपन्यास ठीक करने में लगा रहा। भोर के चार बजे के करीब मैंने करेक्शन, एडिटिंग और लिखने का काम पूरा करके उपन्यास के पृष्ठ समेटकर रख दिए और सो गया। फिर जब आँख खुली तो नौ बज चुके थे। 

जीजी ने मुझे उठा देखकर पूछा -"चाय पीयेगा?"

"नेकी और पूछ-पूछ।" मैंने कहा तो जीजी शान्त स्वर में बोलीं -"सुबह-सुबह थप्पड़ खाना है?"

"अरे...। ऐसा मैंने क्या कह दिया ?" मैं बमककर बोला। मुझे भी जीजी से नाराज़ होना बखूबी आता था।

"सीधी बात का सीधा उत्तर नहीं दे सकता कि पीनी है।" जीजी बोलीं। 

"पीनी है।" मैंने कहा।

"ठीक है। अभी बनाती हूँ। सुबह तेरे जीजाजी के लिए बनाई थी, तब तेरे लिए भी बनाई थी। कई आवाज़ दीं, पर तू गहरी नींद में था, इसलिए जगाया नहीं। कितने बजे सोया था?"

"चार बजे....।"

"दिन में भी दस-बारह घंटे होते हैं - काम करने के लिए। उल्लूओं की तरह रात को जागना जरूरी है?" जीजी ने कहा।

मैं कुछ नहीं बोला। बड़ों का लेक्चर सुनने और एक कान से सुन, दूसरे से निकाल देने में, मैं पक्का ढीठ बन चुका था। कम से कम लिखने के बारे में मेरा रूटीन कुछ ऐसा बन गया था कि सुनता सबकी था, पर करता वही था, जिसे करने का कमिटमेंट कर चुका होता था।

दोपहर बारह बजे मैं पुनीत का उपन्यास छपने लायक बनाकर कहना गलत होगा, यह समझिये कि मैं उसे शानदार बनाकर लक्ष्मी पॉकेट बुक्स पहुँचा, उस समय सतीश जैन की टेबल के निकट ही बिछी हुई फोल्डिंग चेयर पर, बदन से भारी गेहूंए रंग की एक महिला बैठी थीं। उनके निकट ही एक अन्य फोल्डिंग चेयर भी खुली हुई बिछी थी।
मुझे देखते ही सतीश जैन के चेहरे पर जो मुस्कान उभरी, मैं सतर्क हो गया। यह मुस्कान मेरे जैसों को हमेशा ठगने वाला जादू रखती थी। 

"आओ यार, अभी मैं इनसे आपकी ही बात कर रहा था।" सतीश जैन महिला की ओर इशारा करते हुए बोले।
मैं कुछ बोला नहीं, कुर्सी पर बैठते हुए पुनीत के उपन्यास की एडिट की हुई स्क्रिप्ट सतीश जैन की टेबल पर रख दी। 

तभी एक आम साधारण सी दिखाई देने वाली, पास की कुर्सी पर बैठी महिला ने मुझे नमस्ते की। उम्र में वह मुझसे कुछ बड़ी ही होंगी, चेहरे पर बला का आत्मविश्वास था। नमस्ते करते हुए उन्होंने मुझे कुछ इस तरह देखा था, जैसे मैं उन्हें अजीब-सा लगा होऊँ।

सतीश जैन ने परिचय कराया -"ये सर्वेश वार्ष्णेय हैं।"

नाम सुनते ही मुझे झटका-सा लगा था। नाम मेरे लिए जाना-पहचाना था। और उन दिनों मेरी याददाश्त तो गज़ब की थी ही, तत्पर बुद्धि भी कमाल की थी।

तभी मैंने सुना कि सतीश जैन सर्वेश वार्ष्णेय से कह रहे थे -"और यह योगेश जी हैं - योगेश मित्तल...इन्हीं का मैं आपसे जिक्र कर रहा था।"

सर्वेश वार्ष्णेय ने फिर से मेरी ओर घूम, मुझे नमस्ते की। मैंने भी दोबारा शालीनता से उत्तर दिया और उनसे पूछा -"आप कहानियाँ लिखती हैं?"

"जी हाँ।" वह बोलीं और आगे भी कुछ बोलने ही जा रही थीं कि मैंने पूछ लिया -"सरिता, मुक़्ता, गृहशोभा में आपकी कहानियाँ छपती हैं?"

सर्वेश वार्ष्णेय के चेहरे पर यह सुनकर, जो खुशी उत्पन्न हुई, देखने लायक थी। सतीश जैन के चेहरे पर भी आश्चर्य के भाव उभर आये -"आपने पढ़ी हैं इनकी कहानियाँ ?" 

"हाँ... अच्छा लिखती हैं।" मैंने कहा।

"पर इन्होंने एक उपन्यास लिखा है। मुझे मज़ा नहीं आया। पर ये उपन्यास छपवाना चाहती हैं। तो यार, तुम ही कुछ कर सकते हो।" सतीश जैन बोले।

"सॉरी यार...।" मैंने कहा -"ये एडिटिंग, करेक्शन, प्रूफरीडिंग आदि फिलहाल मैं बन्द कर रहा हूँ।" 

"ऐसा मत कहो यार।" सतीश जैन बोले -"वरना कितने सारे उपन्यासकार पैदा होने से पहले ही मर जाएंगे।"
तभी सर्वेश वार्ष्णेय बोल पड़ीं -"आप मेरा उपन्यास ठीक कर दो। उसके बाद वो सब बन्द करना, मेरा मतलब है एडिटिंग, करेक्शन, प्रूफरीडिंग...।"

मैं 'ना-ना' करता रहा, लेकिन 'ना-ना' कब 'हाँ-हाँ' हो गयी, मुझे खुद पता नहीं चला। सर्वेश वार्ष्णेय की स्क्रिप्ट सतीश जैन ने मेरे हवाले कर दी। स्क्रिप्ट के पहले पेज पर ही लेखिका के रूप में 'पायल' नाम लिखा था।

"ये पायल कौन है ?" मैंने पहले सतीश जैन और फिर सर्वेश वार्ष्णेय की तरफ देखा।

"मेरा ही नाम है।" सर्वेश वार्ष्णेय बोलीं -"सतीश जी कह रहे हैं कि सर्वेश वार्ष्णेय नाम रीडर की जुबान पर जल्दी चढ़ेगा नहीं, इसलिए उपन्यास लेखिका के रूप में मैंने यह नाम रखा है।"

मैंने कोई टिप्पणी या प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इससे पहले कि मैं पुनीत के उपन्यास के काम का पारिश्रमिक माँगता, सतीश जैन बोले -"सर्वेशजी का उपन्यास भी 'टिच' कर दो, फिर सारा हिसाब कर लेंगे।"

मैं सर्वेश वार्ष्णेय की स्क्रिप्ट पर नज़र डाल ही रहा था कि सतीश जैन उनसे बोले -"यह करेक्शन और एडिटिंग का काम योगेश जी से जल्दी और योगेश जी बढ़िया करने वाला इस समय पब्लिकेशन लाइन में एक भी बन्दा नहीं है।"

आज मैं सोचता हूँ तो लगता है - तारीफ़ सुनना तब मेरी बहुत बड़ी कमजोरी थी और जिन प्रकाशकों को यह मालूम हो गया था, वे खूब चाशनी मिलाकर, बढा-चढ़ाकर तारीफ़ करते थे, पर फिर भी यह भी सच है कि किसी अन्य के उपन्यास को बेहतरीन बनाने का काम उन दिनों मुझसे बेहतर कोई भी नहीं करता था। 

मनोज पॉकेट बुक्स में 'माँग सजा दो सौतन की' में काम करवाने के बाद उस समय काम देख रहे विनय कुमार गुप्ता ने और विजय पॉकेट बुक्स में क़ानून के गुलाम में काम करवाने के बाद विजय पॉकेट बुक्स के स्वामी विजय कुमार मल्होत्रा ने भी कुछ ऐसे ही शब्द कहे थे। शायद इसका कारण यह था कि मैं किसी भी काम के लिए काम करूँ, अपनी तरड़ से पूरी ईमानदारी से दिल से करता रहा हूँ।

सर्वेश वार्ष्णेय जी का उपन्यास भी मैंने अगले दो दिनों में अपनी तरफ से फर्स्ट क्लास कर दिया। 

फिर आई पारिश्रमिक लेने की बारी। सतीश जैन जब हिसाब करने लगे तो उन्होंने  मुझसे पूछा -"हमारा पुराना हिसाब क्या था?"

"क्या था, कुछ नहीं था।" मैंने कहा।

"नहीं था तो जरूर, जो पिछली बार हिसाब करते समय भूल से एडजस्ट करने से रह गया था।"

"नहीं, ऐसा कोई हिसाब नहीं था।" मैंने कहा। हालांकि मुझे समझ आ गया था कि जैन साहब को वो बीस रुपये याद आ गए हैं, जो उन्होंने मेरे रिक्शे के किराए के रूप में दिए थे, पर मैंने यह जताया कि मुझे कुछ याद नहीं, ऐसा नहीं कि बीस रुपये के लिए मैं बेईमान हो रहा था, पर कुछ हरकतें मज़े के लिए भी की जाती हैं।

"अच्छा यार, याद करो, कहीं तुमने रिक्शे के किराये के लिए मुझसे तीस-चालीस रूपये उधार माँगे हों।"

"नहीं, उधार लेने की वैसे भी मेरी आदत नहीं है।" मैंने कहा -"उधार का मतलब है क़र्ज़ और मैंने मुंशी प्रेमचंद की एक किताब में पढ़ा था, क़र्ज़ एक ऐसा मेहमान होता है, जो आने के बाद पीछा नहीं छोड़ता, इसलिए या तो मैं अपने पब्लिशरों से एडवांस लेता हूँ या नगद।"

"हाँ यार वो ही....वो ही नगद....मुझे याद आया, मैंने तुम्हें नगद दिए थे नगद बीस रुपये।" सतीश जैन ने कहा ही था कि सामने एक रिक्शा रुका। रिक्शे पर सर्वेश वार्ष्णेय थीं।

सतीश जैन शायद मुझसे कुछ और कहते, लेकिन बात मुँह से निकले, उससे पहले उनका मुंह बन्द हो गया। 

रिक्शे वाले को विदा कर सर्वेश वार्ष्णेय ने लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के ऑफिस में कदम रखे और दोनों हाथ जोड़कर सतीश जैन और मुझे नमस्ते की। फिर एक फोल्डिंग कुर्सी खुद ही खींचकर, बिछा कर बैठ गईं।

"भाई साहब, आपने मेरा उपन्यास ठीक कर दिया?" उन्होंने मेरी तरफ गर्दन मोड़कर कुछ इस अंदाज़ में सवाल किया, जैसे मुझे बरसों से जानती हों।

"उपन्यास तो सही कर दिया, लेकिन जैन साहब ठीक-ठाक पेमेन्ट कर दें तो मैं भी खिसकूँ।" मैंने कहा।

"पेमेन्ट, अरे हाँ पेमेन्ट, अभी लो...।" सतीश जैन ने जेब से नोटों की गड्डी निकाली और गिनकर पारिश्रमिक दिया, मगर बीस रुपये कम थे। मैं आमतौर पर प्रकाशकों से पारिश्रमिक लेकर नोट कभी गिनता नहीं था, पर उस समय मैंने गिने और बोला -"जैन साहब, बीस रुपये कम हैं।"

सतीश जैन ने यूँ देखा मुझे, जैसे मैंने उनकी बड़ी भारी बेइज़्ज़ती कर दी हो, पर प्रकट में तुरन्त बीस रुपये मेरी तरफ बढ़ा दिए।

मैं झट से उठ खड़ा हुआ और सर्वेश वार्ष्णेय जी से सम्बोधित होते हुए बोला -"चलता हूँ सर्वेश जी। उपन्यास चेक कर लीजियेगा कि मैंने सही काम किया भी या नहीं।"

"क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं। जैन साहब ने बताया है आपके बारे में। आपने काम किया हो और सही न हो, हो ही नहीं सकता। और अभी बैठिये न - एक चाय हमारे साथ भी पीकर जाइयेगा। और मेरा उपन्यास छप जाए, फिर मैं अपने होटल में आपको पार्टी दूंगी।" सर्वेश वार्ष्णेय ने कहा।

पर उनके मुँह से 'अपने होटल में' सुनकर मैं चौंक गया।                        

सतीश जैन ने मेरे अचरज को संभवतः भांप लिया, तुरन्त बोले -"इनका पुल बेगम पर एक रेस्टोरेन्ट है।"

सतीश जैन ने चाय मँगाई। हम सबने चाय पी। फिर मैं लक्ष्मी पॉकेट बुक्स के ऑफिस से निकल लिया। रास्ते में मैं यही सोच रहा था कि अब सबसे पहले वेद भाई के लिए एक धाँसू उपन्यास तैयार करता हूँ। सोचते-सोचते मैं सीधा जीजी के यहाँ पहुँचा। 

मगर मुझे नहीं पता था कि वहाँ कोई बड़ी बेचैनी से मेरा इन्तजार कर रहा है।

वो शख्स राजेंद्र भूषण जैन थे, मेरे मेरठ वाले जीजाजी शांतिभूषण जैन के छोटे भाई। वह दिल्ली के विश्वासनगर, शाहदरा में रहते थे और मनोज पॉकेट बुक्स में अकाउंटेंट का काम करते थे। उन्हें मनोज पॉकेट बुक्स में नौकरी मैंने ही दिलाई थी और मनोज पॉकेट बुक्स में सभी जानते थे कि वह मेरे रिश्तेदार हैं। जब मनोज पॉकेट बुक्स में सभी भाई एक साथ थे, तब एक बार पहले भी मुझे कहीं से भी पकड़ लाने का काम राजेंद्र भूषण जैन को सौंपा था और उन्होंने मेरठ आकर मुझे पकड़ लिया था। पर वो किस्सा फिर कभी.....

"मुझे पता था, तुम यहीं मिलोगे। तुम्हें जब भी ढूँढना होता है, मनोज वाले मेरी ड्यूटी लगा देते हैं। क्यों बार-बार मुझे परेशान करते हो। चलो, अपना सामान उठाओ और दिल्ली चलो।" राजेंद्र भूषण जैन मेरी शक्ल देखते ही बोले।

(शेष फिर)

2 टिप्‍पणियां:

  1. इतने दिलचस्प तो उपन्यास नहीं होते योगेश जी जितनी दिलचस्प आपकी यह संस्मरण-श्रृंखला है। एक सप्ताह से नई कड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था। अब आगामी कड़ी की प्रतीक्षा आरंभ हो गई है।

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    1. शुक्रिया भाई जी, कुछ स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से कभी कभी विलम्ब हो जाता है! अब शीघ्र ही आगे के एपिसोड प्रस्तुत करूँगा!

      जय श्रीकृष्ण!

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