वो कल्पना थी | योगेश मित्तल | हिंदी कविता - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

वो कल्पना थी | योगेश मित्तल | हिंदी कविता

वो कल्पना थी | योगेश मित्तल | हिंदी कविता
स्रोत: पिकसाबे



 वो ही थी मेरी एक कविता, 

मैं था - उसकी  एक  कहानी। 

दर्द - दर्द  था  मेरा  किस्सा, 

वो  खुश्बू  की   रात  सुहानी। 



उसकी आँखें जब खुलती थीं, 

सूरज सिर पर  आ जाता था। 

पलकें जब मुंद जाती उसकी, 

चांद  छिपा  भी, मुस्काता था। 



फूल  हमेशा  खिल  जाते  थे, 

जब बगिया में,  वो आती थी। 

भंवरे गुन - गुन - गुन गाते थे, 

जब वो खुलकर मुस्काती थी। 



मोती  चमक-दमक  जाते थे, 

जब वो हँसकर- बातें करती। 

कदम जहाँ पर पड़ते उसके, 

हरी - भरी  हो  जाती  धरती। 



मेरे  मन  की  वीणा  थी  वो, 

सात सुरों की थी  वो सरगम। 

उसके  बिना  अधूरा  हूँ  मैं, 

किसे सुनाऊँ अपना यह गम। 



ज्यों चन्दा की ज्योति खो गई, 

ज्यों सूरज भी अस्त हो गया। 

वैसे  ही   टूटा   मेरा   सपना, 

मनमोहक वो अक्स खो गया।


योगेश मित्तल

2 टिप्‍पणियां:

  1. मन को कहीं गहरे तक स्पर्श कर जाने वाली कविता रची है योगेश जी आपने।

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    1. शुक्रिया...! दरअसल मेरी कविता में अक्सर मैं खुद नायक नहीं होता, मिलने जुलने वालों की किसी बात से ही कुछ बात सूझ जाती है! ज्यादातर ऐसा ही होता है, क्योंकि मैं बहुत मस्त और जिन्दादिल हूँ!

      और कभी कभी तो मित्रों के कमेन्ट या किसी पोस्ट से ही कोई आइडिया मिल जाता है!

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