बदले जमाने की चाहत - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शनिवार, 30 जनवरी 2021

बदले जमाने की चाहत

बदले जमाने की चाहत | योगेश मित्तल | हिन्दी कविता
Image by Madhana Gopal from Pixabay 

 
मेरे पास नहीं है फुरसत, 
इधर-उधर की बातें सोचूँ! 
फिर फिजूल में सिर में दर्द कर, 
अपने ही बालों को नोचूँ!

मैं भी बहुत व्यस्त रहता हूँ,
टाइम नहीं होता मेरे पास! 
पर मैं तुम्हें फोन करता हूँ, 
फिर हो जाता बहुत उदास! 

अभी बहुत बिज़ी हूँ, कहकर, 
फोन काट देती हो, हमेशा! 
जैसे उसी फोन पर आना हो, 
कोई तुम्हारा गुप्त संदेशा!

शायद अब वो नहीं रहा मैं, 
जो कल तक तुमको भाता था!
और तुम्हीं तो खुद कहती थीं, 
अक्सर सपनों में आता था!

नया युग है  - नया जमाना, 
चाहत  रोज़ बदल जाती है! 
कल तक बाइक पसन्द करती थी,
मोटर कार आज भाती है! 

- योगेश मित्तल
© योगेश मित्तल

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