कहे कलम, ऐसा कुछ लिखूँ - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

कहे कलम, ऐसा कुछ लिखूँ

कहे कलम , ऐसा कुछ लिखूँ
Image by Pexels from Pixabay 


जब भी  मैं कुछ लिखने लगता हूँ, 
हाथ   अचानक   रुक   जाते   हैं! 
जो  भी  लिखूँ  -  सच  ही  लिखूँ, 
शब्द - कलम  यह   धमकाते   हैं!

अगर गलती से गलत लिख दिया, 
मेरी   कलम    ठहर   जाती    है! 
कितनी  भी  मैं  कोशिश  कर  लूँ, 
जरा   न   आगे   बढ़   पाती   है! 

अगर   कहीं   अन्याय   हो   रहा, 
कलम    शोर    मचाने    लगती! 
मेरे   शब्द   इन्कलाबी  हो   उट्ठें,
ऐसा     क्रोध     बढ़ाने    लगती! 

कोई    भूखा    कहीं   न    सोये, 
मुझसे  मेरी   कलम  कहती   है! 
कोई   रोग   से   दुखी   न   होये,
कहकर  कलम,  दुखी  रहती  है!

कोख  में  बिटिया  दम  न  तोड़े, 
दर्द   सहे   न   बलात्कार    का! 
और   दहेज़   में   जले  कहीं  न, 
जीवन   पाये   सदा   प्यार   का!

हरेक हाथ को - काम मिले और
युवा   कोई   बेरोजगार  न   रहे! 
कहे कलम, ऐसा   कुछ  लिक्खूं
देश  में नाकारा  सरकार न  रहे! 
- योगेश मित्तल

© योगेश मित्तल 

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