पुरानी किताबी दुनिया से परिचय #3 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2021

पुरानी किताबी दुनिया से परिचय #3

योगेश मित्तल

कलकत्ते से आने के बाद दिल्ली के गाँधीनगर में बसने पर मेरे सबसे पहले जो दो दोस्त बने, उनमें से एक था नरेश गोयल, दूसरा था अरुण कुमार शर्मा !

नरेश गोयल तो ठीक-ठाक फैमिली से था, पर अरुण कुमार शर्मा के दिन मुफ़लिसी के थे !

रघुबरपुरा नम्बर दो या शायद शान्ति मोहल्ले में घर जरूर अपना था, पर अधबना, जिसका फर्श भी कच्चा था ! लम्बा-गोरा भूरी आँखों वाला अरुण कुमार शर्मा रोज ही सुबह शाम मुझसे मिलता था ! जब मेरी सिटिंग "विशाल लाइब्रेरी" में होने लगी तो वह मुझसे मिलने विशाल लाइब्रेरी भी आने लगा, किन्तु एक-दो बार में ही उसे भी और मुझे भी यह एहसास हो गया कि बिमल चटर्जी ने उसे पसन्द नहीं किया है, बल्कि विशाल लाइब्रेरी में उसका आना भी बिमल को नापसन्द था !

अरुण को अक्सर पैसों की जरूरत रहती थी ! कभी वह मुझसे माँगता तो मैं मना नहीं करता था ! 

जब उसने यह जाना कि मैं बिमल चटर्जी के लिए कहानियाँ लिख रहा हूँ और बिमल मुझे हर कहानी के पाँच रुपये देते हैं तो उसके दिल में भी कहानियाँ लिखने की धुन सवार हो गई !

उसने भी कहानियाँ लिखनी शुरु कर दीं, पर अपनी लिखी कहानियों से उसे सन्तोष नहीं मिला ! वह सभी कहानियाँ मेरे पास ले आया ! मुझे पढ़ने को दीं !

कहानियों की शुरुआत व अच्छे विषय के बावजूद सारी कहानियाँ बकवास थीं ! अन्त तो किसी भी कहानी का ठीक नहीं था ! पर अरुण मेरा दोस्त था ! उसका दिल रखने के लिए मैंने यही कहा कि अच्छी कोशिश है, पर तुझे अभी बहुत मेहनत करनी होगी !

अरुण ने दो टूक शब्दों में पूछा - "छपने लायक है या नहीं ! किसी प्रकाशक को पसन्द आयेगी या नहीं ?"

फिर मेरे चुप रहने पर वह खुद ही बोला कि यार पैसे की बड़ी तंगी है ! तू इन्हें छपने लायक बना दे !"

और यहीं से मेरे सम्पादन- लेखन का एक नया अध्याय शुरु हुआ !

मैंने अरुण की सारी कहानियों में करेक्शन, एडिटिंग करके, अपनी तरफ से उनमें बीच-बीच के तथा अन्त के रोचक दृश्य लिखकर उन्हें काफी बेहतर बना दिया ! फिर वह अरुण को वापस दे दीं !

फिर उसने उन कहानियों का क्या किया, मुझे मालूम नहीं पड़ा ! काफी दिनों तक वह मुझसे मिलने भी नही आया !

मैं बिमल चटर्जी के साथ कहानियाँ लिखने में व्यस्त रहने लगा ! उन्हीं दिनों मेरी जिन्दगी में  एक और लेखक ने प्रवेश किया, जिसका नाम कुमारप्रिय था ! कुमारप्रिय ने खुद ही मुझसे पहचान बढ़ाई ! वह अच्छा फोटोग्राफर भी था और उसके पास एक कैमरा भी था ! पर यह चैप्टर बाद में !

शुरु-शुरु में बिमल चटर्जी में एक कमजोरी थी कि वह कोई भी बड़ी कहानी या उपन्यास लिखते तो बीच में कहीं भी अटक जाते ! ऐसे में जब भी वह मुझसे चर्चा करते, मैं उन्हें सलाह देता कि जहाँ भी आपकी लेखनी में ब्रेक लगे, आगे क्या लिखना है, न सूझे, वहीं कहानी में एक-दो नये कैरेक्टर ले आओ ! कभी काॅमेडी करनेवाले तो कभी विलेन टाइप के बदमाश ! उदाहरण समझाने के लिए मैंने उनकी कई कहानियों में बीच के दृश्य भी लिखे !

फिर भी लम्बी कहानियों या उपन्यास का अन्त करना उन्हें सबसे मुश्किल काम लगता ! ऐसे में वह अन्त लिखने का काम मुझे सौंप देते !  उनके साथ रहते हुए, उनके शुरु-शुरु के बहुत से उपन्यासों और लम्बी कहानियों का अन्त लिखने का सौभाग्य मुझे हासिल हुआ ! 

उनके द्वारा दी जानेवाली इस जिम्मेदारी ने मुझे कहानियों और उपन्यासों का अन्त लिखने का स्पेशलिस्ट भी बना दिया, जिसका फायदा बाद में मुझे मनोज पाॅकेट बुक्स, राज पाॅकेट बुक्स और विमल पाॅकेट बुक्स के बहुत से उपन्यासों का अंत लिखने में मिला !

आप शायद यकीन न करें, लेकिन विमल पाॅकेट बुक्स में प्रकाशित एक उपन्यास कलंकिनी का अन्त मैंने बिना पूरा उपन्यास पढ़े लिखा था ! दरअसल उपन्यास का आखिरी फार्म यानि अन्तिम सोलह पेज प्रकाशक महोदय की टेबल पर थे और उसी को पढ़कर मुझे "एण्ड" बदलना था !

सामने प्रकाशक महोदय की सुपुत्री रमा जी थीं, जिन्होंने उपन्यास के प्रूफ पढ़े थे ! मैंने रमा जी से कहा - आपने प्रूफ पढ़े हैं तो आपको उपन्यास की कहानी कुछ तो याद होगी, मुझे संक्षेप में सुना दीजिये ! 

रमा जी ने संक्षेप में उपन्यास की कहानी सुनाई और मैंने उपन्यास का अन्त लिखा, जो रमा जी को बहुत पसन्द आया !

एक ऐसा ही घटना तब घटी, जब राजन-इकबाल सीरीज़ के बाल उपन्यासों के लेखक एस.सी.बेदी झाँसी में रह रहे थे और राज पाॅकेट बुक्स के स्वामी राजकुमार गुप्ता राजन-इकबाल सीरीज़ के उपन्यासों का सैट छाप रहे थे ! सैट की एक को छोड़ सारी किताबें तैयार थीं कि पंगा हो गया !

कम्प्यूटर का जमाना नहीं था, पुस्तकें टाइप करने के लिए लोहे की डाइयों से बने एक-एक फोन्ट को जोड़कर शब्द और लाइनें तैयार की जाती थीं और लाइनों को जोड़कर पेज तैयार होता था और एक-एक पेज कई किलो का होता था !

अधिकांश प्रेसवालों की अपनी कम्पोजिंग एजेन्सियाँ होती थीं, जिनमें काम करनेवाले अधिकांश लोग सातवीं-आठवीं से अधिक पढ़े-लिखे नहीं होते थे और ये कम्पोजिंग एजेन्सियाँ अमूमन उस बिल्डिंग की छत पर होती थीं ! (ग्राउंड फ्लोर या बेसमेंट में प्रिंटिंग मशीनें लगी होती थीं !)

और ऐसी कम्पोजिंग एजेन्सियों की छत भी पक्की नहीं होती थी ! टीन की चादरें पड़ी होती थीं, जिनमें अक्सर कई-कई जगह सुराख भी होते थे और तेज बारिशों के समय दो चादरों के जोड़ के बीच से भी पानी की धार कम्पोजिंग एजेन्सी में काम करनेवालों को अक्सर नहला देेती थी !

बाॅलपेन का जमाना भी नहीं था, तब निब वाले फाउन्टेन पेन से कहानियाँ लिखी जाती थीं !

तो ऐसी ही एक कम्पोजिंग एजेन्सी में टाइप हो रहे एस. सी. बेदी के राजन-इकबाल सीरीज़ के एक उपन्यास का अंत बारिश में धुल गया !

उन दिनों मोबाइल नहीं होते थे ! लैण्डलाइन फोन भी किसी-किसी घर में होते थे !

एस.सी.बेदी की श्रीमती जी झाँसी के किसी स्कूल में शिक्षिका थीं और संयोग से उनके यहाँ फोन भी था !

राज कुमार गुप्ता यानि राज बाबू ने बेदी साहब को फोन किया ! बहुत कोशिशों के बाद फोन मिला तो बेदी साहब ने स्वास्थ्य सम्बन्धी व पारिवारिक कारणों से तत्काल दिल्ली आने में असमर्थता जताई !

तो राज बाबू ने पूछा कि किसी और से उपन्यास का अन्त लिखवा लें !

"नहीं, किसी और से नहीं ! अगर हो सके तो योगेश से लिखवा लें !" बेदी साहब ने कहा !

बेदी साहब से अपनी पहचान और यारी की कहानी फिर सुनाऊँगा, पर बेदी साहब के कहने पर राज बाबू ने अपने एक कर्मचारी मुलखराज को मेरे घर का पता बताया और जैसे भी हो, थ्रीव्हीलर करके मुझे पकड़कर लाने को कहा !

दरअसल उस समय मेरे याराने इतने ज्यादा हो गये थे कि मैं ऐसी उड़ती चिड़िया हो गया था, जो मुश्किल से ही हाथ आती है !

पर मुलखराज ने मुझे पकड़ लिया ! इसके लिए उसे मेरे घर के बाहर दो घंटे तक इन्तजार करना पड़ा था !

तब राज पाॅकेट बुक्स का आॅफिस शक्तिनगर के एक बेसमेंट में था !

उसी बेसमेंट से राज बाबू ने राज पाॅकेट बुक्स के बहुत सैट और जगदीश पाॅकेट बुक्स के कुछ सैट निकाले !

तब राज पाॅकेट बुक्स में प्रूफरीडिंग का काम बख्शी साहब करते थे, जिन्हें बहुत से प्रतिष्ठित संस्थानों में काम करने का तजुर्बा था !

बेदी साहब के राजन-इकबाल सीरीज़ के उपन्यास का अन्त करने की समस्या मुझे बताई गई ! मुश्किल यह थी कि उपन्यास के सिर्फ आखिरी चार पन्ने मेरे सामने थे, जो बारिश में पूरी तरह भीगने से बच गये थे ! सारे फार्मों के प्रूफ व ओरिजिनल प्रेस में थे और उन्हें मँगवाने में एक दिन बरबाद होना निश्चित था और पुस्तक का अंत अति शीघ्र चाहिए था ! सैट डिस्पैच करने की तारीख़ पोस्ट आॅफिस से ली जा चुकी थी और किताब बाइन्ड भी होनी थी ! एक-एक पल कीमती था !

बख्शी साहब ने प्रूफ पढ़े थे ! मैंने बख्शी साहब से संक्षेप में कहानी पूछी ! चरित्रों के बारे में जानकारी हासिल की और पेन उठा लिया !

दो महीने बाद एस.सी. बेदी साहब झाँसी से दिल्ली आये तो यशपाल वालिया जी के यहाँ उनसे मुलाकात हुई !

पतले-दुबले लम्बे बेदी साहब ने मुझे देखते ही गोद में उठा लिया और हकलाते हुए कहा -"कमाल कर दिया योगेशजी ! इतना बढ़िया एण्ड तो मैंने भी नहीं लिखा था, जितना बढिया एण्ड आपने किया है ! इसीलिए मैंने राज बाबू से कहा था कि एण्ड योगेश के अलावा किसी और से मत करवाना !"

बेदी साहब को जन्मजात हकलाने की बीमारी थी ! पर वह बहुत ही बढ़िया दोस्त रहे हैं !

खैर, हम बात अरुण कुमार शर्मा की कर रहे थे ! काफी दिनों बाद जब वह मिला तो उसके हाथ में एक अखबार था, जिसमें नये लेखकों की आवश्यकता का विज्ञापन छपा था !

अरुण ने मुझसे कहा कि योगेश यह तेरे लिए गोल्डन चांस है ! एक बार मिलकर देख शायद बात बन जाये !

उस समय तक मैं अपनी जिन्दगी में कभी किसी प्रकाशक से नहीं मिला था !

 - योगेश मित्तल

इस श्रृंखला की पूरी कड़ियाँ निम्न लिंक पर जाकर पढ़ी जा सकती हैं:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय

©योगेश मित्तल

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