Image by Shreyas Ganapule from Pixabay |
दो चार घड़ी - जीने के लिए,
सौ बार रोज मरता हूँ मैं!
और दो रोटी की खातिर भी,
जाने क्या नित करता हूँ मैं!
हर रोज़ सुबह से शाम तलक,
झूठ के बाग उगाता हूँ!
फिर अपनी लाश सम्भाले हुए
बिस्तर पर ढेर हो जाता हूँ!
बच्चों की फरमाइश सुनकर,
वादों की झड़ी लगाता हूँ!
कैसे भी उनके चेहरों पर,
अक्सर मुस्कान ले आता हूँ!
पत्नी के आँसुओं को हरदम,
अनदेखा - सा कर देता हूँ!
दफ्तर में गालियाँ खा-खाकर,
उर्जा खुद में भर लेता हूँ!
कोई मेरी व्यथा - क्या जानेगा,
हूँ मिडिल क्लास मामूली नर!
आधा पेट रोज खाते - खाते,
जाने कब मैं जाऊँगा मर!
योगेश मित्तल
©योगेश मित्तल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें