पुरानी किताबी दुनिया से परिचय - 4 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

पुरानी किताबी दुनिया से परिचय - 4

योगेश मित्तल: पुरानी किताबी दुनिया से परिचय 4

न दिनों हिन्दी फिल्मी पत्रिकाओं की बहुत धूम थी ! मोबाइल, टीवी, इन्टरनेट कुछ भी नहीं था ! लोगों के मनोरंजन का साधन किताबें, फिल्में, सर्कस तथा भालू व बन्दर के तमाशे, नौटंकी, नाटक आदि थे ! इनमें सबसे सस्ता मनोरंजन पुस्तकें ही थीं और देर तक आनन्द देने में पुस्तकों का सानी कोई नहीं था !

और युवा वर्ग तथा महिलाओं में फिल्मी पत्रिकाओं की लोकप्रियता सर्वोच्च थी !

ऐसी ही एक पत्रिका थी - रंगभूमि !

रंगभूमि प्रकाशन से और भी कई पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं ! दिल्ली में आनेवाले कैलाश श्रीवास्तव को रंगभूमि कार्यालय में कब और क्या काम मिला, इस बारे में बहुत कुछ बता पाना मेरे लिए सम्भव नहीं है ! बहुत सी चीजें यादों व जानकारी से बाहर हैं, पर रंगभूमि प्रकाशन ने कैलाश श्रीवास्तव को कुमारप्रिय नाम और पहचान दी ! हालांकि यह नाम कैलाश श्रीवास्तव ने स्वयं ही अपने लिए चुना था !

लेखकीय कीटाणु शायद कैलाश श्रीवास्तव के खून में भी थे !

कैलाश के सबसे बड़े भाई सुशील कुमार साहित्यिक लेखकों में जाने जाते थे ! मँझले भाई कुणाल श्रीवास्तव भी बड़े भाई सुशील कुमार के नक्शेकदम पर चल रहे थे, पर उन्हें बहुत ज्यादा ख्याति मिली इलाहाबाद से छपनेवाली नूतन कहानियाँ के सम्पादक के रूप में !

नूतन कहानियाँ, उन दिनों मित्र प्रकाशन से प्रकाशित होनेवाली मनोहर कहानियाँ से टक्कर लेने की कोशिश कर रही थी !

कैलाश श्रीवास्तव तीनों भाइयों में सबसे छोटे थे और वह साहित्य से अलग एक बेस्टसेलर लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे ! देखने में कुमारप्रिय उतने आकर्षक नहीं थे, जितनी शानदार उनकी तस्वीरें कैमरे में आया करती थीं !

रंगभूमि प्रकाशन ने कुमारप्रिय का उपन्यास "गुड़िया" प्रकाशित किया, जिसका रंगभूमि प्रकाशन की सभी पत्रिकाओं में जबरदस्त प्रचार किया गया !

विशेष बात यह थी कि "गुड़िया" का कवर डिजाइन, इनर सैटिंग, प्रूफरीडिंग, सब कुछ कुमारप्रिय उर्फ कैलाश श्रीवास्तव ने बहुत ही खूबसूरती से स्वयं किया था ! विज्ञापन के पेज भी खुद ही तैयार किये थे !

कुमारप्रिय बिमल चटर्जी की विशाल लाइब्रेरी में कई बार आ जा चुके थे, पर मुझसे पहचान नहीं हुई थी !

पर एक रोज जब मैं घर के रास्ते पर था कुमारप्रिय मुझे अचानक ही मिल गये ! मुझे नहीं पता कि वह सचमुच अनायास ही मिले थे या मुझसे मिलने के लिए विशाल लाइब्रेरी से आगे खड़े मेरा इन्तजार कर रहे थे !

उनके चेहरे पर काला चश्मा था तथा एक हाथ में एक ब्रीफकेस थामे हुए थे ! होठों में सिगरेट दबी थी ! होठों से सिगरेट निकाल वह मुझसे बोले - "योगेश जी, कैसे हैं आप ? हम कई दिनों से आपसे मिलने की सोच रहे थे ?"

उनकी अंगुलियों में दबी सिगरेट बस खत्म ही होनेवाली थी ! उन्होंने सिगरेट का टोटा मुँह से लगाये अपनी पाॅकेट से विल्स नेवी कट का पैकेट निकाला और नई सिगरेट निकाल कर सिगरेट का जलता हुआ टोटा मुँह से निकाला और नई सिगरेट होठों में दबा, कश खींच टोटे से उसे सुलगाने लगे ! आगे की ओर के उठे हुए, पीछे की ओर काढ़े जवान देवानन्द जैसे फूले हुए बाल और काले चश्मे में छिपी हुई आँखें, किसी पुरानी फिल्म के जासूस जैसी पर्सनालिटी थी कुमारप्रिय की !

मेरे लिए कुमारप्रिय अजनबी थे ! मैंने उनके चेहरे की ओर देख, याद करने की कोशिश की तो याद आया कि इस शख़्स को कई बार विशाल लाइब्रेरी में देखा है ! पर एक कोने में बैठा मैं अपनी कहानियाँ लिखने में मस्त रहता था, अतः बिमल से कुमारप्रिय की बातों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था !

दरअसल लिखने के मामले में मुझे भगवान की अद्भुत देन यह थी कि मुझे सोचने के लिए एक भी क्षण बरबाद नहीं करना पड़ता था ! पेन हाथ में लेते ही शुरु हो जाता था ! यह खूबी मुझ में अब भी बरकरार है ! बस, पेन का स्थान कम्प्यूटर के कीबोर्ड ने ले लिया है !

"लगता है आप हमें पहचाने नहीं !" और कुमारप्रिय ने सिगरेट मुँह में दबा ब्रीफकेस को एक हाथ पर टिका, दूसरे हाथ से खोला और उसमें से एक किताब निकाल, मुझे पकड़ाई और ब्रीफकेस बन्द किया ! फिर किताब मेरे हाथ से ले, उसे घुमाकर, उसके बैक कवर पर छपी लेखक की बेहद खूबसूरत तस्वीर दिखाकर मुस्कुरा कर बोले - "यह हम हैं भई !"

गजब का निराला अन्दाज़ था कुमारप्रिय का ! मैंने उनके हाथ से पुस्तक ली और कभी उनका चेहरा और कभी तस्वीर देखने लगा !

तस्वीर कुमारप्रिय से अधिक खूबसूरत थी, पर दो-तीन बार देखने पर यकीन हो गया कि मेरी आँखों के सामने तस्वीर वाला शख्स ही है !

फिर जो कुमारप्रिय से आगे बातें हुईं वह संक्षेप में इस प्रकार थीं ! कुमारप्रिय ने मुझसे कहा - "दरअसल हमें एक कमरे की जरूरत है ! जिस जगह हम रह रहे हैं, मकानमालिक कमरा खाली करने को कह रहा है ! और हम तो यहाँ किसी को जानते नहीं ! ये कमरा भी रंगभूमि में काम करनेवाले एक शख़्स ने दिलवाया था ! पर अब वो रंगभूमि छोड़ गया है ! हमने बिमल चटर्जी तथा और भी कई लोगों को बोला है ! सोचा आपसे भी कह दें ! शायद आपके पास ही कहीं एक कमरा मिल जाये !"

बातों-बातों में कुमारप्रिय मुझे अपने साथ, अपने कमरे तक ले आये !

कुमारप्रिय का कमरे का मुख्य दरवाजा बाहर गली में था ! दरवाजा खोलकर कमरे में प्रवेश किया तो सामने भी एक दरवाजा दिखा, जो मकान के अन्दर खुलता था, पर उस समय वह बन्द था ! छोटा-सा कमरा था, जिसमें एक दीवार से सटी एक चारपाई और उसके सामने एक सेन्टर टेबल थी ! टेबल पर एक ऐश-ट्रे थी, जो पूरी तरह सिगरेट के टोटों से भरी थी ! इतनी ज्यादा भरी थी कि बहुत सारे टोटे सेन्टर टेबल और नीचे फर्श पर भी चारों ओर पड़े दिखाई दे रहे थे ! विल्स नेवीकट और प्लेन चारमीनार के कई पैकेट भी सेन्टर टेबल पर थे !

फिर मैंने जब कुमारप्रिय से इजाजत चाही तो कुमारप्रिय बोले - "अरे आप पहली बार हमारे यहाँ आये हैं और हम कुछ पूछ भी नहीं सकते ! हमारा तो खाना-पीना सब बाहर ढाबों पर चलता है ! पर आइये, आपको घर तक छोड़ देते हैं !"

हम जिस रास्ते से आये थे, मैं वापसी के लिए उसी रास्ते पर मुड़ने लगा तो कुमारप्रिय ने कहा - "अरे, इधर-किधर जा रहे हैं ! यहाँ से सीधे जायेंगे तो पहले मोड़ पर बिमल चटर्जी के घर की गली आयेगी ! उसमें बिना मुड़े सीधे चलते रहेंगे तो यह गली आपके घर के ठीक सामने खत्म होगी !"

कमाल की बात थी ! एक शख्स, जिसे गाँधीनगर आये ज्यादा समय नहीं हुआ था, मुझे मेरे घर का रास्ता बता रहा था !

पर कुमारप्रिय की विशेषताओं और उनके नजदीक से नजदीक आने की बातें फिर कभी ! मुख्य बात यह कि उस दिन मेरी जिन्दगी में शामिल हुआ कुमारप्रिय बहुत जल्दी मेरे परिवार का हिस्सा बन गया !

मेरा छोटा भाई राकेश उन दिनों मालीवाड़े के एक कारखानेदार बिमल जैन के यहाँ एम्ब्रायडरी कढ़ाई का काम करने लगा था ! 

एक दिन बिमल जैन से कुमारप्रिय की मुलाकात भी हो गई थी और बिमल जैन को प्रकाशक बनने की धुन सवार हो गई !

कुमारप्रिय नाम तो मशहूर था ही ! तय हुआ दो उपन्यास छापे जायेंगे ! 

दूसरा उपन्यास मैं लिखूँगा और वह इमरान सीरीज़ का होगा और एच. इकबाल के नाम से छापा जायेगा !

और तब दिल्ली से पंकज पाॅकेट बुक्स आरम्भ हुई, जिसके पहले सैट में कुमारप्रिय का सामाजिक रोमांटिक उपन्यास था - "मेरे अरमान तेरे सपने" तथा मेरा लिखा जासूसी उपन्यास था - "ओलम्पिक में हंगामा"

ओलम्पिक में इजरायली खिलाड़ियों की हत्या की पृष्ठभूमि पर मार्केट में वह पहला ही उपन्यास था !

दोनों किताबें कामयाब रहीं ! बिक्रेताओं और पाठकों में पंकज पाॅकेट बुक्स की साख पहले ही सैट में बन गई ! तब दूसरे सैट में तीन किताबें छापने का प्रोग्राम बना ! तीसरी किताब एक बाल पाकेट बुक्स थी ! जिसमें दो उपन्यास जोड़कर इस तरह छापे गये कि दोनों तरफ से एक-एक उपन्यास पढ़ा जाये ! एक उपन्यास था - काला घोड़ा नीली झील ! दूसरे का नाम फिलहाल भूल रहा हूँ ! दोनों उपन्यासों में लेखकों नाम क्रमशः "रानो जीजी" व "इन्दर भैया" था, पर लिखे मैंने ही थे ! सैट में एच. इकबाल नाम के लिए मेरा उपन्यास था - "धाँय-धाँय-धाँय" और कुमारप्रिय का उपन्यास था - "राख की दुल्हन"

तब मैं कहानियाँ रूल्ड फुलस्केप पेपर पर लिखता था, पर उपन्यास मोटे रजिस्टर पर लिखा करता था !

धाँय-धाँय-धाँय का लेखन चल ही रहा था, जब मेरे दोस्त अरुण कुमार शर्मा ने मेरे हाथों में भारती पाॅकेट बुक्स का विज्ञापन मेरे हाथ में दिया !

उन दिनों मैं लिखने की एक मशीन बना हुआ था ! बिमल चटर्जी को जितनी कहानियाँ चाहिए होती थीं ! उपन्यास या बाल उपन्यास चाहिए होते थे, वह भी लिखता था !

कुमारप्रिय के साथ पंकज पाॅकेट बुक्स के लिए भी लिख रहा था और अब मैंने भारती पाॅकेट बुक्स में जाने का हौसला भी बना लिया था !

(क्रमशः)

इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय

©योगेश मित्तल

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