कुमारप्रिय उर्फ कैलाश श्रीवास्तव, कुणाल श्रीवास्तव एवं सुशील कुमार श्रीवास्तव : तीन भाई, तीनों साहित्यकार - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

कुमारप्रिय उर्फ कैलाश श्रीवास्तव, कुणाल श्रीवास्तव एवं सुशील कुमार श्रीवास्तव : तीन भाई, तीनों साहित्यकार

अर्से से मेरी कुमारप्रिय से  मुलाकात नहीं हुई है ! मिलना चाहता हूँ! आखिरी बार हम लक्ष्मी नगर के एक मकान में मिले थे! 


उसी मकान में किसी समय मोहन पाकेट बुक्स के मालिक - अपना मकान खरीदने से पहले किरायेदार थे! 


उनके बाद लक्ष्मी नगर, (जमुना पार - दिल्ली)  का वही मकान कुमारप्रिय ने किराये पर लिया था, तब वह एक शिष्ट, सुशील महिला से विवाह भी कर चुके थे, लेकिन विवाह के कई वर्ष बाद भी उनके कोई सन्तान नहीं थी और उन दिनों उनकी धर्मपत्नी बहुत ज्यादा अस्वस्थ चल रहीं थीं! दवाओं और घर के खर्च उठाने में कुमारप्रिय पूरी तरह सफल नहीं हो रहे थे! पड़ोसी दुकानदारों से उधारी चलती रहती थी, इसलिये किसी काम में रुकावट नहीं आती थी, जिसका एक कारण यह भी था कि आसपास के लोग उनका बहुत ज्यादा आदर करते थे! 



तब उनका उपन्यास लिखना बहुत कम हो गया था, पर रंगभूमि कार्यालय से निकलने वाली सभी पत्रिकाओं के लिए लिखना, प्रूफरीडिंग, सम्पादन करते रहे थे! 


उन दिनों कुमारप्रिय  उर्फ कैलाश श्रीवास्तव से बड़े और मंझले भाई कुणाल श्रीवास्तव कुसुम प्रकाशन (इलाहाबाद) से निकलने वाली सत्य कथाओं की पत्रिकाओं का सम्पादन करने लगे थे! 


सबसे बड़े भाई सुशील कुमार श्रीवास्तव ( जो अपना नाम सिर्फ "सुशील कुमार" ही लिखते थे )  फ्रीलांसिंग करते थे और विभिन्न बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे तथा प्रूफरीडिंग, एडीडिंग आदि काम भी एक निश्चित रकम  पारिश्रमिक के रूप में लेकर किया करते थे! 


लक्ष्मी नगर में एक मुलाकात के दौरान कुमारप्रिय ने कुछ निराशा जताते हुए कहा था - "योगेश जी, अब हम में और आप में कोई फर्क नहीं रह गया! (कुमारप्रिय का मतलब मेरे द्वारा दूसरे नामों और दूसरों के लिये उपन्यास लिखने से था!) 


मगर उस समय भी एक विश्वास था उनमें कि जल्दी ही जब स्थिति ठीक हो जायेगी - बम्बई जाकर फिल्मों के लिये लिखेंगे! नहीं मालूम, उनकी यह तमन्ना पूरी हुई या नहीं! पर एक समय रंगभूमि प्रकाशन से छपवाये गये अपने पहले उपन्यास "गुड़िया" से सारे भारत में धूम मचाने वाले तब के युवा लेखक का अचानक ही रूहपोश हो जाना अचरज और किस्मत के रंग व ठोकरों का विषय है! 


मुझसे मिलने के बाद -  मुझे हमेशा कुमारप्रिय अपने समय में  सर्वाधिक उर्जा वाले जोशीले लेखक लगे थे, जो सदैव ही पोजिटिव सोच रखते थे! यही पोजिटिव सोच मुझ में भी कूट-कूट कर है, पर कुमारप्रिय की वजह से नहीं, अन्य कारणों से, बल्कि मुझे लगता है - कुमारप्रिय की पोजिटिव सोच का मैं ही जन्मदाता था! मुझसे दूरी होने पर, वह फिर से निराशावादी हो गये और संघर्ष में हार गये! 


आज भी मैं उनके बारे में जानना चाहता हूँ कि कुमारप्रिय कहाँ हैं, कैसे हैं? 


कुमारप्रिय ने भी पैसों की सख्त जरूरत होने पर एक वैसा ही काम किया था, जिसकी शुरुआत पाकेट बुक्स लाइन में बिमल चटर्जी ने की थी! कुमारप्रिय ने एक निश्चित एमाउंट लेकर जनता पाकेट बुक्स के स्वामी श्री जगदीश गुप्ता जी को अपने बहुत से नामों के कापीराइट दे दिये थे, पर खुद नहीं लिखे थे - कुमारप्रिय के नाम से जनता पाकेट बुक्स द्वारा छापे गये उपन्यास "सौगात", " बेवफा", " गोरी" आदि मेरे द्वारा लिखे गये थे! 

© योगेश मित्तल

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