पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर - लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक से जुड़ा एक संस्मरण - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

बुधवार, 28 अप्रैल 2021

पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर - लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक से जुड़ा एक संस्मरण

परमप्रिय गजानन रैना जी के एक कमेन्ट्स पर कुछ खास याद आ गया, वह भी आप सबके साथ शेयर कर रहा हूँ! 


तो पढ़िये...... 


पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर - सुरेन्द्र मोहन पाठक से जुड़ा एक संस्मरण



सुरेन्द्र मोहन पाठक की विशेषताओं में एक विशेषता और भी रही है! वह चुटकुलों के खलीफा तो रहे ही हैं! मुहावरों और लोकोक्तियों का भी अक्सर जबरदस्त प्रयोग कर देते थे! 


उनके राजा पाकेट बुक्स में एक उपन्यास प्रकाशन के दौरान ऐसा हुआ कि उनकी एक लोकोक्ति समझ में न आने के कारण  राज कुमार गुप्ता जी और प्रूफ रीडर बख्शी साहब ने उनके कुछ शब्द काट दिये! 


पर तब मैं राज पाकेट बुक्स में शायद नौकरी भी कर रहा था या पाठक साहब की विशेष इल्तिजा थी कि फाइनल से पहले के प्रूफ योगेश जी से पढ़वाये जायें!और फाइनल से पहले के प्रूफ मैं देखता था! अपने उपन्यास के फाइनल प्रूफ सुरेन्द्र मोहन पाठक खुद पढ़ते थे! 


मुहावरा सुरेन्द्र मोहन पाठक ने सुनील सीरीज के किसी उपन्यास में सुनील के लिए प्रयोग किया था कि अपने घर में "पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर" सब कुछ वही है! 


प्रूफ जब मेरे पास आये तो मैं गरम हो गया, तब मैं गुस्सैल बहुत ज्यादा था! 


मैंने जब राज बाबू से पूछा कि किसने काटी हैं ये लाइनें तो उन्होंने बख्शी साहब की ओर इशारा कर दिया! बख्शी साहब पहले हिन्द पाकेट बुक्स में भी काम कर चुके थे, वह राज कुमार गुप्ता जी के द्वारा उंगली उठाये जाने पर घबरा गये और उनके मुँह पर ही बोल उठे कि भाई साहब, मैंने तो आपके कहने पर ही काटा था! 


इस पर राज बाबू बोले - "अरे, मेरी समझ में तो मतलब नहीं आ रहा था तो आपसे सलाह ली थी और मतलब कुछ नहीं है तो काट देते हैं कहा था! अगर मतलब कुछ बनता है तो काटने को थोड़े ही कहा था! 


बहरहाल मैं गर्म होकर बोला - " आप लोगों को मतलब समझ नहीं आ रहा था तो मुझसे बात करते, पाठक साहब को फोन करते!"


पाठक साहब के घर पर भी तब फोन था! एमटीएनएल का लैण्डलाइन फोन! 


खैर, मैंने उन्हें उन शब्दों का मतलब समझाया कि इसका मतलब यह है कि अपने घर में मालिक, नौकर सब कुछ सुनील खुद है! 


पर समस्या एक पैदा हुई.... 

पीर, बावर्ची, भिश्ती को तो जैसे तैसे तर्कों से राजकुमार गुप्ता जी और बख्शी साहब को मैंने समझा दिया, पर "खर" का वहाँ क्या अर्थ है, समझा कर भी सन्तुष्ट नहीं कर पाया तो मैंने पाठक साहब को फोन लगवाया! 


तब पाठक साहब नौकरी भी करते थे और आफिस में थे! 


घर के फोन पर उनसे बात नहीं हुई तो आफिस का नम्बर लेकर फोन किया गया और पाठक साहब से राजकुमार गुप्ता जी ने बात की! 

फोन पर ही पाठक साहब बिगड़ गये कि मेरी किताब में कहीं से भी एक भी शब्द न तो डिलीट होगा, ना ही बदला जायेगा! 


लेखकों में ऐसी जिद्द रखने वाले सुरेन्द्र मोहन पाठक सम्भवतः इकलौते लेखक रहे हैं! 


फोन पर ही जब राजकुमार गुप्ता जी ने सुरेन्द्र मोहन पाठक से कहा कि "बाकी सब तो ठीक है पाठक साहब, पीर, बावर्ची, भिश्ती से हमें कोई आपत्ति नहीं है, पर यह चौथा शब्द " खर" कुछ समझ नहीं आ रहा... इसका क्या मतलब है? "


"गधा...!" सुरेन्द्र मोहन पाठक ने फोन पर ही चिल्लाते हुए कहा-"और यह शब्द जहाँ है, वही रहेगा, न हटाया जायेगा, ना ही बदला जायेगा!"


© योगेश मित्तल

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