कुछ दिन यूँ ही बीत गये। फिर आया शुक्रवार का दिन।
बिमल चटर्जी बोले - "आओ योगेश जी, आज फिल्म देखने चलते हैं।"
"फिल्म। कौन-सी फिल्म ?"मैंने पूछा।
"जवानी दीवानी।"
अखबार पढ़ना बचपन से मेरी आदत रही थी। कलकत्ता में घर में अंग्रेजी का स्टेट्समैन रोज आता था, किन्तु रविवार के दिन अंग्रेजी का अमृत बाजार पत्रिका तथा हिन्दी के सन्मार्ग और दैनिक विश्वमित्र भी आते थे। पर फिल्मों वाला पन्ना सिर्फ़ फिल्मों के नाम देखने तक सीमित था। शुक्रवार को कौन सी नई फिल्म लगी है, इस पर ध्यान जाता था, पर कहाँ लगी है? इस पर कभी ध्यान नहीं देता था, क्योंकि फिल्म देखने के प्रति मन में कोई इच्छा या उत्साह नहीं होता था।
इसलिए उस दिन मुझे यह मालूम था कि फिल्म आज ही लगी है। अत: बोला -"फिल्म आज ही लगी है। टिकट नहीं मिलेगा।"
"सब मिल जायेगा, पर आपने यहाँ किसी से कहना नहीं है कि हम फिल्म देखने जा रहे हैं और बाद में भी....कि हम फिल्म देखकर आये हैं।"
"ऐसा क्यों ?" तब मैंने नहीं पूछा, लेकिन बाद में बिमल के बिना बताये पता चल गया।
विशाल लाइब्रेरी से कुछ आगे सड़क पार के मकान में एक पतला-दुबला लम्बे कद का नौजवान रहता था - राजेन्द्र कुमार शर्मा। उससे बिमल की अच्छी दोस्ती थी। बिमल ने उसके साथ बहुत फिल्में देखी थीं। और मुझसे घनिष्ठता होने से पहले बिमल जब भी पुस्तकें खरीदने दरीबे जाते, राजेन्द्र को दुकान पर बैठा जाते। उस दिन भी बिमल ने राजेन्द्र को उसके घर से बुलाया । दुकान पर बैठाया । फिर निकल पड़े मेरे साथ।
तीन बजे वाले मैटिनी शो का प्रोग्राम था। फिल्म देखने के लिए बिमल उसी डिलाइट सिनेमा हाल पर ले गये, जिसके पीछे राज भारती जी ने मुझे छोले-भठूरे खिलाये थे।
डिलाइट के बाहर ही "हाऊस फुल" का मुँह चिढ़ाता बोर्ड लगा था, किन्तु बिमल ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया, उन्हें पहले से ही पता था कि यह बोर्ड तो दिखाई देना ही है।
मुझे एक जगह खड़ा रहने को कह वह दायें-बायें घूमने लगे, घूमते-घूमते कुछ किसी-किसी शख़्स से बातें करते, फिर आगे बढ़ जाते । अन्ततः एक शख़्स से उन्होंने दो टिकट लिए और पैसे दिये, फिर मेरी ओर बढ़ आये। मुस्कराकर बोले -"टिकट मिल गये। फिल्म शुरु होने में अभी टाइम है । चलो, कुछ खाते हैं।"
और बिमल चटर्जी भी मुझे वहीं छोले-भठूरे खिलाने ले गये, जहाँ भारती साहब के साथ में स्वाद का लुत्फ उठा चुका था।
छोले-भठूरे खाकर जब हम डिलाइट के गेट पर पहुँचे, इन्ट्री शुरु हो चुकी थी।
मैंने बिमल से पूछा -"वो आदमी आपको जानता था क्या?"
"कौन ? जिससे टिकट लिये हैं ?" बिमल ने पूछा।
"हाँ, उसने फटाफट आपको टिकट दे दिये?"
बिमल चटर्जी हँसे। बोले -"योगेश जी, वो तो ब्लैकिया था। टिकट ब्लैक में खरीदे हैं - डबल दाम में।"
फिल्मों के टिकट ब्लैक होते हैं, मुझे पता था, किन्तु ब्लैक में खरीदी टिकट से फिल्म देखने का वह पहला अवसर था।
फिल्म देखकर निकले तो बिमल ने एक खाली रिक्शे को रोका और स्वयं बैठते हुए अपना एक हाथ मेरी ओर बढ़ाया -"आओ योगेश जी।" और मेरा हाथ पकड़ मुझे रिक्शे पर खींच लिया। फिर रिक्शेवाले से बोले -"हिम्मतगढ़।"
"हिम्मतगढ़ हम क्यों जा रहे हैं ?" मैंने पूछा।
"भारती पाॅकेट बुक्स। योगेश जी, आप तो अपनी पेमेन्ट ले आये, पर मैंने अभी तक नहीं ली, जबकि नाॅवल तो आपसे पहले का दिया हुआ है।" बिमल चटर्जी ने कहा।
"क्यों? गुप्ता जी ने मना कर दिया था क्या?"
"नहीं-नहीं। मेरा इधर आना ही नहीं हुआ। आज सोचा - एक पंथ दो काज हो जायेंगे। फिल्म भी देख ली और पेमेन्ट भी ले लेते हैं।" बिमल हँसते हुए बोले।
हिम्मतगढ़ पहुँच हम रिक्शे से उतरे। बिमल ने रिक्शे का किराया दिया। फिर हम पैदल ही गली लेहसुवा में बढ़ गये। और फिर उस बहुत छोटी संकरी सी गली में भारती पाॅकेट बुक्स के द्वार पर पहुँचे।
द्वार खुला था। अन्दर लाइट भी जल रही थी। गुप्ता जी अपनी मालिकाना कुर्सी पर विराजमान थे।
गुप्ताजी ने हाथ मिलाकर हम दोनों का स्वागत किया और हँसते हुए बोले -"आज तो गुरु-चेला दोनों साथ-साथ हैं।"
हम दोनों ही मुस्कुराकर रह गये।
बिमल बायीं दीवार से सटी लकड़ी की कुर्सी पर बैठ गये। अपने लिए मैंने फोल्डिंग कुर्सी खोल ली।
गुप्ता जी ने हाल-चाल पूछे। चाय मँगाई। फिर औपचारिक बातों के बाद बोले -"योगेश जी, आपके लिए एक खुशखबरी है।"
"क्या खुशखबरी है - हमें भी बता दीजिये।" बिमल हल्की-सी मुस्कान फेंकते हुए बोले।
गुप्ता जी कुछ शर्मिन्दा भाव में सिर दायीं ओर लटका धीरे से बोले -"बिमल जी, दरअसल जब हमने और राज भारती ने यह फर्म भारती पाॅकेट बुक्स खोली थी, तब तय हुआ था कि हम हर राइटर को कम से कम सौ रुपये की पेमेन्ट अवश्य करेंगे। अब....योगेश जी को बच्चा सा देख, मैंने सोचा - पता नहीं ये क्या लिखेंगे तो इनसे पिचहत्तर रूपये में बात तय कर ली । पर उस दिन जब पेमेन्ट दी राज भारती यहीं थे। उस समय तो वह कुछ नहीं बोले, पर बाद में बहुत बिगड़े और हमने फैसला किया कि अगले नाॅवल "जगत के दुश्मन" से हम योगेश जी को हर नाॅवल का सौ रुपये जरूर देंगे।"
"आपको पिछले नाॅवल के भी सौ रुपये देने चाहिए थे गुप्ता जी। योगेश जी तो मुझसे भी बहुत अच्छा लिखते हैं।"
आखिरी वाक्य बिमल ने दिल से कहा हो या मेरा दिल रखने को, पर बिमल के मुख से अपनी तारीफ सुन मेरा आत्मविश्वास प्रबल हो गया।
बिमल की बात पर गुप्ता जी बोले - "हाँ, गलती तो हो गई, पर हमने फैसला किया है कि योगेश जी का नाॅवल "जगत की अरब यात्रा" डिस्पैच होने के बाद हम योगेश जी की तरफ से एक पार्टी देंगे और उसमें हमारे सभी लेखक भी शामिल होंगे।"
"ये सही है गुप्ता जी, पर पार्टी सूखी-सूखी होगी या गीली-गीली?" बिमल चटर्जी ने खुशी जताते हुए पूछा।
"आप चिन्ता मत करो। सबकी तबियत खुश हो जायेगी।" गुप्ता जी ने कहा।
फिर बिमल चटर्जी को उनके नाॅवल की पेमेन्ट दी, जो सौ रुपये ही थी। बिमल ने गुप्ता जी से पुराने सैट्स की कुछ किताबें भी बँधवा लीं, जिनका गुप्ता जी ने कोई चार्ज नहीं लिया। उसके बाद जल्दी से जल्दी हम वापस हो लिए।
हम जब गाँधीनगर पहुँचे, आठ बज चुके थे। राजेन्द्र विशाल लाइब्रेरी में हमारा इन्तजार कर रहा था। हमें देखते ही बोला -"बहुत देर कर दी। कहाँ गये थे?"
बिमल ने उसे क्या कहकर सन्तुष्ट किया, मैंने नहीं सुना। विशाल लाइब्रेरी बिमल के हवाले कर राजेन्द्र अपने घर चला गया। हम कुछ देर बैठे। उस दौरान जो कस्टमर आये, मैंने और बिमल ने अटेन्ड किये। नौ बजने से पहले बिमल बोले -"योगेश जी, अब घर चलते हैं।"
वैसे हम रोज पैदल घर जाते थे, पर उस रोज शाॅप बन्द करके बिमल ने अपने घर तक का रिक्शा किया। बिमल के घर से आगे एक गली थी, जो सीधे मेरे घर के सामने खत्म होती थी। बिमल को उसके घर के बाहर से ही "अच्छा, मैं भी चलता हूँ।" कह मैं आगे बढ़ गया। तब "हाय-बाॅय" का जमाना नहीं था।
(शेष फिर )
इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय
©योगेश मित्तल
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