गुप्ता जी ने जब यह कहा कि उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी है तो तत्काल ही मैंने पूछा - "कैसी लगी ?"
"ठीक है...!" गुप्ता जी ने ढीले-ढाले अन्दाज़ में कहा।
तभी वहाँ भारती साहब भी आ गये। पर आज वह अकेले थे।
उन्होंने भी मुझसे हाथ मिलाया। भारती साहब से उस समय हाथ मिलाकर मैंने स्वयं को कितना गर्वित महसूस किया, बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
मैंने लकड़ी की कुर्सी भारती साहब के लिए छोड़ दी और खुद एक फोल्डिंग चेयर बिछाकर उस पर बैठ गया।
"अभी आया है ?" भारती साहब ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।
"हाँ, बस कुछ ही देर हुई है। " मैंने कहा।
"सुस्त लग रहा है ?"
"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं।"
"चाय पी ?" भारती साहब ने मुझसे पूछा।
जवाब गुप्ता जी ने दिया -"मैं अभी मंगाने वाला था।"
"मंगाने वाला था, क्या होता है, आर्डर कर।"
"पंडित जी।" गुप्ता जी ने आवाज़ दी।
पंडित जी आये। गुप्ता जी ने उन्हें चाय का आर्डर दिया। फिर मेरी तरफ उन्मुख होकर बोले -" योगेश जी, एक बात पूछूं। सच-सच बताना।"
"क्या ?" मैंने पूछा !
और फिर गुप्ता जी ने जो सवाल पूछा, उसके जवाब में मेरे होठों ने जो बदमाशी की, गुप्ता जी का चेहरा बायीं ओर कंधे पर लटक गया। गुप्ता जी की यह अलग ही अदा थी, जो भविष्य में भी उनसे सम्बन्धित लोगों को बार-बार देखने को मिली।
गुप्ता जी ने मुझसे कहा -"योगेश जी, अगर आपको लिखने के लिए दो महीने का समय मिला होता तो क्या यह स्क्रिप्ट और बेहतर लिखी जा सकती थी?"
और जवाब में हठात ही मेरे होठों से निकल गया -"हाँ।"
साफ़ सी बात थी, दस दिन में तो सोचने के लिए कोई ख़ास वक्त ही नहीं था। लिखना था, बस लिखते जाना था। बिना रुके लिखते जाना था। पर दो महीने का समय होता तो एक-एक सीन सोच-सोचकर लिखा जा सकता था।
लेकिन मेरे जवाब ने गुप्ता जी को नाखुश कर दिया। गुप्ता जी का चेहरा पहले बाएं से दाएं घूमा। फिर चेहरा बायीं ओर लटक गया और बोले - "इसका मतलब है, आपने यह स्क्रिप्ट दिल से नहीं लिखी है।"
"नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।" मैंने कहा।
"ऐसी ही बात है योगेश जी। आपने खुद कहा है टाइम ज्यादा मिलता तो स्टोरी और अच्छी होती।" गुप्ता जी ने कहा।
मेरा हलक सूख गया। पता नहीं अब गुप्ता जी क्या निर्णय लेने वाले हैं।
तभी भारती साहब ने गुप्ता जी से प्रश्न किया -"तूने स्क्रिप्ट पढ़ी है ?"
"हाँ।" गुप्ता जी ने कहा।
"पूरी पढ़ी है ?"
"हाँ।"
"कैसी है स्टोरी ?"
"अच्छी है, पर मुझे लगता है, कुछ कमी है।"
"क्या कमी है ?"
"पता नहीं, पर कुछ कमी है जरूर।" गुप्ता जी अपनी बात पर वज़न देते हुए बोले।
अब भारती साहब मेरी ओर घूमे -"एन्ड-वेन्ड तो सही है ?"
"आपने तो पढ़ी थी।" मैं मरी-मरी सी आवाज़ में बोला। उस समय शब्द हलक में अटकने लगे थे। लगा था - आज पैसे नहीं मिलने। स्क्रिप्ट मेरे मुंह पर मारी जाएगी।
"मैंने एन्ड नहीं पढ़ा। बीच-बीच से पढ़ी थी और वो सब बहुत अच्छा था।" भारती साहब ने कहा।
"तो फिर एन्ड भी पढ़कर देख लीजिये - जरूर पसंद आएगा।" मैं हिम्मत करके बोला। हालांकि दिल रोने-रोने का हो रहा था।
"क्यों पसंद आएगा ?" भारती साहब ने अजीब सा प्रश्न दाग दिया।
"क्योंकि बीच में तो 'हम स्टोरी बढ़ाने और पेज भरने के लिए फालतू डायलॉगबाजी' डाल देते हैं, पर एन्ड में तो सारी स्टोरी समेटनी होती है, वो भी इस तरह कि कहीं कोई लिंक न छूट जाए और एन्ड पढ़कर हर रीडर का दिल खुश हो जाए।" मैंने कहा !
आपलोग तो समझ रहे होंगे कि मैंने उस समय क्या गलत कहा था, पर उस समय मुझे सचमुच पता नहीं चला था कि मैंने क्या गलत कहा है।
कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। न भारती साहब कुछ बोले, न गुप्ता जी ने कुछ कहा। कुछ क्षण बाद गुप्ता जी ने जुबान खोली -"इसका मतलब है, बीच में आपने फालतू डायलॉगबाजी से पेज भरे हैं।"
"नहीं।" मैंने तुरंत कहा और फिर खामोश हो गया।
मुझे समझ आ गया था कि मैं क्या गलत कह गया हूँ।
तभी भारती साहब ने गुप्ता जी से फिर पूछा - "तूने पूरी स्क्रिप्ट ठीक से तो पढ़ी है न ?"
"हाँ।" गुप्ता जी ने कहा।
"छापने लायक तो है न ?"
हाँ, सो तो है।" गुप्ताजी ने कहा -"पर कुछ तो कमी है ? कुछ खल रहा है मुझे।"
"जगत का रोमांस कम होगा।" भारती साहब ने मेरी तरफ गौर से देखते हुए कहा और गुप्ता जी उछल पड़े –“बिलकुल...। बिलकुल यही बात है, मैं कह यहा था तेरे से, कुछ तो कमी है।"
भारती साहब हँसे -"इसकी शादी नहीं हुई। माशूका कोई है नहीं। रोमांस का एक्सपीरियंस कैसे होगा ? और बिना एक्सपीरियंस के लिखेगा क्या ? अब इसके लिए कोई इसके साइज की लड़की देख। फिर कराते हैं इसका रोमांस और फिर देखियो तू... इससे अच्छा रोमांस कोई लिखेगा ही नहीं।" कहते हुए भारती साहब ने मेरी पीठ थपथपाई।
मेरी साँस में साँस आई।
उसी समय चाय आ गयी। चाय पीते-पीते भारती साहब ने गुप्ता जी से पूछा -"आर्डर कैसे आ रहे हैं ?"
गुप्ता जी उन्हें एजेंटों के लैटर दिखाने लगे। मेरी पेमेंट का अभी तक कोई जिक्र नहीं था और मुझ में तो हिम्मत ही नहीं थी कि कहूँ कि गुप्ता जी पैसे दे दो।
चाय ख़त्म होते-होते भारती साहब और गुप्ता जी की बातें भी ख़त्म हो गयी थीं।
और तब...
गुप्ता जी ने दराज से दस-दस के सात नए और पांच का एक नया करारा नोट निकाला और उपन्यास का पारिश्रमिक नगद मेरी ओर बढ़ा दिया। उसके बाद एक बाउचर स्लिप निकाली।
"तूने अभी तक इसे पैसे नहीं दिए थे ?" भारती साहब गुप्ता जी को मेरी तरफ नोट बढ़ाते देख बोले -"तभी मैं आते ही सोच रहा था, लड़का सुस्त लग रहा है।"
गुप्ता जी हँस दिए। तभी भारती साहब ने नोट मेरे हाथ से पकड़ लिए, गिने और बोले -"ये क्या दे रहा है ?"
"मेरी योगेश जी से बात हो चुकी है।" गुप्ता जी ने कहा ।
भारती साहब ने नोट वापस मुझे पकड़ा दिए और बोले -"संभाल के रख।"
पर मुझे लगा कि वह प्रसन्न नहीं हैं। मेरा अनुमान सही था। पर वह प्रसन्न क्यों नहीं थे, यह जानने के लिए अभी आपको थोड़ा इंतज़ार करना होगा।
मेरे द्वारा रुपये अपनी जेब में रखने के बाद, गुप्ता जी ने मुझसे कहा -"योगेश जी, अगली स्टोरी के लिए कोई अच्छा-सा नाम दिमाग में हो तो बता दीजिये। अगली स्टोरी के लिए हम आपको पूरे दो महीने का टाइम देते हैं।दिल से लिखियेगा और हाँ, रोमांस और सेक्स भी।"
फिर उन्होंने बाउचर स्लिप मेरी ओर बढ़ा दी, जिस पर पिचहत्तर रुपये अंकों और शब्दों में पहले से लिखा था। मुझे बताया कि कहाँ साइन करने हैं। मैंने साइन कर दिए तो गुप्ता जी भारती साहब से बोले -करतार, योगेश जी तो फिर कोई धाँय-धाँय-धाँय जैसा नाम सुझाएंगे, तू ही कोई नाम बता दे।"
"जगत के दुश्मन।" भारती साहब ने नाम सुझाया और मुझसे पूछा -"ठीक है ?"
"ठीक है।" मैंने कहा और मेरे चेहरे पर मुस्कान छा गयी।
यह मुस्कान जेब में आये पिचहत्तर रुपयों की गर्मी की भी थी।
©योगेश मित्तल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें