मेरी जेब में पिचहत्तर रूपये आ गये थे और मेरा दिल जल्द से जल्द भारती पाॅकेट बुक्स के ऑफिस से निकल भागना चाहता था।
जाते हुए घर में कुछ लेकर जाना चाहता था, पर क्या ? दिमाग काम नहीं कर रहा था।
तभी भारती साहब ने मुझसे पूछा -"एक-एक चाय और हो जाये?"
"नहीं, मैं चलूँगा!" मैंने कहा।
"चलूँगा! पैसे मिल गये तो चलूँगा! पार्टी-वार्टी नहीं देनी!" - भारती साहब बोले। फिर मेरे कुछ भी कहने से पहले ही दोबारा बोले -"चल, कोई बात नहीं, मैं भी चलता हूँ।"
और भारती साहब उठ खड़े हुए। मैं भी उठ खड़ा हुआ।
लालाराम गुप्ता जी से हाथ मिला, हम दोनों बाहर निकले।
भारती पॉकेट बुक्स की संकरी गली से निकलकर, मैं बाएं मुड़ने लगा, भारती साहब दाएं, लेकिन मुझे बायीं ओर मुड़ते देख, वह ठिठक गए -"इधर किधर जा रहा है।"
"सीताराम बाजार। बाहर निकल चांदनी चौक का रिक्शा पकड़ लूँगा।" मैंने कहा।
"इधर चल, मेरे साथ। आज तुझे नया रास्ता दिखाता हूँ।"-भारती साहब मेरा हाथ पकड़कर बोले। उस समय मैंने चाहा हो या न चाहा हो, इंकार की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। मैं भारती साहब के साथ खिंचता चला गया। थोड़ी देर बाद उन्होंने हाथ छोड़ दिया और हम साथ-साथ चलने लगे।
उस दिन पहली बार मैंने भारती पॉकेट बुक्स से हिम्मतगढ़ की तरफ निकलने वाला रास्ता देखा।
हिम्मतगढ़ के चौक से भारती साहब ने वहां से गुजरते एक रिक्शेवाले को आवाज़ दी और बोले -"डिलाइट।" फिर मुझसे बोले -"चल, बैठ।"
मैं रिक्शे में बैठा, उसके बाद वह भी बैठे। रिक्शा चल पड़ा। उस समय मुझे नहीं पता था कि यह डिलाइट क्या है।
पहली बार मैंने डिलाइट सिनेमा हाल देखा।
'भारती साहब मुझे यहाँ क्यों लाये हैं?" मैंने सोचा - "फिल्म दिखाने....???"
पर मेरी सोच सेकेंडों में धूमिल हो गयी, जब भारती साहब मुझे डिलाइट के पीछे की ओर ले गए। आज वह जगह अच्छी तरह याद नहीं, पर भारती साहब जहाँ ले गए थे, वह छोले भठूरे और चाय की दुकान थी। बैठने की जगह भी थी। अंदर मेज-कुर्सी लगी थीं। एक मेज के दोनों ओर दो-दो कुर्सियाँ लगी थीं। भारती साहब मुझे लेकर अंदर गए। दोनों साथ-साथ की कुर्सी पर बैठे। भारती साहब ने मुझसे कुछ पूछा नहीं। दो प्लेट भठूरों का आर्डर दे दिया। मैंने सोचा - 'तो भारती साहब, मुझसे पार्टी लेने के लिए यहाँ लाये हैं।'
उस समय जितनी अक्ल थी मुझ में मैं उसी हिसाब से सोच रहा था और मन ही मन कोफ़्त हो रही थी कि पता नहीं कितने रुपये खर्च हो जाएँ। रिक्शे का किराया तो भारती साहब ने ही दिया था, पर मुझे यकीन था कि यहाँ के खाने-पीने का बिल तो मुझे ही देना होगा।
छोले- भठूरे लाने से पहले उस दुकान में काम करने वाला एक छोटा लड़का स्टील के दो गिलासों में पानी दे गया।
पानी का गिलास उठाते हुए भारती साहब बोले - "पब्लिशर्स के सामने थोड़ा सोच-समझ के बोलने की आदत डाल ले। लालाराम तो फिर भी बहुत सीधा है, पर सारे पब्लिशर ऐसे नहीं होते।"
"जी..!" मैं केवल 'जी" बोलकर रह गया।
फिर भारती साहब मुझसे कुछ घर-परिवार की बातें पूछने लगे। बातों के बीच ही लड़का छोले-भठूरों की प्लेटें रख गया।
"चल, शुरू कर।" भारती साहब ने कहा।
छोले-भठूरे ख़त्म होने से पहले से पहले ही भारती साहब ने चाय आर्डर कर दी।
फिर जब बिल देने का समय आया रो मैंने जेब में हाथ डाल पैसे निकाले, तभी भारती साहब बोले - "क्यों ?" क्यों का 'यों' उन्होंने कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा, फिर मुस्कुराये -"पैसे कुछ ज्यादा ही आ गए हैं। रख जेब में।" आख़िरी वाक्य उन्होंने मीठी फटकार के साथ कहा था।
मतलब - अगर वह पार्टी थी तो पार्टी का सारा खर्च भारती साहब ने ही उठाया था।
उसके बाद हम फिर डिलाइट के फ्रंट गेट की ओर आये।
"यहाँ से घर चला जायेगा ?" भारती साहब ने पूछा।
"यहाँ से...कैसे...गांधीनगर...?" मैं टूटते हुए शब्दों में बोला। वह इलाका मेरे लिए नया था। वहाँ से गांधीनगर कैसे जाऊँगा? मुझे तो सोचकर ही घबराहट हो रही थी।
"अच्छा चल, इधर आ...!" मेरा हाथ थाम भारती साहब डिलाइट से आगे एक बस स्टैंड पर ले गए और बोले -"यहाँ से कौड़िया पुल की बस मिल जायेगी। कौड़िया पुल से गांधीनगर के लिए बहुत तांगे और फोरव्हीलर मिलेंगे। कौड़िया पुल से तो कोई दिक्कत नहीं होगी।"
"नहीं।" मैंने कहा।
"बस के टिकट के लिए खुले पैसे हैं?"- भारती साहब ने पूछा।
"खुले पैसे..।" मैं सोच में पड़ गया और जेब टटोलने लगा।
"ले।" भारती साहब मुझे खुले पैसे देते हुए बोले -" टिकट के लिए कंडक्टर नोट खुला नहीं करेगा।"
तब टिकट पंद्रह-बीस पैसे के होते थे।
(दोस्तों, भारती साहब की यह खूबी बाद में भी, बहुत बार मेरे सामने आई। छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखने की उनकी इस आदत पर मैं चाहूँगा कि आप सब अपने विचार लिखें। एक ख़ास बात और, यह जो खुले पैसों अथवा दो-दो-चार-चार रुपये की मदद वह करते थे, वापसी की उम्मीद न रखते हुए। और यदि कोई कभी वापस करने लगता था तो कहते थे -"छोड़ यार।")
घर पहुँचा तो कुमारप्रिय मेरे घर में, कमरे के बाहर बरामदे में पड़ी चारपाई पर अधलेटे से बैठे मेरा इन्तजार कर रहे थे।
मुझे देखते ही सीधे होकर बैठ गये और बहुत तेज मुस्कान चेहरे पर लाकर बोले -"आइये-आइये ! हम आपका ही इन्तजार कर रहे थे। अब तो आप बहुत बड़े लेखक हो गये हैं। रविवार को भी बिजी रहते हैं।"
कुमारप्रिय के शब्दों में व्यंग था, पर स्वर और लहज़े में मिठास था।
कुमारप्रिय हमेशा चेहरे पर काला चश्मा चढ़ाये रखते थे, जैसा उनके उपन्यासों के बैक कवर पर छपी उनकी तस्वीर में नज़र आता है। चश्मे की वजह से उनकी आँखें छिपी रहती थीं और मनोभाव पता नहीं चलते थे।
दिन भर में बहुत कम ऐसे अवसर आते थे, जब कुमारप्रिय अपने चेहरे से काला चश्मा उतारते थे। उतारते थे भी तो चश्मे पर आ गई धूल को रुमाल से साफ करने के लिए।
मैंने कुमारप्रिय को भारती पाॅकेट बुक्स में एक नाॅवल ओके हो जाने और पेमेन्ट मिल जाने के बारे में बताया तो कुमारप्रिय खीझकर बोले -"योगेश जी, क्या जरूरत थी भारती-वारती के चक्कर में पड़ने की ? कौन-सा वो आपके नाम से कुछ छाप रहे हैं ? यहीं पंकज पाॅकेट बुक्स से आगे देखिये - आपका नाम भी शुरु करवा देंगे। फिर आपको टाइम ही कहाँ मिलेगा, फालतू-फण्ड के लोगों के लिए लिखने का ?"
"जब ऐसा होगा तो देख लेंगे।" मैंने कहा -"अभी तो पैसे मिल रहे हैं तो क्यों न कमाए जायें?"
"आपको समझाना बेकार है।"-कुमारप्रिय बोले -"पता नहीं क्यों ऐसे छोटे-मोटे लोगों के लिए आप अपनी प्रतिभा नष्ट कर रहे हैं। अरे पंकज पाॅकेट बुक्स बिमल जैन को आपने शुरु करवाई है। इस पर ध्यान दीजिये।"
कुमारप्रिय का कहना आधा सही था। वास्तव में बिमल जैन हमारे परिचित थे, लेकिन प्रकाशन का भूत उनके सिर पर कुमारप्रिय ने पैदा किया था, लेकिन यह भूत जल्दी ही उतर गया। कुमारप्रिय के उपन्यास "राख की दुल्हन" और एच. इकबाल के नाम से छपनेवाले मेरे उपन्यास "धाँय-धाँय-धाँय" का सैट पंकज पाॅकेट बुक्स का दूसरा और अन्तिम सैट था।
उन दिनों पाॅकेट बुक्स की कीमत मात्र दो रुपये होती थी। किताबें हद से हद बाईस सौ छपती थीं। वह भी इसलिए कि प्रिन्टिंग प्रेस वाले दो हजार के प्रिन्टिंग चार्ज पर बाईस सौ छाप देते थे। दिल्लीो में सोल एजेन्ट को चालीस से पचास परसेन्ट तक कमीशन देना पड़ता था, जबकि दिल्ली से बाहर वीपी पैकेट पच्चीस से तीस परसेन्ट पर भेजे जाते थे, किन्तु बड़े शहरों कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, लखनऊ, इलाहाबाद आदि हिन्दी पुस्तकें अधिक पढ़ी जानेवाले क्षेत्रों में माल रेलवे से भेजा जाता था और बुकिंग स्लिप रजिस्ट्री से भेजी जाती थी। सभी बड़े शहरों में माल उधार जाता था, जिसकी पेमेन्ट सारा माल बिक चुकने के बाद कम से कम तीन महीने बाद आती थी। अक्सर बचा हुआ माल यदि ज्यादा होता तो वो भी वापस भेज दिया जाता। पाॅकेट बुक्स की लागत साठ से नब्बे पैसे तक बैठ जाती थी, इसलिए प्रोडक्शन में लागत ज्यादा खर्च करनेवाले प्रकाशकों की स्थिति मामूली से मुनाफे या घाटे में रहती थी।
जिन प्रकाशनों में मालिक सारा काम प्रोफेशनल लोगों से करवाते थे, वहाँ अधिकांशतः घाटे की स्थिति जल्दी ही आती थी।
बिमल जैन किराये के घर में रहते थे, दो सैट्स में उनके घर बची हुई और वापसी आई लगभग तीन-साढ़े तीन हजार पुस्तकों का अम्बार लग गया तो रहने की जगह छोटी पड़ने लगी। उन्होंने बाईस-बाईस सौ की संख्या में कुल पाँच किताबें छापी थीं, जितनी बिकी थीं, वह नुक्सान में नहीं थे, पर बचा हुआ और वापसी आया माल उन्होंने दरीबे के नारंग पुस्तक भंडार के मालिक चन्दर को लगभग चालीस रुपये सैकड़े के हिसाब से बेचकर प्रकाशन बन्द कर दिया था।
कुमारप्रिय कोई नई कहानी शुरु करने जा रहे थे -"बदनसीब"। उसका प्लाॅट मुझे सुनाने लगे। वह बंगाली उपन्यासकार शरतचन्द्र से बहुत प्रभावित थे और वह प्लाॅट शरतचन्द्र के "देवदास" से प्रभावित था।
उस दिन कुमारप्रिय मेरे साथ "बदनसीब" का प्लाॅट डिस्कस करने के बाद चले गये। तब कुमारप्रिय को भी यह पता नहीं था कि उनका यह उपन्यास दो भागों में फैल जायेगा और पंकज पाॅकेट बुक्स में नहीं छपेगा, बल्कि एक बिल्कुल नई फर्म जनता पाॅकेट बुक्स में छपेगा।
अगले दिन मैं सुबह दस-साढ़े दस बजे के लगभग विशाल लाइब्रेरी पहुँचा। सोमवार की सुबह थी। उस समय एक भी कस्टमर नहीं था। बिमल कागज़ सामने रखे, पैन थामे कुछ सोच रहे थे।
मुझे देखते ही बोले -"आओ योगेशजी, मैं आपको ही याद कर रहा था।"
काउन्टर में ही दायीं ओर अन्दर प्रवेश का रास्ता था।
मैं अन्दर दांखिल हुआ। अपने लिए निश्चित स्टूल पर बैठा। तभी बिमल बोले -"योगेश जी, आप बैठो। मैं जरा सिगरेट लेकर आता हूँ।"
बिमल सिगरेट पीते तो थे, पर बहुत कम पिया करते थे, किन्तु लेखक बनने के बाद कुछ ज्यादा ही पीने लगे थे, पर तब वे मुझसे कभी सिगरेट नहीं मँगाते थे। तब मैं सिगरेट छूता भी नहीं था और खुद भी नहीं जानता था कि एक दिन ऐसा आयेगा, जब मैं चेनस्मोकर बन जाऊँगा और दिन में सौ-डेढ़ सौ सिगरेट फूँक दिया करूँगा।
बिमल को सिगरेट लाने गये थोड़ी ही देर हुई थी कि एक बेहद खूबसूरत गोरा-चिट्टा नौजवान काउन्टर पर आया। उसके हाथ में कुछ किताबें और एक बड़ी डायरी थी। हाथ का सामान काउन्टर पर रख, उसने मुझे देख, ऊपर से नीचे सिर हिलाया और बड़ी मीठी आवाज़ में बोला -"छोटे भाई। आपके मालिक कहाँ हैं?"
वह मुझे बिमल चटर्जी का नौकर समझ रहा था।
मुझे गुस्सा आ गया। बोला -"मैं नौकर नहीं हूँ। बिमल चटर्जी का दोस्त हूँ।"
"दोस्त।" उसने ऊपर से नीचे मेरा मुआयना किया और पहले दोनों हाथ जोड़े। फिर दोनों हाथों से कानों को छुआ और विनम्र भाव से बोला -"गलती हो गई छोटे भाई। माफ कर दीजिये।"
तभी बिमल आ गये। उस शख़्स को देखते ही बोले - "आप कब आये ?"
"बस, अभी-अभी आया हूँ।" उसने कहा।
तभी बिमल चटर्जी ने मुझसे कहा -"योगेश जी, आपको तो कविताओं और शायरी का भी बहुत शौक है। इनसे मिलो - इनसे आपकी खूब निभेगी। ये हैं मशहूर शायर साजन पेशावरी।" फिर बिमल साजन से बोले -"साजन। ये हैं योगेश जी। देखने में ही छोटे हैं। काम बहुत बड़े-बड़े कर रहे हैं। कुछ भी लिखने में इनका जवाब नहीं है। सबसे खास बात यह है कि माँ सरस्वती की इन पर कुछ ज्यादा ही कृपा है।"
और तब साजन पेशावरी ने फिर से अपने दोनों हाथ जोड़े। शायराना अन्दाज़ में सिर झुकाया, फिर दायाँ हाथ मेरी ओर बढ़ा, स्वर में ढेर सारी चाशनी घोलते हुए कहा -"योगेश जी, क्या मैं आपसे हाथ मिला सकता हूँ।"
मैंने हाथ आगे बढ़ा दिया। पर बिमल चटर्जी ने जिस तरह साजन से मेरा परिचय कराया था, मैं अति प्रसन्न एवं मंत्रमुग्ध सा हो गया था।
साजन पेशावरी से वह मेरी पहली मुलाकात थी। उसके बाद दर्जनों मुलाकातें हुईं। जो लोग साजन पेशावरी से कभी न कभी मिलें हैं, जानते ही होंगे कि उस शख़्स की आवाज में सदैव ढेर सारी मिठास रहती थी। मैंने कभी भी साजन को अनमने मूड में नहीं देखा। वह एक खुशदिल इन्सान था, जिससे मिलकर हर कोई खुश होता था।
और फिर एक दिन मैं और बिमल चटर्जी भारती पॉकेट बुक्स एक साथ गए। तब लालाराम गुप्ता ने मुझे एक खुशखबरी दी। पर उस खुशखबरी का असली कारण भारती साहब थे।
(शेष फिर )
इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय
©योगेश मित्तल
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