पुरानी किताबी दुनिया से परिचय - 10 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

पुरानी किताबी दुनिया से परिचय - 10

न दिनों अधिकांश प्रकाशकों के सैट हर दो महीने में निकला करते थे ! एक सैट में कम से कम छ: पाॅकेट बुक्स होती थीं !

पर प्रकाशन की दुनिया में नया कदम रखनेवाले एक दो किताबों से ही शुरुआत कर देते थे! हाँ, उपन्यास पत्रिकाएँ निकालने वाले हर महीने एक उपन्यास निकालते थे!

ऐसे ही उपन्यास निकालने के शौकीन कोई सज्जन (नाम फिलहाल भूल रहा हूँ !) एक बार बिमल चटर्जी की लाइब्रेरी में आये और बिमल चटर्जी से उनका उपन्यास उनके नाम से छापने का प्रस्ताव रखा! तब तक बिमल का अपने नाम से एक भी उपन्यास नहीं छपा था!

बिमल के लिए उन्होंने पहला टाइटिल "उषा पाॅकेट बुक्स"के अन्तर्गत कृष्णानगर के आर्टिस्ट इन्द्र भारती से बनवाया! उपन्यास का नाम रखा गया "खून की प्यास"!

खून की प्यास बिमल चटर्जी के नाम से छपने वाला पहला उपन्यास था ! उसका टाइटिल अवश्य पहले आ गया, लेकिन उपन्यास मेरे ओमप्रकाश शर्मा (नकली) के नाम से छपे उपन्यास "जगत की अरब यात्रा" के बाद ही प्रकाशित हुआ था!

भारती पाॅकेट बुक्स में दिग्गज महारथियों से मिलने के अगले ही दिन मैंने बिमल चटर्जी को अपने भारती पाॅकेट बुक्स जाने और वहाँ जगत सीरीज़ का उपन्यास देने की बात बता दी !

बिमल बहुत खुश हुए, बोले - "भारती में तो मैं भी लिख रहा हूँ! आप इस नाॅवल की पेमेन्ट ले आओ! फिर आगे से दोनों भाई साथ-साथ चला करेंगे और अब आप में कान्फिडेन्स आ गया है तो चलो, किसी रोज आपको "मनोज वालों' (मनोज पाॅकेट बुक्स) से भी मिलवा देते हैं! आपकी जो भी कहानियाँ मैंने उन्हें दीं! राइटिंग देखकर ही गौरी भाई साहब ने कह दिया था -"यह कौन लिखनेवाला है, इसे डायरेक्ट मेरे पास लेकर आ!"


दोस्तों! तब यह बात कल्पना से भी परे थी कि ये सारी घटनाएँ कभी मैं कलमबद्ध करूँगा, इसलिए समय के आँकलन  में थोड़ी-बहुत गलती हो सकती है, पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं होगा!


जहाँ तक मेरा अनुमान है - ये घटनाएँ 1971-72 की होनी चाहिए! इसका प्रमुख कारण है - सुनील गावस्कर!
जो लोग क्रिकेट में रुचि रखते हैं, उन्हें याद होगा कि सुनील गावस्कर ने अजीत वाडेकर की कप्तानी में अपना पहला टेस्ट वेस्ट इण्डीज के पोर्ट आॅफ स्पेन में 1971 में ही खेला था, जो कि श्रृंखला का दूसरा टेस्ट था और वह टेस्ट भारत की विदेशी धरती पर पहली जीत थी! हमारा कथाक्रम बस, उसी के आस-पास का है !


उन दिनों मेरी राइटिंग बहुत सुन्दर-साफ-साफ होती थी! यही कारण है, जब भारत में बच्चों के काॅमिक्स की लहर फैली थी, तब मुझे बहुत से काॅमिक्सों की कैलीग्राफी करने का अवसर भी मिला ! (Calligraphy - सुलेख ! #तब कंप्यूटर नहीं था ! कॉमिक्स में पात्रों-चरित्रों के डायलॉग बैलून के अंदर, या बॉक्स में बैकग्राउंड मैटर - अच्छी राइटिंग में अधिकांशतः आर्टिस्टों द्वारा ही लिखे जाते थे, किन्तु कभी-कभी यह सुअवसर अच्छी राइटिंग वाले मुझ जैसे लोगों को भी मिल जाता था!) 


खैर, अगले रविवार का मैं बेसब्री से इन्तजार कर रहा था और वो आ भी गया !

मैं वक्त से भारती पाॅकेट बुक्स पहुँच गया था ! 
ऑफिस बन्द था, पर गुप्ता जी ने पिछली बार मेरे रुखसत होने से पहले मुझे बता दिया था कि ऑफिस बन्द हो तो आवाज मार लूँ!
 
तब कालबेल का जमाना नहीं था! 


मैंने आवाज लगाई -"गुप्ता जी !"

दूसरी बार आवाज लगाई तो पण्डित जी नीचे आ गये ! चाबी का गुच्छा हाथ में था! ऑफिस के ताले खोले !
उस दिन लकड़ी की एक कुर्सी दरवाजे के साथ, ऑफिस की बायीं दीवार से सटी रखी थी, इसलिए फोल्डिंग कुर्सी नहीं खोली और मुझे बैठने का संकेत किया!

एक पाँव में लचक होने के कारण गुप्ता जी ठुम्मक-ठुम्मक चलते हुए आते थे, जो कि उनका अपना अनूठा अन्दाज़ था और बड़ा भला-सा लगता था !

दरवाजे से अन्दर प्रवेश करते हुए उन्होंने दायां हाथ आगे बढ़ाकर मुझसे हाथ मिलाया !

पिछली बार राजभारती और यशपाल वालिया ने हँसी-मजाक के बाद जो मेरा मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ाया था, उसे अन्त में सभी ने हाथ मिलाकर एवरेस्ट पर पहुँचा दिया था, वरना मैं तो हमेशा से सभी से हाथ जोड़कर ही मिला करता था!

आज गुप्ता जी का हाथ मिलाकर मेरा स्वागत करना मुझे कितना भाया होगा, हर कोई नहीं समझ सकता, क्योंकि आज के युग में हाथ मिलाना एक आम प्रक्रिया है !

मैं फटाफट पैसे पाने की उम्मीद में था, पर गुप्ता जी ने उस बारे में कोई जिक्र न कर, सवाल दागा -"आपकी वो "धाँय-धाँय-धाँय" कम्प्लीट हुई ?"

"जी, हो गई ! प्रेस में कम्पोजिंग के लिए दे दी है !" मैंने बताया !

"और आगे क्या लिख रहे हो ?"

"अभी तो बच्चों की कहानियाँ ही लिख रहा हूँ !" मैंने कहा ! फिर इससे पहले कि गुप्ता जी अगला सवाल दागें, मैंने ही पूछ लिया -"आपने मेरी स्क्रिप्ट पढ़ी ?"

"हाँ, पढ़ी !" गुप्ता जी ने कहा और मैं खुश हो गया! आप समझ नहीं सकते कि पहली बार पिचहत्तर रूपये जैसी मोटी रकम मेरे हाथ में आने जा रही थी और उसे पाने का मैं कितना लालायित था! आज के तो बच्चों को भी पाँच-दस हजार थामते हुए भी कोई एक्साइटमेन्ट नहीं होता, पर तब की बात और थी! तब पिचहत्तर रूपये भी एक बहुत बड़ी रकम थी!

हम जिस घर में किराये पर रहते थे, उसका किराया पचास रूपये था ! 

हमारे घर के पास वाला मामचन्द चायवाला और विशाल लाइब्रेरी में चाय देनेवाला चिरंजी लाल चाय का गिलास पन्द्रह पैसे में देते थे ! 

विशाल लाइब्रेरी के सामने कुछ आगे एक सरदार जी ने समोसे जलेबी की दुकान खोली थी! उनके समोसे तो आज के समोसों के साइज़ से आधे होते थे, किन्तु वे समोसे के साथ चटनी नहीं, स्वादिष्ट छोले देते थे और समोसे तीस पैसे के दो होते थे! जलेबी सवा रुपये किलो मिलती थी!

विशाल लाइब्रेरी में एक बेहद खूबसूरत पंजाबी नौजवान आता था, जिसका नाम था प्रेम! वह सिगरेट पीता था और अपने पिता साईं दास छाबड़ा तथा घरवालों से छुप-छुप कर सिगरेट पीने के लिए विशाल लाइब्रेरी में आता था और सड़क की तरफ हमेशा पीठ करके, थोड़ा झुका हुआ बैठा करता था! उसकी सेहत उन दिनों जैसी थी, उम्मीद है - आज भी कहीं दूध की डेयरी चला रहा होगा! आपके पड़ोस में कहीं हो तो कहना योगेश जी याद कर रहे हैं! बिमल चटर्जी से प्रेम की तगड़ी निभती थी, पक्की दोस्ती थी! मुझे वह भी बिमल चटर्जी की तरह हमेशा "योगेश जी" कहता था! फिल्मी हीरो सी पर्सनालिटी वाले प्रेम के पिता की गाय-भैंस के दूध की डेयरी थी - शायद "छावड़ा डेयरी"! उसमें सामने दुहा प्योर दूध साठ पैसे किलो होता था ! 


उन दिनों देशी घी के अलावा "डालडा वनस्पति" मिलता था! मक्खन में अमूल का कोई नाम नहीं था, पोल्सन नाम का मक्खन सबसे मशहूर था! कैवेन्डर्स, सीजर्ज (कैंची), पनामा, पाशिंग शो, चारमीनार किसी का भी पैकेट साठ पैसे से अधिक की नहीं था!

खैर, गुप्ता जी ने जब यह कहा कि उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी है तो तत्काल ही मैंने पूछा - "कैसी लगी ?"
"ठीक है...!" गुप्ता जी ने ढीले-ढाले अन्दाज़ में कहा !

तभी वहाँ भारती साहब भी आ गये ! पर आज वह अकेले थे !

उन्होंने भी मुझसे हाथ मिलाया ! भारती साहब से उस समय हाथ मिलाकर मैंने स्वयं को कितना गर्वित महसूस किया, बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं !

क्रमशः

इस श्रृंखला की सभी कड़ियों को निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:
पुरानी किताबी दुनिया से परिचय

©योगेश मित्तल

1 टिप्पणी:

  1. इसके आगे की कड़ियाँ आपने नहीं लिखी हैं मित्तल जी। पढ़ने की बहुत उत्सुकता है।

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