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बरसो बारिश, बरसो बारिश।
गरम गरम धरती की साँसें, बरस-बरस कर ठंडी कर दो।
सूखी धरती के सीने में, प्रेम-बूंदों से दरिया भर दो।
खूब नहाऊँ मैं बारिश में, मिट जाए तन-मन की खारिश।
बरसो बारिश, बरसो बारिश।
लेकिन ऐसी अनहोनी क्यों, कहीं बाढ़-सैलाब आ रहा।
जिंदा लोगों के सपनों में, मरने का ही ख्वाब आ रहा।
दुखियों का दुःख दूर करो, करो खुशी की सब पर मालिश।
बरसो बारिश, बरसो बारिश
-योगेश मित्तल
छोटी लेकिन ऐसी कविता जो सुंदर भी है और सार्थक भी।
जवाब देंहटाएंजी आभार जितेन्द्र माथुर जी...
हटाएंइस कविता में जहां एक ओर बारिश को प्रेम का प्रतीक माना गया है वहीं दूसरी ओर इसे विनाश का भी। इसलिए कहा गया है कि हर चीज़ की अपनी मर्यादा होती।.....अति उत्तम
जवाब देंहटाएंजी सही कहा, धन्यवाद....
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