हम भी मुन्तज़िर हैं | योगेश मित्तल | हिन्दी कविता - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

हम भी मुन्तज़िर हैं | योगेश मित्तल | हिन्दी कविता




हैं अगर अपने भी यदि नाराज़ तो,

और गुस्सा है जो दिल में आज तो। 


किसलिये, क्यों कर रहूँ उदास मैं, 

क्यों न रखूँ - नव खुशी की आस मैं। 


वो गले मिलते किसी भी मीत को, 

मुझको न चाहें - न मेरे गीत को। 


मैं भला शिकवा किसी से क्यों करूँ, 

उनसे ही कहते, भला मैं क्यों डरूँ?


वो अगर नाराज़ हैं, रह लें अभी, 

हम भी मुन्तज़िर हैं, वो मानेंगे कभी। 


योगेश मित्तल

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