रोना - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

रोना

Image by ErikaWittlieb from Pixabay


जब भी हम दुःख से बोझिल हों,
रोना अक्सर आ जाता है।
आँसू-गाल गीला कर देते,
दुःख चेहरे पर छा जाता है।

रोना दिल के कमजोरों की
कोई बुरी आदत नहीं होती।
यह है एक स्वाभाविक क्रिया,
लेकिन यह ताकत नहीं होती।

जब रोना आये- तुम रो लो,
मन का दर्द निकल जाता है।
आँसू जैसे जैसे निकले 
दुःख बौना हो जाता है

रोने से आँखें चमक लेती हैं,
सबका ध्यान खींच लेती हैं
दुःख के हर 'भड़ास पौधे' पर
शीतल जल सींच देती हैं।

गुस्से में यदि रोना आये
तो भी बहुत अच्छा होता है।
सारा गुस्सा बह जाता है,
मन पावन सच्चा होता है।

कभी-कभी रो लेने से भी
मन बेहद हल्का रहता है।
न रोने के प्रयास से हरदम
दिल छलका-छलका रहता है

इसलिए मैं तो कहता हूँ|
जब रोना आये तुम रो लो।
जबरन रोने को न रोको,
रोने का भी साथी हो लो।


- योगेश मित्तल

© योगेश मित्तल 

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