संस्मरण
मंगलवार, 11 अप्रैल 2023
शनिवार, 7 मई 2022
लेखक राजहंस की विशिष्ट लेखन शैली कैसे परिवर्तित होती चली गई
ब्लॉग पर राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स -1 पर डॉक्टर ओंकार नायाराण सिंह जी का एक प्रश्न आया। मुझे लगता है उस प्रश्न का उत्तर राजहंस के अन्य पाठकों के लिए महत्वपूर्ण होगा इसलिए पोस्ट के रूप में भी लिख रहा हूँ।
प्रश्न: समस्त किश्तों के विवेचन एवं अपने पास संग्रहीत राजहंस के उपन्यासों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी विशिष्ट लेखन शैली कैसे परिवर्तित होती चली गई।क्या आप उनके परवर्ती जीवन की जानकारी से अवगत करा सकते हैं?
मेरा उत्तर:
आदरणीय ओंकार जी,
सादर सप्रेम नमस्कार!
जैसा कि आपने जानना चाहा है कि राजहंस की विशिष्ट शैली समय के अन्तराल में कैसे परिवर्तित होती चली गई तो मैं यह कहना चाहूँगा कि कुछ थोड़ा सा परिवर्तन तो मैं स्वीकार करता हूँ और उसका कारण था आरम्भ में वह भी आरिफ़ मारहर्वी, जमील अंजुम, अंजुम अर्शी की तरह उर्दू में ही लिखते थे और उनका हिन्दी ट्रांसलेशन होता था, लेकिन सात आठ उपन्यासों के बाद वह हिन्दी में लिखने लगे तो कुछ उर्दू अल्फ़ाज़ों का मोह सम्भवतः छोड़ दिया और विजय पाकेट बुक्स से मनोज और हिन्द में जाते ही, उन दोनों जगहों पर काम करने वाले प्रूफरीडर्स ने सम्भवतः कुछ ज्यादा ही छेड़छाड़ कर दी!
आप नोट करेंगे तो जानेंगे कि शैली परिवर्तन का असर विजय पाकेट बुक्स के आरम्भिक उपन्यासों में नाममात्र है, लेकिन बाद में एक मजबूरी यह आ गई थी कि हाइकोर्ट की डीबी (डबल बेंच) ने प्रकाशकों और लेखक को जता दिया था कि या तो कम्प्रोमाइज़ कीजिये या नाम पर बैन लगना सम्भव था!
ऐसे में मुकदमे के बाद विजय पाकेट बुक्स से छपने वाले सभी उपन्यास यशपाल वालिया और हरविन्दर के लिखे हुए थे!
और हिन्द पाकेट बुक्स के कर्ता धर्ता तो आरम्भ में राजहंस की शैली में 'था, थे, थी' के प्रयोग को दोषपूर्ण मानते थे और तब के साहित्यिक लेखक तो 'राजहंस' को गुलशन नन्दा से भी घटिया लेखक मानते थे और हिन्द पाकेट बुक्स में साहित्यिक रुचि वाले लोगों का प्रभुत्व था, वहाँ के एडीटर व प्रूफरीडर्स भी साहित्यिक अभिरुचि के थे, इसलिए हिन्द पाकेट बुक्स की पुस्तकों में शैली परिवर्तित नज़र आयेगी!
वस्तुतः केवलकृष्ण कालिया उर्फ़ राजहंस ने अपनी शैली परिवर्तित नहीं की थी! उनकी शैली उनके व्यक्तित्व में इस कदर रची-बसी थी कि वह चाहते तो भी परिवर्तित नहीं कर सकते थे, लेकिन जिनमें आपको राजहंस की शैली परिवर्तित नज़र आयी, वे उपन्यास या तो हिन्द पाकेट बुक्स के होंगे या यशपाल वालिया अथवा हरविन्दर के लिखे! अथवा प्रूफरीडर्स तथा एडीटर्स की अति समझदारी का शिकार...!
और हाँ, साहित्यिक क्षेत्र के बहुत से लेखक गुलशन नन्दा को न केवल घटिया लेखक मानते थे, बल्कि अश्लील लेखक कहते थे, इस बारे में बहुत जल्द गुलशन नन्दा जी से मनोज पाकेट बुक्स के अग्रवाल मार्ग, शक्तिनगर में हुई अपनी मुलाकात का ब्यौरा प्रस्तुत करूँगा, तब आप जानेंगे कि पल्प फिक्शन के मनोरंजक साहित्य प्रस्तुत करने वाले लेखकों को साहित्यिक लाबी किस कदर अछूत मानती थी!
जय श्रीकृष्ण...!
सोमवार, 29 नवंबर 2021
टमाटर | हिंदी कविता | योगेश मित्तल
Image by Ernesto Rodriguez from Pixabay |
मेरे घर टमाटर,
पड़ोसी के घर पर
टमाटर नहीं है।
पुलिस सूंघती
आ गई घर हमारे।
बताओ कहाँ से
टमाटर हैं मारे?
हुए मंहगे इतने
गरीब रो रहे हैं।
मिडिल क्लास भी
अब हुए हैं बेचारे।
नम्बर दो का पैसा
कहाँ है छुपाया?
लगता है वो सब
यहाँ पर नहीं है।
तेरे घर टमाटर,
तेरे घर टमाटर।
पड़ोसी के घर पर
टमाटर नहीं है।
पुलिस वाले ने
एक डण्डा घुमाया।
बता दे टमाटर
कहाँ से है आया?
मना मेरी बीवी ने
मुझसे किया तो
हफ्ते से घर पर
टमाटर न लाया।
मैं जिस घर गया
तो वहाँ ये ही देखा!
टमाटर यहाँ या
वहाँ पर नहीं है।
तेरे घर टमाटर
तेरे घर टमाटर
पड़ोसी के घर पर
टमाटर नहीं है।
योगेश मित्तल
शुक्रवार, 26 नवंबर 2021
रूटीन तो बहुत जरूरी है!
Image by Pexels from Pixabay |
जिन्दगी में रूटीन बहुत जरूरी है। सोने का रूटीन, जागने का रूटीन, खाने का रूटीन, काम का रूटीन।
पर ऐसा होता कहाँ है कि इन्सान हर काम रूटीन से कर पाये।
सुबह सुबह काम धन्धों पर निकलने वालों का सुबह उठने का रूटीन आम तौर पर पाँच से सात बजे के बीच का होता है, किन्तु जिस दिन काम से छुट्टी हो, आफिस की छुट्टी हो, उस दिन कुछ नौ बजे तक तो कुछ तो बारह बजे तक बिस्तर नहीं छोड़ते।
यह सब मैं अटकलबाज़ी लगाकर नहीं कह रहा, मैंने अपने इर्दगिर्द ऐसे बहुत से नमूनों कहिये या उदाहरण, को बेहद नजदीक से देखा है।
हाँ, मेरा रूटीन आम तौर पर हमेशा एक सा रहता है । अमूमन सुबह साढ़े चार से साढ़े पाँच के बीच उठ ही जाता हूँ । रूटीन डिस्टर्ब तब होता है, जब तबियत खराब हो ।
इसी प्रकार मेरा हमेशा ही लिखने का भी रोज़ का एक निश्चित रूटीन रहा है । रोज़ कुछ न कुछ लिखना जरूर है। जब लिखना मेरा फुल टाइम जॉब था अर्थात लिखने के अलावा मैं कोई दूसरा काम नहीं करता था, तब दोस्तों के साथ घूमते-फिरते रहने के बावजूद लिखने के लिए वक्त निकाल ही लेता था, लेकिन अब जब मैं एक उम्रदराज़ दुकानदार हूँ - अक्सर लिखने का रूटीन बिगड़ जाता है।
जब लिखना मेरा मुख्य और एकमात्र काम था, तब फालतू मटरगस्ती के बावजूद लिखने का दो वक़्त का रूटीन था।
एक तो सुबह सुबह का समय, दूसरा रात का। पर दोनों में से एक ही वक़्त लेखनकार्य चलता था।
अगर रात का खाना खाने के बाद बिस्तर पर न जाकर, लिखना आरम्भ कर दिया तो लगभग दो तीन बजे तक लिखना जारी रहता था, लेकिन अगर बिस्तर पकड़ लिया और जल्दी सो गया तो सुबह तीन बजे तक अवश्य जाग जाता था। हाँ, इसके लिये हमेशा अलार्म घड़ी में अलार्म पहले से ही अवश्य सैट कर लेता था, पर जिन्दगी में ऐसा शायद इक्का दुक्का बार ही हुआ हो, जब अलार्म से मेरी आँख खुली हो। हमेशा अलार्म के वक़्त से पहले ही मेरी आँखें खुद ब खुद खुल जाती थीं।
शायद इसका कारण यह होता हो कि जब भी मैं तीन बजे का अलार्म लगाता, यह सोचते हुए सोता था कि मुझे पौने तीन तक उठ जाना चाहिए, ताकि अलार्म के शोर से किसी को कोई असुविधा - डिस्टरबेन्स न हो और जब भी नींद खुलती, मेरा पहला काम तब तक न बजे, अलार्म को बन्द करने का होता था।
बीच के कुछ सालों की अन्यमनस्कता के अलावा मेरे जीवन में लिखने का रूटीन कभी डिस्टर्ब नहीं हुआ। तब भी मैं लिखने का ऐसा काम करता रहता था, जो शायद मेरे जैसे अन्य लेखकों ने कभी न किया हो। वह काम था - कालोनी के बच्चों के होमवर्क में यदि कोई क्रियेटिव लेखन का काम मिला हो तो उसमें उनकी मदद, किन्तु वह मदद भलाई का काम कभी नहीं होती थी, बल्कि एक प्रोफेशनल कदम था, आर्थिक लाभ के लिये।
वह अजीबोगरीब काम था - कालोनी के बच्चों के लिए कविता, लेख या कहानी लिखकर देने का। उन्हें कहानी, कविता, लेख और इन्टरव्यू आदि लेने के बारे में समझाने का। इसके मैंने बाकायदा दो सौ से पाँच सौ रुपये भी लिये हैं। बच्चों के माता पिता से। यह काम हमेशा मैं बच्चों के माता पिता के अनुरोध पर ही करता था।
दरअसल मेरी कालोनी के बहुत सारे लोग मेरे बारे में यह भली भाँति जानते हैं कि मैं एक लेखक हूँ और उनके बच्चों को यदि स्कूल से या किसी टीचर से निबन्ध, कविता या कहानी लिखने का कोई ऐसा काम मिल जाता, जो पेरेन्ट्स और उनके घरेलू ट्यूटर के लिये मुश्किल होता तो पेरेन्ट्स मुझसे सम्पर्क करते थे और मैं एक निश्चित रकम के बदले कविता, कहानी या निबन्ध लिख कर दे देता था। वह निबन्ध, कविता या कहानी मैंने कभी अपने रिकॉर्ड में नहीं रखी। जिससे पैसे लिये - ईमानदारी से हमेशा के लिये उन्हें सौंप दी। हमेशा के लिये - उसके नाम के लिये। इसका अनेक बार एक अतिरिक्त लाभ भी मिला, वह यह कि जिसे जो कुछ भी लिखकर दिया, उसे यदि कभी कोई ईनाम या शाबाशी अथवा प्रोत्साहन मिला तो उसके परिवार के लोगों ने कभी आधा किलो, कभी किलो मिठाई का डिब्बा भी दिया। किसी ने महँगी चाकलेट भी दी।
मैंने ऐसी किसी कृति को अपने लेखन कार्य में कभी सहेज कर भी नहीं रखा।
आप मुझे मूर्ख कह सकते हैं, पर ऐसा ही हूँ मैं।
सितम्बर महीने के आखिरी दिनों तक मेरा लेखन कार्य नियमित रूप से सुचारु रूप से चल रहा था। कहीं कोई रुकावट नहीं थी। हालांकि गति मद्धिम थी, लेकिन एक साथ चार-चार लेखन कार्य जारी थे।
एक उपन्यास - कब तक जियें (जिसके लगभग सत्तर पेज लिखे जा चुके हैं। )
दूसरी एक लम्बी कहानी - इश्क़ मदारी ( जिसके बस कुछ आखिरी पन्ने लिखने हैं। )
तीसरी - वेद प्रकाश शर्मा से अपनी यारी के किस्से ( फेसबुक पर/ब्लॉग पर)
और
चौथा एक लेख - क्या अच्छा लिखने के लिये अच्छा पढ़ना और बहुत ज्यादा पढ़ना जरूरी है? (फेसबुक पर)
और रूटीन चलता रहता तो चार में से तीन का काम पूरा हो चुका होता, लेकिन ऐसा हो ना सका। रूटीन टूट गया।
अच्छा खासा रूटीन क्यों टूटा, इसका कारण था - अचानक कुछ बाहरी काम आ जाना। बाहरी काम अर्थात् वो काम - जो अतिरिक्त आय भी देता है। अतिरिक्त आय - वह कमाई - जो मुझे दुकान के काम से अलग किसी काम से हासिल होती है, चाहें वो किसी स्कूली बच्चे के लिये लिखकर प्राप्त होती हो या किसी के प्रूफ पढ़ कर अथवा किसी तरह का एडीटिंग जाब करके या कुछ लिखकर के।
दरअसल एक मुद्दत से मेरी आय का मुख्य साधन मेरी दुकान है, जहाँ मैं फोटोस्टेट द्वारा या कम्प्यूटर कलर और ब्लैक प्रिन्ट आउट द्वारा अथवा लेमिनेशन या स्पाइरल बाइन्डिंग वर्क द्वारा या लोगों के डुप्लीकेट कार्ड बनाकर मेहनताना - मज़दूरी हासिल करता हूँ।
डुप्लीकेट कार्ड से यदि आप मेरा मन्तव्य नहीं समझे हों तो बता दूँ कि आजकल हमारी दिनचर्या का अंग बने जितने भी तरह के कार्ड होते हैं, मेरा आशय उन सभी तरह के कार्ड्स के लिये है। जैसे - आधार कार्ड, वोटर आई डी, पैनकार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, आर सी, हैल्थ कार्ड आदि सभी तरह के कार्ड्स के डुप्लीकेट कार्ड बनवा कर घर में रखने का प्रचलन आजकल आम है। लोग पर्स में डुप्लीकेट कार्ड रखना ही पसन्द करते हैं। ओरिजिनल घर पर ही रखते हैं, जिससे कभी पर्स खो जाये या चोरी हो जाये तो ओरिजिनल कार्ड्स सदा सुरक्षित रहें। ये डुप्लीकेट कार्ड बनाने के लिये मैं कार्ड को दोनों ओर से स्कैन करके फोटो पेपर पर उनके कलर प्रिन्ट निकालता हूँ और उनके फ्रन्ट और बैक को ठीक से हुबहू कार्ड की शेप में जोड़ कर उन्हें लेमिनेशन कर देता हूँ, जिससे वे हुबहू ओरिजिनल कार्ड का रूप अख्तियार कर लेते हैं।
इन डुप्लीकेट कार्ड्स को पर्स में रखने का फायदा यह होता है कि कार्ड होल्डर को कभी किसी भी कार्ड की फोटोकॉपी की जरूरत हो, वह डुप्लीकेट कार्ड से ही फोटोकॉपी करवा लेता है। और फोटोकॉपी ओरिजिनल कार्ड की फोटोकॉपी से किसी भी हालत में घटिया नहीं आती, बल्कि अक्सर बेहतर ही आती है। इसका कारण यह है कि हम कार्ड बनाते समय यह ध्यान रखते हैं कि यदि किसी के कार्ड में उसकी फोटो बहुत ज्यादा डार्क है तो और फोटोकॉपी में उसका रिजल्ट बहुत काला आता है तो उस फोटो को हम कुछ लाइट कर देते हैं। फोटो वही रहती है। उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती, किन्तु उसे थोड़ा सा लाइट कर देने से कार्डधारी व्यक्ति का चेहरा कुछ अधिक स्पष्ट हो जाता है।
और पर्स में डुप्लीकेट कार्ड रखने का सबसे खास फायदा यही होता है कि पर्स खोने या पाकेटमारी या चोरी का शिकार होने पर डुप्लीकेट कार्ड्स ही गायब होते हैं, जो कि ओरिजिनल कार्ड घर पर सुरक्षित होने की वजह से दोबारा बनवा लेना बहुत आसान होता है।
मुझे लगता है - इस तरह का काम पश्चिमी दिल्ली में तो कम से कम मैंने ही आरम्भ किया था, क्योंकि मेरे पास तब से कम्प्यूटर है, जब दूर दूर तक लोगों को कम्प्यूटर का ज्ञान ही नहीं था।
जो लोग कम्प्यूटर के भारत आगमन का विवरण जानते हैं, जरूर जानते होंगे कि आरम्भ में जो 286 कम्प्यूटर आया था, वह काफी बड़ा होता था और नया कम्प्यूटर उस जमाने में साठ हजार या अधिक का होता था।
286 के बाद 386 और 486 माडल आये। मैंने जो पहला-पहला कम्प्यूटर खरीदा था, वह एक सेकेण्ड हैण्ड 486 था, जो उस समय मुझे लगभग पन्द्रह हज़ार का पड़ा था। बाद में अपग्रेडेशन में और भी अधिक खर्च पड़ा था।
जानकारी के लिये आपको बताऊँ - तब मेरे कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क कितनी थी।
सिर्फ चार एमबी।
और रैम थी आठ केबी। सिर्फ आठ केबी। उस में गाने नहीं सुन सकते थे आप। वीडियो देखना तो बहुत दूर की बात है।
आज न्यूयॉर्क में रहने वाली मेरी चचेरी बहन अचला गुप्ता के कम्प्यूटर की रैम ही बत्तीस जीबी है।
तो यह सब कुछ तो मैंने आपको अपने कामों का विस्तृत विवरण बताया है, लेकिन हम बात कर रहे थे रूटीन की और लेखकीय रूटीन की।
तो सितम्बर के आखिरी दिनों में मेरे सभी तरह के लेखन कार्यों का रूटीन अचानक टूट गया और रूटीन का टूटना कभी अच्छा नहीं होता। सब कुछ अव्यवस्थित हो जाता है और रूटीन टूटने पर जो लेखन कार्य आप बीच में ही छोड़ देते हैं, दोबारा उसे फिर से आरम्भ करना बहुत ज्यादा आसान नहीं होता, क्योंकि जो कुछ हम लिख रहे होते हैं, सबका सब एक बार पाठक के तौर पर खुद भी एक या अधिक बार पढ़ना पड़ता है, ताकि कान्टीन्यूटी ठीक ठाक रहे। गलतियाँ न होयें।
बाहरी काम करने के बाद ही मुझे चार दिन के लिए अपनी पत्नी और छोटे भाई-भाभी के साथ रांची जाना पड़ा। रांची के बर्धमान कम्पाउंड में मेरी सबसे बड़ी से छोटी, दूसरे नम्बर की बहन सविता गुप्ता उर्फ बीता जीजी रहती हैं।
उन्नीस अक्टूबर को सुबह आठ बजकर पैंतालीस मिनट पर हम गो एयर की फ्लाइट से दिल्ली से राँची के लिए रवाना हुए। सुबह साढ़े दस बजे तक रांची के बिरसा मुण्डा एयरपोर्ट पर पहुँच गये। एयरपोर्ट पर भांजे हिमांशु गुप्ता के पुत्र रिषभ गुप्ता और पुत्री रिशीका गुप्ता दो अलग अलग कारों में हमें रिसीव करने आये हुए थे।
मैं मेरी पत्नी राज और रिषभ एक कार में, दूसरी में छोटा भाई राकेश, उसकी पत्नी कान्ता और रिशीका बैठे और लगभग पौन घण्टे के सफर के बाद बर्धमान कम्पाउंड पहुँच गये।
जिन भाइयों की अपनी उम्र से दस से पन्द्रह साल बड़ी, बड़ी बहन हों, वे बड़ी बहन का प्यार क्या होता भली भाँति समझ सकते हैं। बड़ी बहन में एक अदद माँ मुफ्त में हासिल रहती है और हम इस मामले में बहुत बहुत खुशकिस्मत हैं। इसलिये भी कि जीजी के सुपुत्र हिमांशु और बहू विनीता ही नहीं, अगली पीढ़ी की औलादें रिशीका और रिषभ तथा परिवार के अन्य रिश्तेदारों ने चार दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चलने दिया।
आखिरी दिन 22 अक्टूबर को साढे़ चार बजे एयर एशिया से वापसी के टिकट थे। उसी दिन सुबह राँची में फेसबुक मित्र परमाणु सिंह से कुछ ही देर की सही, बहुत आत्मीयता भरी मुलाकात हुई, जो सदैव याद रहेगी।
दिल्ली लौटने तक सब कुछ ठीक ठाक रहा। खास बात यह रही कि इस पूरे दौर में स्वास्थ्य भी बहुत बेहतरीन रहा, लेकिन फिर दिल्ली वापसी के पश्चात्, अचानक कुछ बेमौसमी बरसातों के आगमन के बाद से बिगड़ा स्वास्थ्य उन्नीस-अठारह-सतरह होता चला गया। फिलहाल बदलते मौसम का यह झटका जारी है, इसलिये लिखने का रूटीन ही नहीं, दुकान का रूटीन भी बिगड़ गया। सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक दुकान में बिताने वाले मुझ जैसे शख्स के लिये लिखने का रूटीन बनाये रखना कितना मुश्किल होता है, यह समझाना तो मुश्किल है, पर यकीन दिलाता हूँ कि जल्दी ही फिर से उसी अन्दाज में आगाज हो जायेगा और पिछली कड़ियाँ आगे भी बढ़ेंगी, बस आप सबकी दुआएँ और शुभकामनाएँ चाहिये। अभी तो तीस नवम्बर तक दुकान भी सुबह दस बजे से दोपहर ढाई बजे तक ही खोल रहा हूँ, क्योंकि दिल्ली में पोल्यूशन बहुत है, जो कि दिल्लीवासियों के लिये तो ज़हर है ही, मेरे जैसे दमा रोगियों के लिये शायद ज़हर से भी कुछ ज्यादा है।
आज फिर से मैदान में कूदे हैं तो अब कदम दर कदम फिर से बढ़ने की कोशिश भी जारी रहेगी।
छोटों का प्यार और बड़ों का आशीर्वाद बना रहे। बस....।
रूटीन पर आउट ऑफ रूटीन लेख लिखने का भी एक विशेष कारण है, वह यह कि आप में से जो भी लेखक हैं - एक बात गाँठ बाँध लें कि लिखना - रोज का एक रूटीन जरूर होना चाहिए। दिन में एक पेज लिखें या दस - कलम हर दिन चलनी अवश्य चाहिए।
तभी आप अच्छे और बेहतरीन लेखक बन सकेंगे, अन्यथा आप सौ किताबें भी लिख लें, यादगार जैसा कुछ लिखना मुश्किल ही होगा। मानसिक रूप से आप स्वयं भी अपने लेखन से कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकेंगे।
लिखिये और रोज लिखिये। रूटीन बनाकर लिखिये। रूटीन बनाना सम्भव न हो तो आउट ऑफ रूटीन भी लिखिये, किन्तु कुछ न कुछ रोज लिखिये।
(इति)
मंगलवार, 23 नवंबर 2021
हम भी मुन्तज़िर हैं | योगेश मित्तल | हिन्दी कविता
हैं अगर अपने भी यदि नाराज़ तो,
और गुस्सा है जो दिल में आज तो।
किसलिये, क्यों कर रहूँ उदास मैं,
क्यों न रखूँ - नव खुशी की आस मैं।
वो गले मिलते किसी भी मीत को,
मुझको न चाहें - न मेरे गीत को।
मैं भला शिकवा किसी से क्यों करूँ,
उनसे ही कहते, भला मैं क्यों डरूँ?
वो अगर नाराज़ हैं, रह लें अभी,
हम भी मुन्तज़िर हैं, वो मानेंगे कभी।
योगेश मित्तल
सोमवार, 27 सितंबर 2021
कचरे के डिब्बे में डालो | हिंदी कविता | योगेश मित्तल
Image by 👀 Mabel Amber, who will one day from Pixabay |
मुर्दों का जो माँस नोचकर,
हलवा पूड़ी खाते हैं!
खुद को धर्मात्मा कहते हैं,
और बाबा कहलाते हैं!
करते रहते जर्नी - यात्रा!
दस प्रतिशत सच में जो मिलाते
नब्बे प्रतिशत झूठ की मात्रा!
शूगर जैसा रोग न पालो!
बीमारी के सभी कीटाणु,
कचरे के डिब्बे में डालो!
योगेश मित्तल
रविवार, 19 सितंबर 2021
कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 18
"ताला तेरा नहीं है, यह क्या बात हुई?" वेद ने चकित होकर कहा।
बात तो मेरी भी समझ में नहीं आ रही थी, लेकिन इससे पहले कि मैं कुछ कहता, सामने की गैलरी में आ खड़े हुए, जयन्ती प्रसाद सिंघल जी बुलन्द और रौबदार आवाज कानों में पड़ी -"अबे तू जिन्दा है, मैं तो सयझा, मर-खप गया हो गया। सदियाँ बीत गईं तुझे देखे। "
"सदियाँ....। " मैं और वेद दोनों जयन्ती प्रसाद सिंघल के इस शब्द पर मुस्कुराये, तभी जयन्ती प्रसाद सिंघल जी का खुशी से सराबोर स्वर उभरा -"अरे वेद जी, आप भी आये हैं, इस नमूने के साथ। धन्य भाग हमारे। आये हैं तो जरा हमारी कुटिया भी तो पवित्र कर दीजिये। "
जयन्ती प्रसाद सिंघल ने बायीं ओर स्थित रायल पाकेट बुक्स के छोटे से आफिस की ओर प्रवेश के लिये संकेत किया। आफिस में आगन्तुकों के बैठने के लिए एक ही फोल्डिंग कुर्सी खुली पड़ी थी, जयन्ती प्रसाद सिंघल जी ने दूसरी भी खोल दी, फिर स्वयं टेबल के पीछे बास की कुर्सी पर विराजे और हमसे बैठने का अनुरोध किया।
वेद और मैं बैठ गये, पर बैठते-बैठते वेद ने कह ही दिया - "मैं तो यहाँ योगेश जी का कमरा देखने आया था, पर यहाँ तो दिक्खै आपने अपना ताला लगा रखा है। "
"इसका ताला तोड़ कर, अपना न लगाता तो और क्या करता, दस महीने में तो यह कमरा भूतों का डेरा हो जाता। हम सारे घर की रोज सफाई करवावैं हैं, लेकिन..."
"दस महीने कहाँ हुए अभी...। " तभी मैंने जयन्ती प्रसाद सिंघल जी की बात काटते हुए कहा तो वह बोले -"हिसाब लगाना आवै है या सिर्फ कागज़ काले करना ही जानै है?"
मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो रही थी कि अगर जयन्ती प्रसाद जी ने दस महीने के हिसाब से किराया-भाड़ा और बिजली, जो कि मैंने बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं की थी, सब जोड़-जाड़ कर पैसे माँग लिये तो....?
पर तभी अचानक वेद ने गम्भीर स्वर में कहा -"पर आपने योगेश जी का ताला क्यों तोड़ा? यह तो आपने गलत किया न...?"
"बिल्कुल नहीं। " जयन्ती प्रसाद जी बोले -"हमने पन्द्रह-बीस दिन इसका इन्तज़ार किया, फिर ताला तोड़ दिया कि इसके पीछे कमरे की साफ सफाई तो हो जाये? हम तो रोज इसकी सफाई करवाते थे, अब किराये-भाड़े के साथ इसे बीस रूपये हर महीने सफाई के भी देने होंगे। "
"क-क-कितने रुपये देने होंगे?" मेरी आवाज काँपने लगी थी। तुरन्त ही वेद ने मेरी ओर देखा और उसका हाथ मेरी पीठ पर चला गया। उसे उस समय मुझ पर बहुत तरस आया था।
तभी मेरे सवाल के जवाब में जयन्ती प्रसाद जी बोले -"तू अपने आप हिसाब लगा ले, दस महीने के कितने हुए? तू जो हिसाब लगायेगा, हम मान लेंगे। "
मैंने नोट किया कि जो जयन्ती प्रसाद मुझसे योगेश जी और आप करके बोलते थे, वह तू-तड़ाक से और बड़े फ्रेंक लहज़े में बात कर रहे थे। सही भी था, अब मैं उनका लेखक बनकर, उनके सामने नहीं बैठा था, बल्कि किरायेदार था।
"दस महीने नहीं हुए हैं अभी। " मैंने कहा।
"हुए तो दस महीने ही हैं, पर चल तू बता, तेरे हिसाब से कितने महीने हुए हैं, उसी से हिसाब लगा ले। "
मैं चुप। हिसाब लगाने में भी दिल घबरा रहा था कि मेरे हिसाब को गलत बता कर जयन्ती प्रसाद जी कोई और चुभती बात न कह दें।
यहाँ वेद ने मेरे लिये बात सम्भाली और विनम्र स्वर में जयन्ती प्रसाद जी से कहा -"हिसाब आप ही लगाकर बता दो, पर कम से कम हिसाब बनाना, क्या है कि लेखक तो होता ही गरीब है और आप जितने महीने का भी किराया लोगे, योगेश पर तो मुफ्त का वजन पड़ेगा, क्योंकि जितने भी दिन का यह किराया देगा, उसमें से एक भी दिन यह यहाँ रहा तो है ही नहीं। "
"ठीक है। आप पहली बार हमारे यहाँ आये हैं, हमारी कुटिया को पवित्र किया है तो आपकी बात मानकर, मैं योगेश के लिये ज्यादा से ज्यादा कनशेसन कर देता हूँ और एक ही बात बोलूँगा। "
"बोलिये....। " वेद ने कहा।
"तो इससे कहिये - पचास रुपये दे दे। हमारा इसका हिसाब खत्म। " जयन्ती प्रसाद सिंघल एकदम बोले तो मेरा दिल बल्लियों उछल गया।
"पचास रुपये। " हठात् ही मेरे मुंह से निकला। इतनी छोटी रकम में जान छूटने की तो मैंने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। सिर्फ पचास रुपये देने थे मुझे, जबकि मैं तो बुरी तरह लुटने के लिए तैयार बैठा था।
"बेटा, ये तो वेद साहब के लिहाज़ में तुझे छोड़ रहा हूँ, वरना आज तो तेरी जेब से एक-एक छदाम निकलवा लेनी थी मैंने। कंगला करके भेजना था। " जयन्ती प्रसाद सिंघल जी मेरा चेहरा गौर से देखते हुए बोले तो वेद ने मेरी पीठ पर धौल मारा -"अब देख क्या रहा है, फटाफट दे पचास रुपये, इससे पहले कि मकानमालिक का इरादा बदल जाये। "
"काहे का मकानमालिक, हम सब भाई-बन्द हैं वेद जी। एक-दूसरे का ख्याल नहीं रखेंगे तो कैसे चलेगा। " जयन्ती प्रसाद सिंघल जी बोले। इस समय उनका स्वर व लहज़ा बिल्कुल बदला हुआ था और स्वर ऐसा था कि मकानमालिक नहीं कोई घर का बुजुर्ग सामने बैठा हो।
मैंने जेब से पचास रुपये निकालकर फटाफट जयन्ती प्रसाद जी की ओर बढ़ाये तो वह मुस्कुराये -"खुश है, लूटा तो नहीं तुझे?"
मेरी हँसी और खुशी ऐसी थी कि जुबान गुंग हो गई थी।
"अच्छा, अब योगेश का कमरा तो देख लिया, मैं चलूँगा, योगेश के साथ बहुत वक़्त बीत गया। " और वेद एकदम उठ खड़े हो गये।
"अरे, ऐसे कैसे चलूँगा, अभी तो आपसे कुछ बात भी नहीं हुई। चाय-वाय का दौर भी नहीं चला। " जयन्ती प्रसाद सिंघल जी तुरन्त बोले तो वेद ने उनकी ओर हाथ बढ़ा कर विनम्र स्वर में कहा - "फिर कभी जैन साहब। ये वादा रहा। "
जयन्ती प्रसाद जी को भी सभी लेखक व परिचित 'जैन साहब' ही कहते थे, वैसे भी वह जैन समुदाय से ही थे।
जयन्ती प्रसाद जी ने वेद से हाथ मिलाया और हाथ थामे-थामे ही बोले -"थोड़ी देर रुकते न?"
"फिर कभी...। आज आप योगेश जी से बात कीजिये। इन्हें ‘दबाकर’ चाय नाश्ता कराइये। " कहकर वेद एक पल भी रुके नहीं। अपना हाथ छुड़ा, पलटे और जाते-जाते मेरी पीठ थपथपाई -"फिर मिलते हैं। "
मुझे कुछ भी बोलने का अवसर ही नहीं दिया वेद ने। उसके ऐसे अचानक आंधी तूफान की तरह निकल जाने से मुझे यही लगा कि शायद कोई बहुत जरूरी काम ध्यान आ गया होगा। जाते-जाते वेद मेरे लिए चाय नाश्ते का डायलॉग मार गये थे तो आफिस में बैठे-बैठे ही जयन्ती प्रसाद जी ने चाय के लिए बोल दिया।
थोड़ी देर बाद जयन्ती प्रसाद जी के सुपुत्र चन्द्रकिरण जैन एक ट्रे में चाय-नाश्ता लिये आये और मुझे देखते ही बोले -"ओहो, आज तो ईद का चांद निकल आया। कहाँ रहे इतने दिन?"
"दिल्ली...। " मैं धीरे से बोला।
"अब तो रहोगे... कुछ दिन मेरठ में ?"
"हां...। " मैंने कहा और जो बात अभी तक जयन्ती प्रसाद जी से नहीं कह पाया था, चन्द्र किरण से बोला -"वो यार मेरे कमरे की चाबी....। "
मगर चन्द्र किरण की ओर से किसी भी रिस्पांस से पहले जयन्ती प्रसाद जी बोल उठे -"काहे की चाबी... अन्दर कुछ नहीं है तेरा?"
"पर मेरा सामान...?" मैं एकदम बौखला गया।
"सब तेरे मामा को बुलवा कर उठवा दिया। उन्हीं के घर मिलेगा। लगै - मामा के यहाँ होकर नहीं आ रहा। " जयन्ती प्रसाद जी बोले।
यह सच ही था, मेरठ आने के बाद अभी तक मैं मामाजी के यहाँ नहीं गया था। मैंने स्वीकार किया कि मामाजी के यहाँ अभी तक नहीं गया हूँ।
खैर, चाय-नाश्ता करने के बाद मैं रायल पाकेट बुक्स के आफिस से निकला तो फिर बीच में किसी अन्य प्रकाशक से नहीं मिला।
सबसे नजरें बचाता हुआ ईश्वरपुरी से बाहर आ गया, लेकिन सड़क तक नहीं पहुँच सका, कार्नर पर ही गिरधारी पान और चाय वाले की दुकान थी, जिस पर उस दिन गिरधारी का बेटा राधे बैठा था, मुझ पर नज़र पड़ते ही बोला -"राइटर साहब, पान तो खाते जाओ। "
मैं ठिठककर घूम गया और पान की दुकान पर आ गया। राधे मुझसे बिना पूछे ही पान लगाने लगा। दरअसल उन दिनों मुझे जानने वाला हर पनवाड़ीे जानता था कि मैं कभी सादी तो कभी सादी और पीली पत्ती तम्बाकू का पान खाता था।
"पीली पत्ती डालूँ?" राधे ने सादी पत्ती डालने के बाद पूछा।
"नहीं, आज रहने दे। " मैंने कहा। मामाजी के यहाँ जा रहा था और पीली पत्ती की महक तेज़ नाक वालों को पलक झपकते ही आ जाती थी, जबकि सादी पत्ती में चलने वाले 'रवि' तम्बाकू की महक का पता भी नहीं चलता था।
राधे ने एक जोड़ा बना कर मुझे पकड़ाया। मैंने बीड़ा अपनी दायीं दाढ़ में फँसाया और आगे बढ़ गया।
ईश्वरपुरी की अगली गली हरीनगर कहलाती है, जिसका पहला ही काफी बड़ा मकान मेरे मेरठ वाले मामाओं का है। सबसे बड़े मणिकान्त का ग्राउण्ड फ्लोर में दायाँ पोर्शन था, उनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता बायें पोर्शन में तथा उनसे छोटे विजयकान्त रामाकान्त मामाजी के ऊपर फर्स्ट फ्लोर में व सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ता, जो कि एडवोकेट थे, बड़े मामा जी मणिकान्त गुप्ता जी के ऊपर के पोर्शन में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे। चारों मामाओं की एक या दो बसें यूपी रोडवेज़ में प्राइवेट बसों के तौर पर निर्धारित रूट पर दौड़ती थीं।
बडे़ मामाजी मणिकान्त गुप्ता की यूपी के बड़ौत के बड़का गाँव में लम्बी चौड़ी खेतीबाड़ी और जमींदारी भी थी। उनसे छोटे रामाकान्त गुप्ता एल आई सी के एजेन्ट भी थे और जेवर आदि सामान गिरवी रख जरूरतमन्दों को ब्याज पर कर्ज भी दिया करते थे। तीसरे नम्बर के मामाजी विजयकान्त गुप्ता ने मेरठ के पुल बेगम के पास स्थित 'जगत' सिनेमा का ठेका भी ले रखा था, जहाँ वह नई पुरानी फिल्में भी लगाते थे। मुझे वहाँ विजयकान्त मामाजी के बच्चों और मामीजी के साथ अनेक फिल्में मुफ्त में देखने के अनेक अवसर मिले, जिसमें चन्दरशेखर, शकीला, आगा, के.एन. सिंह, मुकरी की 'काली टोपी लाल रूमाल तथा प्रोड्यूसर डायरेक्टर नासिर हुसैन की देवानन्द, आशा पारेख, प्राण, राजेन्द्रनाथ अभिनीत 'जब प्यार किसी से होता है' की मुझे आज भी याद है।
सबसे छोटे हरीकान्त गुप्ता मामाजी की भी यूपी रोडवेज़ में बसें चलती थीं और वकालत भी चलती थी। मामाओं का मेरठ में खासा रसूख और दबदबा था, पर जब भी मैं मेरठ रहा, खाने-पीने-रहने का तो हमेशा आराम रहा, लेकिन जिन्दगी में कभी उनसे कभी भी एक पैसे की आर्थिक सहायता लेने की स्थिति कभी नहीं आई, लेकिन वहाँ भाई बहन सभी उम्र में मुझसे छोटे थे, इसलिए उन पर जब तब मैं कुछ न कुछ खर्च कर देता था, जिसके लिए मामा-मामी तो नहीं, भाई-बहन ही अक्सर टोका करते थे कि "भैया, इतना खर्चा क्यों करते हो फिजूल में। "
रामाकान्त मामाजी के मेरे ईश्वरपुरी वाले सभी प्रकाशकों से नजदीकी सम्बन्ध थे और अक्सर प्रकाशकों के आफिस में भी उनका उठना-बैठना होता रहता था, इसलिये मैं निश्चिन्त हो गया था कि जयन्ती प्रसाद जी ने मेरा सामान मामाजी को उठवा दिया है तो उन्होंने और भाई-बहनों ने सहेज़ कर सलीके से ही रखवाया होगा, इसलिये पान चबाते हुए मामाजी के घर तक पहुँचा, किन्तु अन्दर जाने से पहले मैंने सारा पान नाली में थूक दिया। कारण था रामाकान्त मामाजी की धर्मपत्नी चन्द्रावल मामीजी। वो जब भी मुझे पान खाते देखतीं, कहतीं -"योगेश भैया, तुम्हारे दांत बहुत अच्छे हैं, पान मत खाया करो। हालांकि वह स्वयं पान सुपारी खा लेती थीं और अपने दांतों की सुन्दरता से सन्तुष्ट नहीं थीं और उनके सौन्दर्य नष्ट होने का कारण पान और सुपारी को ही बताती थीं।
जब मैं रामाकान्त मामाजी के घर पहुँचा, वे दालान में कतार से लगे गमलों के पौधों को पानी दे रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने हाथ रोक लिया और बोले -"आ जा, सही टाइम पर आया। आ जा, थोड़ा पुण्य तू भी कमा ले। "
"पुण्य....?" मैं कुछ समझा नहीं, इसलिये प्रश्नवाचक नज़रों से मामाजी की ओर देखा तो उन्होंने पानी से भरी एक बाल्टी और उसमें पड़े मग्गे की ओर इशारा किया और बोले -"बाल्टी भरी है, मग्गा पड़ा है। चल, पानी दे पौधों को। "
मैं बाल्टी की ओर बढ़ा। मग्गा पानी से भरकर बाल्टी से बाहर निकाला, फिर पूछा -"किस-किस गमले में पानी देना है?"
"निरा बुद्धू ही है तू... जो गमला गीला दिख रहा है, जिसमें पानी भरा है। उसमें मैंने दे दिया है, बाकी जो सूखे दिख रहे हैं, जिनकी मिट्टी पर ताजा पानी नहीं दिख रहा, उनमें पानी देना है। "
"कितना-कितना पानी डालना है?" मैंने पूछा।
"तू सचमुच बुद्धू है....। " मामाजी 'बुद्धू' शब्द पर जोर डालते हुए बोले -"न बहुत ज्यादा, ना बहुत कम...। अभी आधा-आधा मग्गा डाल दे सभी में। "
मैं पौधों को पानी देने के लिए गमलों में पानी डालने लगा। जब दायित्व से मुक्ति मिली तो देखा, मामाजी बान की खुरदुरी चारपाई वहीं पीछे ही चारपाई डाल कर बैठे हुए हैं।
मैं भी मामाजी के पास जाकर बैठ गया और बैठकर बोला -"मामाजी, मेरा सामान कहाँ पर रखवाया है?"
"कौन सा सामान?" मामाजी ने पूछा।
"वही - जो मेरे पब्लिशर ने आपको उठवाया है। " मैंने कहा।
"क्या बक रहा है? मुझे किसी ने कोई सामान नहीं उठवाया। " मामाजी ने कहा और मैं सन्नाटे में डूब गया।
यह क्या कह रहे हैं मामाजी? मुझसे मज़ाक तो नहीं कर रहे?
जयन्ती प्रसाद जी ने तो मुझे वो कमरा खोल कर भी नहीं दिखाया था, जिसमें मैं किरायेदार था।
(शेष फिर)
शनिवार, 18 सितंबर 2021
कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 17
सुशील जैन एकदम कुर्सी से उठे और कुर्सी पीछे धकेल, मेज को क्रास कर, आगे निकल आये और बड़े तपाक से वेद प्रकाश शर्मा की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा -"आज योगेश और आप साथ-साथ कैसे?"
और फिर पीछे पड़ी कुर्सी खींचकर सुशील जी ने वेद के निकट कर दी। मैंने अपने लिए खुद ही कुर्सी खींच ली।
"आज मैं योगेश की सिफारिश करने आया हूँ। " वेद ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
"इसे सिफारिश की क्या जरूरत पड़ गई?" सुशील जैन अपनी कुर्सी पर बिराजते हुए बोले -"ये तो हमारा वैसे ही हीरो है, जो काम कोई न कर सकै, इससे करवा लो। "
"काम ही करवाते रहोगे या कुछ नाम और दाम भी दोगे?" वेद ने कहा और इससे पहले कि सुशील जैन बात समझ कर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते, वेद ने बात आगे बढ़ा दी -"सुना है, आपने इसका विज्ञापन छापा है, किसी नावल का। बहुत अच्छा-सा नाम है.... "
"लाश की दुल्हन...। " सुशील जैन ने वेद की बात पूरी की।
"हाँ... हाँ... वही.... लाश की दुल्हन... तो कब छाप रहे हो यह नावल, योगेश के नाम से...?
" हम तो कल छाप दें... पहले यह नावल दे तो सही, पर इसने तो इतने खसम पाल रखे हैं कि हमारा नम्बर ही नहीं आता। आज भी छ: महीने बाद शक्ल देख रहा हूँ.... वो भी शायद आप पकड़ लाये हो, इसलिए.... " सुशील जैन धाराप्रवाह कहते चले गये।
वेद ने मेरी ओर देखा -"यो क्या चक्कर है भई? मुझे 'जुल' दिया सो दिया, जैन साहब को भी लपेट लिया। "
"नहीं यार, वो दिल्ली से आना ही नहीं हुआ। " मैं कुछ खिसियाकर बोला।
"यह गलत बात है योगेश। " वेद ने मुझसे दो टूक स्वर में कहा -"या तो विज्ञापन नहीं देना था और विज्ञापन दिया है तो नावल भी दो। तुम दोगे तो जैन साहब न छापें, यह हो ही नहीं सकता। "
"लिखूँगा यार....। " मैंने फिर से खिसियाये लहज़े में कहा।
"कब लिखेगा, जब लोग विज्ञापन भी भूल जायेंगे...?"
"विज्ञापन तो लोग अब तक भूल ही चुके होंगे। " सुशील जैन बोले -"छ: महीने पहले छपा था, फिर हमने रिपीट ही नहीं किया। "
"रिपीट क्यों नहीं किया?" वेद ने सुशील जैन से पूछा।
"करते कैसे... यह मेरठ से ऐसा गायब हुआ, जैसे गधे के सिर से सींग और हमें तो अपना पता भी नहीं देकर गया कि कहीं हम एक चिट्ठी ना लिख दें। हाँ, मामा से इसकी घणी यारी है... उसके पास अपना तो अपना, शायद पड़ोसियों का भी अता-पता लिखा रखा है। "
"तो यार, आप मामा से मेरा पता ले लेते। " मैंने कहा।
"क्यों माँग लेते मामा से?" सुशील जैन तमक कर बोले -"हमारी कोई इज्जत नहीं है क्या? अपने लेखक का पता दूसरे पब्लिशर से माँगना हमारे लिए तो भीख माँगने जैसा है। "
"कह तो जैन साहब सही रहे हैं। " वेद ने सुशील जैन का पक्ष लिया -"तुझे खुद अपना पता इन्हें लिखवाना चाहिए था। "
यहाँ सभी पाठक समझ गये होंगे कि 'मामा' सम्बोधन द्वारा लक्ष्मी पाकेट बुक्स के सतीश जैन का जिक्र हो रहा था।
"अब लिखवा दूँगा...। " मैंने कहा, फिर सुशील जैन से बोला -"एक कागज़ और पेन दीजिये। "
सुशील जैन ने एक तरफ रखा, रफ पेपर्स का पैड और पैन मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने उस पैड के ऊपरी पेपर पर अपना दिल्ली का पता लिख दिया।
वेद प्रकाश शर्मा ने अब आगे जो कहा, वो पूरी तरह मेरी सिफारिश थी। बड़े ही नम्र स्वर में वेद सुशील जैन से बोला -"जैसा कि मैंने लोगों से सुना है, आपको योगेश से बहुत प्यार है। "
"वो तो है। " सुशील जैन एकदम कह उठे।
"तो इसे इसके नाम से छापो न, इस बात की गारन्टी मैं लेता हूँ, इसे छापकर आपको कभी अफसोस नहीं होगा और यह आपके साथ गद्दारी भी नहीं करेगा। " वेद ने कहा।
"यह तो है...। " सुशील जैन बोले - "इसकी ईमानदारी और सच्चाई पर तो मेरठ का कोई पब्लिशर शक नहीं कर सकता। "
"तो फिर छापिये न योगेश मित्तल का उपन्यास...। "
"हमने कब मना किया, पहले यह नावल दे तो सही। " सुशील जैन ने गेंद मेरे पाले में फेंक दी।
"ले भई...। " वेद ने ओर देखा -"जैन साहब तो तैयार बैठे हैं। अब तू बता - कब देवेगा उपन्यास?"
"जल्दी ही स्टार्ट करूँगा, कम्पलीट होते ही दे दूँगा। " मैंने कहा। दरअसल अर्सा पहले अमर पाकेट बुक्स में जब मेरे सामाजिक उपन्यास 'पापी' और 'कलियुग' उपन्यासकार के रूप में मेरे पहले उपनाम - "प्रणय" नाम से बैक कवर पर रंगीन तस्वीर के साथ के साथ छपे थे, तब तीसरे उपन्यास 'लोक-लाज' को पब्लिशर साहब को देने के समय मेरे साथ कुछ ऐसा घटा था कि मैंने प्रकाशकों से निश्चित वायदा करना छोड़ दिया था, पर वो किस्सा फिर कभी....। हाँ, उस घटना के बाद 'प्रणय' नाम से मेरा कोई उपन्यास फिर कभी नहीं छपा।
अब भी मैंने वेद प्रकाश शर्मा और सुशील जैन के सामने गोल-मोल बात कही थी, पर वेद प्रकाश शर्मा के सामने मेरी दाल न गलनी थी। उसने कहा -"तेरा यह जल्दी कब होवैगा? कहीं तू जैन साहब को भी गोली तो नहीं दे रहा बेट्टा, जैसे मुझे दी थी कि ला रहा हूँ उपन्यास कम्पलीट करके, पर मेरी बात और थी, मैंने तेरी कोई पब्लिसिटी नहीं की थी, लेकिन जैन साहब तो तेरी पब्लिसिटी भी कर चुके हैं - 'लाश की दुल्हन' उपन्यास का नाम और विज्ञापन भी तूने ही बनाया था। नाम भी ठीक ठाक है, बल्कि मैं तो कहूँ... बहुत शानदार नाम है - लिख डाल इस पर उपन्यास। "
"लिखूँगा यार..। " मैंने वेद से कहा।
"तो फिर तेरी और से मैं जैन साहब को पक्का कर लूँ?" वेद ने पूछा।
मैं अचानक खामोश हो गया।
उस जरा सी देर की खामोशी पर सुशील जैन ने सहसा यह कहते हुए प्रहार कर दिया -"योगेश, तू उपन्यास लिखना तो स्टार्ट कर दे, पर एक शर्त मेरी भी है। "
"शर्त....। " मैं चौंका।
वेद भाई भी चौंक पड़े और तुरन्त बोले -"अब ये शर्त की क्या भसूड़ी है जैन साहब?"
"कुछ नहीं, मामूली सी बात है। योगेश मेरे पास तीन उपन्यास जमा कर देगा, तब मैं पहला उपन्यास छापूँगा। "
मैंने गहरी सांस ली और बहुत धीमे से बुदबुदाया -"न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी। "
"क्या कहा?" एकदम ही ये दो शब्द वेद भाई और सुशील जैन के मुँह से लगभग एक साथ निकले थे।
"नहीं, कुछ नहीं। " मैंने अपनी तस्वीर वाली मुस्कान फेंकते हुए कहा।
तो सुशील जैन बोले -"देखिये योगेश जी, आपके और सलेकचन्द जी के बीच क्या हुआ, क्यों अमर पाकेट बुक्स में आपका ‘पापी’ और ‘कलियुग’ के बाद तीसरा उपन्यास 'लोक-लाज’ नहीं छपा, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है, लेकिन मैं नहीं चाहता कि हमारे आपके रिश्ते में भी वैसा ही कोई इतिहास दोहराया जाये, इसलिए तीन उपन्यास तो जरूरी हैं। उसके बाद जब पहला उपन्यास छपेगा तो आपके पास बहुत वक़्त होगा, चौथे उपन्यास के लिए, उसमें दो चार दिन आप विलम्ब भी कर दोगे तो हमें परेशानी नहीं होगी। "
सुशील जैन की इस बात पर वेद प्रकाश शर्मा ने भी कहा -"योगेश, तेरे अमर पाकेट बुक्स के लफड़े के बारे में मुझे भी कुछ नहीं पता, पर यो समझ में आवै है कि जैन साहब की बात बिल्कुल ठीक है। अब तू मेरी बात मान और कमर कस ले। लिखना शुरू कर दे। ठीक...। "
"ठीक....। " मैंने कहा।
"तो ठीक है ना जैन साहब...। यह तीन उपन्यास दे देगा, तब आप छापना शुरू कर देना। अब जरा मैं इसका कमरा देख लूँ। सुना है - रायल पाकेट बुक्स के मकान में ले रखा है। "
और वेद भाई उठ खड़े हुए। मैं भी उठ खड़ा हुआ।
तभी सुशील जैन मीठी मुस्कान फेंकते हुए बोले -"जयन्ती प्रसाद सिंघल भी योगेश जी के जबरदस्त 'फैन' हैं, पता नहीं क्या जादू किया है, इनकी बुराई भी तारीफ की तरह करते हैं। "
"बुराई.....?" मैं और वेद दोनों ही ठिठक गये।
"हाँ, एक बार मुझसे कह रहे थे - बहुत लापरवाह आदमी है... बहुत ज्यादा लापरवाह है, लेकिन इतने गुणी आदमी में दो चार ऐब तो होवै ही हैं। "
वेद की हँसी छूट गई। मैं भी मुस्करा दिया।
"अब लिखने में लग जा, फालतू 'टाइम वेस्ट' करना बन्द कर दे। " वेद ने दो कदम आगे बढ़ने के बाद मुझे समझाया।
"मैं कहाँ फालतू 'टाइम वेस्ट' करता हूँ। " मैंने कहा तो वेद ने घूर कर मुझे देखा और बोला -"और यह कभी बिमल चटर्जी, कभी भारती साहब, कभी यशपाल वालिया, कभी कुमारप्रिय, कभी गाँधीनगर के लौंडे-लपाड़ों के साथ घूमते-फिरते रहने के चर्चे दिल्ली के नारंग पुस्तक भण्डार का चन्दर यूँ ही बदनाम करने को सुनावै है। "
"चन्दर मुझे बदनाम करता है?" मैंने चौंककर पूछा।
"नहीं, वो तो तारीफ ही करता है, लेकिन कभी-कभी किसी के द्वारा की गई तारीफ भी बदनाम करने वाली होती है, यह भी तुझे समझना चाहिए। चन्दर तो इस तरह कहता है कि योगेश मित्तल असली यारों का यार है। उसे जिसके साथ चाहो, देख लो। कभी बिमल चटर्जी, कभी कुमारप्रिय, कभी परशुराम शर्मा, कभी राज भारती, कभी वालिया, कभी लालाराम गुप्ता, कभी राजकुमार गुप्ता, कभी गौरीशंकर गुप्ता, कभी ज्ञान गपोड़ी के साथ। " वेद ने कहा -"तेरी इस तारीफ से यही समझ में आता है कि तेरी नज़र में टाइम की कोई कीमत है। "
"ऐसा क्यों कहते हो यार...। " मैं चेहरे पर कृत्रिम उदासी लाकर बोला -"कई बार तो यह कम्बख्त योगेश मित्तल वेद प्रकाश शर्मा जी के साथ भी दरीबे में घूमता पाया गया है। "
वेद के चेहरे पर हँसी उभर आई, पर एकदम कड़क कर बोला -"फालतू मजाक मत न करै। काम पर ध्यान दे। सुशील जी ने तेरा विज्ञापन भी किया हुआ है। "
"विज्ञापन तो लक्ष्मी पाकेट बुक्स में मामा सतीश जैन भी एक उपन्यास का किया था। " मैंने कहा।
"वो मिट्टी का ताजमहल.... नाम सुनकर ही लगे - प्रेम बाजपेयी का सालों पुराना कोई नावल होगा, जिसमें एक लड़का होगा, एक लड़की होगी, दोनों की दुख भरी कोई कहानी होगी। वो तो योगेश, नाम ही एकदम पिटा हुआ है, इसीलिए मैंने उसका कोई जिक्र नहीं किया, पर यह नाम 'लाश की दुल्हन'.....नाम से ही साला सस्पेंस झलकता है। उत्सुकता पैदा होती है - कोई लड़की कैसे बन सकती है - लाश की दुल्हन। तू 'मिट्टी के ताजमहल' पर मिट्टी डाल और 'लाश की दुल्हन' शुरू कर दे। "
बातें करते हुए हम रायल पाकेट बुक्स के मकान तक आ गये थे तो वेद ने एकाएक चुप्पी साध ली। मैं भी इस चुप्पी के समय में दो बातें बता दूँ - वेद ने गाँधी नगर के जिन लौंडे-लपाड़ों का जिक्र किया था, वह मेरे गाँधी नगर के दोस्त अरूण कुमार शर्मा और नरेश गोयल थे तथा बाद में जिस ज्ञान गपोड़ी का जिक्र किया था, वह गप्पें मारने में मशहूर गर्ग एंड कंपनी के ज्ञानेन्द्र प्रताप गर्ग का जिक्र था।
"यहाँ कौन सा कमरा तूने किराये पर लिया है?" वेद ने पूछा तो अपनी जेब में से कमरे की चाबी निकालते-निकालते मैं सन्न रह गया।
कमरा सामने था, मगर उस पर एक भारी भरकम और बड़ा सा ताला लटक रहा था, जबकि मैंने उस पर जो ताला लगाया था, वो एक छोटा और सस्ता सा ताला था।
"क्या हुआ? अपना कमरा नहीं पहचान रहा?" वेद ने पूछा।
"कमरा तो यही है - सामने वाला। लेकिन इस पर मेरा ताला नहीं है। " मैंने कहा।
(शेष फिर)
गुरुवार, 16 सितंबर 2021
कुछ यादें वेद प्रकाश शर्मा के साथ की - 16
"वो तो मैं हूँ....पर आपको बहुत ज्यादा गुस्सा किस बात पर आ रहा है?" मैंने बेहद शान्ति से सवाल किया।
"तुम यार, इसे जानते कितना हो?" सतीश जैन का स्वर अभी भी गर्म था।
"इसे... किसे...?" समझते हुए भी मैंने पूछा।
"इसी को...रामअवतार को....?"
"नहीं जानता...।" मैंने स्वीकार किया -"आपके यहाँ ही मिला हूँ।"
"अरे मैं नहीं जानता उसे..। उसके घर के लोगों को...। कैसा आदमी है? कैसा परिवार है? और तुम.... तुम्हें उसने एक बार कहा और तुम उसके यहाँ खाने पहुँच गये। यार ये कोई तुक है। अक्ल-वक्ल कुछ है तुममें या दिमाग से एकदम पैदल हो? जितने का तुमने खाना नहीं खाया होगा, उससे ज्यादा तो तुमने किराया खर्च कर दिया। कितना किराया खर्चा?"
"साठ रुपये....।" मैंने धीरे से कहा -"तीस जाने के...तीस आने के।"
"इससे कम में, तुम यहीं किसी रेस्टोरेंट में बैठकर उससे अच्छा खाना खा सकते थे, जैसा वहाँ खाया होगा।"
"हाँ, खाना बेशक ज्यादा अच्छा खा सकता था, लेकिन रेस्टोरेंट में वो माहौल... "
"तुम यार बिल्कुल बेवकूफ हो। ऐसे ही किसी ऐरे-गैरे के यहाँ खाना खाने कैसे जा सकते हो। तुम जासूसी उपन्यास लिखते हो, तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारे साथ कुछ ऊंच-नीच भी घट सकता है।"
"टेन्शन मत लो यार...। कुछ हुआ तो नहीं। रामअवतार जी बहुत सिम्पल आदमी हैं।" मैंने सतीश जैन को समझाना चाहा, पर उनका मूड सही नहीं हुआ। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वह मेरे द्वारा रामअवतार जी के यहाँ खाना खाने से खफा हैं या मैंने उन्हें अपना कोट दे दिया इसलिये, पर सतीश जैन ने कुछ जाहिर नहीं किया। मुझसे ठीक से बात किये बिना ही वह आफिस की ओर पलट गये। मैं भी सतीश जैन के पीछे पीछे आफिस में दाखिल हुआ।
सतीश जैन की आफिस टेबल के अपोजिट बिछी फोल्डिंग चेयर पर बैठते हुए मैंने यूँ ही सवाल किया -"कितने दिन का टूर है?"
"कम से कम दो हफ्ते तो लगेंगे ही।" सतीश जैन ने कहा, पर उनकी आवाज़ में अभी भी जो तल्खी थी, मुझे समझ में आ गया कि उनका मूड अभी भी सही नहीं है।
"कितने स्टेशन कवर करने हैं?" मैंने फिर पूछा।
"जितने ज्यादा से ज्यादा हो जायें।" सतीश जैन ने कहा।
फिर हम दोनों के बीच चुप्पी रही, पर कुछ देर बाद सतीश जैन ने ही मुंह खोला -"अब हमारा हिसाब तो क्लीयर है ना?"
"हाँ....।" मैंने कहा।
"अभी मेरठ ही रहोगे या दिल्ली जाना है?" सतीश जैन ने फिर पूछा। स्वर पहले जैसा रूखा था।
मुझे लगा कि मुझे उठ जाना चाहिए और उठते हुए मैं बोला -"शाम तक यहीं हूँ... शाम को निकल जाऊंगा।"
"ठीक है, फिर.... शाम तक जिस जिस से मिलना हो, मिल लो। तुम्हारे तो बहुत सारे घर हैं मेरठ में...।"
"ठीक है, चलता हूँ।" मैं बोला।
तभी जैसे सतीश जैन की व्यापारिक बुद्धि में कोई बात आई और वह एकाएक ही एकदम कोमल स्वर में बोले -"यार, मेरी बात का बुरा मत मानना। तुम हमारे लिए बहुत कीमती हो, इसलिए हमें तुम्हारी चिन्ता होती है। और कोई भी काम करो, सोच समझ कर किया करो। खुद समझ न आये तो सलाह ले लिया करो।"
मैं बोला कुछ नहीं। मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाते हुए लक्ष्मी पाकेट बुक्स के आफिस से बाहर निकल गया।
उसके बाद मैं सोचने लगा कि जीजी के यहाँ जाऊँ या एक चक्कर ईश्वरपुरी लगा लूँ। दिल चाहता था कि बड़ी बहन के यहाँ जाकर कुछ खा-पीकर सो जाऊँ, पर दिमाग ने कहा -'मुझे ईश्वरपुरी जाना चाहिए।'
मुझे याद आया कि मैंने रायल पाकेट बुक्स के मकान में एक कमरा किराये पर लिया हुआ है। उसका किराया तो मात्र पचास रुपये था, पर महीनों हो गये थे, मुझे ताला लगाकर दिल्ली गये और अभी तक लौटकर मैं वहाँ झांकने भी नहीं गया था।
मैंने हिसाब लगाया कि किराया भी लगभग पांच सौ रुपये के आसपास हो रहा होगा।
गनीमत है - किराया अदा करने के लिए रुपये थे मेरे पास, लेकिन मन में एक गिल्ट सा पैदा हो रहा था।
ईश्वरपुरी का रिक्शा करके जाते हुए मैं यही सोच रहा था कि रायल पाकेट बुक्स के स्वामी जयंती प्रसाद जी मुझसे क्या कहेंगे और जवाब में मैं क्या कहूँगा। और यह भी मैं सोच रहा था कि मेरे पास जो रुपये हैं, वो सारे के सारे तो शायद उनके यहाँ के कमरे का किराया अदा करने में ही निकल जायेंगे या हो सकता है - कुछ कम ही पड़ जायें। और पैसे कम पड़े तो मुझे वापसी के किराये का भी कहीं से जुगाड़ करना पड़ेगा।
यह समस्या मेरे सामने चाहे बहुत बड़ी थी, पर एक आदत तब भी मुझमें थी और अब भी है, वो यह कि बात कितनी ही बड़ी क्यों न हो, मैं खुद को कभी बहुत ज्यादा टेन्शन नहीं देता। मस्त रहता हूँ।
ईश्वरपुरी पहुँच सबसे पहले मैंने अपने कमरे पर ही जाना था, पर ऐसा न हो सका।
आरम्भ में ही पड़ने वाले नूतन पाकेट बुक्स के आफिस में मुझे एसपी साहब और वेद प्रकाश शर्मा दिखाई दिये।
दिल में आया, अन्दर घुसूँ और पूछूँ कि क्या हो रहा है, पर दिमाग ने तुरन्त रोक दिया कि नहीं, कुछ आपसी बातचीत हो रही होगी। शायद छपने और छापने की। मुझे अन्दर नहीं जाना चाहिए। देखकर भी अनदेखा कर, मैं आगे बढ़ गया, किन्तु अभी चन्द कदम दूर गंगा पाकेट बुक्स के आफिस से भी आगे नहीं बढ़ा था कि कानों में आवाज आई -"योगेश....।"
पलटकर देखा - नूतन पाकेट बुक्स के आफिस के बाहर वेद खड़े थे और सहसा वह मेरी तरफ बढ़ने लगे और मैं तो उनकी ओर बढ़ना शुरू कर ही चुका था।
एक मिनट बाद हमारे हाथ मिल चुके थे।
"यहाँ कहाँ?" वेद ने पूछा। फिर खुद ही कहा -"गंगा में...?"
"नहीं, अपने कमरे पर जा रहा था।" मैंने कहा।
"कमरे में...? यहाँ कमरा ले रखा है तूने?"
"हाँ...।"
"कितना किराया है?"
"बिजली-पानी समेत पचास रुपये है। हालांकि पानी की मुझे ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि फ्रेश होने और नहाने के लिए मैं मामाजी के यहाँ चला जाता हूँ।"
"तू पागल है क्या बिल्कुल।" पूरी बात सुन, वेद ने छूटते ही कहा-"बेवकूफ, तेरे मामाओं का घर यहाँ है। हजार गज की कोठी है। उनके होते तुझे कमरा किराये पर लेने की क्या जरूरत आ पड़ी? फिर तेरी तो बड़ी बहन का घर भी मेरठ में है।"
"वो यार... अलग कमरे में...प्राइवेसी होने से कुछ ज्यादा तो लिखा जायेगा।" मैंने कुछ झिझकते हुए कहा।
"इतना तो तूने फालतू न लिखा होगा, जितना किराये में बरबाद किया होगा और यहाँ पर तो ईश्वर पुरी में रहने वाला कोई भी जब चाहे सिर उठाये तेरा टाइम बरबाद करने आ जाता होगा, जबकि तेरे मामाओं के यहाँ या बहन के कोई भी तभी पहुँचेगा, जब कोई जरूरी काम होगा।"
वेद प्रकाश शर्मा की बात बिल्कुल सही थी। मेरी बोलती बन्द हो गई।
"किसके यहाँ कमरा लिया है?" तभी वेद ने सवाल किया।
"रायल पाकेट बुक्स वाले जयन्ती प्रसाद सिंघल जी के यहाँ...?"
"तो फिर उनका भी कुछ न कुछ काम जरूर किया होगा।"
"हाँ, पर उन्होंने उसके पैसे तुरन्त ही दे दिये।"
"कम दिये होंगे।"
"नहीं, बिल्कुल भी कम नहीं दिये।" मैंने कहा।
"तो फिर तूने माँगे ही कम होंगे।"
वेद की इस बात ने मुझे निरुत्तर कर दिया। दरअसल मैं इतने ज्यादा मनमौजी स्वभाव का था कि कौन क्या ले रहा है, इसमें मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। मार्केट रेट किस काम का क्या है, मुझे कुछ पता नहीं होता था। मैं तो बस, इतना जानता था कि मेरी जेब खाली नहीं रहनी चाहिए। जो मिले - आने दो। अब इस लिहाज़ से मैं बेवकूफ था तो था, इसमें कोई शक भी नहीं था।
"नूतन पाकेट बुक्स से कोई डील हो रही है....।" बात का रुख पलटने के ध्येय से मैंने प्रश्न किया।
"क्यों एक पब्लिशर और राइटर साथ-साथ बैठ जायें तो इसका मतलब जरूरी है कि उनमें कोई डील हो रही है।"
"राइटर योगेश मित्तल जैसा हो तो कई बार टाइम पास हो रहा होता है, लेकिन वेद प्रकाश शर्मा हो तो डील का अन्देशा ही होता है।" मैंने कहा।
वेद हंसा।
"क्यों, वेद के सिर पर कोई सींग उगे हैं?"
"नहीं, मुकुट लगा है - हीरे का।" मैंने कहा। बात करते-करते सरकते हुए हम गंगा पाकेट बुक्स के आफिस के बिल्कुल सामने आ गये थे तो अचानक ही वेद ने कहा- "आ, तेरी बात करते हैं।" और मेरा हाथ थाम, मुझे लिए-लिए गंगा पाकेट बुक्स में दाखिल हो गये।
गंगा पाकेट बुक्स के आफिस में उस समय सिर्फ सुशील जैन ही बास की चेयर पर विराजमान नज़र आ रहे थे।
(शेष फिर)
इकलौते पजामे का फटना | योगेश मित्तल | हास्य कविता
स्रोत: पिक्साबे |
फटा पजामा देखके, मैडम गईं घबराय।
बोलीं, कम्बख्तों के पिता, कहाँ फाड़ के लाय?
कहाँ फाड़ के लाय, दूसरा नहीं पजामा।
अब क्या चड्ढी में घूमोगे, बन के गामा?
कह योगेश कविराय, हो गई मुश्किल भारी।
पजामा क्या फटा, लग गई क्लास हमारी।
कैसे फटा, कहाँ पर फाड़ा, किसने फाड़ा?
बजा कानों में, प्रश्नों का, पुरजोर नगाड़ा।
क्या बतलायें फटने की दुख भरी कहानी।
पतले से मोटे होने की है, ये कारस्तानी।
पहले पजामे में अक्सर दौड़ लगाते।
अब मुश्किल है, जरा भी ढंग से, बैठ न पाते।
एक एक करके, बदल गये हैं सारे कपड़े।
मगर पजामा सालों से, हम एक ही पकड़े।
आखिर कब तक - साथ निभाता एक पजामा।
अब क्या पहनूँ - तुम्हीं बता दो मेरे रामा?
- योगेश मित्तल