रूटीन तो बहुत जरूरी है! - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

रूटीन तो बहुत जरूरी है!


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जिन्दगी में रूटीन बहुत जरूरी है।  सोने का रूटीन, जागने का रूटीन, खाने का रूटीन, काम का रूटीन।

 

पर ऐसा होता कहाँ है कि इन्सान हर काम रूटीन से कर पाये। 


सुबह सुबह काम धन्धों पर निकलने वालों का सुबह उठने का रूटीन आम तौर पर पाँच से सात बजे के बीच का होता है, किन्तु जिस दिन काम से छुट्टी हो, आफिस की छुट्टी हो, उस दिन कुछ नौ बजे तक तो कुछ तो बारह बजे तक बिस्तर नहीं छोड़ते। 

 

यह सब मैं अटकलबाज़ी लगाकर नहीं कह रहा, मैंने अपने इर्दगिर्द ऐसे बहुत से नमूनों कहिये या उदाहरण, को बेहद नजदीक से देखा है।  


हाँ, मेरा रूटीन आम तौर पर हमेशा एक सा रहता है ।  अमूमन सुबह साढ़े चार से साढ़े पाँच के बीच उठ ही जाता हूँ ।  रूटीन डिस्टर्ब तब होता है, जब तबियत खराब हो । 


इसी प्रकार मेरा हमेशा ही लिखने का भी रोज़ का एक निश्चित रूटीन रहा है ।  रोज़ कुछ न कुछ लिखना जरूर है।  जब लिखना मेरा फुल टाइम जॉब था अर्थात लिखने के अलावा मैं कोई दूसरा काम नहीं करता था, तब दोस्तों के साथ घूमते-फिरते रहने के बावजूद लिखने के लिए वक्त निकाल ही लेता था, लेकिन अब जब मैं एक उम्रदराज़ दुकानदार हूँ - अक्सर लिखने का रूटीन बिगड़ जाता है।

 

जब लिखना मेरा मुख्य और एकमात्र काम था, तब फालतू मटरगस्ती के बावजूद लिखने का दो वक़्त का रूटीन था।  


एक तो सुबह सुबह का समय, दूसरा रात का।  पर दोनों में से एक ही वक़्त लेखनकार्य चलता था।  


अगर रात का खाना खाने के बाद बिस्तर पर न जाकर, लिखना आरम्भ कर दिया तो लगभग दो तीन बजे तक लिखना जारी रहता था, लेकिन अगर बिस्तर पकड़ लिया और जल्दी सो गया तो सुबह तीन बजे तक अवश्य जाग जाता था।  हाँ, इसके लिये हमेशा अलार्म घड़ी में अलार्म पहले से ही अवश्य सैट कर लेता था, पर जिन्दगी में ऐसा शायद इक्का दुक्का बार ही हुआ हो, जब अलार्म से मेरी आँख खुली हो।  हमेशा अलार्म के वक़्त से पहले ही मेरी आँखें खुद ब खुद खुल जाती थीं।  


शायद इसका कारण यह होता हो कि जब भी मैं तीन बजे का अलार्म लगाता, यह सोचते हुए सोता था कि मुझे पौने तीन तक उठ जाना चाहिए, ताकि अलार्म के शोर से किसी को कोई असुविधा - डिस्टरबेन्स न हो और जब भी नींद खुलती, मेरा पहला काम तब तक न बजे, अलार्म को बन्द करने का होता था। 


बीच के कुछ सालों की अन्यमनस्कता के अलावा मेरे जीवन में लिखने का रूटीन कभी डिस्टर्ब नहीं हुआ।  तब भी मैं लिखने का ऐसा काम करता रहता था, जो शायद मेरे जैसे अन्य लेखकों ने कभी न किया हो।  वह काम था - कालोनी के बच्चों के होमवर्क में यदि कोई क्रियेटिव लेखन का काम मिला हो तो उसमें उनकी मदद, किन्तु वह मदद भलाई का काम कभी नहीं होती थी, बल्कि एक प्रोफेशनल कदम था, आर्थिक लाभ के लिये। 


वह अजीबोगरीब काम था - कालोनी के बच्चों के लिए कविता, लेख या कहानी लिखकर देने का।  उन्हें कहानी, कविता, लेख और इन्टरव्यू आदि लेने के बारे में समझाने का।  इसके मैंने बाकायदा दो सौ से पाँच सौ रुपये भी लिये हैं।  बच्चों के माता पिता से।  यह काम हमेशा मैं बच्चों के माता पिता के अनुरोध पर ही करता था।  


दरअसल मेरी कालोनी के बहुत सारे लोग मेरे बारे में यह भली भाँति जानते हैं कि मैं एक लेखक हूँ और उनके बच्चों को यदि स्कूल से या किसी टीचर से निबन्ध, कविता या कहानी लिखने का कोई ऐसा काम मिल जाता, जो पेरेन्ट्स और उनके घरेलू ट्यूटर के लिये मुश्किल होता तो पेरेन्ट्स मुझसे सम्पर्क करते थे और मैं एक निश्चित रकम के बदले कविता, कहानी या निबन्ध लिख कर दे देता था।  वह निबन्ध, कविता या कहानी मैंने कभी अपने रिकॉर्ड में नहीं रखी।  जिससे पैसे लिये - ईमानदारी से हमेशा के लिये उन्हें सौंप दी।  हमेशा के लिये - उसके नाम के लिये।  इसका अनेक बार एक अतिरिक्त लाभ भी मिला, वह यह कि जिसे जो कुछ भी लिखकर दिया, उसे यदि कभी कोई ईनाम या शाबाशी अथवा प्रोत्साहन मिला तो उसके परिवार के लोगों ने कभी आधा किलो, कभी किलो मिठाई का डिब्बा भी दिया।  किसी ने महँगी चाकलेट भी दी।  


मैंने ऐसी किसी कृति को अपने लेखन कार्य में कभी सहेज कर भी नहीं रखा।  


आप मुझे मूर्ख कह सकते हैं, पर ऐसा ही हूँ मैं।  


सितम्बर महीने के आखिरी दिनों तक मेरा लेखन कार्य नियमित रूप से सुचारु रूप से चल रहा था।  कहीं कोई रुकावट नहीं थी।  हालांकि गति मद्धिम थी, लेकिन एक साथ चार-चार लेखन कार्य जारी थे।  


एक उपन्यास - कब तक जियें (जिसके लगभग सत्तर पेज लिखे जा चुके हैं। ) 


दूसरी एक लम्बी कहानी - इश्क़ मदारी ( जिसके बस कुछ आखिरी पन्ने लिखने हैं। ) 


तीसरी - वेद प्रकाश शर्मा से अपनी यारी के किस्से ( फेसबुक पर/ब्लॉग पर) 


और 


चौथा एक लेख - क्या अच्छा लिखने के लिये अच्छा पढ़ना और बहुत ज्यादा पढ़ना जरूरी है? (फेसबुक पर) 


और रूटीन चलता रहता तो चार में से तीन का काम पूरा हो चुका होता, लेकिन ऐसा हो ना सका।  रूटीन टूट गया। 

अच्छा खासा रूटीन क्यों टूटा, इसका कारण था - अचानक कुछ बाहरी काम आ जाना।  बाहरी काम अर्थात् वो काम - जो अतिरिक्त आय भी देता है।  अतिरिक्त आय - वह कमाई - जो मुझे दुकान के काम से अलग किसी काम से हासिल होती है, चाहें वो किसी स्कूली बच्चे के लिये लिखकर प्राप्त होती हो या किसी के प्रूफ पढ़ कर अथवा किसी तरह का एडीटिंग जाब करके या कुछ लिखकर के।  


दरअसल एक मुद्दत से मेरी आय का मुख्य साधन मेरी दुकान है, जहाँ मैं फोटोस्टेट द्वारा या कम्प्यूटर कलर और ब्लैक प्रिन्ट आउट द्वारा अथवा लेमिनेशन या स्पाइरल बाइन्डिंग वर्क द्वारा या लोगों के डुप्लीकेट कार्ड बनाकर मेहनताना - मज़दूरी हासिल करता हूँ। 


डुप्लीकेट कार्ड से यदि आप मेरा मन्तव्य नहीं समझे हों तो बता दूँ कि आजकल हमारी दिनचर्या का अंग बने जितने भी तरह के कार्ड होते हैं, मेरा आशय उन सभी तरह के कार्ड्स के लिये है।  जैसे - आधार कार्ड, वोटर आई डी, पैनकार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, आर सी, हैल्थ कार्ड आदि सभी तरह के कार्ड्स के डुप्लीकेट कार्ड बनवा कर घर में रखने का प्रचलन आजकल आम है।  लोग पर्स में डुप्लीकेट कार्ड रखना ही पसन्द करते हैं।  ओरिजिनल घर पर ही रखते हैं, जिससे कभी पर्स खो जाये या चोरी हो जाये तो ओरिजिनल कार्ड्स सदा सुरक्षित रहें।  ये डुप्लीकेट कार्ड बनाने के लिये मैं कार्ड को दोनों ओर से स्कैन करके फोटो पेपर पर उनके कलर प्रिन्ट निकालता हूँ और उनके फ्रन्ट और बैक को ठीक से हुबहू कार्ड की शेप में जोड़ कर उन्हें लेमिनेशन कर देता हूँ, जिससे वे हुबहू ओरिजिनल कार्ड का रूप अख्तियार कर लेते हैं।  


इन डुप्लीकेट कार्ड्स को पर्स में रखने का फायदा यह होता है कि कार्ड होल्डर को कभी किसी भी कार्ड की फोटोकॉपी की जरूरत हो, वह डुप्लीकेट कार्ड से ही फोटोकॉपी करवा लेता है।  और फोटोकॉपी ओरिजिनल कार्ड की फोटोकॉपी से किसी भी हालत में घटिया नहीं आती, बल्कि अक्सर बेहतर ही आती है।  इसका कारण यह है कि हम कार्ड बनाते समय यह ध्यान रखते हैं कि यदि किसी के कार्ड में उसकी फोटो बहुत ज्यादा डार्क है तो और फोटोकॉपी में उसका रिजल्ट बहुत काला आता है तो उस फोटो को हम कुछ लाइट कर देते हैं।  फोटो वही रहती है।  उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं की जाती, किन्तु उसे थोड़ा सा लाइट कर देने से कार्डधारी व्यक्ति का चेहरा कुछ अधिक स्पष्ट हो जाता है।  


और पर्स में डुप्लीकेट कार्ड रखने का सबसे खास फायदा यही होता है कि पर्स खोने या पाकेटमारी या चोरी का शिकार होने पर डुप्लीकेट कार्ड्स ही गायब होते हैं, जो कि ओरिजिनल कार्ड घर पर सुरक्षित होने की वजह से दोबारा बनवा लेना बहुत आसान होता है।  


मुझे लगता है - इस तरह का काम पश्चिमी दिल्ली में तो कम से कम मैंने ही आरम्भ किया था, क्योंकि मेरे पास तब से कम्प्यूटर है, जब दूर दूर तक लोगों को कम्प्यूटर का ज्ञान ही नहीं था।  


जो लोग कम्प्यूटर के भारत आगमन का विवरण जानते हैं, जरूर जानते होंगे कि आरम्भ में जो 286 कम्प्यूटर आया था, वह काफी बड़ा होता था और नया कम्प्यूटर उस जमाने में साठ हजार या अधिक का होता था।  


286 के बाद 386 और 486 माडल आये।  मैंने जो पहला-पहला कम्प्यूटर खरीदा था, वह एक सेकेण्ड हैण्ड 486 था, जो उस समय मुझे लगभग पन्द्रह हज़ार का पड़ा था।  बाद में अपग्रेडेशन में और भी अधिक खर्च पड़ा था।  


जानकारी के लिये आपको बताऊँ - तब मेरे कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क कितनी थी।  


सिर्फ चार एमबी।  


और रैम थी आठ केबी।  सिर्फ आठ केबी।  उस में गाने नहीं सुन सकते थे आप।  वीडियो देखना तो बहुत दूर की बात है।  


आज न्यूयॉर्क में रहने वाली मेरी चचेरी बहन अचला गुप्ता के कम्प्यूटर की रैम ही बत्तीस जीबी है।  


तो यह सब कुछ तो मैंने आपको अपने कामों का विस्तृत विवरण बताया है, लेकिन हम बात कर रहे थे रूटीन की और लेखकीय रूटीन की।  


तो सितम्बर के आखिरी दिनों में मेरे सभी तरह के लेखन कार्यों का रूटीन अचानक टूट गया और रूटीन का टूटना कभी अच्छा नहीं होता।  सब कुछ अव्यवस्थित हो जाता है और रूटीन टूटने पर जो लेखन कार्य आप बीच में ही छोड़ देते हैं, दोबारा उसे फिर से आरम्भ करना बहुत ज्यादा आसान नहीं होता, क्योंकि जो कुछ हम लिख रहे होते हैं, सबका सब एक बार पाठक के तौर पर खुद भी एक या अधिक बार पढ़ना पड़ता है, ताकि कान्टीन्यूटी ठीक ठाक रहे।  गलतियाँ न होयें।  


बाहरी काम करने के बाद ही मुझे चार दिन के लिए अपनी पत्नी और छोटे भाई-भाभी के साथ रांची जाना पड़ा।  रांची के बर्धमान कम्पाउंड में मेरी सबसे बड़ी से छोटी, दूसरे नम्बर की बहन सविता गुप्ता उर्फ बीता जीजी रहती हैं। 


उन्नीस अक्टूबर को सुबह आठ बजकर पैंतालीस मिनट पर हम गो एयर की फ्लाइट से दिल्ली से राँची के लिए रवाना हुए।  सुबह साढ़े दस बजे तक रांची के बिरसा मुण्डा एयरपोर्ट पर पहुँच गये।  एयरपोर्ट पर भांजे हिमांशु गुप्ता के पुत्र रिषभ गुप्ता और पुत्री रिशीका गुप्ता दो अलग अलग कारों में हमें रिसीव करने आये हुए थे।  


मैं मेरी पत्नी राज और रिषभ एक कार में, दूसरी में छोटा भाई राकेश, उसकी पत्नी कान्ता और रिशीका बैठे और लगभग पौन घण्टे के सफर के बाद बर्धमान कम्पाउंड पहुँच गये।  


जिन भाइयों की अपनी उम्र से दस से पन्द्रह साल बड़ी, बड़ी बहन हों, वे बड़ी बहन का प्यार क्या होता भली भाँति समझ सकते हैं।  बड़ी बहन में एक अदद माँ मुफ्त में हासिल रहती है और हम इस मामले में बहुत बहुत खुशकिस्मत हैं।  इसलिये भी कि जीजी के सुपुत्र हिमांशु और बहू विनीता ही नहीं, अगली पीढ़ी की औलादें रिशीका और रिषभ तथा परिवार के अन्य रिश्तेदारों ने चार दिन कैसे बीत गये, पता ही नहीं चलने दिया।  


आखिरी दिन 22 अक्टूबर को साढे़ चार बजे एयर एशिया से वापसी के टिकट थे।  उसी दिन सुबह राँची में फेसबुक मित्र परमाणु सिंह से कुछ ही देर की सही, बहुत आत्मीयता भरी मुलाकात हुई, जो सदैव याद रहेगी।  


दिल्ली लौटने तक सब कुछ ठीक ठाक रहा।  खास बात यह रही कि इस पूरे दौर में स्वास्थ्य भी बहुत बेहतरीन रहा, लेकिन फिर दिल्ली वापसी के पश्चात्, अचानक कुछ बेमौसमी बरसातों के आगमन के बाद से बिगड़ा स्वास्थ्य उन्नीस-अठारह-सतरह होता चला गया।  फिलहाल बदलते मौसम का यह झटका जारी है, इसलिये लिखने का रूटीन ही नहीं, दुकान का रूटीन भी बिगड़ गया।  सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक दुकान में बिताने वाले मुझ जैसे शख्स के लिये लिखने का रूटीन बनाये रखना कितना मुश्किल होता है, यह समझाना तो मुश्किल है, पर यकीन दिलाता हूँ कि जल्दी ही फिर से उसी अन्दाज में आगाज हो जायेगा और पिछली कड़ियाँ आगे भी बढ़ेंगी, बस आप सबकी दुआएँ और शुभकामनाएँ चाहिये।  अभी तो तीस नवम्बर तक दुकान भी सुबह दस बजे से दोपहर ढाई बजे तक ही खोल रहा हूँ, क्योंकि दिल्ली में पोल्यूशन बहुत है, जो कि दिल्लीवासियों के लिये तो ज़हर है ही, मेरे जैसे दमा रोगियों के लिये शायद ज़हर से भी कुछ ज्यादा है।  


आज फिर से मैदान में कूदे हैं तो अब कदम दर कदम फिर से बढ़ने की कोशिश भी जारी रहेगी।  


छोटों का प्यार और बड़ों का आशीर्वाद बना रहे।  बस....।  


रूटीन पर आउट ऑफ रूटीन लेख लिखने का भी एक विशेष कारण है, वह यह कि आप में से जो भी लेखक हैं - एक बात गाँठ बाँध लें कि लिखना - रोज का एक रूटीन जरूर होना चाहिए।  दिन में एक पेज लिखें या दस - कलम हर दिन चलनी अवश्य चाहिए।  


तभी आप अच्छे और बेहतरीन लेखक बन सकेंगे, अन्यथा आप सौ किताबें भी लिख लें, यादगार जैसा कुछ लिखना मुश्किल ही होगा।  मानसिक रूप से आप स्वयं भी अपने लेखन से कभी सन्तुष्ट नहीं हो सकेंगे।  


लिखिये और रोज लिखिये।  रूटीन बनाकर लिखिये।  रूटीन बनाना सम्भव न हो तो आउट ऑफ रूटीन भी लिखिये, किन्तु कुछ न कुछ रोज लिखिये।


(इति) 

2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. हाँ, एक बार किसी काम का रूटीन टूट जाये तो फिर दोबारा लय में आने में कुछ अतिरिक्त समय नष्ट अवश्य होता है!

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