ब्लॉग पर राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स -1 पर डॉक्टर ओंकार नायाराण सिंह जी का एक प्रश्न आया। मुझे लगता है उस प्रश्न का उत्तर राजहंस के अन्य पाठकों के लिए महत्वपूर्ण होगा इसलिए पोस्ट के रूप में भी लिख रहा हूँ।
प्रश्न: समस्त किश्तों के विवेचन एवं अपने पास संग्रहीत राजहंस के उपन्यासों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी विशिष्ट लेखन शैली कैसे परिवर्तित होती चली गई।क्या आप उनके परवर्ती जीवन की जानकारी से अवगत करा सकते हैं?
मेरा उत्तर:
आदरणीय ओंकार जी,
सादर सप्रेम नमस्कार!
जैसा कि आपने जानना चाहा है कि राजहंस की विशिष्ट शैली समय के अन्तराल में कैसे परिवर्तित होती चली गई तो मैं यह कहना चाहूँगा कि कुछ थोड़ा सा परिवर्तन तो मैं स्वीकार करता हूँ और उसका कारण था आरम्भ में वह भी आरिफ़ मारहर्वी, जमील अंजुम, अंजुम अर्शी की तरह उर्दू में ही लिखते थे और उनका हिन्दी ट्रांसलेशन होता था, लेकिन सात आठ उपन्यासों के बाद वह हिन्दी में लिखने लगे तो कुछ उर्दू अल्फ़ाज़ों का मोह सम्भवतः छोड़ दिया और विजय पाकेट बुक्स से मनोज और हिन्द में जाते ही, उन दोनों जगहों पर काम करने वाले प्रूफरीडर्स ने सम्भवतः कुछ ज्यादा ही छेड़छाड़ कर दी!
आप नोट करेंगे तो जानेंगे कि शैली परिवर्तन का असर विजय पाकेट बुक्स के आरम्भिक उपन्यासों में नाममात्र है, लेकिन बाद में एक मजबूरी यह आ गई थी कि हाइकोर्ट की डीबी (डबल बेंच) ने प्रकाशकों और लेखक को जता दिया था कि या तो कम्प्रोमाइज़ कीजिये या नाम पर बैन लगना सम्भव था!
ऐसे में मुकदमे के बाद विजय पाकेट बुक्स से छपने वाले सभी उपन्यास यशपाल वालिया और हरविन्दर के लिखे हुए थे!
और हिन्द पाकेट बुक्स के कर्ता धर्ता तो आरम्भ में राजहंस की शैली में 'था, थे, थी' के प्रयोग को दोषपूर्ण मानते थे और तब के साहित्यिक लेखक तो 'राजहंस' को गुलशन नन्दा से भी घटिया लेखक मानते थे और हिन्द पाकेट बुक्स में साहित्यिक रुचि वाले लोगों का प्रभुत्व था, वहाँ के एडीटर व प्रूफरीडर्स भी साहित्यिक अभिरुचि के थे, इसलिए हिन्द पाकेट बुक्स की पुस्तकों में शैली परिवर्तित नज़र आयेगी!
वस्तुतः केवलकृष्ण कालिया उर्फ़ राजहंस ने अपनी शैली परिवर्तित नहीं की थी! उनकी शैली उनके व्यक्तित्व में इस कदर रची-बसी थी कि वह चाहते तो भी परिवर्तित नहीं कर सकते थे, लेकिन जिनमें आपको राजहंस की शैली परिवर्तित नज़र आयी, वे उपन्यास या तो हिन्द पाकेट बुक्स के होंगे या यशपाल वालिया अथवा हरविन्दर के लिखे! अथवा प्रूफरीडर्स तथा एडीटर्स की अति समझदारी का शिकार...!
और हाँ, साहित्यिक क्षेत्र के बहुत से लेखक गुलशन नन्दा को न केवल घटिया लेखक मानते थे, बल्कि अश्लील लेखक कहते थे, इस बारे में बहुत जल्द गुलशन नन्दा जी से मनोज पाकेट बुक्स के अग्रवाल मार्ग, शक्तिनगर में हुई अपनी मुलाकात का ब्यौरा प्रस्तुत करूँगा, तब आप जानेंगे कि पल्प फिक्शन के मनोरंजक साहित्य प्रस्तुत करने वाले लेखकों को साहित्यिक लाबी किस कदर अछूत मानती थी!
जय श्रीकृष्ण...!
अच्छा प्रयास है।
जवाब देंहटाएंराजहंस की लेखन शैली कमाल की थी ।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार।मेरी लंबे समय से चली आ रही जिज्ञासा शांत करने के लिए।कुछ ही समय पूर्व आपकी पुस्तक प्रेतलेखन पढ़कर अपने कैशोर्यकाल की स्मृतियाँ जीवंत हो उठीं।
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