राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 10 - प्रतिध्वनि

कविता, कहानी, संस्मरण अक्सर लेखक के मन की आवाज की प्रतिध्वनि ही होती है जो उसके समाज रुपी दीवार से टकराकर कागज पर उकेरी जाती है। यह कोना उन्हीं प्रतिध्वनियों को दर्ज करने की जगह है।

रविवार, 18 जुलाई 2021

राजहंस बनाम विजय पॉकेट बुक्स - 10

नाश्ता करके हम पटेलनगर के लिए निकले। भारती साहब घर पर नहीं थे। 


मैंने ऊपर खेल खिलाड़ी के आफिस में जाकर खेल खिलाड़ी की डाक देखी। पढ़ने में वक़्त लगता, इसलिए सारी डाक इकट्ठी करके एक बड़े ब्राउन में रख लीं और जवाब देने के लिए कुछ पोस्ट कार्ड साथ में डाल लिये। 

"अब किधर चलें?" वालिया साहब ने स्कूटर स्टार्ट करते हुए मुझसे पूछा। 

"बैक टू पैविलियन...।" मैंने कहा। 

"नहीं यार, इतनी जल्दी घर जाकर क्या करेंगे? चलो, कनाट प्लेस चलते हैं।" और वालिया साहब ने स्कूटर पटेलनगर से शंकर रोड पर ले आये। फिर काफी देर सीधे चलने के बाद राम मनोहर लोहिया अस्पताल (तब के विलिंग्डन हास्पिटल) के पास से मोड़ लिया। 

फिर बंगला साहब गुरुद्वारे के निकट, बाहर ही फुटपाथ के समीप स्कूटर रोक दिया और बोले - "योगेश जी, आप यहीं रुको, मैं जरा मत्था टेक आऊँ।"

"मैं भी चलूँ..?" मैंने कहा। 

"फिर स्कूटर कौन देखेगा? पार्किंग में खड़ा किया तो ख्वामखाह टाइम वेस्ट होगा।"

"ठीक है।" मैंने कहा और स्कूटर के साथ खड़ा हो गया। वालिया साहब मत्था टेकने चले गये। स्वभाव से यशपाल वालिया भी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। पर किसी विशेष गुरुद्वारे या मन्दिर जाने की उनकी आदत नहीं थी। चांदनी चौक गये तो शीशगंज गुरुद्वारे में मत्था टेक लिया। सेन्ट्रल सेक्रेटियेट गये तो रकाबगंज में मत्था टेक दिया। बिड़ला मन्दिर के निकट से गुज़रे तो वहाँ सिर झुकाने चले गये। 

मत्था टेक कर वह लौटे तो उनके हाथ में कड़ाहाप्रसाद (हलुवे) का दोना था। दोना मुझे थमाते हुए बोले - "योगेश जी, यह आप खत्म कर दो।"

"आप भी तो लो।" मैंने कहा। 

"मैं तो छक कर आ रहा हूँ। यह आपके लिए ही लाया हूँ।" वालिया साहब ने कहा। 

मैंने हलवा खत्म किया तो मुझे अपने पीछे बैठा वालिया साहब ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया। 

वहाँ से वह सीधे रीगल सिनेमा के पीछे जनपथ पर जाकर रुके। 

वहाँ दायें हाथ को पहला मोड़ था, वहीं कार्नर पर फुटपाथ ही काफी बड़ी जगह पर इंग्लिश उपन्यासों का जखीरा था। 

स्कूटर फुटपाथ पर चढ़ा, वहीं पास में रोककर, वालिया साहब इंग्लिश उपन्यासों पर नज़र डालने लगे। उस समय मुझ पर आर्ची और रिची रिच के अंग्रेजी कामिक्स पढ़ने का फितूर छाया हुआ था और कभी कभी मिस्टी और मैड की कामिक मैगज़ीन भी खरीद लेता था। 

वहाँ मेरी पसन्द का सब कुछ था। जितनी देर में वालिया साहब ने इंग्लिश के दो उपन्यास छाँटे, मैंने पाँच-छ: कॉमिक्स छाँटकर उनकी पेमेन्ट कर दी थी। 

वालिया साहब ने एक उपन्यास जॉन क्रेज़ी और कार्टर ब्राउन का एक-एक उपन्यास लिया। लेखकों के नाम इसलिये याद हैं, क्योंकि पढ़ने के बाद वालिया साहब ने वे मुझे दे दिये थे। 

उपन्यास एवं मेरा सारा सामान डिकी में डालने के बाद वालिया साहब ने कनाट सर्कस का एक चक्कर मारा और स्कूटर लेडी हार्डिंग अस्पताल के निकट ले आये। 

"वापस इधर से चलना है।" मैंने पूछा। 

"हाँ, इधर मैं आपको एक खास चीज दिखाने लाया हूँ।"

"क्या चीज़...?" मैंने पूछा। 

"उधर देखो....।" वालिया साहब ने इशारा किया। 

मैंने लेडी हार्डिंग अस्पताल के सड़क पार, दूसरे छोर पर थोड़ी थोड़ी दूरी पर कई महिलाएँ खड़ी थीं। 

वालिया साहब उनमें से सबसे दूर खड़ी एक कम उम्र स्त्री के पास गये, स्कूटर रोका, लेकिन स्कूटर का इंजन स्टार्ट ही रखा। उस स्त्री को देखा, लेकिन बोले कुछ नहीं, बस सिर को दायीं उसी स्त्री की ओर ही एक झटका दिया। अगला ही पल मुझे बौखला देने वाला था। बल्कि यूँ कहूँ कि मेरी एकदम सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। 

वह स्त्री एकदम मेरे पीछे बैठ गई। वालिया साहब खुद ही कुछ आगे सरक गये थे, मुझे उस स्त्री ने आगे धकेल दिया। वह दोनों तरफ टाँगे निकाल, मेरे पीछे बैठ गई और अपने दोनों हाथ, उसने मेरी कमर से आगे निकाल, वालिया साहब की कमर थाम ली थी। वालिया साहब ने तुरन्त स्कूटर आगे बढ़ा दिया था। 

उस समय सचमुच मुझे कुछ भी समझ नहीं आया था कि यह सब क्या है? मैंने यही सोचा था कि वह औरत वालिया साहब की कोई परिचिता है। 

पर आगे गोल डाकखाने के पास वालिया साहब ने एकाएक स्कूटर रोक दिया और बोले - "उतर जाओ।" 

सबसे पीछे वह औरत थी, वह स्कूटर से उतर गई। मैं उतरने लगा तो वालिया साहब ने टोका - "आप बैठे रहो।"
फिर अंगुली के इशारे से उस औरत को आगे बुलाया और अपनी जेब में हाथ डाल कुछ रुपये निकाले, जो कि दस-दस के दो नोट थे। वालिया साहब ने उस स्त्री के एक हाथ में वो बीस रुपये ठूँस, बिना कुछ कहे स्कूटर आगे बढ़ा दिया। 

"यह सब क्या था?" मैंने कुछ नाराज़गी दिखाते हुए पूछा। 

"नहीं समझे।" वालिया साहब ने पूछा। 

"नहीं।"

"यहाँ जो औरतें खड़ी होती हैं। ये जीबी रोड की कोठेवाली वेश्याएँ तो नहीं होतीं, इनमें ज्यादातर गरीबी से दुखी मजबूर टाइप की होती हैं। पैसों के लिए ये तुम्हारे साथ कहीं भी जा सकती हैं। बहुत से कालेज के लड़के इन्हें सिर्फ फिल्म देखने के लिए साथ ले जाते हैं। पैसे वाले रईसजादे, जिनके पास ऐयाशी के लिए जगह होती है, वो ऐयाशी के लिए ले जाते हैं। इन्हें 'गश्ती' कहा जाता है।" वालिया साहब ने बताया। 

तब यह मेरे लिए बिल्कुल नई जानकारी थी। पर मुझे बहुत बुरा सा लगा। मन में यह बात आई कि अगर हमारे किसी नाते-रिश्तेदार ने यह सब देखा होता तो क्या होता । 

मैंने वालिया साहब से कहा - "दोबारा मुझे ऐसा कुछ मत दिखाइयेगा।" तो वालिया साहब बोले - "योगेश जी, आप एक उपन्यासकार हो, आपको सब मालूम होना चाहिए कि हमारी दुनिया में क्या हो रहा है। मैंने जो उस लड़की को बीस रुपये दिये हैं। वो इसलिए कि साथ बैठाकर उसे कुछ भी नहीं देते तो यह उसके साथ अन्याय होता। फैक्ट यह है कि ये रुपये मैंने आपको काली दुनिया का एक सच दिखाने के लिए बरबाद किये हैं।"

"पर वालिया साहब, अगर यह कोई शरीफ औरत होती तो...?" 

"तो फटाफट भाग निकलते, इसीलिए तो यहाँ आने वाले मुस्टण्डे हमेशा स्कूटर या बाइक का इंजन स्टार्ट रखते हैं।" वालिया साहब ने बताया। 

"पर आपको यह अचानक क्या सूझी? आपने पहले भी किसी लड़की को ऐसे स्कूटर पर बैठाया है?"

"पागल हो, यह तो आपको दुनिया का हाल दिखाने के लिए कोशिश की थी, वैसे मुझे भी डर लग रहा था। मेरा एक शादीशुदा दोस्त, बीवी जब मायके होती है, अक्सर यहाँ से लड़कियाँ अपने फ्लैट पर ले जाता है। पर इस बात से आप मुझे गलत मत समझ लेना। और अपनी भाभी से बिल्कुल कुछ मत कहना। आप जानते ही हो, हमारी लव मैरिज है और हम दोनों में बहुत प्यार है।"

मैंने सहमति में सिर हिला दिया,  बोला कुछ नहीं। 

उसके बाद वालिया साहब मुझे मेरे घर के लिए मुझे रमेशनगर बस स्टाप पर छोड़ कर, बालीनगर, अपने घर के लिए आगे निकल गये। 

घर पहुँचकर मैं खरीदे गये कामिक्स पढ़ने में लग गया। पर सच कहूँ - मेरा दिल बहुत घबरा रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है और घर के लोगों को कभी भी मेरे उस औरत के साथ बैठने के बारे में पता चल जायेगा। उस दिन रात को सपने में भी वह औरत मुझे मेरी पीठ से चिपकी महसूस होती रही और डराती रही। 

आज शायद लोगों को यह मामूली बात लगे, पर उन दिनों इज्जत और मर्यादा जैसे शब्द केवल किताबी नहीं थे, लोगों की ज़िन्दगी का भी हिस्सा होते थे।

उसके बाद मेरा और यशपाल वालिया का मिलना रविवार को हुआ। मैं वालिया साहब के यहाँ जाने के लिए निकला और रमेशनगर के गोल चक्कर से होते हुए मेन रोड की ओर बढ़ ही रहा था कि सामने से अपने वेस्पा स्कूटर पर वालिया साहब आते दिखाई दिये। 

वालिया साहब को देख मैं ठिठक गया। वालिया साहब ने स्कूटर सीधा मेरे निकट रोका और पूछा - "किधर...?"

"आपके यहाँ ही जा रहा था।" मैंने कहा। 

"बैठो फिर...।" वालिया साहब ने गर्दन को पीछे झटका दे पीछे बैठने का संकेत किया। 

मैंने सोचा था वालिया साहब वापस घर जायेंगे, लेकिन वालिया साहब का रुख पटेलनगर की ओर था। 

पटेलनगर में भारती साहब अपने फ्लैट में नहीं थे। वह ऊपर खेल खिलाड़ी के आफिस में थे। हम खेल खिलाड़ी के आफिस में पहुँचे तो देखा, वहाँ भारती साहब तो तख्त पर बैठे हैं और एक भारी भरकम शख्स सामने ही एक फोल्डिंग चेयर पर बैठे थे। 

तख्त पर भारती साहब के निकट उनकी कई किताबें भी रखी थीं। 

भारती साहब ने उनसे हमारा परिचय कराया। वह भारती साहब के स्कूली जमाने के दोस्त थे और यह बात भारती साहब ने बाद में बताई थी कि वह साल में कभी-कभार ही उनसे मिलने आते थे और जब आते थे - भारती साहब से उनकी लिखी बहुत सी किताबें ले जाते थे। वैसे भारती साहब के कई ऐसे दोस्त थे - जो कम ही आते थे, लेकिन जब आते थे, पढ़ने के लिए उनकी लिखी किताबें, हक से माँगकर ले जाते थे। 

वह एक वकील थे और उनसे भारती साहब विजय पाकेट बुक्स और राजहंस के मुकदमे की बातें कर रहे थे। 

हम दोनों भी फोल्डिंग चेयर खोलकर वहीं बैठ गये। 

जब हम वहाँ पहुँचे थे, वह वकील साहब भारती साहब से कह रहे थे - "डबल बेंच के सीनियर जस्टिस ने जो भी फैसला किया है। बहुत सोच-समझ कर ही किया होगा और वो किसी भी हालत में गलत नहीं हो सकता।"

"क्यों, गलत क्यों नहीं हो सकता। जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति भी इन्सान होता है, वो भी गलती कर सकता है। गलती तो इन्सान से ही होती है।" भारती साहब ने उस वकील से कहा। 

"की गल्ल चल रही है?" वालिया साहब ने पंजाबी अन्दाज़ और लहज़े में पूछा। 

तब भारती साहब ने अपने उस दोस्त का परिचय कराया, किन्तु आज मुझे उसका नाम याद नहीं। एक ही बार मिला था उससे। भविष्य में कभी उसे याद करना पड़ेगा, यह बात उस समय कल्पना से परे थी। आज बस, यह याद है कि वह कोई वकील था। 

उससे परिचय कराने के बाद भारती साहब यह बोले - "इससे राजहंस के मुकदमे के बारे में बात कर रहा था। कुछ अजीब नहीं है कि हिन्द पाकेट बुक्स को उसके ट्रेडमार्कों पर स्टे मिल गया कि विजय पाकेट बुक्स कर्नल रंजीत और शेखर के उपन्यास नहीं छाप सकती। मनोज पाकेट बुक्स को स्टे मिल गया कि विजय पाकेट बुक्स मनोज और सूरज के उपन्यास बेच नहीं सकती, लेकिन विजय पाकेट बुक्स को राजहंस पर यह स्टे नहीं मिला कि हिन्द और मनोज राजहंस के उपन्यास छाप नहीं सकते।"

"इसमें राजहंस अर्थात लेखक इन्वाल्व है ना और लेखक गरीब होता है। कलम का मजदूर होता है । मजदूर के घर का खर्च तो तभी चलेगा न, जब वह मजदूरी करेगा और उसे उसकी मजदूरी का मेहनताना मिलेगा।" वालिया साहब बोले। फिर एक क्षण रुक कर उन्होंने पंजाबी में भारती साहब से कहा - "आपने बताया था न कि जस्टिस साहब ने विजय पाकेट बुक्स की एप्लीकेशन के जवाब में कहा था कि एक लेखक कभी ट्रेडमार्क नहीं हो सकता।"

"हाँ...।" भारती साहब बोले। 

"तो पक्की बात है, विजय बाबू ने एप्लीकेशन ही गलत डलवाई होगी।" वालिया साहब ने कहा - "विजय पाकेट बुक्स की ओर से एप्लीकेशन यह डाली गई होगी कि राजहंस लेखक उनका ट्रेडमार्क है। तो कोर्ट ने फैसला दे दिया कि एक लेखक कभी ट्रेडमार्क नहीं हो सकता।"

"तेरा मतलब है.... " भारती साहब कुछ कहने ही जा रहे थे कि वालिया साहब उनकी बात काटते हुए बोले - "मेरा मतलब है - ट्रेडमार्क और नाम व्यापारी अपने 'गुड्स' के लिए, सामान के लिए रखते हैं। जैसे 'लक्स' एक साबुन है। साबुन 'लक्स' के नाम से बेचने के लिए लक्स बनाने वालों ने उसका नाम एक विशेष स्टाइल से लिखवाया, फिर उसे ट्रेडमार्क के रूप में रजिस्टर्ड करवा लिया। अब 'लक्स' का नाम लिखने का स्टाइल उसका ट्रेडमार्क है और ट्रेडमार्क के साथ लक्स का नाम रजिस्टर्ड है तो कोई और साबुन कम्पनी 'लक्स' नाम से साबुन नहीं बेच सकती।"

"तो राजहंस...।" भारती साहब ने फिर कुछ कहना चाहा तो वालिया साहब फिर उनकी बात काटते हुए बोले -

"विजय पाकेट बुक्स ने राजहंस नाम रजिस्टर्ड करवाया है - अपने पब्लिकेशन का सामान बेचने के लिए। 'सामान' - जो 'उपन्यास' है, वह प्रकाशक का सामान है, लेकिन जब उसमें लेखक का नाम जुड़ गया तो वह सामान कहाँ रह गया। वह तो लेखक का उपन्यास हो गया और कोर्ट का फैसला सही है कि एक लेखक कभी ट्रेडमार्क नहीं हो सकता। 'राजहंस' एक नाम प्रकाशक की वस्तु, जो कि उपन्यास है, बेचने के लिए ट्रेडमार्क हो सकता है। लेकिन राजहंस लेखक ट्रेडमार्क कैसे हो सकता है। लेखक कोई सामान नहीं है। कोई वस्तु नहीं है।"

"सही गल्ल है।" भारती साहब ने सिर हिलाया। साथ की कुर्सी पर बैठे वकील ने प्रशंसात्मक नज़रों से वालिया साहब को देखा - "आपको तो वकील होना चाहिए था।"

"फिर आपका क्या होता?" वालिया साहब उस वकील से बोले । एक ठहाका लगा, जिसमें वह वकील और भारती साहब दोनों शामिल थे, पर मैं बस, मुस्कुरा कर रह गया। 

उसके बाद भारती साहब का वह वकील दोस्त वहाँ रखी उनकी किताबें लेकर चला गया। 

भारती साहब यशपाल वालिया से बोले - "तेरी बात में दम है। तू यह बात विजय और मरवाहा साहब के सामने करियो।"

उसके बाद काफी देर तक राज भारती जी और यशपाल वालिया विजय पाकेट बुक्स और राजहंस के मुकदमे में अगली करवट क्या-क्या हो सकती हैं, इसकी अटकलें लगाते रहे। इस बीच भारती साहब ने कई सिगरेटें फूँक  दीं, जबकि वालिया साहब एक में ही सुट्टे मारकर ठहर गये थे। मुझसे भी वालिया साहब ने पूछा था। पर मैंने मना कर दिया, क्योंकि उस दिन मेरी तबियत ढीली थी। पिछली रात दमे से परेशान रहा था। दवाएँ और स्टीम लेने से सुबह तक ठीक हो गया था। आप में से कई लोग सोचते होंगे कि जब मुझे दमा था और मैं जानता था कि दमे में सिगरेट हानिकारक है तो सिगरेट पीता ही क्यों था। तो कभी इस बारे में भी खुलकर बताऊँगा। पर वो किस्सा फिर कभी...?

वालिया साहब और भारती साहब की बातों में ब्रेक लगा तो मैंने भारती साहब से कहा -"गुरु जी, एक बात बताओ।"

"क्या...?" भारती साहब ने पूछा। 

"विजय जी को मेरे शक्तिनगर मनोज पाकेट बुक्स में जाने और फिर वहाँ से राज और गौरी भाई के साथ दरीबा कलां जाने की बात कैसे पता चली थी?"

"तू अभी तक उसी बात से परेशान है?" भारती साहब हँसे - "मामूली सी बात है। विजय के यहाँ के पैकर का रिश्ते का भाई मनोज पाकेट बुक्स में काम करता है। दोनों का घर साथ साथ है। तो मनोज पाकेट बुक्स में काम करने वाले ने विजय पाकेट बुक्स में काम करने वाले को बताया कि योगेश मित्तल आये थे और मालिकों के साथ ही कार में दरीबे गये थे, बस विजय पाकेट बुक्स के पैकर ने उन्हें यह बात बता दी। यह सोचकर कि विजय बाबू खुश होंगे। ये वर्कर भी तो जानते हैं न कि विजय और मनोज में लफड़ा चल रहा है।"

मैं गहरी साँस  लेकर रह गया। यह मामूली सी बात थी, मगर इसने कई दिनों से मुझे परेशान कर रखा था। 

अब एक खास बात उन सभी को बता दूँ, जिन लोगों को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जब हाईकोर्ट ने यह कह दिया कि एक लेखक ट्रेडमार्क नहीं हो सकता तो भिन्न भिन्न प्रकाशक ट्रेडमार्क लेखक को कैसे छाप रहे हैं। 
वे इस बात को समझें कि एक प्रकाशक जब ट्रेडमार्क के अन्तर्गत कोई उपन्यास बेचता है, वह प्रकाशक के लिए उसका 'सामान' होता है। पाठक के लिए वह उपन्यास ही होता है। होता तो प्रकाशक के लिए भी उपन्यास ही है, लेकिन वह उपन्यास प्रकाशक का सामान है, इसीलिए आज भी प्रकाशकों के ट्रेडमार्क चल रहे हैं।

मेरी समझ में तो यही बात आती है कि किसी भी ट्रेडमार्क के अन्तर्गत प्रकाशक अपना सामान बेच रहा होता है। वह सामान किसी लेखक का उपन्यास बेशक हो, प्रकाशक के ट्रेडमार्क के अन्तर्गत वह उसका सामान है। 

जब तक सरकार ऐसा कोई कानून नहीं लाती कि किसी प्रकाशन संस्था का कोई ट्रेडमार्क रजिस्टर्ड नहीं किया जायेगा, ट्रेडमार्क के रूप में नये नये लेखक जन्म लेते रह सकते हैं। और सरकार के लिए कोई भी बन्दिश लगाना इस लिए सम्भव नहीं, क्योंकि पुस्तक प्रकाशन भी एक व्यवसाय तो है ही और किसी एक व्यवसाय के लिए वे नियम कैसे बदले जा सकते हैं, जो अन्य व्यवसायों पर लागू होते हों। 

विदेशों में भी ट्रेडमार्क सिस्टम ऐसे ही चल रहा है। भारत में तो विदेशों की नकल के रूप ट्रेडमार्क सिस्टम का जन्म हुआ है, वरना यहाँ पहले सिर्फ उपन्यास पत्रिकाएँ छपती थीं। जैसे - फरेबी दुनिया, डबल जासूस, खूनी पंजा, भयानक दुनिया, रूपसी, रहस्य, रोमांच, जासूसी दुनिया, तिलस्मी दुनिया, दोषी, गुप्तचर, जासूसी फंदा आदि। 
इन पत्रिकाओं में भी आम तौर पर लिखने वाले नियमित रूप से लगे-बंधे लेखक होते थे। बदलाव बहुत कम होता था। 

यदि मुझसे कोई पूछे कि इन्टरनेट और ई-बुक्स के जमाने में पुस्तक प्रकाशन पर असर पड़ेगा तो मैं समझता हूँ। ई-बुक्स का भारत में नया-नया चलन है, लेकिन भविष्य फिर से करवट लेगा। कागजी किताबें और प्रकाशन जगत में फिर से उबाल आयेगा। ई-बुक्स से जंगली घास की तरह बेशुमार लेखक अवश्य पैदा हो जायेंगे, लेकिन क्वालिटी लेखन बहुत ज्यादा सामने नहीं आ सकेगा। 

फिर मोबाइल या कम्प्यूटर पर पढ़ना आँखों के लिए तो घातक होगा ही, सिरदर्द और माइग्रेन के मरीज़ों की संख्या भी बढ़ायेगा। 

उस रोज मैं और यशपाल वालिया डेढ़ बजे पटेलनगर से वापस चल दिये। घर पहुँच लंच करने के बाद मैं आराम करने लगा।

अगले कुछ दिन मेरा घर से निकलना सम्भव नहीं हुआ। अचानक दमे का प्रकोप बढ़ गया था। फिर कई दिन बिस्तर पर ही रहा। वालिया साहब रोज दिन में एक बार जरूर आते और कम्पलीट रेस्ट करने की सलाह देकर चले जाते। भारती साहब भी एक दिन छोड़कर आते रहे, पर वह हमेशा शाम को ही आते रहे। 

ठीक होने में काफी दिन लग गये। काफी दिन बाद मैं सुबह आठ बजे के लगभग घर से निकला और सीधा वालिया साहब के घर गया। 

मुझे देखते ही वालिया साहब ने मीना भाभी से कहा - "एक आमलेट योगेश जी के लिए भी।"

आज के जमाने में दोस्तों के साथ कितना अपनापन होता है, पता नहीं, लेकिन तब बिमल चटर्जी, अशीत चटर्जी, अरुण कुमार शर्मा, राज भारती, एस. सी. बेदी, यशपाल वालिया और एन. एस. धम्मी, सभी के घर मुझे बेपनाह प्यार और अपनापन मिला था। 

भाभी जी ने मुझसे कहा - "योगेश जी, आप बहुत कमजोर हो, हड्डी-हड्डी नज़र आती है, आप अण्डे रोज खाया कीजिये।"

मैं कुछ नहीं बोला। ऐसा ही मुझसे किसी समय बिमल चटर्जी कहते रहते थे। बल्कि मुझे पूरी तरह नानवेजिटेरियन दरअसल बिमल चटर्जी ने ही बनाया था। 

नाश्ते के बाद वालिया साहब ने पूछा - "अब तबियत पूरी तरह ठीक है?"

"हाँ, फर्स्ट क्लास...।" मैंने कहा। 

"घर पर बोलकर आये हो ना...?" 

"हाँ....।"

"वापसी की जल्दी तो नहीं है?"

"नहीं...।"

"तो फिर चलें....?"

"कहाँ...?"

"हाईकोर्ट...।"

"हाईकोर्ट...।" मैं बुरी तरह चौंका और याद आया कि आज तो राजहंस और विजय पाकेट बुक्स के मुकदमे की तारीख है। तुरन्त मैं बोला -"हाँ, चलते हैं ना...।"

पहले हम बस से ही पटेलनगर गये। वहाँ भारती साहब पहले से ही तैयार थे। 

समय से पहले ही हम हाईकोर्ट पहुँच गये। वहाँ विजय कुमार मलहोत्रा और उनके साथ कुछ मित्र हमसे भी पहले पहुँचे हुए थे।

मनोज पाकेट बुक्स की ओर से राजकुमार गुप्ता और गौरीशंकर गुप्ता भी थोड़ी देर बाद आ गये। उनके साथ केवलकृष्ण कालिया उर्फ राजहंस भी थे। 

हिन्द पाकेट बुक्स के नुमाइन्दे और उनके वकील एडवोकेट सरदार अनूपसिंह थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल में आये। सबसे आखिर में विजय पाकेट बुक्स के वकील एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा और अशोक मरवाहा आये। 

आते ही अशोक मरवाहा विजय कुमार मलहोत्रा को एक साइड में ले गये और मुकदमे के बारे में बातें करने लगे।

मुकदमे आरम्भ होने का सही वक़्त याद नहीं, लेकिन ग्यारह बजे के बाद का था। हम सभी पहले से ही अदालत की दर्शक दीर्घा में बैठ गये थे।

मैं, भारती साहब और वालिया साहब एक साथ पीछे की एक पंक्ति में बैठे थे, जबकि विजय कुमार मलहोत्रा, अपने संगी-साथियों और अशोक मरवाहा के साथ अग्रिम पंक्ति में बैठे थे। 

उस दिन सरदार अनूपसिंह और सोमनाथ मरवाहा के बीच की बहस घमासान युद्ध की तरह थी।  

उस दिन सरदार अनूपसिंह ने साबित कर दिया कि मनोज और सूरज वास्तव में मनोज पाकेट बुक्स के और कर्नल रंजीत तथा शेखर हिन्द पाकेट बुक्स के रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क हैं। इनमें एक लम्बे अर्से से मनोज और हिन्द ही पब्लिशिंग मैटर छापते आ रहे हैं। विजय पाकेट बुक्स ने मनोज व हिन्द द्वारा उपन्यासकार राजहंस का उपन्यास प्रकाशित करने की घोषणा के बाद ही व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता के कारण मनोज, सूरज शेखर और कर्नल रंजीत छापने का प्रोग्राम बनाया और देश भर के पुस्तक विक्रेताओं को सर्कुलर भेजा। सरदार अनूपसिंह ने माँग की कि विजय पाकेट बुक्स द्वारा मनोज, सूरज, शेखर और कर्नल रंजीत के उपन्यासों के प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगाया जाये। कोर्ट ने सरदार अनूपसिंह की यह माँग स्वीकार कर ली। 

अब मामला था राजहंस का। 

सरदार अनूपसिंह ने राजहंस के कई उपन्यास प्रस्तुत किये, जिनमें राजहंस का पाठकों के नाम लिखा पत्र भी था और टाइटिल बैक कवर पर फोटो भी थी। सरदार अनूपसिंह ने पुरज़ोर लहज़े और शब्दों में यह दावा किया कि राजहंस उनके क्लाइन्ट केवलकृष्ण कालिया का 'पेननेम' है। लेखक के रूप में उपनाम है। विजय पाकेट बुक्स को इस नाम का दुरूपयोग करने से रोका जाये और विजय पाकेट बुक्स द्वारा राजहंस का नाम प्रयोग करने पर प्रतिबंध लगाया जाये। 

विजय पाकेट बुक्स के एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा ने सरदार अनूपसिंह की इन दलीलों का जबरदस्त विरोध किया और बताया कि "राजहंस" वास्तव में विजय पाकेट बुक्स का रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क है और इसका उपयोग वह केवलकृष्ण कालिया के उपन्यास छापने से पहले भी करते रहे हैं। सबूत के तौर पर सोमनाथ मरवाहा ने विजय पाकेट बुक्स में  राजहंस की पहले उपन्यास से दो साल पहले प्रकाशित पाकेट बुक्स दिखाईं। 

अपना डिस्पैच रजिस्टर दिखाया, जिसमें उन किताबों की डिस्पैच की तारीख और वर्ष लिखा था। इसके बाद केवलकृष्ण कालिया के राजहंस नाम से प्रकाशित होने के डिस्पैच की तारीख भी डिस्पैच रजिस्टर में दिखाई। 

सरदार अनूपसिंह और सोमनाथ मरवाहा दोनों ही सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक़्ता थे, दोनों में जबरदस्त गर्मागर्मी वाली बहस चली। 

लेकिन उस दिन कोर्ट किसी नतीजे पर नहीं पहुँची। सुनवाई की अगली तारीख मुकर्रर कर दी गई।

अगली तारीख पर भी कुछ देर वकीलों की बहस की गहमागहमी रही। एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा ने विजय पाकेट बुक्स द्वारा विभिन्न पत्रिकाओं में राजहंस का पूरे-पूरे पेज का नियमित रूप से विज्ञापन करने की ढेरों क्लिपिंग दिखाईं। राजहंस के उपन्यास आज जिस तादाद में बिक रहे हैं, उस में विजय पाकेट बुक्स का बहुत बड़ा योगदान है, यह सोमनाथ मरवाहा जी ने साबित कर दिया। 

फिर जस्टिस महोदय ने  दोनों वकीलों को अपने चैम्बर में बुलाया। चैम्बर से निकलने के बाद दोनों वकील गम्भीर थे। 

सरदार अनूपसिंह हिन्द और मनोज वालों की तरफ मुड़ गये। 

सोमनाथ मरवाहा विजय कुमार मलहोत्रा से फुसफुस करने लगे। 

अदालत की कार्यवाही कुछ समय के लिए एडजर्न्ड कर दी गई। 

हम सब अदालत से बाहर आ गये। हमें पीछे ही खड़ा रहने को कह, भारती साहब विजय जी और एडवोकेट सोमनाथ मरवाहा की ओर बढ़ गये। 

थोड़ी देर बाद भारती साहब लौटे और बताया कि दोनों जस्टिस साहब कह रहे हैं कि वे राजहंस नाम पर 'बैन' (प्रतिबन्ध) लगा रहे हैं। ना तो विजय पाकेट बुक्स भविष्य में 'राजहंस' नाम का प्रयोग कर सकेगी और ना ही केवलकृष्ण कालिया भविष्य में 'राजहंस' नाम से अपने उपन्यास प्रकाशित नहीं करवा सकेंगे। 

यह स्थिति दोनों पार्टियों के लिये बड़ी भयंकर थी। वालिया साहब ने पूछा - "नये नाम से लिखने पर केवल को तो बहुत दिक्कत होगी। राजहंस जैसी रिस्पांस तो मिलेगी नहीं। विजय पाकेट बुक्स तो चलो, राजहंस नाम के पुराने उपन्यासों के रिप्रिन्ट करते रहेंगे।"

"उसके लिए भी कोर्ट ने एक रास्ता सुझाया है।" भारती साहब ने कहा। 

"क्या...?" वालिया साहब ने पूछा। 

"आपस में कम्प्रोमाइज़ कर लो। खुद बैठकर लफड़ा सुलझा लो तो राजहंस नाम बचा रहेगा, लेकिन कोर्ट अगर निष्पक्ष निर्णय देगी तो भविष्य में "राजहंस" नाम के प्रयोग पर हमेशा के लिए "बैन" लग जायेगा, क्योंकि अपनी अपनी जगह प्रकाशक और लेखक दोनों ही सही हैं। राजहंस नाम पर पहला हक विजय पाकेट बुक्स है, मगर राजहंस नाम के लिए खून-पसीना केवलकृष्ण कालिया ने बहाया है। किसी एक के पक्ष में निर्णय का मतलब है - दूसरे के साथ अन्याय।"

उसके बाद विजय कुमार मलहोत्रा ने हम लोगों से घर जाने को कह दिया। उन्होंने बताया कि हिन्द, मनोज और राजहंस से दोनों के वकीलों की मौजूदगी में मीटिंग करनी पड़ेगी। कोर्ट को भी कम्प्रोमाइज़ के बारे में बताना होगा। 
वालिया साहब, भारती साहब और मैं तीनों वापस लौट गये। 

उसके बाद कुछ दिन हमारा आपस में मिलना न हुआ। 

फिर एक रविवार के दिन दोपहर को वालिया साहब और भारती साहब मेरे यहाँ आये। 

वालिया साहब स्कूटर पर थे। भारती साहब उनके पीछे बैठे थे। मुझे घर से बाहर बुलाने के बाद, भारती साहब स्कूटर से उतरे और मुझसे बोले - "बैठ।"

मैं बैठ गया तो भारती साहब मेरे पीछे बैठ गये। आज की जेनरेशन के लोगों को बता दूँ - तब न तो हैलमेट जरूरी था, ना ही स्कूटर पर तीन सवारियों के बैठने पर कोई चालान था। 

वालिया साहब ने स्कूटर का रुख अपने घर की ओर मोड़ दिया। 

वालिया साहब के घर पहुँचने पर महफिल जमीं। तब भारती साहब ने बताया कि कम्प्रोमाइज़ हो गया है। कम्प्रोमाइज़ के अनुसार राजहंस और विजय पाकेट बुक्स दोनों ही राजहंस नाम का उपयोग कर सकेंगे, पर विजय पाकेट बुक्स में छपने वाले राजहंस के नये उपन्यास के पीछे कोई तस्वीर नहीं होगी। जबकि केवलकृष्ण कालिया के लिखे उपन्यासों के पीछे उसकी तस्वीर होगी। 

पर विजय पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित 'तलाश' उपन्यास पर कोर्ट ने पहले ही प्रतिबन्ध लगा रखा था और वह प्रतिबन्ध हटाने के लिए कोई एप्लीकेशन नहीं डाली गई थी, इसलिए यशपाल वालिया का लिखा "तलाश" उपन्यास बाद में यशपाल वालिया के ही "मीनू वालिया" नाम से रिलीज़ किया। 

बाद में विजय पाकेट बुक्स से राजहंस के कई उपन्यास प्रकाशित किये गये, जो कि हरविन्दर या यशपाल वालिया अथवा किसी अन्य के लिखे हुए थे, पर उनमें से किसी में भी बैक कवर पर केवलकृष्ण कालिया की फोटो नहीं थी। 

हमारे देश के पाठकों में अगर बहुत से बेवकूफ होते हैं तो अक्लमंद पाठकों की भी कमी नहीं। राजहंस पढ़ने वाले पाठक निश्चय ही अक्लमंदों की श्रेणी के थे। उन्हें विजय पाकेट बुक्स के उपन्यासों के बैक कवर पर केवलकृष्ण कालिया की तस्वीर न होने की वजह से जल्दी ही समझ में आने लगा कि वे उपन्यास उनके राजहंस के नहीं हैं। असली राजहंस के नहीं हैं। अत: विजय पाकेट बुक्स के राजहंस की 'सेल' घटने लगी। 

और फिर कलर टीवी और बढ़ते चैनल्स ने पुस्तक व्यवसाय की पीठ पर ऐसा करारा डण्डा मारा कि आज तक पाकेट बुक्स व्यवसाय अपनी अर्थी सम्भाले खिसक रहा है या घिसट रहा है। 

(समाप्त) 

‼️योगेश मित्तल‼️

6 टिप्‍पणियां:

  1. इस लेखमाला से अनमोल सूचनाएं प्राप्त हुईं और बहुत कुछ सीखने को मिला। कारोबार, कारोबारी ताल्लुकात और ज़ाती रिश्तों की बाबत तो यह लेखमाला एक बेमिसाल गाइड है। इसके संपूर्ण पारायण के उपरांत मैं यही प्रतिक्रिया दे सकता हूं मित्तल जी की जो निष्ठा एवं परिश्रम से युक्त जीवन आपने जिया है, वह किसी भी क्षेत्र में कार्यरत अथवा करियर बनाने के इच्छुक व्यक्तियों हेतु एक आदर्श है।

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    1. बहुत-बहुत शुक्रिया !
      आपके कमेंट्स प्रेरणादायी हैं !
      बेशक मैंने बहुत सारे नोट नहीं कमाए, लेकिन बिना रुके अनवरत लेखन, (उपन्यास, कहानी, लेख) सम्पादन, प्रूफरीडिंग, पेजसेटिंग सभी काम किये और खुद को मस्त और व्यस्त रखा! इसका सबसे बड़ा फायदा यह रहा कि लोगों का सिर्फ भला ही भला किया ! ट्रेड में एक भी व्यक्ति ऐसा मिलना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है, जो मेरी तारीफ़ न करे ! बुराई करने वाला ढूंढ पाना तो बहुत मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव है !
      दुआ दीजिये और कीजिये कि भविष्य में भी मुझसे कभी कुछ गलत न हो !
      जय श्रीकृष्ण !

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  2. वांछित जानकारी हेतु धन्यवाद।राजहंस के बाद के जीवन के संबंध में भी अवगत करावें।

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    1. अपने साथ की मुलाकातों और उनमें होने वाली बातचीत का विवरण तो सहजता से बताया जा सकता है! व्यक्ति के जीवन की व्यक्तिगत बातों का खुलासा मुश्किल है! और काफी कुछ अनजाना रह जाये, कभी कभी यही अच्छा रहता है!

      जय श्रीकृष्ण!

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  3. मैं उनकी विशिष्ट लेखन शैली से प्रभावित होने के कारण उनके सार्वजनिक जीवन के विषय में अवगत होना चाहता था।न

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  4. इस संदर्भ में मैंने साहित्य देश से संबंधित श्री गुरप्रीत सिंह जी से भी जिज्ञासा व्यक्त की है।उन्होंने भी आपका ही हवाला दिया।

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